प्रगतिशील काव्य-धारा के प्रमुख कवि त्रिलोचन का जन्म 20 अगस्त 1917 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर के चिरानी पट्टी में हुआ। उनका मूल नाम वासुदेव सिंह था। उपाधि से वह त्रिलोचन ‘शास्त्री’ कहलाए। काशी से अँग्रेज़ी और लाहौर से संस्कृत की शिक्षा के बाद वह पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हुए। उन्हें अरबी और फ़ारसी भाषाओं का भी ज्ञान था। प्रभाकर, वानर, हंस, आज, समाज आदि पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया।
केदारनाथ सिंह उनका कवि-परिचय इन शब्दों में कराते हुए कहते हैं कि ‘‘त्रिलोचन एक विषम धरातल वाले कवि हैं। साथ ही उनके रचनात्मक व्यक्तित्व में एक विचित्र विरोधाभास भी दिखाई पड़ता है। एक ओर यदि उनके यहाँ गाँव की धरती का-सा ऊबड़खाबड़पन दिखाई पड़ेगा तो दूसरी ओर कला की दृष्टि से एक अद्भुत क्लासिकी कसाव या अनुशासन भी। त्रिलोचन की सहज-सरल-सी प्रतीत होने वाली कविताओं को भी यदि ध्यान से देखा जाए तो उनकी तह में अनुभव की कई परते खुलती दिखाई पड़ेंगी। त्रिलोचन के यहाँ आत्मपरक कविताओं की संख्या बहुत अधिक है। अपने बारे में हिंदी के शायद ही किसी कवि ने इतने रंगों में और इतनी कविताएँ लिखी हों। पर त्रिलोचन की आत्मपरक कविताएँ किसी भी स्तर पर आत्मग्रस्त कविताएँ नहीं हैं और यह उनकी गहरी यथार्थ-दृष्टि और कलात्मक क्षमता का सबसे बड़ा प्रमाण है। भाषा के प्रति त्रिलोचन एक बेहद सजग कवि हैं। त्रिलोचन की कविता में बोली के अपरिचित शब्द जितनी सहजता से आते हैं, कई बार संस्कृत के कठिन और लगभग प्रवाहच्युत शब्द भी उतनी ही सहजता से कविता में प्रवेश करते हैं और चुपचाप अपनी जगह बना लेते हैं।’’
त्रिलोचन को हिंदी में सॉनेट (अँग्रेज़ी छंद) को स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है। सॉनेट के अतिरिक्त उन्होंने गीत, बरवै, ग़ज़ल, चतुष्पदियाँ और कुछ कुंडलियाँ भी लिखी हैं। मुक्त छंद की छोटी और लंबी कविताएँ भी उनके पास है। काव्य रूपों के अलावे उन्होंने कहानी और आलोचना में भी योगदान किया। ‘धरती’ (1945), ‘दिगंत’ (1957), ‘ताप के ताए हुए दिन’ (1980), ‘शब्द’ (1980), ‘उस जनपद का कवि हूँ’ (1981), ‘अरधान’ (1983), ‘गुलाब और बुलबुल’ (1985), ‘अनकहनी भी कुछ कहनी है’ (1985), ‘तुम्हें सौंपता हूँ’ (1985), ‘फूल नाम है एक’ (1985), ‘चैती’ (1987), ‘सबका अपना आकाश’ (1987), ‘अमोला’ (1990) उनके काव्य-संग्रह हैं। उन्होंने ‘मुक्तिबोध की कविताएँ’ का संपादन किया है। उनकी एक डायरी भी प्रकाशित है।
वह मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रीय सम्मान से विभूषित हैं। ‘ताप के ताए हुए दिन’ संग्रह के लिए उन्हें 1981 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
चंपा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती’ कविता धरती संग्रह में संकलित है। यह पलायन के लोक अनुभवों को मार्मिकता से अभिव्यक्त करती है। इसमें ‘अक्षरों’ के लिए ‘काले-काले’ विशेषण का प्रयोग किया गया है जो एक ओर शिक्षा-व्यवस्था के अंतर्विरोधों को उजागर करता है तो दूसरी ओर उस दारुण यथार्थ से भी हमारा परिचय कराता है जहाँ आर्थिक मजबूरियों के चलते घर टूटते हैं। काव्य नायिका चंपा अनजाने ही उस शोषक व्यवस्था के प्रतिपक्ष में खड़ी हो जाती है जहाँ भविष्य को लेकर उसके मन में अनजान खतरा है। वह कहती है ‘कलकत्ते पर बजर गिरे।” कलकत्ते पर वज्र गिरने की कामना, जीवन के खुरदरे यथार्थ के प्रति चंपा के संघर्ष और जीवन को प्रकट चंपा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती का सारांश करती है।
काव्य की नायिका चंपा अक्षरों को नहीं पहचानती। जब कवि पढ़ता है तो चुपचाप पास खड़ी होकर आश्चर्य से सुनती है। वह एक सुंदर नामक ग्वाले की लड़की है तथा गाएँ-भैसें चराने का काम करती है। वह अच्छी व चंचल है। कभी वह कवि की कलम चुरा लेती है तो कभी कागज। इससे कवि परेशान हो जाता है। चंपा कहती है कि दिन भर कागज लिखते रहते हो। क्या यह काम अच्छा है? कवि हँस देता है। एक दिन कवि ने चंपा से पढ़ने-लिखने के लिए कहा। उन्होंने इसे गाँधी बाबा की इच्छा बताया। चंपा ने कहा कि वह नहीं पढ़ेगी।गाँधी जी को बहुत अच्छे बताते हो, फिर वे पढ़ाई की बात कैसे कहेंगे? कवि ने कहा कि पढ़ना अच्छा है। शादी के बाद तुम ससुराल जाओगी। तुम्हारा पति कलकत्ता काम के लिए जाएगा। अगर तुम नहीं पढ़ी तो उसके पत्र कैसे पढ़ोगी या अपना संदेशा कैसे दोगी? इस पर चंपा ने कहा कि तुम पढ़े-लिखे झूठे हो। वह शादी नहीं करेगी। यदि शादी करेगी तो अपने पति को कभी कलकत्ता नहीं जाने देगी। कलकत्ता पर भारी विपत्ति आ जाए, ऐसी कामना वह करती है।
चंपा काल-काल काले-काले अच्छर नहीं चिन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता हैं:
इन काले चीन्हों से कैसे ये सब स्वर
निकला करते हैं।
व्याख्या – कवि चंपा नामक लड़की, जो की अनपढ़ है, उसकी निरक्षरता के बारे में बताते हुए कहता है कि चंपा काले-काले अक्षरों को नहीं पहचानती। अर्थात उसे अक्षर ज्ञान नहीं है, उसे पढ़ना नहीं आता। जब कवि पढ़ने लगता है तो वह वहाँ आ जाती है। वह उसके द्वारा बोले गए अक्षरों को चुपचाप खड़ी-खड़ी सुना करती है। उसे इस बात की बड़ी हैरानी होती है कि इन काले अक्षरों से ये सभी ध्वनियाँ कैसे निकलती हैं? कहने का तात्पर्य यह है कि वह अक्षरों की ध्वनि व् अर्थ से हैरान होती है।
चंपा सुंदर की लड़की है
सुंदर ग्वाला है: गाएँ-भैंसे रखता है
चंपा चौपायों को लकर
चरवाही करने जाती है
चंपा अच्छी हैं
चंचल हैं
नटखट भी है
कभी-कभी ऊधम करती हैं
कभी-कभी वह कलम चुरा देती है
जैसे तैसे उसे ढूँढ़ कर जब लाता हूँ
पाता हूँ-अब कागज गायब
परेशान फिर हो जाता हूँ
व्याख्या – कवि चंपा के विषय में बताता है कि वह सुंदर नामक एक ग्वाले की लड़की है। वह गाएँ-भैंसें रखता है। चंपा उन सभी पशुओं को प्रतिदिन चराने के लिए लेकर जाती है। वह बहुत अच्छी है और थोड़ी चंचल भी है। वह शरारतें भी करती है। कभी वह कवि की कलम चुरा लेती है। कवि किसी तरह उस कलम को ढूँढ़कर लाता है तो उसे पता चलता है कि अब कागज गायब हो गया है। कवि चंपा की इन शरारतों से कभी-कभी परेशान भी हो जाता है।
चंपा कहती है:
तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर
क्या यह काम बहुत अच्छा है
यह सुनकर मैं हँस देता हूँ
फिर चंपा चुप हो जाती है
चंपा ने यह कहा कि
मैं तो नहीं पढूँगी
तुम तो कहते थे गाँधी बाबा अच्छे हैं
उस दिन चंपा आई, मैंने कहा कि
चंपा, तुम भी पढ़ लो
हारे गाढ़े काम सरेगा
गाँधी बाबा की इच्छा है
सब जन पढ़ना-लिखना सीखें
वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे
मैं तो नहीं पढूँगी
व्याख्या – कवि कहता है कि चंपा को काले अक्षरों से कोई संबंध नहीं है। वह कवि से पूछती है कि तुम दिन-भर कागज पर लिखते रहते हो। क्या यह काम तुम्हें बहुत अच्छा लगता है। उसकी नजर में लिखने के काम की कोई महत्ता नहीं है। उसकी बात सुनकर कवि हँसने लगता है और चंपा चुप हो जाती है। एक दिन चंपा आई तो कवि ने उससे कहा कि तुम्हें भी पढ़ना सीखना चाहिए। मुसीबत के समय तुम्हारे काम आएगा। वह महात्मा गाँधी की इच्छा को भी बताता है कि गाँधी जी की इच्छा थी कि सभी आदमी पढ़ना-लिखना सीखें। चंपा कवि की बात का उत्तर देती है कि वह नहीं पढ़ेगी। आगे कहती है कि तुम तो कहते थे कि गाँधी जी बहुत अच्छे हैं। फिर वे पढ़ाई की बात क्यों करते हैं? चंपा महात्मा गाँधी की अच्छाई या बुराई का मापदंड पढ़ने की सीख से लेती है। वह न
पढ़ने का निश्चय दोहराती है।
मैंने कहा कि चंपा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा, तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम सग साथ रह चंपा जाएगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर हैं वह कलकत्ता
कैसे उसे सँदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी।
चंपा पढ़ लेना अच्छा है।
व्याख्या – कवि चंपा को पढ़ने की सलाह देता है तो वह स्पष्ट तौर पर मना कर देती है। फिर कवि चंपा को शिक्षा के लाभ गिनाता है। वह उसे कहता है कि तुम्हारे लिए पढ़ाई-लिखाई जरूरी है। एक दिन तुम्हारी शादी भी होगी और तुम अपने पति के साथ ससुराल जाओगी। वहाँ तुम्हारा पति कुछ दिन साथ रहकर नौकरी के लिए कलकत्ता चला जाएगा। कलकत्ता यहाँ से बहुत दूर है। ऐसे में तुम उसे अपने विषय में कैसे बताओगी? तुम उसके पत्रों को किस प्रकार पढ़ पाओगी? इसलिए तुम्हें पढ़ना चाहिए।
चंपा बोली; तुम कितने झूठे हो, देखा,
हाय राम, तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करूंगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को सँग साथ रखूँगी
कलकत्ता मैं कभी न जाने दूँगी
कलकत्ते पर बजर गिरे।
व्याख्या – कवि द्वारा चंपा को पढ़ने की सलाह पर वह उखड़ जाती है। वह कहती है कि तुम बहुत झूठ बोलते हो। तुम पढ़-लिखकर भी झूठ बोलते हो। जहाँ तक शादी की बात है, तो मैं शादी ही कभी नहीं करूंगी। और यदि कहीं शादी भी हो गई तो मैं अपने पति को अपने साथ रखेंगी। उसे कभी कलकत्ता नहीं जाने दूँगी। दूसरे शब्दों में, वह अपने पति का शोषण नहीं होने देगी। चंपा यहाँ तक कह देती है कि परिवारों को दूर करने वाले शहर कलकत्ते पर वज्र गिरे। वह अपने पति को कलकत्ता से दूर रखेगी।