प्रयोगवाद
हिन्दी मे प्रयोगवाद का प्रारंभ सन् 1943 मे अज्ञेय के सम्पादन मे
प्रकाशित तारसप्तक से माना जा सकता है। इसकी भूमिका मे अज्ञेय ने लिखा है-कि कवि
नवीन राहों के अन्वेषी हैं।" स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अज्ञेय के
सम्पादक मे प्रतीक पत्रिका प्रकाशन हुआ। उसमे प्रयोगवाद का स्वरूप स्पष्ट हुआ। सन्
1951 मे दूसरा तार सप्तक प्रकाशित हुआ और तत्पश्चात तीसरा तार सप्तक।
Prem Yaduvanshi : |
प्रयोगवाद हिन्दी साहित्य की आधुनिकतम विचारधार है। इसका एकमात्र उद्देश्य
प्रगतिवाद के जनवादी दृष्टिकोण का विरोध करना है। प्रयोगवाद कवियों ने काव्य के
भावपक्ष एवं कलापक्ष दोनों को ही महत्व दिया है। इन्होंने प्रयोग करके नये
प्रतीकों, नये उपमानों एवं नवीन बिम्बों का प्रयोग कर काव्य को नवीन छवि प्रदान की है।
प्रयोगवादी कवि अपनी मानसिक तुष्टि के लिए कविता की रचना करते थे।
जीवन और जगत के
प्रति अनास्था प्रयोगवाद का एक आवश्यक तत्व है। साम्यवाद के प्रति भी अनास्था
उत्पन्न कर देना उसका लक्ष्य है। वह कला को कला के लिए, अपने अहं की अभिव्यक्ति के
लिए ही मानता है।
Prem Yaduvanshi : |
प्रयोगवाद की विशेषताएं
प्रयोगवाद की निम्नलिखित विशेषताएं हैं--
1. नवीन उपमानों का प्रयोग
प्रयोगवादी
कवियों ने पुराने एवं प्रचलित उपमानों के स्थान पर नवीन उपमानों का प्रयोग किया
हैं। प्रयोगवादी कवि मानते है कि काव्य के पुराने उपमान अब बासी पड़ गए हैं।
2. वैयक्तिकता की प्रधानता
प्रयोगवादी कविता में सामाजिक दृष्टिकोण के प्रति व्यक्तिवाद की घोर
प्रतिक्रिया हुई। प्रयोगवादी कवि अहं से जकड़ा हुआ है। वह समाज से दृष्टि हटाकर
अपने तक ही सीमित रहना चाहता है। भारत भूषण की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं--
साधारण नगर के, एक साधारण घर में
मेरा जन्म हुआ है,
बचपन बीता अति साधारण, साधारण खान-पान।
3. प्रेम भावनाओं का खुला चित्रण
इन्होंने
ने प्रेम
भावनाओं का अत्यंत खुला चित्रण कर उसमे अश्लीलता का समावेश कर दिया है।
4. यौन-भावनाओं का खुला चित्रण
प्रयोगवादी कवि यौन (सैक्स) भावनाओं से आक्रांत है। वह इस भावना को अप्रत्यक्ष
और प्रत्यक्ष दोनों रूपों में व्यक्त करता है। अज्ञेय ने इस विषय में लिखा है कि
आज के मानव का मन यौन-परिकल्पनाओं से लदा है और वे सब कल्पनायें कुण्ठित है। उसकी
सौंदर्य चेतना भी इसमें आक्रांत है। उसके उपमान सब यौन कल्पनायें कुण्ठित हैं।
उसकी सौंदर्य चेतना भी इसमें आक्रांत है। उसके उपमान सब यौन प्रतीकात्मक है। इस
प्रकार प्रयोगवादी कवि सेक्स की भावना से आबद्ध है। उसे मलमल की बारीक साड़ी के
मध्य गुलाबी चोली में कसे स्तनों का सौंदर्य अपनी ओर आकर्षित करता हैं-
"पगले! तू क्यों उसमें फँसता है? रे दुनियादारी,
तह महीन मलमल की सारी।
उसके नीचे नरम गुलाबी चोली में कसे हुए, पीनोन्नत स्तन।।"
5. बुद्धिवाद की प्रधानता
प्रगतिवादी
कवियों ने बुद्धि तत्व को अधिक प्रधानता दी है इसके कारण काव्य मे कहीं-कहीं
दुरूहता आ गई है।
6. वैचित्र्य प्रदर्शन की भावना
प्रयोगवादी कविता में वैचित्र्य प्रदर्शन की भावना के भी दर्शन होते है। इसमें
विलक्षणता, आश्चर्य और नवीनता के दर्शन होते है। कहीं-कहीं पर प्रयोगवादी वैचित्र्य
प्रदर्शन मात्र हास्य की वस्तु बनकर ही रह गया है, यथा
"अगर कहीं मैं- तोता होता!
तो क्या होता? तो क्या होता? तोता होता।।
7. सौंदर्य के प्रति व्यापक दृष्टिकोण
सौंदर्यानुभूति मानव का शाश्वत गुण है। प्रयोगवादी कविता में सौंदर्य के
व्यापक स्वरूप के दर्शन होते हैं। प्रयोगवादी कवि संसार से तुच्छ वस्तु में भी
सौंदर्य का आभास पाता हैं--
'हवा चली, छिपकली की टाँग,
मकड़ी के जाले में फँसी रही, फँसी रही।।"
8. निराशावाद की प्रधानता
इस काल के
कवियों ने मानव मन की निराशा, कुंठा व हताशा का यथातथ्य रूप मे वर्णन किया है।
9. लघुमानव वाद की प्रतिष्ठा
इस काल की
कविताओं मे मानव से जुड़ी प्रेत्यक वस्तु को प्रतिष्ठा प्रदान की गई है तथा उसे
कविता का विषय बनाया गया है।
10. अहं की प्रधानता
फ्रायड के
मनोविश्लेषण से प्रभावित ये कवि अपने अंह को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं।
11. रूढ़ियों के प्रति विद्रोह
इस काल की
कविताओं मे रूढ़ियों के प्रति विद्रोह का स्वर मुखर हुआ है। इन कवियों ने रूढ़ि
मुक्त नवीन समाज की स्थापना पर बल दिया हैं।
12. मुक्त छन्दों का प्रयोग
प्रगतिवादी
कवियों ने अपनी कविताओं के लिए मुक्त छन्दों का चयन किया हैं।
13. व्यंग्य की प्रधानता
इस काल के
कवियों ने व्यक्ति व समाज दोनों पर अपनी व्यंग्यात्मक लेखनी चलाई है।