Showing posts with label हिन्दी नाटक की समीक्षा. Show all posts
Showing posts with label हिन्दी नाटक की समीक्षा. Show all posts

Monday

प्रसाद की ध्रुवस्वामिनी और नारी

 प्रसाद की ध्रुवस्वामिनी और नारी



ध्रुवस्वामिनी में प्रसाद ने अपने युग से सम्बद्ध दो समस्याओं को मुख्य रूप से उठाया है जो नारी के विवाह-मोक्ष और राज्याधिकार से सम्बंधित है। विवाह-मोक्ष और पुनर्लग्न की समस्या जो भारतीय समाज की सर्वकालिक समस्या है इस नाटक की केंद्रीय समस्या है। इसके अंतर्गत नाटककार ने समाज में नारी का स्थान क्या है? क्या उसका पुनर्विवाह संभव है? वह जिस पुरुष से प्रेम करती है उससे विवाह नहीं कर पाती और जिससे उसका विवाह हुआ है उससे वह प्रेम नहीं करती, इन समस्याओं का सूत्रपात नाटक के प्रारंभ में ही हो जाता है जब ध्रुवस्वामिनी अपने वैवाहिक जीवन पर शंका प्रकट करते हुए कहती है कि –

“उस दिन राजपुरोहित ने कुछ आहुतियों के बाद मुझे जो आशीर्वाद दिया था क्या वह अभिशाप था?”

विवाह-मोक्ष की समस्या उस समय और भी प्रबल हो जाती है जब रामगुप्त विवाह की धार्मिक क्रिया को ही अस्वीकार करते हुए कहता है कि –

“मैं तो द्राक्षासव में उस दिन डुबकी लगा रहा था कि पुरोहितों ने न जाने क्या पढ़ा दिया होगा? ”

ध्रुवस्वामिनी में पुरुष सत्तात्मक समाज के शोषण के प्रति नारी का विद्रोही स्वर सुनाई पड़ता है। हालाँकि नाटककार ने समाज में पुरुषों के हाथों नारी की शोचनीय अवस्था का यथार्थ चित्रण किया है किन्तु नारी स्वातंत्र्य की आधुनिक चेतना के कारण ही इसमें नारी पहली बार प्रतिक्रिया करती हुई दिखाई देती है।

उदहारण के लिए –“पुरुषों ने स्त्रियों को पशु-संपत्ति समझकर उस पर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया है। यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते, अपने कुल की मर्यादा, नारी का गौरव नहीं बचा सकते तो मुझे बेच भी नहीं सकते।”



प्रसाद का युग नवजागरण का युग था जब एक ओर गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता आन्दोलन चल रहे थे तो दूसरी ओर राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद जैसे समाज-सुधारक जिन सामाजिक बुराईयों से जूझ रहे थे, नारी स्वातंत्र्य उनमें महत्वपूर्ण था। इसलिए ध्रुवस्वामिनी में प्रसाद ने नारी शोषण, बेमेल विवाह, पुनर्विवाह, निर्णय का अधिकार आदि पर गहन विचार किया है। धर्म और परम्परानुमोदित रीति- नीति की हमारे जातीय जीवन में व्यापक स्वीकृति है। इसलिए नारी स्वतंत्रता का पक्ष लेते हुए तलाक या पुनर्विवाह की समस्या को नाटककार ने शास्त्र अनुमोदित दृष्टि से ही पुरोहित द्वारा सुलझवाया है। यथा-

“विवाह की विधि ने देवी ध्रुवस्वामिनी और रामगुप्त को एक भ्रांतिपूर्ण बंधन में बाँध दिया है। धर्म का उद्देश्य इस तरह पददलित नहीं किया जा सकता।”

धर्मभीरुता भारतीय समाज की ज्वलंत समस्या रही है। ध्रुवस्वामिनी में प्रसाद ने नारी जीवन से सम्बंधित रुढियों पर प्रहार करते हुए नवजागरण की भूमिका प्रस्तुत की है। बदली हुई मानसिकता को व्यापक रूप प्रदान करने के लिए इस नाटक में मंदाकिनी जैसे पात्रों की सृष्टि की गयी है, जो धर्मशास्त्रीय रीतियों के खिलाफ आवाज उठाती है कि क्या धर्म केवल नारी के अधिकारों को छीनने के लिए ही है या उन्हें कोई और सुरक्षा प्रदान करने के लिए भी। जैसे –

“जिन स्त्रियों को धर्मं बंधन में बांधकर उसकी सम्मति के बिना उसका अधिकार छीन लेते हैं, क्या धर्मं के पास कोई प्रतिकार कोई संरक्षण नहीं जिससे स्त्रियाँ आपत्ति में अपना अवलंब मांग सके।”

ध्रुवस्वामिनी में प्रसाद ने नारी अस्मिता तथा तलाक की समस्या को युगीन सन्दर्भ में उठाया है। पुरोहित द्वारा विवाह की व्याख्या में नारी समानाधिकार की ही वकालत की गयी है।

यथा- “स्त्री और पुरुष का परस्पर विश्वासपूर्ण अधिकार, रक्षा और सहयोग ही तो विवाह कहलाता है। यदि ऐसा न हो तो धर्मं और विवाह खेल है।”

कहना न होगा कि विवाह, मोक्ष, पुनर्लग्न के सन्दर्भ में नाटककार के विचार भारतीय चिंतन से प्रेरित तो हैं ही, आधुनिक समाज में नारी की भूमिका एवं उसके पहचान को भी व्याख्यायित करते हैं।

क्या आप जानते हैं ?

ध्रुवस्वामिनी के प्रकाशन से पहले प्रसाद जी पर यह आरोप किया जाता था कि उनके नाटक काव्य-रूपक हैं, उनके संवादों में कृत्रिमता है। कहा जाता था कि उनके संवादों में चमत्कार, वाग्वैदग्ध्य और जवाब-सवाल की कमी है।



ध्रुवस्वामिनी नाटक में राज्याधिकार से सम्बंधित समस्या भी प्रमुख समस्या है। क्रूर, कायर, मद्यप, अकर्मण्य राजा को गद्दी से हटाया जा सकता है अथवा नहीं। वस्तुतः अयोग्य शासक की व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह, राष्ट्र-सम्मान और स्वाभिमान के लिए प्राणोत्सर्ग तथा अक्षम शासक की दुर्गति की मांग भी प्रसाद के समय महत्वपूर्ण थे। इसलिए इस नाटक की मूल समस्या के रूप में ही इन समस्याओं को भी प्रतिपादित किया गया है। सामाजिक समस्या के ताने-बाने में ही राजनैतिक अव्यवस्था को भी उभारा गया है। रामगुप्त ने गुप्त साम्राज्य पर कौशलपूर्वक अधिकार तो कर लिया था लेकिन उसकी रक्षा कर पाने में वह अक्षम था। इसलिए शक आक्रमण का समाचार सुनकर भी वह अपनी प्रेम संबंधी चिंता में लीन रहा। युद्ध परिषद् में युद्ध की समस्या पर विचार करने के बजाय उसे हिजड़ों और बौनों का नृत्य अधिक आकर्षक और मोहक प्रतीत हुआ। शक संधि की शर्तों में ध्रुवस्वामिनी और सामंत स्त्रियों की मांग को सुनकर वह अपना क्षत्रिय धर्म निभाने के बदले शांत भाव से कहता है –“ठीक ही है जब उसके यहाँ सामंत हैं, तब उन लोगों के लिए भी स्त्रियाँ चाहिए।”

रामगुप्त जब किसी प्रकार ध्रुवस्वामिनी की रक्षा के लिए तैयार नहीं हुआ तब चन्द्रगुप्त अपने प्राणों की बाजी लगाकर शक शिविर में जाकर शकराज का वध करता है और ध्रुवस्वामिनी और गुप्त साम्राज्य की रक्षा करता है। चन्द्रगुप्त के विजयोपरांत रामगुप्त राज्य पर अपना अधिकार प्रकट करता है किन्तु विद्रोह के कारण वह सफल नहीं हो पाता है।

ध्रुवस्वामिनी और चन्द्रगुप्त का पुनर्लग्न प्रसाद की प्रगतिशीलता है क्योंकि वह पौरुष के बल पर नारी को दासी मानने वाले रामगुप्त का परित्याग कर अपनी इच्छा से चन्द्रगुप्त का वरण करती है। तत्कालीन परिस्थिति में इसे विधवा विवाह से अधिक क्रांतिकारी कदम मानना चाहिए। भारतीय समाज में उपेक्षित एवं शोषित नारी वर्ग की यथार्थ स्थिति के प्रति सजग एवं जागरुक रचनाकार प्रसाद ने मुक्ति के इस सन्देश द्वारा इतिहास को सामाजिक परिवर्तन की निर्माणात्मक भूमिका में ला खड़ा किया है।

ध्रुवस्वामिनी में उपर्युक्त समस्या का समावेश होने पर भी उसे समस्या नाटक की संज्ञा देने में विद्वानों में पर्याप्त मतभिन्नता है। नन्द दुलारे वाजपेयी मानते हैं कि ध्रुवस्वामिनी नाटक में समस्या अवश्य है परन्तु वह समस्या नाटक नहीं है। गोविन्द चातक इसे समस्या नाटक की अपेक्षा विषयनाटक मानते हैं, क्योंकि इस समस्या को लेखक ने अपनी दृष्टि से देखकर, अपने चिंतन के अनुसार ही समाधान प्रस्तुत किया है। कुछ आलोचक इसे इब्सन के प्रसिद्ध नाटक ‘द डॉल्स हाउस’ की प्रेरणा पृष्ठभूमि के रूप में स्वीकार करते हैं। इसमें संदेह नहीं कि प्रसाद जी ने जो समस्याएँ उठाई है उनका प्रस्तुतीकरण ऐसा नहीं है कि ध्रुवस्वामिनी को इब्सन, बर्नार्ड शॉ और गार्ल्सवर्दी की समस्या नाटकों की पंक्ति में रखा जा सके। वस्तुतः अधिकांश आलोचकों ने ध्रुवस्वामिनी को आधुनिक ढंग का समस्या नाटक मानने में असमर्थता ही जाहिर की है। कहा जा सकता है कि इस नाटक में प्रसाद ने सामाजिक जीवन में नारी की स्थिति, दासता की श्रृंखला से उसकी मुक्ति का प्रश्न एवं विशिष्ट परिस्थिति में पुनर्विवाह की समस्या जैसे प्रश्नों को उठाया है। इतिहास के भिन्न-भिन्न पृष्ठों में विश्रृंखल कथा-माणिक्यों को कल्पना के एक सूत्र में पिरोकर उन्होंने निश्चय ही सफल ऐतिहासिक नाटक की रचना की है जिसमें समस्याओं के चित्रण तथा युगानुरूप विचार-संयोजन की ओर भी ध्यान दिया गया है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार - ध्रुवस्वामिनी में नारी के अस्तित्व, स्वातंत्र्य और मोक्ष की जो समस्या प्रसाद ने इतिहास के पृष्ठों से उठायी है वह स्वयं उनके युग की नारी समस्या थी। यह समस्याप्रधान नाटक नहीं है पर सामाजिक एवं राजनैतिक समस्याओं को उन्होंने जीवंत रूप से उठाया है।”

परीक्षा के एक दिन पूर्व दो मित्रों की बातचीत का संवाद लेखन कीजिए-

संवाद लेखन किसे कहते हैं  संवाद लेखन -  वह लेखनी है जिसमें दो या अधिक व्यक्तियों के बीच होने वाली बातचीत को लिखित रूप में व्यक्त किया जाता ह...