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मुंशी प्रेमचंद की जयंती

                            

                         प्रेमचंद का जीवन परिचय

प्रेमचंद का नाम असली नाम धनपत राय था. उनका जन्म 31 जुलाई, 1880 को बनारस के लमही नामक गांव में हुआ था।इन्होंने ब्रिटिश हुकूमत की सजा भी भोगी, लेकिन पीछे नहीं हटे।अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम के कहने पर उन्होंने अपना नाम धनपतराय की जगह प्रेमचंद रख लिया। इनके पिता का नाम मुंशी अजायब लाल था, जो डाकघर में मुंशी का पद संभालते थे।
प्रेमचंद जब 6 वर्ष के थे, तब उन्हें लालगंज गांव में रहने वाले एक मौलवी के घर फारसी और उर्दू पढ़ने के लिए भेजा गया।वह जब बहुत ही छोटे थे, बिमारी के कारण इनकी मां का देहांत हो गया।उन्हें प्यार अपनी बड़ी बहन से मिला,बहन के विवाह के बाद वह अकेले हो गए, सूने घर में उन्होंने खुद को कहानियां पढ़ने में व्यस्त कर लिया।आगे चलकर वह स्वयं कहानियां लिखने लगे और महान कथाकार बने।इनका विवाह 15-16 वर्ष में ही कर दिया गया था, लेकिन ये विवाह उनको फला नहीं और कुछ समय बाद ही उनकी पत्नी का देहांत हो गया।कुछ समय बाद उन्होंने बनारस बाद चुनार के स्कूल में शिक्षक की नौकरी की, साथ ही बीए की पढ़ाई भी करते रहे बाद में उन्होंने एक बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया, जिन्होंने प्रेमचंद की जीवनी लिखी जिसको हम "प्रेमचंद घर में के नाम से पढ़ते है। "प्रेमचंद्र ने लगभग 300 कहानियां तथा चौदह बड़े उपन्यास लिखे।8 अक्टूबर 1936 को 56 वर्ष की उम्र में लंबी बिमारी के कारण उनका निधन हो गया।उनके रचे साहित्य का अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं के साथ-साथ विदेशी भाषाओं में भी हुआ है।
हिंदी साहित्य के सबसे लोकप्रिय लेखक प्रेमचंद ने हिंदी में कहानी और उपन्यास को सुदृढ़ नींव प्रदान की और यथार्थवादी चित्रण से देशवासियों का दिल जीत लिया।यही कारण है कि हिंदी साहित्य के इतिहास में हिंदी कहानी और हिंदी उपन्यास के समय का निर्धारण प्रेमचंद के नाम के आधार पर किया गया है,जिसको प्रेमचंद पूर्व हिंदी उपन्यास प्रेमचंद युगीन,और प्रेमचंद के बाद हिंदी उपन्यास के नाम से जाना जाता है।ये इनके साहित्य में योगदान को दर्शाता है।
हिन्दी कथा-साहित्य को तिलस्मी कहानियों के झुरमुट से निकालकर जीवन के यथार्थ की ओर मोड़कर ले जाने वाले कथाकार मुंशी प्रेमचंद देश ही नहीं, दुनिया में विख्यात हुए और 'कथा सम्राट' कहलाए।उन्‍होंने आमजन की पीड़ा को शब्दों में पिरोया, यही वजह है कि उनकी हर रचना कालजयी है और इनको यथार्थवादी रचनाकार के नाम से जाना जाता है।

पहली कहानी संग्रह को अंग्रेजी हुकूमत ने जला दिया
प्रेमचंद की पांच कहानियों का संग्रह 'सोज़े वतन' 1907 में प्रकाशित हुआ।सोज़े वतन, यानि देश का दर्द, प्रेमचंद की उर्दू कहानियों का यह पहला संग्रह था जो उन्होंने ‘नवाब राय’ के नाम से छपवाया था।अंग्रेजी हुक्मरानों को इन कहानियों में बगावत की गूंज सुनाई दी। हम्मीरपुर के कलक्टर ने प्रेमचंद को बुलवाकर उनसे इन कहानियों के बारे में पूछताछ की, प्रेमचंद ने अपना जुर्म कबूल किया,उन्हें कड़ी चेतावनी दी गयी और सोजे वतन की 500 प्रतियां जो अंग्रेजी हुकूमत के अफसरों ने जगह-जगह से जप्त की थीं। उनको सरे आम जलाने का हुक्म दिया गया हालांकि सोजे वतन में शामिल सभी पांच कहानियाँ उर्दू मासिक ‘जमाना’ में पहले ही छप चुकी थीं।
इसके बाद भी प्रेमचंद ने खूब लिखा. लगभग तीन सौ कहानियां और लगभग आधा दर्जन प्रमुख उपन्यास, साथ ही एक नाटक भी।उर्दू में भी लिखा और हिन्दी में भी,उनके विषय किसान, मजदूर, पत्रकारिता, पूंजीवाद, गांधीवाद, राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन, बेमेल विवाह, धार्मिक पाखंड, नारीवाद आदि रहे।
       प्रेमचंद राष्ट्रवाद को एक कोढ़ मानते थे
               आज पूरे देश में राष्ट्रवाद पर खूब चर्चा होती है।हर कोई इसकी परिभाषा अपने हिसाब से तय करता है, लेकिन प्रेमचंद के लिए राष्ट्रवाद का अर्थ आज के राष्ट्रवाद की तरह संकीर्ण नहीं बल्कि बहुत व्यापक थी।हालांकि वो अन्तर्राष्ट्रीयता में विश्वास रखते थे,उनका मानना था कि जैसे मध्यकालीन समाज का कोढ़ सांप्रदायिकता थी, वैसे ही वर्तमान समय का कोढ़ राष्ट्रवाद है।प्रेमचंद का मानना था कि जैसे सांप्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर राज्य स्थापित कर देना चाहती थी और उसे उस बनाए घेरे से बाहर की चीजों को मिटाने में ज़रा भी संकोच नहीं होता था ठीक उसी तरह राष्ट्रीयता भी है जो अपने परिमित क्षेत्र के अंदर रामराज्य का आयोजन करती है।उसे लगता है कि उस क्षेत्र से बाहर का समाज उसका शत्रु है।प्रेमचंद अन्तर्राष्ट्रीयता के प्रचार पर जोर देते थे और उनका मानना था कि एक जागरूक समाज संसार में यही करता है। इतना ही नहीं प्रेमचंद का मानना था कि राष्ट्रवाद पुंजिवाद को जन्म देता है और फिर धर्म और जाति के हथियारों से उसकी रक्षा करता है. प्रेमचंद हमेशा पुंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ रहे. उन्होंने 6 नवम्बर 1933 के ‘जागरण’ में लिखा -"जिधर देखिए उधर पूंजीपतियों की घुड़दौड़ मची हुई है।किसानों की खेती उजड़ जाय, उनकी बला से,कहावत के उस मूर्ख की भाँति जो उसी डाल को काट रहा था, जिस पर वह बैठा था"।प्रेमचंद के लिए राष्ट्रवाद का अर्थ काफी अलग था।उनके देश की परिभाषा में समानता की बात थी। स्त्री-पुरुष के बीच समानता, किसान-ज़मीदार के बीच समानता, विभिन्न धर्म और जातियों के बीच समानता, देश के नागरिकों के बीच आर्थिक समानता आदि ही उनके लिए एक असल राष्ट्र का सही अर्थ था।
जो भोगा वही लिखा-यथार्थवादी प्रेमचंद
प्रेमचंद ने जो भोगा, जो देखा वही लिखा. मुंशी प्रेमचंद की कल्पनाओं में चांद या मौसम का जिक्र नहीं बल्कि उनके साहित्य में हमेशा ही समाज के स्याह पक्ष का जिक्र मिलता है. उदाहरण के तौर पर 'गोदान' के होरी में किसान की दुर्दशा का जिक्र तो 'ठाकुर का कुंआ' में समाजिक हक से महरूम लोगों का दर्द। उनकी कोई भी कहानी या उपन्यास उठा कर देख लीजिए।आपको ऐहसास होगा कि उन्होंने कभी कलमकार बनकर नहीं बल्कि कलम के मजदूर बनकर लिखा।
मैं धनी नहीं मजदूर आदमी हूं'
"हंस" पत्रिका निकालने के पूर्व जयशंकर प्रसाद को लिखे एक पत्र में प्रेमचंद जी लिखते हैं कि- काशी से कोई साहित्यिक पत्रिका न निकलती थी। मैं धनी नहीं मजदूर आदमी हूं, मैंने 'हंस' निकालने का निश्चय कर लिया है। इस निश्चय के साथ मार्च 1930 में बसन्त पंचमी के दिन 'हंस' के प्रकाशन की शुरुआत हुई। हंस' नामकरण के बारे में कमल किशोर गोयनका कहते है कि-यह नाम उनके मित्र एवं प्रख्यात कवि जयशंकर प्रसाद ने छह माह पूर्व सुझाया था।इस पत्रिका का प्रकाशन भी उन्हीं के सरस्वती प्रेस से हुआ। 'हंस' के प्रथम अंक के संपादकीय लिखते हुए प्रेमचंद ने लिखा है- हंस भी अपनी नन्हीं चोंच में चुटकी भर मिट्टी लिये हुए समुद्र पाटने, आजादी की जंग में योगदान देने चला है।साहित्य और समाज में वह उन गुणों का परिचय करा ही देगा, जो परंपरा ने उसे प्रदान किया है।
एक युगद्रष्टा पत्रकार भी
प्रेमचंद एक युगद्रष्टा साहित्यकार ही नहीं, एक युगद्रष्टा पत्रकार भी थे। अपने पत्रों लेखों और टिप्पणीयां वे मानो आज की सच्चाई बयां करते लगते है। सन् 1905 में 'जमाना' में स्वदेशी चीजों का प्रचार कैसे बढ़ सकता है- विषय पर एक गंभीर टिप्पणी लिखते हुए मुंशी प्रेमचंद कहते है कि- स्वदेशी का अलख जगाने वाले और समाजवाद को ओढ़ने-बिछाने वाले बराबर दूरी पर खड़े हैं।



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