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अलंकार

                          अलंकार किसे कहते हैं?                 


अलंकार की परिभाषा-जिस प्रकार शरीर की शोभा बढ़ाने के लिए आभूषण धारण किए जाते हैं उसी प्रकार काव्य की शोभा वृद्धि के लिए प्रयुक्त तत्व ही अलंकार कहे जाते हैं।

आचार्य दंडी ने भी कहा है-"काव्य शोभाकारान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते।"अर्थात काव्य की शोभा बढ़ाने वाले शब्द ही अलंकार हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल भी अलंकारों को काव्य में प्रस्तुत भाव को उत्कर्ष देने वाला मानते हैं।

अलंकार के भेद-

अलंकार द्वारा काव्य में चमत्कार का प्रदर्शन शब्द पर अथवा अर्थ पर आधारित होता है अतः अलंकारों के दो प्रमुख भेद हैं।

1. शब्दालंकार

2. अर्थालंकार 

1. जहां चमत्कार कविता में प्रयुक्त शब्द पर आधारित होता है।वहां शब्द अलंकार होता है।यदि प्रयुक्त शब्दों को हटाकर उनका कोई पर्यायवाची रख दिया जाए तो चमत्कार समाप्त हो जाता है।इस प्रकार शब्द विशेष पर आधारित होने के कारण यह शब्दालंकार कहे जाते हैं।

जैसे-

"कनक -कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।"

        या खा बौराए जग, वा पाए बौराए।"

इस पंक्ति में कनक शब्द का दो बार भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयोग करके चमत्कार उत्पन्न किया गया है।पहला कनक धतूरे के लिए तथा दूसरा स्वर्ण के लिए प्रयुक्त हुआ है।यदि यहां कनक-कनक की जगह धतूरा और स्वर्ण रख दिया जाए तो चमत्कार समाप्त हो जाएगा अतः चमत्कार शब्द कनक पर आधारित होने के कारण यह शब्दालंकार कहे जाते हैं।

2. अर्थालंकार अर्थालंकार

जहां कविता का चमत्कार या शोभा उसके अर्थ पर आधारित होता है वहां अर्थालंकार होता। वहां यदि प्रयुक्त शब्दों के स्थान पर उनके पर्यायवाची भी रख दिए जाए तो भी चमत्कार यथावत रहता है।

जैसे-

"झर रही मुख-चंद्र से, मुस्कान की है चांदनी।"इस पंक्ति को यदि इस प्रकार कहें-छिटक रही आनन मयंक से स्मिति की विधूलेखा।"तो भी चमत्कार या स्वभाव वैसे ही रहती है अतः यहां अर्थालंकार है।

           

1.अर्थालंकार 

1.अनुप्रास अलंकार

अनुप्रास अलंकार की परिभाषा

जब किसी काव्य को सुंदर बनाने के लिए किसी वर्ण की बार-बार आवृति हो तो वह अनुप्रास अलंकार कहलाता है। किसी विशेष वर्ण की आवृति से वाक्य सुनने में सुंदर लगता है।

इस अलंकार में किसी वर्ण या व्यंजन की एक बार या अनेक वणों या व्यंजनों की अनेक धार आवृत्ति होती है।

जैसे: मुदित महापति मंदिर आये। 

जैसा की आप ऊपर दिए गए उदाहरण में देख सकते हैं की ‘म’ वर्ण की आवृति हो रही है। यह आवृति वाक्य का सौंदर्य बढ़ा रही है। 

"रघुपति राघव राजा राम।"

ऊपर दिए गए उदाहरण में जैसा की आप देख सकते है हर शब्द में ‘र’ वर्ण की बार बार आवृति हुई है जिससे इस वाक्य की शोभा बढ़ती है। 

2.यमक अलंकार

यमक अलंकार की परिभाषा

जिस प्रकार अनुप्रास अलंकार में किसी एक वर्ण की आवृति होती है उसी प्रकार यमक अलंकार में किसी काव्य का सौन्दर्य बढ़ाने के लिए एक शब्द की बार-बार आवृति होती है।

प्रयोग किए गए शब्द का अर्थ हर बार अलग होता है। शब्द की दो बार आवृति होना वाक्य का यमक अलंकार के अंतर्गत आने के लिए आवश्यक है। जैसे :

यमक अलंकार के उदाहरण :

कनक कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाय। या खाए बौरात नर या पा बौराय।।

इस पद्य में ‘कनक’ शब्द का प्रयोग दो बार हुआ है। प्रथम कनक का अर्थ ‘सोना’ और दुसरे कनक का अर्थ ‘धतूरा’ है। अतः ‘कनक’ शब्द का दो बार प्रयोग और भिन्नार्थ के कारण उक्त पंक्तियों में यमक अलंकार की छटा दिखती है।

3.श्लेष अलंकार

श्लेष अलंकार की परिभाषा

श्लेष का अर्थ होता है चिपका हुआ या मिला हुआ। जब एक ही शब्द से हमें विभिन्न अर्थ मिलते हों तो उस समय श्लेष अलंकार होता है।

यानी जब किसी शब्द का प्रयोग एक बार ही किया जाता है लेकिन उससे अर्थ कई निकलते हैं तो वह श्लेष अलंकार कहलाता है। जैसे: श्लेष अलंकार के उदाहरण...

1.रहिमन पानी राखिये,बिन पानी सब सून।

पानी गये न ऊबरै, मोती मानुष चून।।

इस दोहे में रहीम ने पानी को तीन अर्थों में प्रयोग किया है :

पानी का पहला अर्थ मनुष्य के संदर्भ में है जब इसका मतलब विनम्रता से है। रहीम कह रहे हैं कि मनुष्य में हमेशा विनम्रता (पानी) होना चाहिए।

2.पानी का दूसरा अर्थ आभा, तेज या चमक से है. रहीम कहते हैं कि चमक के बिना मोती का कोई मूल्य नहीं ।

3.पानी का तीसरा अर्थ जल से है जिसे आटे (चून) से जोड़कर दर्शाया गया है। रहीम का कहना है कि जिस तरह आटे का अस्तित्व पानी के बिना नम्र नहीं हो सकता और मोती का मूल्य उसकी आभा के बिना नहीं हो सकता है, उसी तरह मनुष्य को भी अपने व्यवहार में हमेशा पानी (विनम्रता) रखना चाहिए जिसके बिना उसका मूल्यह्रास होता है। अतः यह उदाहरण श्लेष केअंतर्गत आएगा।

               

2.अर्थालंकार 
 1.उपमा अलंकार                                                   
  उपमा अलंकार की परिभाषा

जब किन्ही दो वस्तुओं के गुण, आकृति, स्वभाव आदि में समानता दिखाई जाए या दो भिन्न वस्तुओं कि तुलना कि जाए, तब वहां उपमा अलंकर होता है।

उपमा अलंकार में एक वस्तु या प्राणी कि तुलना दूसरी प्रसिद्ध वस्तु के साथ कि जाती है। जैसे :

उपमा अलंकार के उदाहरण

हरि पद कोमल कमल। 

ऊपर दिए गए उदाहरण में हरि के पैरों कि तुलना कमल के फूल से की गयी है। यहाँ पर हरि के चरणों को कमल के फूल के सामान कोमल बताया गया है। यहाँ उपमान एवं उपमेय में कोई साधारण धर्म होने की वजह से तुलना की जा रही है अतः यह उदाहरण उपमा अलंकार के अंतर्गत आएगा।

उपमा अलंकार के अंग

उपमा अलंकार के चार अंग होते हैं :

उपमेय

उपमान

साधारण धर्म, और

वाचक शब्द

उदाहरण : सागर-सा गंभीर हृदय हो, गिरी-सा ऊंचा हो जिसका मन 

उपमेय : जिस वस्तु या व्यक्ति के बारे में बात की जा रही है या जो वर्णन का विषय है वो उपमेय कहलाता है। ऊपर दिए गए उदाहरण में हृदय एवं मन उपमेय हैं।

उपमान : वाक्य या काव्य में उपमेय की जिस प्रसिद्ध वस्तु से तुलना कि जा रही हो वह उपमान कहलाता है। ऊपर दिए गए उदाहरण में सागर एवं गिरी उपमान हैं।

साधारण धर्म : साधारण धर्म उपमान ओर उपमेय में समानता का धर्म होता है। अर्थात जो गुण उपमान ओर उपमेय दोनों में हो जिससे उन दोनों कि तुलना कि जा रही है वही साधारण धर्म कहलाता है। ऊपर दिए गए उदाहरण में गंभीर एवं ऊँचा साधारण धर्म है।

वाचक शब्द : वाचक शब्द वह शब्द होता है जिसके द्वारा उपमान और उपमेय में समानता दिखाई जाती है। जैसे : सा।ऊपर दिए गए उदाहरण में ‘सा'वाचक शब्द है। 

 2.रूपक अलंकार की परिभाषा

जब गुण की अत्यंत समानता के कारण उपमेय को ही उपमान बता दिया जाए यानी उपमेय ओर उपमान में अभिन्नता दर्शायी जाए तब वह रूपक अलंकार कहलाता है।

रूपक अलंकार अर्थालंकारों में से एक है। रूपक अलंकार में उपमान और उपमेय में कोई अंतर नहीं दिखायी पड़ता है। जैसे: रूपक अलंकार के उदाहरण :

वन शारदी चन्द्रिका-चादर ओढ़े। 

दिए गए उदाहरण में जैसा कि आप देख सकते हैं चाँद की रोशनी को चादर के समान ना बताकर चादर ही बता दिया गया है। इस वाक्य में उपमेय – ‘चन्द्रिका’ है एवं उपमान – ‘चादर’ है। यहां आप देख सकते हैं की उपमान एवं उपमेय में अभिन्नता दर्शायी जा रही है। हम जानते हैं की जब अभिन्नता दर्शायी जाती ही तब वहां रूपक अलंकार होता है।

अतः यह उदाहरण रूपक अलंकार के अंतर्गत आएगा।

पायो जी मैंने राम रतन धन पायो। 

ऊपर दिए गए उदाहरण में राम रतन को ही धन बता दिया गया है। ‘राम रतन’ – उपमेय पर ‘धन’ – उपमान का आरोप है एवं दोनों में अभिन्नता है।यहां आप देख सकते हैं की उपमान एवं उपमेय में अभिन्नता दर्शायी जा रही है। हम जानते हैं की जब अभिन्नता दर्शायी जाती ही तब वहां रूपक अलंकार होता है।

3.उत्प्रेक्षा अलंकार की परिभाषा :

जब समानता होने के कारण उपमेय में उपमान के होने कि कल्पना की जाए या संभावना हो तब वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। यदि पंक्ति में -मनु, जनु, जनहु, जानो, मानहु मानो, निश्चय, ईव, ज्यों आदि आता है वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। जैसे : उत्प्रेक्षा अलंकार के उदाहरण :

ले चला साथ मैं तुझे कनक। ज्यों भिक्षुक लेकर स्वर्ण।।

ऊपर दिए गए उदाहरण में जैसा कि आप देख सकते हैं कनक का अर्थ धतुरा है। कवि कहता है कि वह धतूरे को ऐसे ले चला मानो कोई भिक्षु सोना ले जा रहा हो।

काव्यांश में ‘ज्यों’ शब्द का इस्तेमाल हो रहा है एवं कनक – उपमेय में स्वर्ण – उपमान के होने कि कल्पना हो रही है। अतएव यह उदाहरण उत्प्रेक्षा अलंकार के अंतर्गत आएगा।

सिर फट गया उसका वहीं। मानो अरुण रंग का घड़ा हो। 

दिए गए उदाहरण में सिर कि लाल रंग का घड़ा होने कि कल्पना की जा रही है। यहाँ सिर – उपमेय है एवं लाल रंग का घड़ा – उपमान है। उपमेय में उपमान के होने कि कल्पना कि जा रही है। अतएव यह उदाहरण उत्प्रेक्षा अलंकार के अंतर्गत आएगा।

4.मानवीकरण अलंकार की परिभाषा

जब प्राकृतिक वस्तुओं कैसे पेड़,पौधे बादल आदि में मानवीय भावनाओं का वर्णन हो यानी निर्जीव चीज़ों में सजीव होना दर्शाया जाए तब वहां मानवीकरण अलंकार आता है। जैसे: मानवीकरण अलंकार के उदाहरण : फूल हँसे कलियाँ मुसकाई।

जैसा कि ऊपर दिए गए उदाहरण में दिया गया है की फूल हंस रहे हैं एवं कलियाँ मुस्कुरा रही हैं। जैसा की हम जानते हैं की हंसने एवं मुस्कुराने की क्रियाएं केवल मनुष्य ही कर सकते हैं प्राकृतिक चीज़ें नहीं। ये असलियत में संभव नहीं है एवं हम यह भी जानते हैं की जब सजीव भावनाओं का वर्णन चीज़ों में किया जाता है तब यह मानवीकरण अलंकार होता है।

अतः यह उदाहरण मानवीकरण अलंकार के अंतर्गत आएगा।

मेघ आये बड़े बन-ठन के संवर के। 

ऊपर के उदाहरण में दिया गया है कि बादल बड़े सज कर आये लेकिन ये सब क्रियाएं तो मनुष्य कि होती हैं न कि बादलों की। अतएव यह उदाहरण मानवीकरण अलंकार के अंतर्गत आएगा।ये असलियत में संभव नहीं है एवं हम यह भी जानते हैं की जब सजीव भावनाओं का वर्णन चीज़ों में किया जाता है तब यह मानवीकरण अलंकार होता है।अतः यह उदाहरण मानवीकरण अलंकार के अंतर्गत आएगा।

5.अतिशयोक्ति अलंकार की परिभाषा

जब किसी वस्तु, व्यक्ति आदि का वर्णन बहुत बाधा चढ़ा कर किया जाए तब वहां अतिशयोक्ति अलंकार होता है। इस अलंकार में नामुमकिन तथ्य बोले जाते हैं। जैसे :

अतिशयोक्ति अलंकार के उदाहरण :

हनुमान की पूंछ में लगन न पाई आग, लंका सिगरी जल गई गए निशाचर भाग। 

ऊपर दिए गए उदाहरण में कहा गया है कि अभी हनुमान की पूंछ में आग लगने से पहले ही पूरी लंका जलकर राख हो गयी और सारे राक्षस भाग खड़े हुए।

यह बात बिलकुल असंभव है एवं लोक सीमा से बढ़ाकर वर्णन किया गया है। अतः यह उदाहरण अतिशयोक्ति अलंकार के अंतर्गत आएगा।

आगे नदियां पड़ी अपार घोडा कैसे उतरे पार। राणा ने सोचा इस पार तब तक चेतक था उस पार।।

ऊपर दी गयी पंक्तियों में बताया गया है कि महाराणा प्रताप के सोचने की क्रिया ख़त्म होने से पहले ही चेतक ने नदियाँ पार कर दी।

यह महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक की अतिशयोक्ति है एवं इस तथ्य को लोक सीमा से बहुत बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया गया है। अतः यह उदाहरण अतिशयोक्ति अलंकार के अंतर्गत आएगा।

धनुष उठाया ज्यों ही उसने, और चढ़ाया उस पर बाण |धरा–सिन्धु नभ काँपे सहसा, विकल हुए जीवों के प्राण।

ऊपर दिए गए वाक्यों में बताया गया है कि जैसे ही अर्जुन ने धनुष उठाया और उस पर बाण चढ़ाया तभी धरती, आसमान एवं नदियाँ कांपने लगी ओर सभी जीवों के प्राण निकलने को हो गए।


Tuesday

स्वंत्रता दिवस 2023

                          स्वतंत्रता दिवस 2023

                   

15 अगस्त सभी भारतीय नागरिकों के लिए वह विशेष दिन है जब भारत ब्रिटिश शासन के राज से मुक्त हुआ था। 15 अगस्त भारत देश का एक राष्ट्रीय पर्व है जिसे बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है।

भारत में स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई तब से शुरू हुई जब एक ब्रिटिश अधिकारी ने भारतीय क्रांतिकारी मंगल पांडे को गोली मारी, 1857 से 1947 तक यह लड़ाई चलती रही जिसके पश्चात कड़े संघर्षों के बाद से भारत को 15 अगस्त सन 1947 को गोरो के राज से आजादी मिली।

देश को आजादी दिलाने के लिए कई भारतीय क्रांतिकारी सेनानियों ने अपने बलिदान दिए है तब जाके यह आजादी भारत को मिली है।

भारत को आजादी दिलाने वाले स्वतंत्रता सेनानियों में प्रमुख रूप से :- महात्मा गांधी, मंगल पांडे, बाल गंगाधर तिलक, सुभाष चंद्र बोस, लोक मान्य तिलक, लाला लाजपत राय,चंद्रशेखर आजाद एवं खुदीराम बोस आदि शामिल थे।

आजादी की लड़ाई के लिए भारत में कई प्रकार के आंदोलन चलाये गए जिसमें से अंग्रेजो भारत छोड़ो प्रमुख था। कड़े संघर्षो और ब्रिटिश शासन से अत्याचारी सहने के बाद भारत को यह आजादी मिली है।

                  "दिन वो आज आया है

               तिरंगा खुलकर मुस्कराएगा है

              तोड़ कर पराधीनता की बेड़ियों को

              देखो ध्वज कैसे फहराया है।"

15 अगस्त के दिन हर साल भारत के प्रधानमंत्री ऐतिहासिक लाल किले पर तिरंगा फहराने के बाद देश को संबोधित करते हैं। स्कूलों व सरकारी दफ्तरों पर भी तिरंगा फहराया जाता है। राष्ट्रगान गया जाता है। हर जगह देशभक्ति के गीत सुनाई पड़ते हैं, और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है।

स्वतंत्रता दिवस पर राजधानी दिल्ली तथा सभी सरकारी भवनों को रंग बिरंगी लाइटों से सजाया जाता है स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति राष्ट्र के नाम संबोधन देते है।

देश को आजाद हुए कई दशक बीत चुके हैं और इस दौरान देश हर मोर्चे पर दुनिया भर में अपनी धाक जमा चूका है। साइंस टेक्नोलॉजी आर्थिक शिक्षा साहित्य खेल समेत तमाम मोर्चों पर भारत बहुत तरक्की कर चुका है। परमाणु क्षमता संपन्न देश भारत अंतरिक्ष के क्षेत्र में कई उपलब्धियां हासिल कर चुका है चंद्रयान-3 इसका बहुत बड़ा प्रमाण है विकास के हर क्षेत्र में भारत बहुत आगे बढ़ चुका है। आज दुनिया भारत की ओर देख रही है।15 अगस्त सभी भारतीयों के लिए सौभाग्य का दिन है।

            "सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान हमारा

             हम बुलबुले है इसके

             ये गुलसिता हमारा

            सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा।।"


Monday

प्रेमचन्द के कथा साहित्य की प्रासंगिकता

                प्रेमचन्द के कथा साहित्य की प्रासंगिकता
                            

भारतवर्ष पर दो व्यक्तित्व का गहरा प्रभाव रहा है, प्रथम गाँधी का दूसरा साहित्यकार प्रेमचंद का। ये दोनों दो अलग-अलग क्षेत्र् के सरताज होते हुए भी एक दूसरे से जुडे हुए रहे हैं। गाँधी को यह देश राष्ट्रपिता कहता है, तो प्रेमचन्द को ‘उपन्यास सम्राट’ कह कर सम्मानित करता है। गाँधी का महत्त्व इस देश की राजनीति पर जितना रहा है, उससे अधिक सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक परिवेश पर भी पडता है। इस अर्थ में प्रेमचन्द के कथा साहित्य पर गाँधीवाद का प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता है। हिन्दी साहित्य पर प्रेमचन्द का वैसा ही प्रभाव रहा है जिस तरह से उस दौर में गाँधी का रहा है। प्रेमचन्द ने हिन्दी कथा साहित्य को निश्चित दिशा दी है। प्रेमचन्द आज भी उतने ही प्रासंगिक है जितने अपने दौर में रहे हैं, बल्कि किसान जीवन की उनकी पकड और समझ को देखते हुए उनकी प्रासंगिकता और अधिक बढ जाती है। किसान की दृष्टि से उनकी पकड और समझ को देखते हुए उनकी प्रासंगिकता और अधिक बढ जाती है। किसान की दृष्टि से अगर प्रेमचन्द के कथा साहित्य को यदि पुनः देखा जाए तो कई अर्थों में प्रेमचन्द गाँधी से भी आगे की सोच रखते हुए दिखाई देते हैं। किसान जीवन के यथार्थवादी चित्र्ण में प्रेमचन्द हिन्दी साहित्य में अनूठे और लाजवाब रचनाकार रहे हैं।
प्रेमचंद की आलोचनात्मक पडताल करने वाले नंद दुलारे वाजपेयी भी जब उनके कथा साहित्य के महत्त्व पर विचार करते हैं, तब वे उनकी तुलना तोल्सतोय से करते हुए नजर आते हैं तो आज के रचनाकार रमेश उपाध्याय, प्रेमचन्द को अपने लिए प्रेरक मानते हैं। असगर वजाहत हो या अखिलेश ‘कफन’ कहानी को महत्त्वपूर्ण बताते हैं तो ममता कालिया आज के संदर्भ में ‘सवा सेर गेहूँ’ को महत्त्वपूर्ण मानती हैं।’सारे विवादों, असहमतियों के बावजूद रचनाकार कुछ कारणों से कालातीत होता है, तभी तुलसीदास, कबीरदास और प्रेमचन्द आज भी हमें प्रासंगिक लगते हैं। गहरी अंतर्दृष्टि के जरिए वे सामाजिक व्यवस्था को चित्र्ति करने में सिद्धहस्त रहे हैं। प्रेमचन्द हमें आज और अधिक प्रासंगिक किसान जीवन के संदर्भ में भी लगते हैं। प्रेमचन्द का जितना विरोध आज हो रहा है उससे अधिक अपने जीवन काल में भी हुआ था। उन्हें गाँधीवादी, आदर्शवादी और माक्र्सवादी कहा जाता रहा है, जबकि वे सही अर्थों में देखा जाए तो किसान जीवन के चितेरे होने के कारण आज भी हमें उतने ही नवीन लगते हैं, जितने कल थे। 
प्रेमचन्द का कथा साहित्य जितना समकालीन परिस्थितियों पर खरा उतरता है,उतना ही बहुत हद तक आज भी दिखाई देता है। भले ही देश आजाद है पर महिलाओं, दलितों और किसानों की स्थितियों में बहुत कुछ वैसा ही अन्याय और शोषण दिखाई देता है। उनकी रचनाओं में गरीब श्रमिक, किसान और स्त्री जीवन का सशक्त चित्र्ण उनकी दर्जनों कहानियों और उपन्यासों में हुआ है, ‘सद्गति’, ‘कफन’, ‘पूस की रात’ और ‘गोदान’ में मिलता है। ‘रंगभूमि’, ‘प्रेमाश्रम’ और ‘गोदान’ के किसान आज भी गाँवों में देखे जा सकते हैं जो वैसे ही ऋणग्रस्त और शोषण का शिकार जिस तरह होरी रहा है। जो गाय जैसी महत्त्वाकांक्षा को साथ लिये हुए इस दुनिया से कूच कर जाते हैं। ‘सेवासदन’ की सुमन की तरह कोठे पर बैठने का सिलसिला आज भी बंद नहीं हुआ है। ‘गबन’ उपन्यास का रमानाथ हैसियत से अधिक दिखने की लालसा में सरकारी धन का घपला करता है। प्रेमचन्द के कथा साहित्य में भारतीय समाज के सभी वर्गों, भारतीय जीवन के सभी पक्षों और भारतीय मनुष्य के सभी रूपों का चित्र्ण किया है। उतना दूसरे किसी भारतीय लेखक में शायद ही मिले। उनका रचनात्मक संदर्भ यूरोपीय उपन्यासों से भी भिन्न रहा है। 
प्रेमचन्द जिस दौर में रचनारत थे, उस समय विश्व स्तर पर लू-शुन और मैक्सिम गोर्की भी लेखनी चला रहे थे। इनके अलावा सम्पन्न देशों में साहित्य की स्थिति को कॉडवेल के शब्दों में, ‘मरणासन्न संस्कृति ही कही जा सकती है।’ उस समय प्रेमचन्द गुलामी से लडती जनता को अभिव्यक्त कर रहे थे तो चीन के लू-शुन भी। ये दोनों अपनी मुक्ति, राष्ट्रीय मुक्ति और संघर्षरत जनता के लेखक रहे हैं। लेकिन लू-शुन केवल कहानियाँ ही लिखते हैं, प्रेमचन्द कहानियों के अलावा उपन्यास भी लिखते हैं। तब जब दुनिया में उपन्यास मर रहा था ऐसे दौर में प्रेमचन्द ने कथा साहित्य के इस रूप को अपनी ऊँचाई तक पहुँचाकर ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि हासिल की हैं। बंगाल के शरतचन्द्र और रवीन्द्रनाथ के ‘गोरा’, ‘श्रीकांत’ की तुलना प्रेमचन्द के ‘प्रेमाश्रम’ और ‘गोदान’ से करने पर वे अनूठे रचनाकार नजर आते हैं। प्रेमचन्द देश की विशाल जनता, खेतिहर देश के श्रमिक और किसानों की महागाथा लिखने वाले भारतीय साहित्यकार रहे हैं। प्रेमचन्द के कई प्रेरक रहे हैं। उन पर तोल्सताय का प्रभाव किसान जीवन पर लिखने से रहा है। आश्चर्य है कि तोल्सताय का लेखन जहाँ रूकता है, वहाँ से प्रेमचन्द शुरुआत करते हुए लगते हैं। लेकिन दोनों में बहुत बडा अंतर भी दिखाई देता है, तोल्सताय अंतर्विरोधग्रस्त लगते हैं, प्रेमचन्द नहीं। वे अंतिम समय में चर्च के पादरी अधिक लगने लगते हैं। प्रेमचन्द भले ही आर्य समाज से शुरुआत करते हैं पर लगातार क्रांति की दिशा में अग्रसर होते हैं। गोर्की भी अंतिम समय में ईश्वर की तलाश में भटकते नजर आते हैं। ‘प्रेमचन्द कभी भी ईश्वर से इतने परेशान नहीं थे, जितने गोर्की रहे होंगे।’
प्रेमचन्द के कथा साहित्य की प्रासंगिकता को कई तरह से देखा जा सकता है। इस अर्थ में प्रेमचन्द हमारे लिए चुनौती है कि हम उन्हें कितना कम जानते हैं। रमेश उपाध्याय लिखते हैं कि जब भी मैं उनको पढता हूँ, वे आज भी उतने ही नये लगते हैं। कमलकिशोर गोयनका उनको चुनौती देते हैं जो मानकर चलते हैं कि प्रेमचन्द पर बहुत काम हो चुका है। वे आज भी इस लेखक पर कई तरह से काम करने की जरूरत महसूस करते हैं। अभी भी प्रेमचन्द की रचनाओं की समग्र कालक्रमानुसार सूची नहीं बन सकी है। इस कमी के कारण गलत तथ्य, गलत निष्कर्ष दिये जाते हैं। नन्द दुलारे वाजपेयी, डॉ. मदान और रामविलास शर्मा तक के यहाँ भी गलत तिथियाँ देखी गई है।प्रेमचन्द पर गाँधीवादी प्रभाव को लेकर असमंजस, अंतविर्रोध और अस्पष्टता का कोहरा आज भी पूरी तरह से छंट नहीं सका है। प्रेमचन्द पर गाँधीवाद का प्रभाव आज तक चर्चा में है। 
देश की राजनीति पर एक मात्र् गाँधी का वर्चस्व था। गाँधी ने आजादी की लडाई को सुचिंतित दिशा प्रदान की थी। राजनीति में राष्ट्रीय चरित्र् निर्माण का जैसा काम गाँधी ने किया वैसा साहित्य में प्रेमचन्द ने किया है। डॉ. बच्चन सिंह व प्रो. केसरी कुमार प्रेमचन्द को गाँधीवाद के प्रतिनिधि लेखक मानते हैं। वे हिन्दी साहित्य को प्रेमचन्द का केवल इसलिए ऋणी नहीं मानते कि स्वदेशी आंदोलन व अछूतोद्धार को गाँव-गाँव पहुँचाया, क्योंकि ये सारे काम करने वाले गाँधी रहे हैं। क्या प्रेमचन्द गाँधी के भक्त थे ? ऐसे ढेरों सवाल आज भी मुंह बाये खडे मिलते हैं। शिवरानी देवी ने ‘प्रेमचंद घर में’ पुस्तक में जो लिखा है, उनमें से एक घटना उल्लेखनीय है। प्रेमचन्द गाँधी जी से वर्धा से मिलकर लौटते हैं। बात ही बात में गाँधी जी की प्रशंसा सुनकर शिवरानी ने साफ शब्दों में कह बैठती है, ‘‘तुम गाँधी के चेला होकर लौटे हो !’’ प्रेमचन्द ने बताया जो बात वे कह रहे हैं, वह मैं ‘प्रेमाश्रम’ में किसानों के बारे में पहले से ही लिखता चला आ रहा हूँ और गाँधी भी तो यही कह रहे हैं।4 इस उद्धरण से विचारकों ने मान लिया कि प्रेमचन्द गाँधीवादी थे। प्रगतिशील उन्हें माक्र्सवादी साबित करने में लग रहे हैं। दरअसल हिन्दी साहित्य में गाँधीवादी, प्रेमचन्द के बजाए जैनेन्द्र कहे जा सकते हैं। 
प्रेमचन्द पर गाँधीवाद का प्रभाव वैसे ही था जिस तरह तोल्सताय का रहा है। प्रेमचन्द की कई बातों पर गाँधी से असहमतियाँ रही है। जिन किसानों की अहम् भूमिका गाँधी के आंदोलन में रही है, वे प्रेमचन्द की रचनाओं में भी प्रमुख रूप से दिखाई देते हैं। किसान एक ऐसी कडी रही है जिससे ये दोनों अलग-अलग क्षेत्र् के व्यक्तित्व समान रूप से जुडे हुए दिखाई देते हैं। गाँधी के यहाँ किसान कठपुतली की तरह है तो प्रेमचन्द के यहाँ आजाद है। अगर किसान जमींदार के खिलाफ, मजदूर पूँजीपति के खिलाफ खडे होते तो गाँधी उन्हें तुरन्त रोक देते हैं। गाँधी के यहाँ किसान की जो स्थिति रही है वही प्रेमचन्द के यहाँ नहीं थी। इससे यह साबित होता है कि प्रेमचन्द न गाँधीवादी थे और न ही उनके अंधभक्त थे। प्रेमचन्द के उपन्यास और कहानियों में किसान-जमींदार की टकराहटें खूब सुनाई देती हैं। प्रेमचन्द गाँधीवाद के प्रचारक मात्र् नहीं थे और न ही गाँधी के सत्याग्रह की वकालत ही करने वाले थे। नामवर सिंह स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं, ‘प्रेमचन्द के साहित्य में केवल गाँधीवाद की गहरी छाप देखना गाँधी जी के समस्त विचारों की छाया देखना और यह कहना कि अंत में न सही तो आरम्भिक दिनों में वे गाँधीवादी थे ही, सरासर गलत है, ज्यादती है।’नामवर सिंह गाँधी के प्रभाव को सिरे से ही नकार रहे हैं तो दूसरी तरफ बच्चन सिंह की राय अधिक सच लगती है, ‘प्रेमचन्द गाँधीवाद से प्रभावित थे। उनका आरम्भिक उपन्यास, ‘प्रेमाश्रम’ गाँधीवाद के प्रभाव में ही लिखा गया था। हृदय परिवर्तन द्वारा रामराज्य स्थापना करना इनका ध्येय रहा था। उन पर गाँधी की कार्यप्रणाली, जीवन दर्शन और व्यक्तित्व के प्रति प्रेमचन्द की गहरी श्रद्धा रही है। यह प्रभाव प्रारम्भिक रचनाओें में अधिक दिखाई देता है जो गोदान तक आते-आते मुक्त होने लगते हैं।’ यह सही है कि प्रेमचन्द पर गाँधीवाद का प्रभाव रहा है पर आरम्भिक दौर में जैसा जितना प्रभाव होता है, वैसा बाद तक नहीं रह पाता है। 
स्वाधीनता संग्राम में किसानों की भूमिका को राजनीति में समझने वाले पहले गाँधी थे जो साहित्य में प्रेमचन्द कहे जा सकते हैं। जबकि किसान की भूमिका को राजनीति में साम्यवादी भी नहीं समझ सके थे। किसान के महत्त्व को दोनों ने अपनी- अपनी तरह से समझा था और आगे चलकर दोनों के रास्ते भी अलग हो जाते हैं, क्योंकि गाँधी किसान को जमींदारों के विरोध में जाने से रोकते हैं। पर प्रेमचन्द के कथा साहित्य में प्रमुख रूप से किसानों का संघर्ष जमींदारों, साहूकारों और पटवारियों से होता है। गाँधी के लिए आजादी के आंदोलन म जितनी आवश्यकता किसान की थी उतनी ही जमींदारों, पूँजीपतियों की भी होती है। वे आंदोलन में सबको साथ लेकर चलना चाहते थे। ऐसी किसी तरह की मजबूरी रचनाकार के नाते प्रेमचन्द की नहीं थी, जैसे राजनीति में गाँधी की रही है। गाँधी के स्वराज्य में रामराज्य की परिकल्पना निहित होती है, जबकि प्रेमचन्द का स्वराज अलग तरह का रहा है। प्रेमचन्द गाँधी की आध्यात्मिकता और रहस्यवादिता की धारणा से मुक्त रहे हैं। देश की सत्तर फीसदी आबादी किसान को वास्तविकता में समझने वाले पहले रचनाकार साबित होते हैं। किसान जीवन से जुडा आधुनिक महाकाव्य लिखते हैं। वे एक तरफ किसान आंदोलन से जुडा ‘प्रेमाश्रम’ (1922) लिखते हैं, जिसमें किसान जमींदार के खिलाफ तनकर खडे मिलते हैं तो दूसरी तरफ ‘रंगभूमि’ (1924) का सूरदास छोटी-सी जमीन का मालिक होते हुए भी पूँजीपति से सीधा संघर्ष करता है। ‘कर्मभूमि’ (1932) ‘प्रेमाश्रम’ की अगली कडी के रूप में हैं। इसमें किसान के अलावा छात्र्, मजदूर, हिन्दू, मुसलमान, गरीब-अमीर सभी लोग हैं। ‘गोदान’ (1936) में आते-आते भारतीय किसान की दयनीय व वास्तविक स्थिति से सीधा साक्षात्कार होता है। 
भारतीय उपन्यास साहित्य में किसान जीवन के यथार्थवादी चित्र्ण की परम्परा को फकीर मोहन सेनापति के बाद प्रेमचन्द ने विकसित किया है। ‘भारतीय उपन्यास और प्रेमचन्द’ पर मैनेजर पाण्डेय विचार करते हुए लिखते हैं, ‘प्रेमचन्द के कथा साहित्य में मध्यवर्ग भी है, लेकिन केन्द्रीय स्थिति किसान-जनता की ही है। यहाँ किसानों का जीवन संघर्ष ही केन्द्रीय विषय है। किसान जिस शोषण के शिकार थे, उस शोषण के पेचीदा तंत्र्, उसकी जटिल प्रक्रिया और उसकी भयानक परिणति का चित्र्ण प्रेमचन्द ने किया है।7 इनके कथा साहित्य के लगभग सभी नायक किसान ही रहे हैं। किसान जीवन के विभिन्न रूप, जीवन संघर्ष और मुक्ति संघर्ष में लगे किसान के विभिन्न रूप दिखाई देते हैं। इनके यहाँ किसान जीवन समग्रता म चित्र्ति होता है। कथा साहित्य में किसान को केन्द्र में रखकर उनकी वास्तविकता और आकांक्षाओं का कलात्मक चित्र्ण कर उपन्यास की विशिष्ट यथार्थवपादी परम्परा का निर्माण किया है। उनका किसानों से प्रेम और सहानुभूति साफ दिखाई देती है, जब किसान संघर्ष करते हुए हारने के बावजूद जीतते हैं और सामंतवाद हारता है। उनकी रचनाओं को किसान जीवन का ‘ट्रैजिक महाकाव्य’ कह सकते हैं। इस ट्रैजिक स्थिति का ‘रंगभूमि’ में कलात्मक स्तर प्रकट होता है तो ‘गोदान’ कला का चरमोत्कर्ष है। प्रेमचन्द के हाथों हिन्दी उपन्यास की ‘कर्मभूमि’ ही नहीं बदलती, बल्कि उसका ‘कायाकल्प’ भी होता है। ‘गोदान’ उपन्यास किसान जीवन का मर्मस्पर्शी, करुण और त्रसद दस्तावेज बन जाता है। प्रेमचन्द के कथा साहित्य में जीवनानुसार भाषा का प्रयोग हुआ है। हर वर्ग, जातियों की सांस्कृतिक जडें उसकी भाषा में निहित होती है। मालती-मेहता, रमानाथ और देवीदीन खटीक और होरी-धनिया की किसान संस्कृति की भाषा अलग दिखाई देती है। सही कहते हैं मैनेजर पाण्डेय कि ‘शेखर एक जीवनी के शिल्प और भाषा में ‘गोदान’ नहीं लिखा जा सकता है।’ होरी की भाषा में शेखर का द्वंद्व नहीं आ सकता है, ठीक वैसे ही किसानों आदिवासियों और दलित समुदाय की अभिव्यक्ति के लिए भारतीय जनजीवन की भाषा और बोली का रचनात्मक प्रयोग हुआ है। लोक से जुडी अनुभूति दलित से लेकर आदिवासी तक की परम्परा भारतीय कथा साहित्य में रही है। बंगला की महाश्वेता देवी से लेकर गोपीनाथ महंती तक यह परम्परा जाती है। किसान, आदिवासी और दलित जीवन भारतीय आमजन रहा है। 
किसी रचनाकार की प्रासंगिकता इस बात में भी है कि वे सार्वकालिक होते हैं जो रचनाकार की जीवंतता ही है। गाँधी का हरिजन व अछूतोद्धार और प्रेमचंद का दलित पात्रें पर कलम चलाना आज बहस में है। फिर भी वे दलित पर कलम चलाने से एक नयी बहस के घेरे में हैं। सही लिखते हैं गोयनका जी की प्रेमचन्द पर शोध होना आज भी जरूरी है प्रेमचंद पर काम बंद नहीं हुआ है। एक नये फ्रंट के रूप दलित संदर्भ में पुनः उनकी पडताल जारी है। डॉ. धर्मवीर ‘सामंत का मुंशी’, ‘प्रेमचन्द की नीली आँखें’ रत्न कुमार सांभरिया ‘मुंशी प्रेमचंद और दलित’ लिख रहे हैं तो जनसत्ता के मंच पर कल तक भी वे बीच बहस में होते हैं। तो दूसरी तरफ रूप नारायण सोनकर अगर ‘कफन’, ‘सद्गति’ और ‘दूध का दाम’ और ‘सुअरदान’ लिख रहे हैं तो यह चुनौती ही है कि कौन अधिक दलित चेतना सम्पन्न है ? दलितों पर जितना आज सोचा- विचारा जा रहा है, उस दौर में प्रेमचन्द पहले साहित्यकार रहे हैं जिन्होंने आज की चिंता उस दौर में व्यक्त की थी। दोनों की चिंताएँ एक होते हुए एक समान नहीं है। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि जिस गाय की पूँछ को पकड कर इस भवसागर से पार पाया जा सकता है उस मिथ को दूसरे मिथ (सूअरदान) का सामना करना पड जायेगा ? प्रेमचन्द की दलित चेतना को चुनौती देता दलित साहित्य वर्तमान में कितने ही सवाल जड रहा है ? तभी डॉ. बच्चन सिंह ‘हिन्दी साहित्य का दूसरा साहित्य’ म दलित साहित्य की पडताल करते हुए सलाह देते हैं, ‘दलित साहित्यकारों को अपने हित में यह जिद्द छोडनी पडेगी कि दलित साहित्य दलित ही लिख सकते हैं।’इस संदर्भ में बहस जारी है। 
साहित्य में प्रेमचन्द का कद गाँधी जैसा ही था। इनके धुर विरोधी कहे जाने वाले नन्ददुलारे वाजपेयी को विश्व साहित्यकारों में तोल्सतोय के समकक्ष बताना पडता है तो नामवर सिंह लू-शुन, गोर्की से तुलना करते हुए उन्हें गोर्की और तोल्सतोय से कम अंतर्विरोधग्रस्त मानते हैं। मैनेजर पाण्डेय विचारों से गोर्की के नजदीक और यथार्थवादी चित्र्ण में बालजाक के। जिस रचनाकार ने जीते जी ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि पा ली थी, इस विषय पर उस समय भले ही विवाद हुआ हो पर आज उन्हें सर्वसम्मति से इस तमगे से नवाज दिया गया है, जैसे आजाद कृतज्ञ राष्ट्र गाँधी को राष्ट्रपिता की उपाधि देता है। साहित्य में यह उपाधि पाने वाले प्रेमचन्द अकेले हैं। एक यही रचनाकार है जो वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखे जा रहे हैं तो जिसे लेकर हिन्दी पट्टी में बहस बनी हुई है।

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महान लेखक प्रेमचंद

                       महान लेखक-प्रेमचंद

                    
मुंशी प्रेमचंद से उनके समकालीन पत्रकार बनारसीदास चतुर्वेदी ने 1930 में उनकी प्रिय रचनाओं के बारे में प्रश्न किया, ‘‘आपकी सर्वोत्तम पंद्रह रचनाएं कौन-सी हैं?

प्रेमचंद ने उत्तर दिया, ‘‘इस प्रश्न का जवाब देना कठिन है। 200 से ऊपर गल्पों में कहाँ से चुनूँ, लेकिन स्मृति से काम लेकर लिखता हूँ- बड़े घर की बेटी, रानी सारन्धा, नमक का दरोगा, सौत, आभूषण, प्रायश्चित, कामना, मंदिर और मस्जिद, घासवाली, महातीर्थ, सत्याग्रह, लांछन, सती, लैला, मंत्र।’’

इन कृतियों को कौन नहीं जानता होगा, कम-से-कम किसी एक रचना का नाम तो अवश्य सुना होगा। ऐसी और भी कई महान रचनाओं का जन्म मुंशी प्रेमचंद की लेखनी से हुआ और वे कृतियाँ दुनिया में अजर-अमर हो गई। उत्तर प्रदेश के वाराणसी से चार मील दूर लमही गाँव में जन्मे मुंशी प्रेमचंद, जिनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था, की आरंभिक शिक्षा उर्दू, फारसी में हुई थी। सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, गबन, गोदान आदि उपन्यासों से लेकर नमक का दरोगा, प्रेम पचीसी, सोज़े वतन, प्रेम तीर्थ, पाँच फूल, सप्त सुमन, बाल साहित्य जैसे कहानी संग्रहों की रचना कर इन्होंने हिंदी साहित्य को एक नई ऊँचाई पर पहुँचाया। इन्हें उपन्यास सम्राट भी माना जाता है। उनकी कहानियाँ अधिकांशत: ग्रामीण भारतीय परिवेश पर आधारित होती थी जिसके माध्यम से वह किसानों एवं निम्न आय वाले परिवारों की हालात का वर्णन किया करते थे। उनकी पहली कहानी संग्रह ‘सोज़े-वतन’, जिसका अर्थ ‘राष्ट्र का विलाप’ होता है, के प्रकाशन पर अंग्रेज सरकार ने रोक लगा दी थी।

प्रेमचंद एक दृढ़ राष्ट्रवादी थे, जिसकी झलक उनकी रचनाओं में बखूबी देखने को मिलती है। लेकिन प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में राष्ट्रवादी नेताओं की स्वार्थ लिप्सा एवं कमज़ोरियों को भी उजागर किया। उन्होंने रंगभूमि एवं कर्मभूमि उपन्यास के ज़रिये शिक्षित राष्ट्रवादी नेताओं को उनकी कमजोरियों का एहसास कराते हुए उन्हें सुधारने का प्रयास भी किया। इन शिक्षित एवं स्वार्थी प्रकृति के लोगों पर व्यंग्य करते हुए ‘आहुति’ में एक स्त्री कहती है- ‘‘अगर स्वराज्य आने पर भी संपत्ति का यही प्रभुत्व रहे और पढ़ा-लिखा समाज यूँ ही स्वार्थान्ध बना रहे, तो मैं कहूंगी, ऐसे स्वराज्य का न आना ही अच्छा। अंग्रेज़ी महाजनों की धनलोलुपता और शिक्षितों का स्वहित ही आज हमें पीसे डाल रहा है। उनकी बुराइयों को क्या प्रजा इसलिये सिर चढ़ाएगी कि वे विदेशी नहीं, स्वदेशी है?’’

प्रेमचंद ने श्रेष्ठ साहित्य के मानकों को रेखांकित करते हुए कहा था कि ‘‘हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, जो इसमें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।’’

प्रेमचंद ने उपर्युक्त आदर्शों एवं मापदंडों को प्रत्येक साहित्यकार हेतु ज़रूरी माना और स्वयं भी इन मानदंडों का अनुपालन किया तथा उन्हीं आदर्शों को ध्यान में रखते हुए अपने कालजयी कृतियों की रचना की। उनकी रचनाएँ जीवन की सच्चाइयों से इतनी भरी हुई थीं कि शायद ही कोई पहलू अछूता रहा हो। उन्होंने उपन्यासों एवं कहानियों के माध्यम से ग्रामीण जीवन के साथ-साथ शहरी जीवन की दुर्दशा का भी सजीव चित्रण किया है। ‘पूस की रात’ कहानी का पात्र ‘हल्कू’ अपनी पत्नी से कंबल खरीदने की इच्छा व्यक्त करता है और जैसे ही उसे साहूकार का कर्ज़ चुकाने की बात याद आती है, तो सारे ख्वाब धुआँ बनकर उड़ जाते हैं।

‘गोदान’ की बात करें तो प्रेमचंद जी ने इसमें सामंतवादी व्यवस्था में जकड़े हुए ग्रामीण जीवन का यथार्थ चित्रण किया है और यह दर्शाने की कोशिश की है कि समाज की कुछ विशेष प्रकार की समाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था से शोषण का जन्म होता है।

उन्होंने समाज में व्याप्त धार्मिक कुरीतियों एवं बाह्य आडंबरों पर भी प्रहार करते हुए उन्हें दूर करने का प्रयास किया। उनकी रचनाएँ सिर्फ मनोरंजन के लक्ष्य से नहीं लिखी गई थीं बल्कि वे अपनी कृतियों के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों पर भी चोट करते थे। ‘सद्गति’ एवं ‘सवा सेर गेहूँ’ कहानियों के माध्यम से उन्होंने बताया कि किस प्रकार लोग वर्तमान जीवन की चिंता छोड़कर परलोक के चक्कर में पुरोहिताई के चंगुल में फँस कर प्राण तक गवाँ देते हैं।

सेवासदन’ प्रेमचंद जी का पहला उपन्यास है जिसमें उन्होंने वेश्याओं की समस्या को प्रमुखता से उठाया है। वेश्यावृत्ति जैसी समस्या हेतु उन्होंने पुरुषों की अधम प्रवृत्ति को ही ज़िम्मेदार ठहराया है। प्रेमचंद जी कहते है कि ‘‘हमें उनसे घृणा करने का कोई अधिकार नहीं है। यह उनके साथ घोर अन्याय होगा। यह हमारी ही कुवासनाएँ, हमारे ही सामाजिक अत्याचार, हमारी ही कुप्रथाएँ हैं, जिन्होंने वेश्याओं का रूप धारण किया है।’’

प्रेमचंद जी ने अपने साहित्य के माध्यम से समाज को एक आदर्श रूप देने हेतु प्रेरणा करने की भी कोशिश की। उन्होंने भारतीय नारी के आदर्श स्वरूप का भी वर्णन किया है। इसकी झलक हमें गोदान की ‘धनिया’ और ‘बड़े घर की बेटी’ में देखने को मिलती है। गोदान की ‘धनिया’ जीवन भर दुख झेलती रही परंतु अपने मान-सम्मान से कभी समझौता नहीं किया। आवश्यकता पड़ने पर आदर्श पत्नी की तरह वह हमेशा ‘होरी’ के साथ खड़ी रही।

प्रेमचंद जी ने समाज में व्याप्त छूआ-छूत, भेदभाव एवं ऊँच-नीच जैसी कुरीतियों का भी गंभीरता से चित्रण किया। समाज में व्याप्त बिखराव से उन्हें बहुत कष्ट होता था। उन्होंने इसे कर्मभूमि, ठाकुर का कुआँ, ‘सदगति’ आदि कहानियों में बहुत बारीकी से उकेरा है। प्रेमचंद जी की कहानियों में कहीं भी सांप्रदायिकता का पुट नहीं रहा। उन्होंने मुसलमान एवं हिंदू पात्रों को उकेरने में कोई भी भेदभाव नहीं दिया एवं हर पात्र के साथ सहृदयता बरती। उनकी प्रमुखता आर्थिक-सामाजिक समस्याओं को चित्रित करने पर रहती थी, न कि जाति या धर्म पर। मुंशी प्रेमचंद ने हमेशा मनुष्य के अंदर छिपे देवत्व को उभारने की कोशिश की, जिसे बड़े घर की बेटी एवं पंच परमेश्वर कहानियों में आसानी से देखा जा सकता है।

प्रेमचंद की लेखनी में वर्णन की अद्भुत क्षमता विद्यमान है। उनकी भाषा द्वारा घटनाओं के दृश्य साकार हो उठते हैं। प्रेमचंद की प्रमुख कथा शैली वर्णनात्मक है एवं कहानियों में संवाद-शैली के अच्छे उदाहरण मिल जाते हैं। प्रेमचंद ने साहित्य के असली उद्देश्य से परिचय कराते हुए ‘साहित्य का उद्देश्य’ नामक कृति में लिखा, ‘‘हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी।’’ क्योंकि अभी तक सुंदरता की तलाश अमीरी और विलासिता के मसलों में की जाती रही थी। प्रेमचंद ने एक नए दृष्टिकोण से परिचय कराते हुए बताया कि साहित्य तो है ही जीवन की अभिव्यक्ति और साहित्य की सर्वोत्तम परिभाषा जीवन की आलोचना है। चूँकि जीवन में आडंबर, पाखंड, सहिष्णुता, संकीर्णता एवं कुटिलता सब कुछ है और इन सबकी धुंध के बीच वहीं किसी कोने में छिपी जीवन की सच्चाई का प्रकाश भी है। इसी प्रकाश को खोजना और उसे सामने लाना ही साहित्य का मुख्य उद्देश्य है।

पहले प्रेमचंद गांधीवादी सोच से प्रभावित थे, इसलिये अपने कथानक को एक आदर्शवादी अंत प्रदान करते थे परंतु जब उनका गांधीवाद से मोह-भंग हुआ तब गोदान, कफन और पूस की रात जैसी नग्न यथार्थवाद से लोगों का परिचय होता है जहाँ प्रेमचंद समस्या का कोई समाधान प्रदान नहीं करते। प्रेमचंद साहित्य को राजनीति का भी पथ-प्रदर्शक मानते हैं। उन्होंने साहित्यकार के महान उत्तरदायित्व को समझते हुए यथासंभव उसका निर्वहन किया। हम पाते हैं कि प्रेमचंद केवल साहित्यकार ही नहीं बल्कि सामाजिक समस्याओं के चिंतक भी थे। उनकी इस प्रवृत्ति की झलक उनके साहित्य में स्पष्ट है। आज प्रेमचंद जैसे सामाजिक चिंतकों की इस समाज को बेहद ज़रूरत है जो उनकी भाषिक और वैचारिक समझ द्वारा व्यक्त होती है।

                                                      Yaduvanshi 

गोदान उपन्यास की मूल समस्या

                            गोदान की मूल समस्या 

गोदान की मूल समस्या शहरी उत्तर – गोदान प्रेमचंद की सर्वाधिक लोकप्रिय व कालजयी उपन्यास है इस उपन्यास को कृषकों का महाकाव्य भी कहा गया है। सभी आलोचकों ने प्रेमचंद को कृषक और सामाजिक जीवन का कथाकार कहा है। उसके सभी उपन्यासों में ग्रामीण जीवन तथा ग्रामवासियों विशेषतः किसानों शोषित वर्गों की समस्याओं पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किया गया है उनकी समस्या का मूल कारण ढूंढने का प्रयत्न किया है।इस कारण प्रेमचंद को ग्रामीण जीवन तथा कृषि – संस्कृति का कथाकार कहा गया है।

डॉक्टर महेंद्र भटनागर के अनुसार –‘प्रेमचंद के सभी उपन्यास सामाजिक है , और उनकी सामाजिकता किसी न किसी समस्या पर ही आधारित है , प्रेमचंद का कोई भी उपन्यास ऐसा नहीं है जिसमें किसी समस्या को न उठाया गया हो। वस्तुतः वह समस्यामूलक उपन्यासकार ही थे।’

आचार्य शुक्ल के अनुसार –‘ प्रेमचंद कहानी और उपन्यास में वही कार्य कर रहे थे जो कविता के क्षेत्र में छायावादी लेखक।

डॉक्टर नगेंद्र के अनुसार – ‘ प्रेमचंद के कथा का मूल स्वर लोकमंगल था उनकी कहानी अथवा उपन्यास में किसी न किसी समस्या को उजागर किया गया था और उससे बचने का एक मार्ग भी सुझाया गया था। ‘ गोदान को भी ग्राम जीवन तथा कृषि जीवन संस्कृति का महाकाव्य माना गया है। भारतीय किसान के संघर्ष की सम्पूर्ण गाथा तथा उसकी त्रासदी की कहानी इस उपन्यास में निहित है।अतः उसमें ग्रामीण जीवन से संबंध अनेक समस्याएं हैं गोदान की आधिकारिक कथा होरी और उसके परिवार से संबंध होने के कारण यह ग्राम जीवन और कृषक समाज से स्वतः जुड़ी है और उसकी प्रासंगिक कथा का संबंध नगर में रहने वाले पात्रों – ‘ राय साहब ‘ , ‘मालती ‘ , ‘मेहता ‘ , ‘ खन्ना ‘ आदि समस्याओं से है। अतः गोदान में चित्रित समस्याओं पर हम तीन दृष्टियों या प्रकार से विचार कर सकते हैं।

                         

                                पहला स्थान की दृष्टि (शहर और ग्राम) से दूसरा विषय (मूल स्वर)की दृष्टि से तथा तीसरा समस्या के लिए उत्तरदाई व्यक्तियों या संस्थाओं की दृष्टि से। ग्राम तथा नगर की कुछ समस्याएं विषय की दृष्टि से समान है – जैसे ऋण की समस्या , शोषण की समस्या , प्रेम और विवाह की समस्या आदि। अतः हम पहले और दूसरी दृष्टि मिलाकर गोदान में प्रस्तुत समस्याओं पर विचार कर रहे हैं। विषय की दृष्टि से गोदान में चित्रित समस्याओं को तीन वर्गों में रखा जा सकता है सामाजिक , धर्म , परंपरागत विश्वासों , जीवन मूल्यों , रूढ़ियों , अंधविश्वासों के कारण उत्पन्न समस्याएं तथा आर्थिक समस्याएं।

नारी की समस्या – गोदान में नारी की समस्या एक मुख्य समस्या है गांव में लोग परंपरा प्रेमी है तथा प्राचीन जीवन मूल्यों विश्वासों रूढ़ियों से चिपके हुए हैं। अतः नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण वही है जो पुरुष प्रधान समाज का रहा है। चाहे नारी शहर की हो या ग्रामीण क्षेत्र की नारी की स्थिति दोनों जगह एक ही प्रकार की है जहाँ ग्रामीण में -झुनिया , सिलिया ,सोना ,रूपा आदि का वर्णन है वही शहर में – मालती , आदि नारी पात्र की स्थिति है। लोग नारी को अपना गुलाम समझते हैं उससे उस गाय की तरह मानते हैं। जिसे किसी भी खूंटे से उसकी इच्छा के विरुद्ध भी बांधा जा सकता है। मेहता मालती से कहता है ‘ प्रेम खुखार शेर की भाटी होता है जो अपने शिकार पर किसी की दृष्टि नहीं पड़ने देता है। ‘ गाँव में होरी , धनिया जैसा उग्र स्वभाव का निर्भय स्त्री पात्र को भी दबा कर रखना चाहता है। भोला अधेड़ होकर भी नवयुवती से विवाह करके उसको दासी की तरह रखना चाहता है। बड़ी जाति का मातादीन चमार जाति की स्त्री सिलिया से यौन संबंध होते हुए भी उसे पत्नी नहीं बनाना चाहता। केवल रखेल के रूप में रखना चाहता है। सोना का पति मथुरा विवाहित और घर में सुंदर पत्नी होते हुए भी सिलिया पर डोरे डालता है। शहर नगर में खन्ना पत्नी होते हुए भी मालती के चक्कर में फंसा हुआ है। गोविंदी के साथ उसका व्यवहार उपेक्षा , उदासीनता तथा क्रूरता का है। मीनाक्षी का पति शराबी वेश्यागामी तथा विलासी है। अतः वह भी मीनाक्षी के साथ पति का धर्म नहीं निभाता। इस प्रकार प्रेमचंद ने नारी की दयनीय स्थिति का चित्रण कर के नारी संबंधी समस्याओं पर प्रकाश डाला है। प्रेमचंद की विशेषता यह है कि उन्होंने धनिया , मीनाक्षी जैसे उग्र स्वभाव वाली स्त्रियों का चित्रण करके तथा ‘ विमेंस लीग ‘ जैसी संस्था की स्थापना करके वहां होने वाले कार्यक्रमों का परिचय देकर यह स्पष्ट संकेत दिया है कि नारी जाति में अपने अधिकारों के प्रति बोध जागृत रहा है। वह पुरुष के अत्याचारों को मौन रहकर चुपचाप सहन करने के बजाए विद्रोह करने लगी है। स्वच्छंद प्रेम – प्रेम की समस्या आज ही नहीं पूर्व काल से ही चलती आरही है। कालिदास , तुलसी , सुर , पद्माकर , आदि कविओं की कविता साहित्य को ध्यान से पढ़ने पर स्पस्ट होता है। आज भी अधिकांश विवाह माता – पिता के द्वारा तय किए जाते हैं। पौराणिक कथा में भी यही रीती थी। कभी कभी कन्या गंधर्व विवाह भी किया करती थी। यह नौबत माता – पिता के राजी न होने के कारण ही हुआ करता था। स्वतंत्र प्रेम को अच्छा नहीं माना जाता परंतु युवक – युवती के बीच परस्पर आकर्षण सहज स्वाभाविक है। दोनों चाहते हैं कि उनका प्रथम प्रेम आकर्षण विवाह में परिणत हो।

                          



गोदान में भी स्वच्छंद प्रेम की परिणति को उजागर किया है। प्रेमचंद भी इस समस्या को अनुभव कर चुके थे। गोदान में दो प्रकार से स्वछंद प्रेम को दिखाया गया है। स्वच्छंद प्रेम की परिणति विवाह में झुनिया विधवा है दूसरी जाति की है , पर गोबर प्रथम दृष्टि में ही उस से प्रेम करने लगता है। दोनों के बीच यौन संबंध भी है हो जाता है। गोबर गांव वालों की पंचायत और माता – पिता सब से डरता है। उसे आशंका है कि उसकी विवाह को कोई स्वीकार नहीं करेगा , फिर भी वह साहसपूर्वक झुनिया को घर ले आता हैधनिया ( जो गोबर की माँ है ) की उदारता के कारण दोनों का विवाह हो जाता है। परंतु गांव के लोगों को यह सहन नहीं होता और पंचायत करके उस विवाह को नकार दिया जाता है और होरी को दंडस्वरूप अपने घर में रखा सारा अनाज और नगद ₹30 देने पड़ते हैं। इन सभी के लिए होरी को अपना घर तक गिरवी रखना पड़ता है। जिसका विरोध गोरी करता है और शहर की और प्रस्थान कर जाता है।

गांव में स्वच्छंद प्रेम का दूसरा उदाहरण मातादीन –सिलिया प्रसंग है। मातादीन जात का ब्राह्मण है सिलिया चमारिन है दोनों के बीच परस्पर आकर्षण होता है दोनों एक दूसरे के परम् में पद जाते है और यौन संबंध स्थापित हो जाता है। किन्तु दोनों को जाती का भय बराबर है मातादीन उतना साहसी नहीं है जितना कि गोबर। अतः मातादीन , सीलिया से विवाह करने को तैयार नहीं होता। गांव के नवयुवकों द्वारा विवश किए जाने पर उसके मुंह में हड्डी डालकर उसे चमार बनाने के दुस्साहस के बाद ही वह सिलिया को पत्नी के रुप में अपना आता है। इस प्रसंग द्वारा लेखक गांव में अभिजात्य वर्ग कहे जाने वाले लोगों से पंचों की भेदभाव पूर्ण नीति तथा आचरण पर भी कटाक्ष करते हैं। जहां गोबर तथा होरी गरीब होने के कारण झुनिया को घर पर बहु बनाने के लिए तड़पाते हैं। वही मातादीन और उसके पिता दातादीन से कोई कुछ नहीं कहता उसके सौ खून भी माफ कर दिए जाते हैं। विवाह संबंधी – विवाह की समस्याएं गोदान की एक मुख्य समस्या है जिसका चित्रण गोदान में हुआ है।
दहेज के कारण विवाह होने में बाधा , बाल विवाह तथा विधवा की समस्या अनमेल विवाह या वृद्ध विवाह का उदाहरण इस उपन्यास में देखा जा सकता है। होरी की बेटी सोना के विवाह में दहेज की समस्या के कारण बढ़ा बनता है। परंतु मथुरा का सोना के प्रति प्रबल आकर्षण सोना का साहस और स्पष्ट ऐलान की दहेज की मांग पर अड़े रहने के कारण वह विवाह नहीं करेगी। इस बाधा को समाप्त कर देता है छोटी बेटी रूपा का विवाह भी दहेज न दे सकने के कारण अधेड़ उम्र के रामसेवक से करना पड़ता है , जो रूपा के पिता की उम्र का है।झुनिया बाल विधवा है अतः उसे सारी उम्र अकेले अपनी इच्छाओं का दमन करते हुए यही काटनी है। गोबर द्वारा अपनाए जाने पर भी भी पंचायत और गांव के लोग विरोध करते हैं स्पष्ट है कि विधवा को समाज की रुचियों तथा अनीति के कारण अपना जीवन शारीरिक तथा मानसिक कष्टों के बीच बिताना पड़ता है। 
विघटन की समस्या – परिवार के विघटन की समस्या आदि काल से चली आ रही है यही समस्या को गोदान में प्रेमचंद जी ने उठाया है। जीवन मूल्यों में परिवर्तन तथा आर्थिक दबाव के कारण सम्मिलित परिवार टूटने लगे थे। प्रेमचंद ने स्वयं अपने परिवार मैं सास बहू के झगड़े थे। उनकी सौतेली मां कि कभी उनकी पत्नी से नहीं बनी थी माता के पुत्रों अपने सौतेले भाइयों के लिए सब कुछ करने के बाद भी उन्हें बदले में मिले केवल उपेक्षा अनादर ही मिला। उपन्या में पहले उन्होंने होरी तथा उनके दो भाइयों हीरा तथा शोभा को उनसे अलग अलग होते दिखाया है। तथा उसके बाद में पिता-पुत्र होरी तथा गोबर के बीच विचार विमर्श से के कारण जो दरार पड़ती है। वह बढ़ती जाती है और गोबर अपनी पत्नी झुनिया के साथ गांव छोड़कर शहर चला जाता है ,वहां मजदूरी करता है और अपनी बहन की शादी के अवसर पर भी गांव नहीं लौटता। नगर में राय साहब तथा उनके बेटे रूद्र पाल में मतभेद है। सरोज को लेकर बाप-बेटे के संबंधों में दरार पड़ गई है। बेटी मीनाक्षी पिता के लाख समझाने पर भी अपने वेश्यागामी माय शराबी पति से समझौता करने को तैयार नहीं होती। उधर खन्ना तथा उसकी पत्नी गोविंदी के साथ भी नहीं है। इन चित्रों के द्वारा लेखक ने सम्मिलित परिवारों के टूटने बिखरने तथा दांपत्य जीवन में कटुता आने की समस्या की ओर संकेत किया है। दिखावा,प्रदर्शनीयता की समस्या- प्रदर्शन प्रियता की समस्या या थोथी मर्यादा की समस्या गांव में ही नहीं शहर में भी यही समस्या है। गांव में होरी अपनी प्रतिष्ठा के लिए ही द्वार पर गाय पालना चाहता है। लोग महतो कहेंगे यही चाह में गाय खरीदता है जिसके लिए वह कितने यत्न करता है। भाई जहर देकर गाय को मर देता है। महत्व कहलाने के लालच में गोबर के लाख समझाने पर भी खेती छोड़कर मजदूरी करने को तैयार नहीं होता। धनिया , मथुरा के घरवालों के मना करने पर भी दहेज में अपने सामर्थ्य के बाहर सम्मान देती है और परिवार कर्ज में डूब जाता है।पंच गोबर – झुनिया के विवाह में जो दंड देता है उससे होरी और टूट जाता है। जाति से बहिष्कृत ना हो इसलिए होरी डाँड़ भरता है , जिसके कारण वह कर्ज में डूब जाता है और अंत में उसके पास ना गाय होती है ना बैल और ना खेती करने के लिए खेत। शहर में भी यही हाल है राय साहब अपनी मिथ्या शाख बनाए रखने के लिए कभी इलेक्शन लड़ते हैं तथा कभी पुत्रियों के विवाह के लिए ऋण लेते हैं,और दिन प्रतिदिन कर्ज में डूब कर अपना सुख चैन मानसिक शांति गवा बैठते है।
अंधविश्वास – रूढ़ि पालन परंपरागत आस्था विश्वास के कारण उत्पन्न समस्याएं गांव के लोग परंपरा प्रिय रूढ़िवादियों में जकड़े धर्म के रूप तथा लकीर के फकीर होते हैं। नगर के लोग विशेषतः धनवान तथा अभिजात्य वर्ग के लोग इन रूढ़ियों से मुक्त होते हैं। अतः गोदान में प्रेमचंद ने इन समस्याओं का अंकन गांव के संदर्भ में ही किया है। अपने इन अंधविश्वासों परंपरागत जीवनमूल्यों रूढ़ियों के कारण ही गोरी अनेक कष्ट उठाता है। यदि वह इन से मुक्त होता है तो पंच का कहना मान कर इनके पचड़े में ना पढ़ता तो कदाचित उसका जीवन इतना यातनापूर्ण ना होता गांव की हत्या होने पर प्रायश्चित करना चाहिए जाति से बहिष्कृत ना होने के लिए शांति के बाहर ऋण लेकर भी पंचों को प्रसन्न रखना चाहिए। घर की इज्जत बचाने के लिए घर की तलाशी नहीं होनी चाहिए थी। भले ही रिश्वत देनी पड़े यह जानते हुए भी कि ऋण लेता है। दातादीन धूर्त है बेईमान है ब्याज के लिए मूल का तिगुना वसूल कर चुका है रसीद नहीं देता और वसूल हुई धनराशि को दुबारा मांग रहा है , और दातादीन नोखेराम की पाई-पाई चुकाने पर बल देता है क्योंकि वह धर्मगुरु है। उसका विश्वास है कि ब्राह्मण की एक एक पाई चुकानी होनी चाहिए वरना शरीर के मैं कोढ फूट पड़ता है। अपनी मान्यताओं के कारण ही वह गांव में पैसा ना रहते हुए भी सत्यनारायण की कथा की थाली में पैसे डालता है। तीर्थ यात्रा से लौटने पर गांव वालों को प्रसाद बांटता है धनिया पत्नी की मृत्यु के समय गोदान के बदले दिन रात सुतली बांटकर कमाए हुए ₹20 दातादीन को दान में देती है ईश्वरीय न्याय में विश्वास ईश्वर जो करता है ठीक करता है ईश्वर जी बड़े छोटे अमीर गरीब बनाकर भेजता है। पिछले जन्मों के कर्मों का फल इस जीवन में भोक्ता है। भाग्य के लिखे को कोई नहीं मिटा सकता यह अंधविश्वास ही हो रही को यातना की भट्टी में झोंक देते हैं और उसे यमराज के हाथों में धकेल देते हैं। इस प्रकार होरी के कष्टों का एक कारण उसकी धर्म भी रूढ़िवादिता तथा ज्योतिष होती मर्यादा बनाए रखने की।

गोदान 1936 में प्रकाशित हुआ था प्रेमचंद जीवन भर संघर्ष करते रहे थे और जैनेंद्र को लिखे पत्र से स्पष्ट होता है कि वह आर्थिक कठिनाइयों से जूते – जूते तथा एड़ी चोटी का पसीना बहाकर भी उन कठिनाइयों पर विजय पाने में असमर्थ रहे थे। गांधी के असहयोग आंदोलन में आह्वान पर सरकारी नौकरी को छोड़ चुके थे। घर – परिवार चलाना भी काफी मुश्किल हो गई थी। वह शरीर और मन दोनों से हार गए थे इस समय वह मार्क्सवादी विचारधारा से परिचित हुए और उन्हें मार्क्स के सिद्धांतों में पर्याप्त सच्चाई दिखी मार्ग मानता है कि समाज में केवल दो वर्ग है पहला साधन संपन्न तथा दूसरा साधनहीन बुर्जुआ तथा सर्वहारा। शोषक और शोषित साधन-संपन्न साधनहीन वर्ग की व्यवस्था तथा और सहायता का लाभ उठाकर उसका शोषण करता है और सर्वहारा वर्ग जीवन भर कड़ी मेहनत तथा रात-दिन कोल्हू के बैल की तरह चूसता रहता है। दो वक़्त भरपेट भोजन नहीं कर पाता अतः सारी मुसीबतों की जड़ वैमनस्य है। गोदान में शोषण करने वालों की भीड़ जमा है जमींदार किसानों का शोषण करता है महाजन ऋण लेने वालों का तथा उद्योगपति मिल मालिक मिलकर काम करने वाले मजदूरों का। गोदान में राय साहब किसानों से बेगार लेते हैं लगान वसूलते हैं रियायत नहीं करते समय पर लगान चुकाने वाले को बेदखली की धमकी देते हैं इतना ही नहीं अपने को स्वरूप करने सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने स्वयं को भारतीय संस्कृति का पुजारी एवं धार्मिक वृत्ति का व्यक्ति दिखाने के लिए रामलीला का आयोजन करते हैं। पर उसके लिए जो धनराशि चाहिए वह किसानों से वसूल करते हैं। प्रति हल चंदा देने की बात कहते हैं गांव में साहूकार एक नहीं अनेक है होरी के गांव में जिन गुरु सिंह पटवारी है नौकेराम का कारिंदा है दुलारी सब भाई भी हैं यहां तक कि धर्म आचार्य पंडित दातादीन भी ब्याज पर ऋण देता है यह सब ऊंची ब्याज दर पर ऋण देते हैं समय पर कागज नहीं लिखाते नतीजा यह होता है कि मूल से तिगुना वसूल करते हैं। ऋण देते समय किसी ना किसी बहाने पूरी रकम भी नहीं देते ₹30 का कागज लिखवाते हैं पर ऋण लेने वाले के हाथ ₹25 ही बढ़ाते हैं। ऋण का भुगतान करने पर या लगान की पूरी रकम चुकाने पर कभी-कभी रसीद भी नहीं देते। ऋण लेने वाले की अशिक्षा भोलेपन तथा विश्वास करने की प्रवृत्ति का लाभ उठाकर चुकाई गई रकम को दुबारा वसूल करने का प्रयास करते हैं। नोखेराम , होरी के साथ यही करता है पर गोबर की वजह से उसकी चाल नहीं चल पाती। 
निष्कर्ष :-
समग्रतः कहा जा सकता है कि गोदान कृषक जीवन का महाकाव्य है। यह उपन्यास शहरी जीवन से अधिक ग्रामीण जीवन को समाहित करता है जिसके कारण इस उपन्यास में कृषक की समस्याओं को अधिक मजबूती से प्रकट किया गया है। गोदान समस्यामूलक उपन्यास है। इस उपन्यास में अनेक समस्याओं को उजागर किया गया है। शहर के लोग जो अभिजात्य वर्ग कहलाते है।वह भी विभिन्न प्रकार की समस्या से ग्रसित है। कृषक वर्ग का चौतरफा शोषण किया जा रहा था उस समस्या को बारीकी से प्रेमचंद ने पकड़ा और प्रस्तुत किया साथ ही उससे मुक्ति का मार्ग भी दिया।


मुंशी प्रेमचंद की जयंती

                            

                         प्रेमचंद का जीवन परिचय

प्रेमचंद का नाम असली नाम धनपत राय था. उनका जन्म 31 जुलाई, 1880 को बनारस के लमही नामक गांव में हुआ था।इन्होंने ब्रिटिश हुकूमत की सजा भी भोगी, लेकिन पीछे नहीं हटे।अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम के कहने पर उन्होंने अपना नाम धनपतराय की जगह प्रेमचंद रख लिया। इनके पिता का नाम मुंशी अजायब लाल था, जो डाकघर में मुंशी का पद संभालते थे।
प्रेमचंद जब 6 वर्ष के थे, तब उन्हें लालगंज गांव में रहने वाले एक मौलवी के घर फारसी और उर्दू पढ़ने के लिए भेजा गया।वह जब बहुत ही छोटे थे, बिमारी के कारण इनकी मां का देहांत हो गया।उन्हें प्यार अपनी बड़ी बहन से मिला,बहन के विवाह के बाद वह अकेले हो गए, सूने घर में उन्होंने खुद को कहानियां पढ़ने में व्यस्त कर लिया।आगे चलकर वह स्वयं कहानियां लिखने लगे और महान कथाकार बने।इनका विवाह 15-16 वर्ष में ही कर दिया गया था, लेकिन ये विवाह उनको फला नहीं और कुछ समय बाद ही उनकी पत्नी का देहांत हो गया।कुछ समय बाद उन्होंने बनारस बाद चुनार के स्कूल में शिक्षक की नौकरी की, साथ ही बीए की पढ़ाई भी करते रहे बाद में उन्होंने एक बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया, जिन्होंने प्रेमचंद की जीवनी लिखी जिसको हम "प्रेमचंद घर में के नाम से पढ़ते है। "प्रेमचंद्र ने लगभग 300 कहानियां तथा चौदह बड़े उपन्यास लिखे।8 अक्टूबर 1936 को 56 वर्ष की उम्र में लंबी बिमारी के कारण उनका निधन हो गया।उनके रचे साहित्य का अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं के साथ-साथ विदेशी भाषाओं में भी हुआ है।
हिंदी साहित्य के सबसे लोकप्रिय लेखक प्रेमचंद ने हिंदी में कहानी और उपन्यास को सुदृढ़ नींव प्रदान की और यथार्थवादी चित्रण से देशवासियों का दिल जीत लिया।यही कारण है कि हिंदी साहित्य के इतिहास में हिंदी कहानी और हिंदी उपन्यास के समय का निर्धारण प्रेमचंद के नाम के आधार पर किया गया है,जिसको प्रेमचंद पूर्व हिंदी उपन्यास प्रेमचंद युगीन,और प्रेमचंद के बाद हिंदी उपन्यास के नाम से जाना जाता है।ये इनके साहित्य में योगदान को दर्शाता है।
हिन्दी कथा-साहित्य को तिलस्मी कहानियों के झुरमुट से निकालकर जीवन के यथार्थ की ओर मोड़कर ले जाने वाले कथाकार मुंशी प्रेमचंद देश ही नहीं, दुनिया में विख्यात हुए और 'कथा सम्राट' कहलाए।उन्‍होंने आमजन की पीड़ा को शब्दों में पिरोया, यही वजह है कि उनकी हर रचना कालजयी है और इनको यथार्थवादी रचनाकार के नाम से जाना जाता है।

पहली कहानी संग्रह को अंग्रेजी हुकूमत ने जला दिया
प्रेमचंद की पांच कहानियों का संग्रह 'सोज़े वतन' 1907 में प्रकाशित हुआ।सोज़े वतन, यानि देश का दर्द, प्रेमचंद की उर्दू कहानियों का यह पहला संग्रह था जो उन्होंने ‘नवाब राय’ के नाम से छपवाया था।अंग्रेजी हुक्मरानों को इन कहानियों में बगावत की गूंज सुनाई दी। हम्मीरपुर के कलक्टर ने प्रेमचंद को बुलवाकर उनसे इन कहानियों के बारे में पूछताछ की, प्रेमचंद ने अपना जुर्म कबूल किया,उन्हें कड़ी चेतावनी दी गयी और सोजे वतन की 500 प्रतियां जो अंग्रेजी हुकूमत के अफसरों ने जगह-जगह से जप्त की थीं। उनको सरे आम जलाने का हुक्म दिया गया हालांकि सोजे वतन में शामिल सभी पांच कहानियाँ उर्दू मासिक ‘जमाना’ में पहले ही छप चुकी थीं।
इसके बाद भी प्रेमचंद ने खूब लिखा. लगभग तीन सौ कहानियां और लगभग आधा दर्जन प्रमुख उपन्यास, साथ ही एक नाटक भी।उर्दू में भी लिखा और हिन्दी में भी,उनके विषय किसान, मजदूर, पत्रकारिता, पूंजीवाद, गांधीवाद, राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन, बेमेल विवाह, धार्मिक पाखंड, नारीवाद आदि रहे।
       प्रेमचंद राष्ट्रवाद को एक कोढ़ मानते थे
               आज पूरे देश में राष्ट्रवाद पर खूब चर्चा होती है।हर कोई इसकी परिभाषा अपने हिसाब से तय करता है, लेकिन प्रेमचंद के लिए राष्ट्रवाद का अर्थ आज के राष्ट्रवाद की तरह संकीर्ण नहीं बल्कि बहुत व्यापक थी।हालांकि वो अन्तर्राष्ट्रीयता में विश्वास रखते थे,उनका मानना था कि जैसे मध्यकालीन समाज का कोढ़ सांप्रदायिकता थी, वैसे ही वर्तमान समय का कोढ़ राष्ट्रवाद है।प्रेमचंद का मानना था कि जैसे सांप्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर राज्य स्थापित कर देना चाहती थी और उसे उस बनाए घेरे से बाहर की चीजों को मिटाने में ज़रा भी संकोच नहीं होता था ठीक उसी तरह राष्ट्रीयता भी है जो अपने परिमित क्षेत्र के अंदर रामराज्य का आयोजन करती है।उसे लगता है कि उस क्षेत्र से बाहर का समाज उसका शत्रु है।प्रेमचंद अन्तर्राष्ट्रीयता के प्रचार पर जोर देते थे और उनका मानना था कि एक जागरूक समाज संसार में यही करता है। इतना ही नहीं प्रेमचंद का मानना था कि राष्ट्रवाद पुंजिवाद को जन्म देता है और फिर धर्म और जाति के हथियारों से उसकी रक्षा करता है. प्रेमचंद हमेशा पुंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ रहे. उन्होंने 6 नवम्बर 1933 के ‘जागरण’ में लिखा -"जिधर देखिए उधर पूंजीपतियों की घुड़दौड़ मची हुई है।किसानों की खेती उजड़ जाय, उनकी बला से,कहावत के उस मूर्ख की भाँति जो उसी डाल को काट रहा था, जिस पर वह बैठा था"।प्रेमचंद के लिए राष्ट्रवाद का अर्थ काफी अलग था।उनके देश की परिभाषा में समानता की बात थी। स्त्री-पुरुष के बीच समानता, किसान-ज़मीदार के बीच समानता, विभिन्न धर्म और जातियों के बीच समानता, देश के नागरिकों के बीच आर्थिक समानता आदि ही उनके लिए एक असल राष्ट्र का सही अर्थ था।
जो भोगा वही लिखा-यथार्थवादी प्रेमचंद
प्रेमचंद ने जो भोगा, जो देखा वही लिखा. मुंशी प्रेमचंद की कल्पनाओं में चांद या मौसम का जिक्र नहीं बल्कि उनके साहित्य में हमेशा ही समाज के स्याह पक्ष का जिक्र मिलता है. उदाहरण के तौर पर 'गोदान' के होरी में किसान की दुर्दशा का जिक्र तो 'ठाकुर का कुंआ' में समाजिक हक से महरूम लोगों का दर्द। उनकी कोई भी कहानी या उपन्यास उठा कर देख लीजिए।आपको ऐहसास होगा कि उन्होंने कभी कलमकार बनकर नहीं बल्कि कलम के मजदूर बनकर लिखा।
मैं धनी नहीं मजदूर आदमी हूं'
"हंस" पत्रिका निकालने के पूर्व जयशंकर प्रसाद को लिखे एक पत्र में प्रेमचंद जी लिखते हैं कि- काशी से कोई साहित्यिक पत्रिका न निकलती थी। मैं धनी नहीं मजदूर आदमी हूं, मैंने 'हंस' निकालने का निश्चय कर लिया है। इस निश्चय के साथ मार्च 1930 में बसन्त पंचमी के दिन 'हंस' के प्रकाशन की शुरुआत हुई। हंस' नामकरण के बारे में कमल किशोर गोयनका कहते है कि-यह नाम उनके मित्र एवं प्रख्यात कवि जयशंकर प्रसाद ने छह माह पूर्व सुझाया था।इस पत्रिका का प्रकाशन भी उन्हीं के सरस्वती प्रेस से हुआ। 'हंस' के प्रथम अंक के संपादकीय लिखते हुए प्रेमचंद ने लिखा है- हंस भी अपनी नन्हीं चोंच में चुटकी भर मिट्टी लिये हुए समुद्र पाटने, आजादी की जंग में योगदान देने चला है।साहित्य और समाज में वह उन गुणों का परिचय करा ही देगा, जो परंपरा ने उसे प्रदान किया है।
एक युगद्रष्टा पत्रकार भी
प्रेमचंद एक युगद्रष्टा साहित्यकार ही नहीं, एक युगद्रष्टा पत्रकार भी थे। अपने पत्रों लेखों और टिप्पणीयां वे मानो आज की सच्चाई बयां करते लगते है। सन् 1905 में 'जमाना' में स्वदेशी चीजों का प्रचार कैसे बढ़ सकता है- विषय पर एक गंभीर टिप्पणी लिखते हुए मुंशी प्रेमचंद कहते है कि- स्वदेशी का अलख जगाने वाले और समाजवाद को ओढ़ने-बिछाने वाले बराबर दूरी पर खड़े हैं।



Saturday

मीराबाई और उनके पद

                                  

                         मीराबाई का जीवन परिचय   

मीराबाई, जिन्हें मीरा बाई या मीरा के नाम से भी जाना जाता है, ये 16वीं शताब्दी की प्रसिद्ध भारतीय कवयित्री, संत और श्री कृष्ण जी की भक्त थी। उनका जन्म सन् 1498 ई. के लगभग भारत के वर्तमान राजस्थान में मेड़ता के पास एक गांव चौकड़ी (कुड़की) में एक राजपूत शाही परिवार में हुआ था, उनके पिता का नाम रत्नसिंह राठौड़ और माता का नाम वीर कुमारी था। तथा ये जोधपुर के संस्थापक राव जोधा की प्रपौत्री थी।

मीरा दादी मां की कृष्ण भक्ति को देखकर प्रभावित हुई। एक दिन जब एक बारात दूल्हे सहित जा रही थी तब बालिका मीरा ने उस दूल्हे को देखकर अपनी दादी से अपने दूल्हे के बारे में पूछने लगी। तो दादी ने तुरंत ही गिरधर गोपाल का नाम बता दिया और उसी दिन से मीरा ने गिरधर गोपाल को अपना वर मान लिया।

साहित्यिक परिचय –

इनके काव्य रचना में इनका कृष्ण भक्ति प्रेम इनके हृदय की सरलता तथा निश्चलता का स्पष्ट रूप मिलता है, भक्ति-भजन ही इनकी काव्य रचना है, इनकी प्रत्येक पंक्ति सच्चे प्रेम से परिपूर्ण है, इनकी इसी प्रेमपूर्ण शैली की वजह से लोग आज भी इनकी पंक्तिया उतनी ही तन्मयता से गाते है !

                                    पद             

                 मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरे न कोई

               जा के सिर मोर -मुकुट मेरो पति सोई

              छाड़ी दयी कुल की कानि,कहा करिहै कोई?

              संतन ढिग बैठि-बैठि,लोक लाज खोयी

             अंसुवन जल सीचि- सीचि, प्रेम बोलि बोयी

             अब त बेलि फैलि गयी , आनंद -फल होयी 

              दूध की मथनियां बड़े प्रेम से बिलोयी

              दधि मथि घृत काढि लियो, डारि दयी छोयी 

              भगत देखी राजीव हुई ,जगत देखि रोई 

              दासी मीरा लाल गिरधर! तारों अब मोही ।

प्रसंग-

भावार्थ पंक्तियां कवित्री मीरा के द्वारा रचित है जो पद नरोत्तम दास स्वामी द्वारा संकलित मेरा मुक्तावली से लिया गया है इन पंक्तियों के माध्यम से कवित्री मीरा मोर मुकुट धारण किए हुए श्री कृष्ण को अपना पति मानते हुए कहते हैं कि उनके सिवा इस जगत में मेरा कोई दूसरा नहीं

व्याख्या-

इस दोहे में मीरा बाई श्री कृष्ण को अपना पति कह रही हैं और कहती हैं – मेरे तो बस श्री कृष्ण हैं जिसने पर्वत को ऊँगली पर उठाकर गिरधर नाम पाया। उसके अलावा मैं किसी को अपना नहीं मानती। जिसके सिर पर मौर का पंख का मुकुट हैं वही हैं मेरे पति।उनके सिवा इस जगत में मेरा कोई दूसरा नहीं आगे कवित्री कहती है कि मैंने कुल की मर्यादा का भी ध्यान छोड़ दिया है तथा संतो के साथ उठते बैठते लोक - लज्जा सब कुछ त्याग कर स्वयं को कृष्ण भक्ति में लीन कर लिया है कवित्री मीरा कहती हैं कि कृष्ण के प्रेम रूपी बेल को सीखने के लिए मैंने अपने आंसुओं को निस्वार्थ भाव से न्योछावर किया है। फलस्वरूप जिस बेल के बढ़ने से आनंद रूप फल की प्राप्ति हुई है आगे कवित्री एक दृष्टांत प्रस्तुत करते हुए कहते हैं। कि जिस प्रकार दूध में मथानी डालकर दही से मक्खन निकाला जाता है और सिर्फ छाछ को पृथक कर दिया जाता है। ठीक उसी तरह मीरा ने भी संसारिकता के ढकोसलेपन से स्वयं को दूर रखा है और अपनी सच्ची और आत्मिक भक्ति से श्री कृष्ण के प्रेम को प्राप्त किया है आगे कवित्री मीरा कहती है कि जब मैं भक्तों को देखती हूं तो मुझे प्रसन्नता होती है और उन लोगों को देखकर मुझे दुख होता है जो संसार एकता के जाल में फंसे हुए हैं मीरा खुद को श्री कृष्ण की दासी मानती है और श्री कृष्ण से स्वयं का उद्धार करने की कामना करती है।


                          2.पद


पग घुंघरू बांध मीरा नाची,

मैं तो मेरे नारायण सू , अपाहिज हो गई सांची,

लोग कहे मीरा बाई बावरी: न्यात कहै कूल - नासी ,

विष का प्याला राणा भेज्या , पीवत मीरा हांसी ,

मीरा के प्रभु गिरिधर नागर, सहज मिले अविनासी


प्रसंग-

प्रस्तुत पंक्तियां कवियत्री मीरा के द्वारा रचित है जो पद नरोत्तम दास स्वामी द्वारा संकलित मेरा मुक्तावली से लिया गया है इन पंक्तियों के माध्यम से कवित्री मीरा करती है कि वह श्री कृष्ण के प्रेम में दीवानी हो गई है।

व्याख्या-

इन पक्तियों के माध्यम से कवित्री मीरा करती है कि वह श्री कृष्ण के प्रेम में दीवानी हो गई है तथा पैरों में घुंघरू बांधकर नाचने में मग्न है कवित्री मीरा श्री कृष्ण के प्रेम में इतना रस विभोर हो गई है कि लोग उसे पागल की संज्ञा देने लगे हैं उनके संगे संबंधी कहते हैं कि ऐसा करके वह कुल का नाम खराब कर रही है आगे कवित्री मीरा कहती है कि राणा जी ने उसे मारने के लिए विष का प्याला भेजा था, जिसे वह हंसते-हंसते पीली और अमृत को प्राप्त हुए। आगे कवित्री कहती है कि यदि प्रभु की भक्ति सच्चे मन से की जाए तो वह सहजता से प्राप्त हो जाती है। ईश्वर को अविनाश जी की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि वह नच्श्रर है।



 

परीक्षा के एक दिन पूर्व दो मित्रों की बातचीत का संवाद लेखन कीजिए-

संवाद लेखन किसे कहते हैं  संवाद लेखन -  वह लेखनी है जिसमें दो या अधिक व्यक्तियों के बीच होने वाली बातचीत को लिखित रूप में व्यक्त किया जाता ह...