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Tuesday

मीरा का जीवन परिचय और उनके पदों की सप्रसंग व्याख्या

                                                        मीराबाई का जीवन परिचय 

मीराबाई राणा कुम्भा की महारानी थी। मीराबाई का जन्म राजस्थान में मेवाड़ के निकट चौकड़ी ग्राम में सन् 1498 ई. के आसपास हुआ था। मेड़ता के नरेश राव दूदा मीरांबाई के दादा थे। वे राव दूदा के छोटे पुत्र रतनसिंह की पुत्री थीं। 



मीराबाई का बाल्यकाल उनके वैष्णव भक्त राव दूदाजी के संरक्षण में व्यतीत हुआ। अपने दादा जी के घर में ही मीरां को श्री गिरधरलाल का इष्ट हो गया था और इसका कारण उनके अपने संस्कार तो थे ही, उनके साथ-साथ राव दूदाजी की वैष्णव-भक्ति का भी भरपूर प्रभाव पड़ा था। तथापि यह अत्यन्त आश्चर्यजनक लगता है कि इतना होने पर भी मीरां ने अपने किसी पद में भी राव दूदा जी के नाम का उल्लेख नहीं किया। तथापि इतना तो निर्विवाद है कि दो वर्ष की आयु में ही माता के स्वर्गवास हो जाने के का लालन-पालन राव दूदा के हाथ में हुआ और इसलिए ‘मीराबाई’ में भक्ति के संस्कारों का उत्पन्न हो जाना अत्यन्त स्वाभाविक था। भक्ति के संस्कारों के उदित हो जाने के कारण ‘मीरां’ अपने वैष्णवभक्त दादा जी का ही अनुकरण करती, ठाकुर जी के तिलक लगाती, भोग लगाती, आरती उतारती और नाम स्मरण में खोई रहती।

मीराबाई के पदों में सिसौदिया वंश का उल्लेख मिलता है। उन्होंने अपनी ननद का नाम भी ऊदाबाई बताया है
किन्तु इस सम्बन्ध में अपेक्षित ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। मीराबाई के पिता का नाम रत्न सिंह था और मीराबाई का विवाह महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र कुवर भोजराज के साथ हुआ था। इस प्रकार ‘मीरा’ अपने ससुराल मेवाड़ में आ गई। मीरां का वैवाहिक जीवन सुखमय बीता किन्तु दुर्भाग्यवश वे जल्दी ही विधवा हो गई। मीराबाई के पति कुवर भोजराज की मृत्यु हो गई और इस प्रकार मीरा का सुखमय दाम्पत्य जीवन सदा-सदा के लिए समाप्त हो गया। भोजराज की मृत्यु अचानक हो जाने से मीरा का जीवन अस्तव्यस्त हो गया। 

यही नहीं, इसके चार वर्ष पश्चात ही इनके पिता रत्न सिंह भी स्वर्ग सिधार गए और कुछ ही समय में मीरां को अपने जीवन का सर्वाधिक दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण समय देखना पड़ा। विपत्तियों के इन टूटते हुए पहाड़ों ने मीरां की जीवन-धारा में ही भारी मोड़ ला दिया। 
मीराबाई की बालपन की भक्ति और धर्म के संस्कार अब श्रीकृष्ण प्रेमामृत में एकतान हो गए। अब उनकी एकमात्र रुचि भगवद् भक्ति और साधु-संगति में हो गई।अब मीरां का अधिकांश समय भगवद् दर्शन और साधुओं से धार्मिक परिचर्चाएँ करने में बीतता था। मीरां ने लोकलाज और कुल की मर्यादा को त्याग कर अपने आराध्य की भक्ति आरम्भ कर दी। कभी-कभी वे श्री गिरधरलाल के प्रेमामृत का पान कर इतनी प्रेमोन्मत्त हो जाती थीं कि पैरों में घूँघरू बांध कर, ताली दे-दे कर श्रीकृष्ण की मूर्ति के सामने नाचने लगतीं। मीरां के श्वसुर राणा सांगा भी बाबर के  साथ युद्ध करते हुए खेत हो चुके थे, अतः अब मीरां के ससुराल में कोई भी अपना नहीं रहा। राणा सांगा की मृत्यु के पश्चात मीराबाई के देवर विक्रमजीत सिहासन पर बैठे। कहते हैं कि विक्रमजीत ने मीराबाई को अनेक यातनाएं दी जिसका उल्लेख मीरां के पदों में भी सहज सुलभ है।

मीराबाई के देवर को यह पसंद नहीं था कि राणा परिवार की बहू मीरां संतों की मण्डली में घूमे-फायर और गिरधारलाल के मन्दिर में ताली दे-देकर नृत्य करे। उन्हें मीराबाई को मार डालने तक की नई-नई युक्तियाँ सूझीं।
मीरा को मार डालने के लिए विक्रमजीत  ने विष का प्याला भेजा, जिसे मीरां चरणमृत समझ कर पी गई।
मीरा को मारने के लिए पिटारी में सांप भी भेजा गया किन्तु जिसके अनुकूल स्वयं प्रभु हों, उस मीरां के लिए
कुछ भी प्रतिकूल नहीं हो सका। मीरा ने जब उस सांप की पिटारी को खोल देखा तो उसे वहाँ सांप के स्थान
पर शालिग्राम की मूर्ति दिखाई पड़ी। मीरां ने शालिग्राम की उस मूर्ति को प्रेमाश्रुओं से नहला ही दिया। इसी प्रकार
की अनेक यातनाएँ मीरां को दी गई। मीरां के जीवन पर इन यातनाओं का अधिक प्रभाव पड़ा था। मीरा को
भेजे गये विष-प्याले की घटना का उल्लेख तो अन्य कई कवियों ने भी किया है। मीराबाई की मृत्यु सन् 1546 ई. के आसपास मानी जाती है। 

मीरा के पद का पाठ प्रवेश



लोक कथाओं के अनुसार अपने जीवन में आए कठिन दुखों से मुक्ति पाने के लिए मीरा घर – परिवार छोड़ कर वृन्दावन में जा बसी थी और कृष्ण प्रेम में लीन हो गई थी।  इनकी रचनाओं में इनके आराध्य ( कृष्ण ) कहीं निर्गुण निराकार ब्रह्मा अर्थात  जिसका कोई रूप आकर न हो ऐसे प्रभु , कहीं सगुण  साकार गोपीवल्लभ श्रीकृष्ण और कहीं निर्मोही परदेसी जोगी अर्थात जिसे किसी की परवाह नहीं ऐसे  संत के रूप में दिखाई देते हैं।
प्रस्तुत पाठ में संकलित दोंनो पद मीरा के इन्ही आराध्य अर्थात श्रीकृष्ण को समर्पित हैं। मीरा अपने प्रभु की झूठी प्रशंसा भी करती है ,प्यार भी करती हैं और अवसर आने पर डांटने से भी नहीं डरती। श्रीकृष्ण की शक्तिओं व सामर्थ्य का गुणगान भी करती हैं और उनको उनके कर्तव्य भी याद दिलाती हैं।

मीरा के पद पाठ सार

इन पदों में मीराबाई श्री कृष्ण का भक्तों के प्रति प्रेम और अपना श्री कृष्ण के प्रति भक्ति – भाव का वर्णन करती है। पहले पद में मीरा श्री कृष्ण से कहती हैं कि  जिस प्रकार आपने द्रोपदी ,प्रह्लाद और ऐरावत के दुखों को दूर किया था उसी तरह मेरे भी सारे दुखों का नाश कर दो।
दूसरे पद में मीरा श्री कृष्ण के दर्शन का एक भी मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहती , वह श्री कृष्ण की दासी बनाने को तैयार है ,बाग़ – बगीचे लगाने को भी तैयार है ,गली गली में श्री कृष्ण की लीलाओं का बखान भी करना चाहती है ,ऊँचे ऊँचे महल भी बनाना चाहती है , ताकि दर्शन का एक भी  मौका न  चुके।
श्री कृष्ण के मन मोहक रूप का वर्णन भी किया है और मीरा कृष्ण के दर्शन के लिए इतनी व्याकुल है की आधी रात को ही कृष्ण को दर्शन देने के लिए बुला रही है।



मीरा के पद पाठ की व्याख्या

1.हरि आप हरो जन री भीर।
द्रोपदी री लाज राखी , आप बढ़ायो चीर।
भगत कारण रूप नरहरि , धरयो आप सरीर।
बूढ़तो गजराज राख्यो , काटी कुञ्जर पीर।
दासी मीराँ लाल गिरधर , हरो म्हारी भीर।।

प्रसंग :- प्रस्तुत पाठ हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श ‘ से लिया गया है। इस पद की कवयित्री मीरा है। इसमें कवयित्री भगवान श्री कृष्ण के भक्त – प्रेम को दर्शा रही हैं और स्वयं की रक्षा की गुहार लगा रही है ।

व्याख्या -: इस पद में कवयित्री मीरा भगवान श्री कृष्ण के भक्त – प्रेम का वर्णन करते हुए कहती हैं कि आप अपने भक्तों के सभी प्रकार के दुखों को हरने वाले हैं अर्थात दुखों का नाश करने वाले हैं। मीरा उदाहरण देते हुए कहती हैं कि जिस तरह आपने द्रोपदी की इज्जत को बचाया और साडी के कपडे को बढ़ाते चले गए ,जिस तरह आपने अपने भक्त प्रह्लाद को बचाने के लिए नरसिंह का शरीर धारण कर लिया और जिस तरह आपने हाथियों के राजा भगवान इंद्र के वाहन ऐरावत हाथी को मगरमच्छ के चंगुल से बचाया था ,हे ! श्री कृष्ण उसी तरह अपनी इस दासी अर्थात भक्त के भी सारे दुःख हर लो अर्थात सभी दुखों का नाश कर दो।



2.स्याम म्हाने चाकर राखो जी,
गिरधारी लाला म्हाँने चाकर राखोजी।
चाकर रहस्यूँ बाग लगास्यूँ नित उठ दरसण पास्यूँ।
बिन्दरावन री कुंज गली में , गोविन्द लीला गास्यूँ।
चाकरी में दरसन पास्यूँ, सुमरन पास्यूँ खरची।
भाव भगती जागीरी पास्यूँ , तीनूं बाताँ सरसी।
मोर मुगट पीताम्बर सौहे , गल वैजन्ती माला।
बिन्दरावन में धेनु चरावे , मोहन मुरली वाला।
ऊँचा ऊँचा महल बनावँ बिच बिच राखूँ बारी।
साँवरिया रा दरसण पास्यूँ ,पहर कुसुम्बी साड़ी।
आधी रात प्रभु दरसण ,दीज्यो जमनाजी रे तीरा।
मीराँ रा प्रभु गिरधर नागर , हिवड़ो घणो अधीरा।

प्रसंग -: प्रस्तुत पद हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श ‘ से लिया गया है। इस पद की कवयित्री मीरा है। इस पद में कवयित्री मीरा श्री कृष्ण के प्रति अपने प्रेम का वर्णन कर रही है और श्री कृष्ण के दर्शन के लिए वह कितनी व्याकुल है यह दर्शा रही है।

व्याख्या -: इस पद में कवयित्री मीरा श्री कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति भावना को उजागर करते हुए कहती हैं कि हे !श्री कृष्ण मुझे अपना नौकर बना कर रखो अर्थात मीरा किसी भी तरह श्री कृष्ण के नजदीक रहना चाहती है फिर चाहे नौकर बन कर ही क्यों न रहना पड़े।  मीरा कहती हैं कि नौकर बनकर मैं बागीचा लगाउंगी ताकि सुबह उठ कर रोज आपके दर्शन पा सकूँ। मीरा कहती हैं कि वृन्दावन की संकरी गलियों में मैं अपने स्वामी की लीलाओं का बखान करुँगी।  मीरा का मानना है कि नौकर बनकर उन्हें तीन फायदे होंगे पहला – उन्हें हमेशा कृष्ण के दर्शन प्राप्त होंगे , दूसरा- उन्हें अपने प्रिय की याद नहीं सताएगी और तीसरा- उनकी भाव भक्ति का साम्राज्य बढ़ता ही जायेगा।
मीरा श्री कृष्ण के रूप का बखान करते हुए कहती हैं कि उन्होंने पीले वस्त्र धारण किये हुए हैं ,सर पर मोर के पंखों का मुकुट विराजमान है और गले में वैजन्ती फूल की माला को धारण किया हुआ है।
वृन्दावन में गाय चराते हुए जब वह मोहन मुरली बजाता है तो सबका मन मोह लेता है।
मीरा कहती है कि मैं बगीचों के बिच ही ऊँचे ऊँचे महल बनाउंगी और कुसुम्बी साड़ी पहन कर अपने प्रिय के दर्शन करुँगी अर्थात श्री कृष्ण के दर्शन के लिए साज श्रृंगार करुँगी। मीरा कहती हैं कि हे !मेरे प्रभु गिरधर स्वामी मेरा मन आपके दर्शन के लिए इतना बेचैन है कि वह सुबह का इन्तजार नहीं कर सकता। मीरा चाहती है की श्री कृष्ण आधी रात को ही जमुना नदी के किनारे उसे दर्शन दे दें।

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