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महान लेखक प्रेमचंद

                       महान लेखक-प्रेमचंद

                    
मुंशी प्रेमचंद से उनके समकालीन पत्रकार बनारसीदास चतुर्वेदी ने 1930 में उनकी प्रिय रचनाओं के बारे में प्रश्न किया, ‘‘आपकी सर्वोत्तम पंद्रह रचनाएं कौन-सी हैं?

प्रेमचंद ने उत्तर दिया, ‘‘इस प्रश्न का जवाब देना कठिन है। 200 से ऊपर गल्पों में कहाँ से चुनूँ, लेकिन स्मृति से काम लेकर लिखता हूँ- बड़े घर की बेटी, रानी सारन्धा, नमक का दरोगा, सौत, आभूषण, प्रायश्चित, कामना, मंदिर और मस्जिद, घासवाली, महातीर्थ, सत्याग्रह, लांछन, सती, लैला, मंत्र।’’

इन कृतियों को कौन नहीं जानता होगा, कम-से-कम किसी एक रचना का नाम तो अवश्य सुना होगा। ऐसी और भी कई महान रचनाओं का जन्म मुंशी प्रेमचंद की लेखनी से हुआ और वे कृतियाँ दुनिया में अजर-अमर हो गई। उत्तर प्रदेश के वाराणसी से चार मील दूर लमही गाँव में जन्मे मुंशी प्रेमचंद, जिनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था, की आरंभिक शिक्षा उर्दू, फारसी में हुई थी। सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, गबन, गोदान आदि उपन्यासों से लेकर नमक का दरोगा, प्रेम पचीसी, सोज़े वतन, प्रेम तीर्थ, पाँच फूल, सप्त सुमन, बाल साहित्य जैसे कहानी संग्रहों की रचना कर इन्होंने हिंदी साहित्य को एक नई ऊँचाई पर पहुँचाया। इन्हें उपन्यास सम्राट भी माना जाता है। उनकी कहानियाँ अधिकांशत: ग्रामीण भारतीय परिवेश पर आधारित होती थी जिसके माध्यम से वह किसानों एवं निम्न आय वाले परिवारों की हालात का वर्णन किया करते थे। उनकी पहली कहानी संग्रह ‘सोज़े-वतन’, जिसका अर्थ ‘राष्ट्र का विलाप’ होता है, के प्रकाशन पर अंग्रेज सरकार ने रोक लगा दी थी।

प्रेमचंद एक दृढ़ राष्ट्रवादी थे, जिसकी झलक उनकी रचनाओं में बखूबी देखने को मिलती है। लेकिन प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में राष्ट्रवादी नेताओं की स्वार्थ लिप्सा एवं कमज़ोरियों को भी उजागर किया। उन्होंने रंगभूमि एवं कर्मभूमि उपन्यास के ज़रिये शिक्षित राष्ट्रवादी नेताओं को उनकी कमजोरियों का एहसास कराते हुए उन्हें सुधारने का प्रयास भी किया। इन शिक्षित एवं स्वार्थी प्रकृति के लोगों पर व्यंग्य करते हुए ‘आहुति’ में एक स्त्री कहती है- ‘‘अगर स्वराज्य आने पर भी संपत्ति का यही प्रभुत्व रहे और पढ़ा-लिखा समाज यूँ ही स्वार्थान्ध बना रहे, तो मैं कहूंगी, ऐसे स्वराज्य का न आना ही अच्छा। अंग्रेज़ी महाजनों की धनलोलुपता और शिक्षितों का स्वहित ही आज हमें पीसे डाल रहा है। उनकी बुराइयों को क्या प्रजा इसलिये सिर चढ़ाएगी कि वे विदेशी नहीं, स्वदेशी है?’’

प्रेमचंद ने श्रेष्ठ साहित्य के मानकों को रेखांकित करते हुए कहा था कि ‘‘हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, जो इसमें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।’’

प्रेमचंद ने उपर्युक्त आदर्शों एवं मापदंडों को प्रत्येक साहित्यकार हेतु ज़रूरी माना और स्वयं भी इन मानदंडों का अनुपालन किया तथा उन्हीं आदर्शों को ध्यान में रखते हुए अपने कालजयी कृतियों की रचना की। उनकी रचनाएँ जीवन की सच्चाइयों से इतनी भरी हुई थीं कि शायद ही कोई पहलू अछूता रहा हो। उन्होंने उपन्यासों एवं कहानियों के माध्यम से ग्रामीण जीवन के साथ-साथ शहरी जीवन की दुर्दशा का भी सजीव चित्रण किया है। ‘पूस की रात’ कहानी का पात्र ‘हल्कू’ अपनी पत्नी से कंबल खरीदने की इच्छा व्यक्त करता है और जैसे ही उसे साहूकार का कर्ज़ चुकाने की बात याद आती है, तो सारे ख्वाब धुआँ बनकर उड़ जाते हैं।

‘गोदान’ की बात करें तो प्रेमचंद जी ने इसमें सामंतवादी व्यवस्था में जकड़े हुए ग्रामीण जीवन का यथार्थ चित्रण किया है और यह दर्शाने की कोशिश की है कि समाज की कुछ विशेष प्रकार की समाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था से शोषण का जन्म होता है।

उन्होंने समाज में व्याप्त धार्मिक कुरीतियों एवं बाह्य आडंबरों पर भी प्रहार करते हुए उन्हें दूर करने का प्रयास किया। उनकी रचनाएँ सिर्फ मनोरंजन के लक्ष्य से नहीं लिखी गई थीं बल्कि वे अपनी कृतियों के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों पर भी चोट करते थे। ‘सद्गति’ एवं ‘सवा सेर गेहूँ’ कहानियों के माध्यम से उन्होंने बताया कि किस प्रकार लोग वर्तमान जीवन की चिंता छोड़कर परलोक के चक्कर में पुरोहिताई के चंगुल में फँस कर प्राण तक गवाँ देते हैं।

सेवासदन’ प्रेमचंद जी का पहला उपन्यास है जिसमें उन्होंने वेश्याओं की समस्या को प्रमुखता से उठाया है। वेश्यावृत्ति जैसी समस्या हेतु उन्होंने पुरुषों की अधम प्रवृत्ति को ही ज़िम्मेदार ठहराया है। प्रेमचंद जी कहते है कि ‘‘हमें उनसे घृणा करने का कोई अधिकार नहीं है। यह उनके साथ घोर अन्याय होगा। यह हमारी ही कुवासनाएँ, हमारे ही सामाजिक अत्याचार, हमारी ही कुप्रथाएँ हैं, जिन्होंने वेश्याओं का रूप धारण किया है।’’

प्रेमचंद जी ने अपने साहित्य के माध्यम से समाज को एक आदर्श रूप देने हेतु प्रेरणा करने की भी कोशिश की। उन्होंने भारतीय नारी के आदर्श स्वरूप का भी वर्णन किया है। इसकी झलक हमें गोदान की ‘धनिया’ और ‘बड़े घर की बेटी’ में देखने को मिलती है। गोदान की ‘धनिया’ जीवन भर दुख झेलती रही परंतु अपने मान-सम्मान से कभी समझौता नहीं किया। आवश्यकता पड़ने पर आदर्श पत्नी की तरह वह हमेशा ‘होरी’ के साथ खड़ी रही।

प्रेमचंद जी ने समाज में व्याप्त छूआ-छूत, भेदभाव एवं ऊँच-नीच जैसी कुरीतियों का भी गंभीरता से चित्रण किया। समाज में व्याप्त बिखराव से उन्हें बहुत कष्ट होता था। उन्होंने इसे कर्मभूमि, ठाकुर का कुआँ, ‘सदगति’ आदि कहानियों में बहुत बारीकी से उकेरा है। प्रेमचंद जी की कहानियों में कहीं भी सांप्रदायिकता का पुट नहीं रहा। उन्होंने मुसलमान एवं हिंदू पात्रों को उकेरने में कोई भी भेदभाव नहीं दिया एवं हर पात्र के साथ सहृदयता बरती। उनकी प्रमुखता आर्थिक-सामाजिक समस्याओं को चित्रित करने पर रहती थी, न कि जाति या धर्म पर। मुंशी प्रेमचंद ने हमेशा मनुष्य के अंदर छिपे देवत्व को उभारने की कोशिश की, जिसे बड़े घर की बेटी एवं पंच परमेश्वर कहानियों में आसानी से देखा जा सकता है।

प्रेमचंद की लेखनी में वर्णन की अद्भुत क्षमता विद्यमान है। उनकी भाषा द्वारा घटनाओं के दृश्य साकार हो उठते हैं। प्रेमचंद की प्रमुख कथा शैली वर्णनात्मक है एवं कहानियों में संवाद-शैली के अच्छे उदाहरण मिल जाते हैं। प्रेमचंद ने साहित्य के असली उद्देश्य से परिचय कराते हुए ‘साहित्य का उद्देश्य’ नामक कृति में लिखा, ‘‘हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी।’’ क्योंकि अभी तक सुंदरता की तलाश अमीरी और विलासिता के मसलों में की जाती रही थी। प्रेमचंद ने एक नए दृष्टिकोण से परिचय कराते हुए बताया कि साहित्य तो है ही जीवन की अभिव्यक्ति और साहित्य की सर्वोत्तम परिभाषा जीवन की आलोचना है। चूँकि जीवन में आडंबर, पाखंड, सहिष्णुता, संकीर्णता एवं कुटिलता सब कुछ है और इन सबकी धुंध के बीच वहीं किसी कोने में छिपी जीवन की सच्चाई का प्रकाश भी है। इसी प्रकाश को खोजना और उसे सामने लाना ही साहित्य का मुख्य उद्देश्य है।

पहले प्रेमचंद गांधीवादी सोच से प्रभावित थे, इसलिये अपने कथानक को एक आदर्शवादी अंत प्रदान करते थे परंतु जब उनका गांधीवाद से मोह-भंग हुआ तब गोदान, कफन और पूस की रात जैसी नग्न यथार्थवाद से लोगों का परिचय होता है जहाँ प्रेमचंद समस्या का कोई समाधान प्रदान नहीं करते। प्रेमचंद साहित्य को राजनीति का भी पथ-प्रदर्शक मानते हैं। उन्होंने साहित्यकार के महान उत्तरदायित्व को समझते हुए यथासंभव उसका निर्वहन किया। हम पाते हैं कि प्रेमचंद केवल साहित्यकार ही नहीं बल्कि सामाजिक समस्याओं के चिंतक भी थे। उनकी इस प्रवृत्ति की झलक उनके साहित्य में स्पष्ट है। आज प्रेमचंद जैसे सामाजिक चिंतकों की इस समाज को बेहद ज़रूरत है जो उनकी भाषिक और वैचारिक समझ द्वारा व्यक्त होती है।

                                                      Yaduvanshi 

गोदान उपन्यास की मूल समस्या

                            गोदान की मूल समस्या 

गोदान की मूल समस्या शहरी उत्तर – गोदान प्रेमचंद की सर्वाधिक लोकप्रिय व कालजयी उपन्यास है इस उपन्यास को कृषकों का महाकाव्य भी कहा गया है। सभी आलोचकों ने प्रेमचंद को कृषक और सामाजिक जीवन का कथाकार कहा है। उसके सभी उपन्यासों में ग्रामीण जीवन तथा ग्रामवासियों विशेषतः किसानों शोषित वर्गों की समस्याओं पर सहानुभूतिपूर्वक विचार किया गया है उनकी समस्या का मूल कारण ढूंढने का प्रयत्न किया है।इस कारण प्रेमचंद को ग्रामीण जीवन तथा कृषि – संस्कृति का कथाकार कहा गया है।

डॉक्टर महेंद्र भटनागर के अनुसार –‘प्रेमचंद के सभी उपन्यास सामाजिक है , और उनकी सामाजिकता किसी न किसी समस्या पर ही आधारित है , प्रेमचंद का कोई भी उपन्यास ऐसा नहीं है जिसमें किसी समस्या को न उठाया गया हो। वस्तुतः वह समस्यामूलक उपन्यासकार ही थे।’

आचार्य शुक्ल के अनुसार –‘ प्रेमचंद कहानी और उपन्यास में वही कार्य कर रहे थे जो कविता के क्षेत्र में छायावादी लेखक।

डॉक्टर नगेंद्र के अनुसार – ‘ प्रेमचंद के कथा का मूल स्वर लोकमंगल था उनकी कहानी अथवा उपन्यास में किसी न किसी समस्या को उजागर किया गया था और उससे बचने का एक मार्ग भी सुझाया गया था। ‘ गोदान को भी ग्राम जीवन तथा कृषि जीवन संस्कृति का महाकाव्य माना गया है। भारतीय किसान के संघर्ष की सम्पूर्ण गाथा तथा उसकी त्रासदी की कहानी इस उपन्यास में निहित है।अतः उसमें ग्रामीण जीवन से संबंध अनेक समस्याएं हैं गोदान की आधिकारिक कथा होरी और उसके परिवार से संबंध होने के कारण यह ग्राम जीवन और कृषक समाज से स्वतः जुड़ी है और उसकी प्रासंगिक कथा का संबंध नगर में रहने वाले पात्रों – ‘ राय साहब ‘ , ‘मालती ‘ , ‘मेहता ‘ , ‘ खन्ना ‘ आदि समस्याओं से है। अतः गोदान में चित्रित समस्याओं पर हम तीन दृष्टियों या प्रकार से विचार कर सकते हैं।

                         

                                पहला स्थान की दृष्टि (शहर और ग्राम) से दूसरा विषय (मूल स्वर)की दृष्टि से तथा तीसरा समस्या के लिए उत्तरदाई व्यक्तियों या संस्थाओं की दृष्टि से। ग्राम तथा नगर की कुछ समस्याएं विषय की दृष्टि से समान है – जैसे ऋण की समस्या , शोषण की समस्या , प्रेम और विवाह की समस्या आदि। अतः हम पहले और दूसरी दृष्टि मिलाकर गोदान में प्रस्तुत समस्याओं पर विचार कर रहे हैं। विषय की दृष्टि से गोदान में चित्रित समस्याओं को तीन वर्गों में रखा जा सकता है सामाजिक , धर्म , परंपरागत विश्वासों , जीवन मूल्यों , रूढ़ियों , अंधविश्वासों के कारण उत्पन्न समस्याएं तथा आर्थिक समस्याएं।

नारी की समस्या – गोदान में नारी की समस्या एक मुख्य समस्या है गांव में लोग परंपरा प्रेमी है तथा प्राचीन जीवन मूल्यों विश्वासों रूढ़ियों से चिपके हुए हैं। अतः नारी के प्रति उनका दृष्टिकोण वही है जो पुरुष प्रधान समाज का रहा है। चाहे नारी शहर की हो या ग्रामीण क्षेत्र की नारी की स्थिति दोनों जगह एक ही प्रकार की है जहाँ ग्रामीण में -झुनिया , सिलिया ,सोना ,रूपा आदि का वर्णन है वही शहर में – मालती , आदि नारी पात्र की स्थिति है। लोग नारी को अपना गुलाम समझते हैं उससे उस गाय की तरह मानते हैं। जिसे किसी भी खूंटे से उसकी इच्छा के विरुद्ध भी बांधा जा सकता है। मेहता मालती से कहता है ‘ प्रेम खुखार शेर की भाटी होता है जो अपने शिकार पर किसी की दृष्टि नहीं पड़ने देता है। ‘ गाँव में होरी , धनिया जैसा उग्र स्वभाव का निर्भय स्त्री पात्र को भी दबा कर रखना चाहता है। भोला अधेड़ होकर भी नवयुवती से विवाह करके उसको दासी की तरह रखना चाहता है। बड़ी जाति का मातादीन चमार जाति की स्त्री सिलिया से यौन संबंध होते हुए भी उसे पत्नी नहीं बनाना चाहता। केवल रखेल के रूप में रखना चाहता है। सोना का पति मथुरा विवाहित और घर में सुंदर पत्नी होते हुए भी सिलिया पर डोरे डालता है। शहर नगर में खन्ना पत्नी होते हुए भी मालती के चक्कर में फंसा हुआ है। गोविंदी के साथ उसका व्यवहार उपेक्षा , उदासीनता तथा क्रूरता का है। मीनाक्षी का पति शराबी वेश्यागामी तथा विलासी है। अतः वह भी मीनाक्षी के साथ पति का धर्म नहीं निभाता। इस प्रकार प्रेमचंद ने नारी की दयनीय स्थिति का चित्रण कर के नारी संबंधी समस्याओं पर प्रकाश डाला है। प्रेमचंद की विशेषता यह है कि उन्होंने धनिया , मीनाक्षी जैसे उग्र स्वभाव वाली स्त्रियों का चित्रण करके तथा ‘ विमेंस लीग ‘ जैसी संस्था की स्थापना करके वहां होने वाले कार्यक्रमों का परिचय देकर यह स्पष्ट संकेत दिया है कि नारी जाति में अपने अधिकारों के प्रति बोध जागृत रहा है। वह पुरुष के अत्याचारों को मौन रहकर चुपचाप सहन करने के बजाए विद्रोह करने लगी है। स्वच्छंद प्रेम – प्रेम की समस्या आज ही नहीं पूर्व काल से ही चलती आरही है। कालिदास , तुलसी , सुर , पद्माकर , आदि कविओं की कविता साहित्य को ध्यान से पढ़ने पर स्पस्ट होता है। आज भी अधिकांश विवाह माता – पिता के द्वारा तय किए जाते हैं। पौराणिक कथा में भी यही रीती थी। कभी कभी कन्या गंधर्व विवाह भी किया करती थी। यह नौबत माता – पिता के राजी न होने के कारण ही हुआ करता था। स्वतंत्र प्रेम को अच्छा नहीं माना जाता परंतु युवक – युवती के बीच परस्पर आकर्षण सहज स्वाभाविक है। दोनों चाहते हैं कि उनका प्रथम प्रेम आकर्षण विवाह में परिणत हो।

                          



गोदान में भी स्वच्छंद प्रेम की परिणति को उजागर किया है। प्रेमचंद भी इस समस्या को अनुभव कर चुके थे। गोदान में दो प्रकार से स्वछंद प्रेम को दिखाया गया है। स्वच्छंद प्रेम की परिणति विवाह में झुनिया विधवा है दूसरी जाति की है , पर गोबर प्रथम दृष्टि में ही उस से प्रेम करने लगता है। दोनों के बीच यौन संबंध भी है हो जाता है। गोबर गांव वालों की पंचायत और माता – पिता सब से डरता है। उसे आशंका है कि उसकी विवाह को कोई स्वीकार नहीं करेगा , फिर भी वह साहसपूर्वक झुनिया को घर ले आता हैधनिया ( जो गोबर की माँ है ) की उदारता के कारण दोनों का विवाह हो जाता है। परंतु गांव के लोगों को यह सहन नहीं होता और पंचायत करके उस विवाह को नकार दिया जाता है और होरी को दंडस्वरूप अपने घर में रखा सारा अनाज और नगद ₹30 देने पड़ते हैं। इन सभी के लिए होरी को अपना घर तक गिरवी रखना पड़ता है। जिसका विरोध गोरी करता है और शहर की और प्रस्थान कर जाता है।

गांव में स्वच्छंद प्रेम का दूसरा उदाहरण मातादीन –सिलिया प्रसंग है। मातादीन जात का ब्राह्मण है सिलिया चमारिन है दोनों के बीच परस्पर आकर्षण होता है दोनों एक दूसरे के परम् में पद जाते है और यौन संबंध स्थापित हो जाता है। किन्तु दोनों को जाती का भय बराबर है मातादीन उतना साहसी नहीं है जितना कि गोबर। अतः मातादीन , सीलिया से विवाह करने को तैयार नहीं होता। गांव के नवयुवकों द्वारा विवश किए जाने पर उसके मुंह में हड्डी डालकर उसे चमार बनाने के दुस्साहस के बाद ही वह सिलिया को पत्नी के रुप में अपना आता है। इस प्रसंग द्वारा लेखक गांव में अभिजात्य वर्ग कहे जाने वाले लोगों से पंचों की भेदभाव पूर्ण नीति तथा आचरण पर भी कटाक्ष करते हैं। जहां गोबर तथा होरी गरीब होने के कारण झुनिया को घर पर बहु बनाने के लिए तड़पाते हैं। वही मातादीन और उसके पिता दातादीन से कोई कुछ नहीं कहता उसके सौ खून भी माफ कर दिए जाते हैं। विवाह संबंधी – विवाह की समस्याएं गोदान की एक मुख्य समस्या है जिसका चित्रण गोदान में हुआ है।
दहेज के कारण विवाह होने में बाधा , बाल विवाह तथा विधवा की समस्या अनमेल विवाह या वृद्ध विवाह का उदाहरण इस उपन्यास में देखा जा सकता है। होरी की बेटी सोना के विवाह में दहेज की समस्या के कारण बढ़ा बनता है। परंतु मथुरा का सोना के प्रति प्रबल आकर्षण सोना का साहस और स्पष्ट ऐलान की दहेज की मांग पर अड़े रहने के कारण वह विवाह नहीं करेगी। इस बाधा को समाप्त कर देता है छोटी बेटी रूपा का विवाह भी दहेज न दे सकने के कारण अधेड़ उम्र के रामसेवक से करना पड़ता है , जो रूपा के पिता की उम्र का है।झुनिया बाल विधवा है अतः उसे सारी उम्र अकेले अपनी इच्छाओं का दमन करते हुए यही काटनी है। गोबर द्वारा अपनाए जाने पर भी भी पंचायत और गांव के लोग विरोध करते हैं स्पष्ट है कि विधवा को समाज की रुचियों तथा अनीति के कारण अपना जीवन शारीरिक तथा मानसिक कष्टों के बीच बिताना पड़ता है। 
विघटन की समस्या – परिवार के विघटन की समस्या आदि काल से चली आ रही है यही समस्या को गोदान में प्रेमचंद जी ने उठाया है। जीवन मूल्यों में परिवर्तन तथा आर्थिक दबाव के कारण सम्मिलित परिवार टूटने लगे थे। प्रेमचंद ने स्वयं अपने परिवार मैं सास बहू के झगड़े थे। उनकी सौतेली मां कि कभी उनकी पत्नी से नहीं बनी थी माता के पुत्रों अपने सौतेले भाइयों के लिए सब कुछ करने के बाद भी उन्हें बदले में मिले केवल उपेक्षा अनादर ही मिला। उपन्या में पहले उन्होंने होरी तथा उनके दो भाइयों हीरा तथा शोभा को उनसे अलग अलग होते दिखाया है। तथा उसके बाद में पिता-पुत्र होरी तथा गोबर के बीच विचार विमर्श से के कारण जो दरार पड़ती है। वह बढ़ती जाती है और गोबर अपनी पत्नी झुनिया के साथ गांव छोड़कर शहर चला जाता है ,वहां मजदूरी करता है और अपनी बहन की शादी के अवसर पर भी गांव नहीं लौटता। नगर में राय साहब तथा उनके बेटे रूद्र पाल में मतभेद है। सरोज को लेकर बाप-बेटे के संबंधों में दरार पड़ गई है। बेटी मीनाक्षी पिता के लाख समझाने पर भी अपने वेश्यागामी माय शराबी पति से समझौता करने को तैयार नहीं होती। उधर खन्ना तथा उसकी पत्नी गोविंदी के साथ भी नहीं है। इन चित्रों के द्वारा लेखक ने सम्मिलित परिवारों के टूटने बिखरने तथा दांपत्य जीवन में कटुता आने की समस्या की ओर संकेत किया है। दिखावा,प्रदर्शनीयता की समस्या- प्रदर्शन प्रियता की समस्या या थोथी मर्यादा की समस्या गांव में ही नहीं शहर में भी यही समस्या है। गांव में होरी अपनी प्रतिष्ठा के लिए ही द्वार पर गाय पालना चाहता है। लोग महतो कहेंगे यही चाह में गाय खरीदता है जिसके लिए वह कितने यत्न करता है। भाई जहर देकर गाय को मर देता है। महत्व कहलाने के लालच में गोबर के लाख समझाने पर भी खेती छोड़कर मजदूरी करने को तैयार नहीं होता। धनिया , मथुरा के घरवालों के मना करने पर भी दहेज में अपने सामर्थ्य के बाहर सम्मान देती है और परिवार कर्ज में डूब जाता है।पंच गोबर – झुनिया के विवाह में जो दंड देता है उससे होरी और टूट जाता है। जाति से बहिष्कृत ना हो इसलिए होरी डाँड़ भरता है , जिसके कारण वह कर्ज में डूब जाता है और अंत में उसके पास ना गाय होती है ना बैल और ना खेती करने के लिए खेत। शहर में भी यही हाल है राय साहब अपनी मिथ्या शाख बनाए रखने के लिए कभी इलेक्शन लड़ते हैं तथा कभी पुत्रियों के विवाह के लिए ऋण लेते हैं,और दिन प्रतिदिन कर्ज में डूब कर अपना सुख चैन मानसिक शांति गवा बैठते है।
अंधविश्वास – रूढ़ि पालन परंपरागत आस्था विश्वास के कारण उत्पन्न समस्याएं गांव के लोग परंपरा प्रिय रूढ़िवादियों में जकड़े धर्म के रूप तथा लकीर के फकीर होते हैं। नगर के लोग विशेषतः धनवान तथा अभिजात्य वर्ग के लोग इन रूढ़ियों से मुक्त होते हैं। अतः गोदान में प्रेमचंद ने इन समस्याओं का अंकन गांव के संदर्भ में ही किया है। अपने इन अंधविश्वासों परंपरागत जीवनमूल्यों रूढ़ियों के कारण ही गोरी अनेक कष्ट उठाता है। यदि वह इन से मुक्त होता है तो पंच का कहना मान कर इनके पचड़े में ना पढ़ता तो कदाचित उसका जीवन इतना यातनापूर्ण ना होता गांव की हत्या होने पर प्रायश्चित करना चाहिए जाति से बहिष्कृत ना होने के लिए शांति के बाहर ऋण लेकर भी पंचों को प्रसन्न रखना चाहिए। घर की इज्जत बचाने के लिए घर की तलाशी नहीं होनी चाहिए थी। भले ही रिश्वत देनी पड़े यह जानते हुए भी कि ऋण लेता है। दातादीन धूर्त है बेईमान है ब्याज के लिए मूल का तिगुना वसूल कर चुका है रसीद नहीं देता और वसूल हुई धनराशि को दुबारा मांग रहा है , और दातादीन नोखेराम की पाई-पाई चुकाने पर बल देता है क्योंकि वह धर्मगुरु है। उसका विश्वास है कि ब्राह्मण की एक एक पाई चुकानी होनी चाहिए वरना शरीर के मैं कोढ फूट पड़ता है। अपनी मान्यताओं के कारण ही वह गांव में पैसा ना रहते हुए भी सत्यनारायण की कथा की थाली में पैसे डालता है। तीर्थ यात्रा से लौटने पर गांव वालों को प्रसाद बांटता है धनिया पत्नी की मृत्यु के समय गोदान के बदले दिन रात सुतली बांटकर कमाए हुए ₹20 दातादीन को दान में देती है ईश्वरीय न्याय में विश्वास ईश्वर जो करता है ठीक करता है ईश्वर जी बड़े छोटे अमीर गरीब बनाकर भेजता है। पिछले जन्मों के कर्मों का फल इस जीवन में भोक्ता है। भाग्य के लिखे को कोई नहीं मिटा सकता यह अंधविश्वास ही हो रही को यातना की भट्टी में झोंक देते हैं और उसे यमराज के हाथों में धकेल देते हैं। इस प्रकार होरी के कष्टों का एक कारण उसकी धर्म भी रूढ़िवादिता तथा ज्योतिष होती मर्यादा बनाए रखने की।

गोदान 1936 में प्रकाशित हुआ था प्रेमचंद जीवन भर संघर्ष करते रहे थे और जैनेंद्र को लिखे पत्र से स्पष्ट होता है कि वह आर्थिक कठिनाइयों से जूते – जूते तथा एड़ी चोटी का पसीना बहाकर भी उन कठिनाइयों पर विजय पाने में असमर्थ रहे थे। गांधी के असहयोग आंदोलन में आह्वान पर सरकारी नौकरी को छोड़ चुके थे। घर – परिवार चलाना भी काफी मुश्किल हो गई थी। वह शरीर और मन दोनों से हार गए थे इस समय वह मार्क्सवादी विचारधारा से परिचित हुए और उन्हें मार्क्स के सिद्धांतों में पर्याप्त सच्चाई दिखी मार्ग मानता है कि समाज में केवल दो वर्ग है पहला साधन संपन्न तथा दूसरा साधनहीन बुर्जुआ तथा सर्वहारा। शोषक और शोषित साधन-संपन्न साधनहीन वर्ग की व्यवस्था तथा और सहायता का लाभ उठाकर उसका शोषण करता है और सर्वहारा वर्ग जीवन भर कड़ी मेहनत तथा रात-दिन कोल्हू के बैल की तरह चूसता रहता है। दो वक़्त भरपेट भोजन नहीं कर पाता अतः सारी मुसीबतों की जड़ वैमनस्य है। गोदान में शोषण करने वालों की भीड़ जमा है जमींदार किसानों का शोषण करता है महाजन ऋण लेने वालों का तथा उद्योगपति मिल मालिक मिलकर काम करने वाले मजदूरों का। गोदान में राय साहब किसानों से बेगार लेते हैं लगान वसूलते हैं रियायत नहीं करते समय पर लगान चुकाने वाले को बेदखली की धमकी देते हैं इतना ही नहीं अपने को स्वरूप करने सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ाने स्वयं को भारतीय संस्कृति का पुजारी एवं धार्मिक वृत्ति का व्यक्ति दिखाने के लिए रामलीला का आयोजन करते हैं। पर उसके लिए जो धनराशि चाहिए वह किसानों से वसूल करते हैं। प्रति हल चंदा देने की बात कहते हैं गांव में साहूकार एक नहीं अनेक है होरी के गांव में जिन गुरु सिंह पटवारी है नौकेराम का कारिंदा है दुलारी सब भाई भी हैं यहां तक कि धर्म आचार्य पंडित दातादीन भी ब्याज पर ऋण देता है यह सब ऊंची ब्याज दर पर ऋण देते हैं समय पर कागज नहीं लिखाते नतीजा यह होता है कि मूल से तिगुना वसूल करते हैं। ऋण देते समय किसी ना किसी बहाने पूरी रकम भी नहीं देते ₹30 का कागज लिखवाते हैं पर ऋण लेने वाले के हाथ ₹25 ही बढ़ाते हैं। ऋण का भुगतान करने पर या लगान की पूरी रकम चुकाने पर कभी-कभी रसीद भी नहीं देते। ऋण लेने वाले की अशिक्षा भोलेपन तथा विश्वास करने की प्रवृत्ति का लाभ उठाकर चुकाई गई रकम को दुबारा वसूल करने का प्रयास करते हैं। नोखेराम , होरी के साथ यही करता है पर गोबर की वजह से उसकी चाल नहीं चल पाती। 
निष्कर्ष :-
समग्रतः कहा जा सकता है कि गोदान कृषक जीवन का महाकाव्य है। यह उपन्यास शहरी जीवन से अधिक ग्रामीण जीवन को समाहित करता है जिसके कारण इस उपन्यास में कृषक की समस्याओं को अधिक मजबूती से प्रकट किया गया है। गोदान समस्यामूलक उपन्यास है। इस उपन्यास में अनेक समस्याओं को उजागर किया गया है। शहर के लोग जो अभिजात्य वर्ग कहलाते है।वह भी विभिन्न प्रकार की समस्या से ग्रसित है। कृषक वर्ग का चौतरफा शोषण किया जा रहा था उस समस्या को बारीकी से प्रेमचंद ने पकड़ा और प्रस्तुत किया साथ ही उससे मुक्ति का मार्ग भी दिया।


मुंशी प्रेमचंद की जयंती

                            

                         प्रेमचंद का जीवन परिचय

प्रेमचंद का नाम असली नाम धनपत राय था. उनका जन्म 31 जुलाई, 1880 को बनारस के लमही नामक गांव में हुआ था।इन्होंने ब्रिटिश हुकूमत की सजा भी भोगी, लेकिन पीछे नहीं हटे।अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम के कहने पर उन्होंने अपना नाम धनपतराय की जगह प्रेमचंद रख लिया। इनके पिता का नाम मुंशी अजायब लाल था, जो डाकघर में मुंशी का पद संभालते थे।
प्रेमचंद जब 6 वर्ष के थे, तब उन्हें लालगंज गांव में रहने वाले एक मौलवी के घर फारसी और उर्दू पढ़ने के लिए भेजा गया।वह जब बहुत ही छोटे थे, बिमारी के कारण इनकी मां का देहांत हो गया।उन्हें प्यार अपनी बड़ी बहन से मिला,बहन के विवाह के बाद वह अकेले हो गए, सूने घर में उन्होंने खुद को कहानियां पढ़ने में व्यस्त कर लिया।आगे चलकर वह स्वयं कहानियां लिखने लगे और महान कथाकार बने।इनका विवाह 15-16 वर्ष में ही कर दिया गया था, लेकिन ये विवाह उनको फला नहीं और कुछ समय बाद ही उनकी पत्नी का देहांत हो गया।कुछ समय बाद उन्होंने बनारस बाद चुनार के स्कूल में शिक्षक की नौकरी की, साथ ही बीए की पढ़ाई भी करते रहे बाद में उन्होंने एक बाल विधवा शिवरानी देवी से विवाह किया, जिन्होंने प्रेमचंद की जीवनी लिखी जिसको हम "प्रेमचंद घर में के नाम से पढ़ते है। "प्रेमचंद्र ने लगभग 300 कहानियां तथा चौदह बड़े उपन्यास लिखे।8 अक्टूबर 1936 को 56 वर्ष की उम्र में लंबी बिमारी के कारण उनका निधन हो गया।उनके रचे साहित्य का अनुवाद लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं के साथ-साथ विदेशी भाषाओं में भी हुआ है।
हिंदी साहित्य के सबसे लोकप्रिय लेखक प्रेमचंद ने हिंदी में कहानी और उपन्यास को सुदृढ़ नींव प्रदान की और यथार्थवादी चित्रण से देशवासियों का दिल जीत लिया।यही कारण है कि हिंदी साहित्य के इतिहास में हिंदी कहानी और हिंदी उपन्यास के समय का निर्धारण प्रेमचंद के नाम के आधार पर किया गया है,जिसको प्रेमचंद पूर्व हिंदी उपन्यास प्रेमचंद युगीन,और प्रेमचंद के बाद हिंदी उपन्यास के नाम से जाना जाता है।ये इनके साहित्य में योगदान को दर्शाता है।
हिन्दी कथा-साहित्य को तिलस्मी कहानियों के झुरमुट से निकालकर जीवन के यथार्थ की ओर मोड़कर ले जाने वाले कथाकार मुंशी प्रेमचंद देश ही नहीं, दुनिया में विख्यात हुए और 'कथा सम्राट' कहलाए।उन्‍होंने आमजन की पीड़ा को शब्दों में पिरोया, यही वजह है कि उनकी हर रचना कालजयी है और इनको यथार्थवादी रचनाकार के नाम से जाना जाता है।

पहली कहानी संग्रह को अंग्रेजी हुकूमत ने जला दिया
प्रेमचंद की पांच कहानियों का संग्रह 'सोज़े वतन' 1907 में प्रकाशित हुआ।सोज़े वतन, यानि देश का दर्द, प्रेमचंद की उर्दू कहानियों का यह पहला संग्रह था जो उन्होंने ‘नवाब राय’ के नाम से छपवाया था।अंग्रेजी हुक्मरानों को इन कहानियों में बगावत की गूंज सुनाई दी। हम्मीरपुर के कलक्टर ने प्रेमचंद को बुलवाकर उनसे इन कहानियों के बारे में पूछताछ की, प्रेमचंद ने अपना जुर्म कबूल किया,उन्हें कड़ी चेतावनी दी गयी और सोजे वतन की 500 प्रतियां जो अंग्रेजी हुकूमत के अफसरों ने जगह-जगह से जप्त की थीं। उनको सरे आम जलाने का हुक्म दिया गया हालांकि सोजे वतन में शामिल सभी पांच कहानियाँ उर्दू मासिक ‘जमाना’ में पहले ही छप चुकी थीं।
इसके बाद भी प्रेमचंद ने खूब लिखा. लगभग तीन सौ कहानियां और लगभग आधा दर्जन प्रमुख उपन्यास, साथ ही एक नाटक भी।उर्दू में भी लिखा और हिन्दी में भी,उनके विषय किसान, मजदूर, पत्रकारिता, पूंजीवाद, गांधीवाद, राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन, बेमेल विवाह, धार्मिक पाखंड, नारीवाद आदि रहे।
       प्रेमचंद राष्ट्रवाद को एक कोढ़ मानते थे
               आज पूरे देश में राष्ट्रवाद पर खूब चर्चा होती है।हर कोई इसकी परिभाषा अपने हिसाब से तय करता है, लेकिन प्रेमचंद के लिए राष्ट्रवाद का अर्थ आज के राष्ट्रवाद की तरह संकीर्ण नहीं बल्कि बहुत व्यापक थी।हालांकि वो अन्तर्राष्ट्रीयता में विश्वास रखते थे,उनका मानना था कि जैसे मध्यकालीन समाज का कोढ़ सांप्रदायिकता थी, वैसे ही वर्तमान समय का कोढ़ राष्ट्रवाद है।प्रेमचंद का मानना था कि जैसे सांप्रदायिकता अपने घेरे के अन्दर राज्य स्थापित कर देना चाहती थी और उसे उस बनाए घेरे से बाहर की चीजों को मिटाने में ज़रा भी संकोच नहीं होता था ठीक उसी तरह राष्ट्रीयता भी है जो अपने परिमित क्षेत्र के अंदर रामराज्य का आयोजन करती है।उसे लगता है कि उस क्षेत्र से बाहर का समाज उसका शत्रु है।प्रेमचंद अन्तर्राष्ट्रीयता के प्रचार पर जोर देते थे और उनका मानना था कि एक जागरूक समाज संसार में यही करता है। इतना ही नहीं प्रेमचंद का मानना था कि राष्ट्रवाद पुंजिवाद को जन्म देता है और फिर धर्म और जाति के हथियारों से उसकी रक्षा करता है. प्रेमचंद हमेशा पुंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ रहे. उन्होंने 6 नवम्बर 1933 के ‘जागरण’ में लिखा -"जिधर देखिए उधर पूंजीपतियों की घुड़दौड़ मची हुई है।किसानों की खेती उजड़ जाय, उनकी बला से,कहावत के उस मूर्ख की भाँति जो उसी डाल को काट रहा था, जिस पर वह बैठा था"।प्रेमचंद के लिए राष्ट्रवाद का अर्थ काफी अलग था।उनके देश की परिभाषा में समानता की बात थी। स्त्री-पुरुष के बीच समानता, किसान-ज़मीदार के बीच समानता, विभिन्न धर्म और जातियों के बीच समानता, देश के नागरिकों के बीच आर्थिक समानता आदि ही उनके लिए एक असल राष्ट्र का सही अर्थ था।
जो भोगा वही लिखा-यथार्थवादी प्रेमचंद
प्रेमचंद ने जो भोगा, जो देखा वही लिखा. मुंशी प्रेमचंद की कल्पनाओं में चांद या मौसम का जिक्र नहीं बल्कि उनके साहित्य में हमेशा ही समाज के स्याह पक्ष का जिक्र मिलता है. उदाहरण के तौर पर 'गोदान' के होरी में किसान की दुर्दशा का जिक्र तो 'ठाकुर का कुंआ' में समाजिक हक से महरूम लोगों का दर्द। उनकी कोई भी कहानी या उपन्यास उठा कर देख लीजिए।आपको ऐहसास होगा कि उन्होंने कभी कलमकार बनकर नहीं बल्कि कलम के मजदूर बनकर लिखा।
मैं धनी नहीं मजदूर आदमी हूं'
"हंस" पत्रिका निकालने के पूर्व जयशंकर प्रसाद को लिखे एक पत्र में प्रेमचंद जी लिखते हैं कि- काशी से कोई साहित्यिक पत्रिका न निकलती थी। मैं धनी नहीं मजदूर आदमी हूं, मैंने 'हंस' निकालने का निश्चय कर लिया है। इस निश्चय के साथ मार्च 1930 में बसन्त पंचमी के दिन 'हंस' के प्रकाशन की शुरुआत हुई। हंस' नामकरण के बारे में कमल किशोर गोयनका कहते है कि-यह नाम उनके मित्र एवं प्रख्यात कवि जयशंकर प्रसाद ने छह माह पूर्व सुझाया था।इस पत्रिका का प्रकाशन भी उन्हीं के सरस्वती प्रेस से हुआ। 'हंस' के प्रथम अंक के संपादकीय लिखते हुए प्रेमचंद ने लिखा है- हंस भी अपनी नन्हीं चोंच में चुटकी भर मिट्टी लिये हुए समुद्र पाटने, आजादी की जंग में योगदान देने चला है।साहित्य और समाज में वह उन गुणों का परिचय करा ही देगा, जो परंपरा ने उसे प्रदान किया है।
एक युगद्रष्टा पत्रकार भी
प्रेमचंद एक युगद्रष्टा साहित्यकार ही नहीं, एक युगद्रष्टा पत्रकार भी थे। अपने पत्रों लेखों और टिप्पणीयां वे मानो आज की सच्चाई बयां करते लगते है। सन् 1905 में 'जमाना' में स्वदेशी चीजों का प्रचार कैसे बढ़ सकता है- विषय पर एक गंभीर टिप्पणी लिखते हुए मुंशी प्रेमचंद कहते है कि- स्वदेशी का अलख जगाने वाले और समाजवाद को ओढ़ने-बिछाने वाले बराबर दूरी पर खड़े हैं।



Saturday

मीराबाई और उनके पद

                                  

                         मीराबाई का जीवन परिचय   

मीराबाई, जिन्हें मीरा बाई या मीरा के नाम से भी जाना जाता है, ये 16वीं शताब्दी की प्रसिद्ध भारतीय कवयित्री, संत और श्री कृष्ण जी की भक्त थी। उनका जन्म सन् 1498 ई. के लगभग भारत के वर्तमान राजस्थान में मेड़ता के पास एक गांव चौकड़ी (कुड़की) में एक राजपूत शाही परिवार में हुआ था, उनके पिता का नाम रत्नसिंह राठौड़ और माता का नाम वीर कुमारी था। तथा ये जोधपुर के संस्थापक राव जोधा की प्रपौत्री थी।

मीरा दादी मां की कृष्ण भक्ति को देखकर प्रभावित हुई। एक दिन जब एक बारात दूल्हे सहित जा रही थी तब बालिका मीरा ने उस दूल्हे को देखकर अपनी दादी से अपने दूल्हे के बारे में पूछने लगी। तो दादी ने तुरंत ही गिरधर गोपाल का नाम बता दिया और उसी दिन से मीरा ने गिरधर गोपाल को अपना वर मान लिया।

साहित्यिक परिचय –

इनके काव्य रचना में इनका कृष्ण भक्ति प्रेम इनके हृदय की सरलता तथा निश्चलता का स्पष्ट रूप मिलता है, भक्ति-भजन ही इनकी काव्य रचना है, इनकी प्रत्येक पंक्ति सच्चे प्रेम से परिपूर्ण है, इनकी इसी प्रेमपूर्ण शैली की वजह से लोग आज भी इनकी पंक्तिया उतनी ही तन्मयता से गाते है !

                                    पद             

                 मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरे न कोई

               जा के सिर मोर -मुकुट मेरो पति सोई

              छाड़ी दयी कुल की कानि,कहा करिहै कोई?

              संतन ढिग बैठि-बैठि,लोक लाज खोयी

             अंसुवन जल सीचि- सीचि, प्रेम बोलि बोयी

             अब त बेलि फैलि गयी , आनंद -फल होयी 

              दूध की मथनियां बड़े प्रेम से बिलोयी

              दधि मथि घृत काढि लियो, डारि दयी छोयी 

              भगत देखी राजीव हुई ,जगत देखि रोई 

              दासी मीरा लाल गिरधर! तारों अब मोही ।

प्रसंग-

भावार्थ पंक्तियां कवित्री मीरा के द्वारा रचित है जो पद नरोत्तम दास स्वामी द्वारा संकलित मेरा मुक्तावली से लिया गया है इन पंक्तियों के माध्यम से कवित्री मीरा मोर मुकुट धारण किए हुए श्री कृष्ण को अपना पति मानते हुए कहते हैं कि उनके सिवा इस जगत में मेरा कोई दूसरा नहीं

व्याख्या-

इस दोहे में मीरा बाई श्री कृष्ण को अपना पति कह रही हैं और कहती हैं – मेरे तो बस श्री कृष्ण हैं जिसने पर्वत को ऊँगली पर उठाकर गिरधर नाम पाया। उसके अलावा मैं किसी को अपना नहीं मानती। जिसके सिर पर मौर का पंख का मुकुट हैं वही हैं मेरे पति।उनके सिवा इस जगत में मेरा कोई दूसरा नहीं आगे कवित्री कहती है कि मैंने कुल की मर्यादा का भी ध्यान छोड़ दिया है तथा संतो के साथ उठते बैठते लोक - लज्जा सब कुछ त्याग कर स्वयं को कृष्ण भक्ति में लीन कर लिया है कवित्री मीरा कहती हैं कि कृष्ण के प्रेम रूपी बेल को सीखने के लिए मैंने अपने आंसुओं को निस्वार्थ भाव से न्योछावर किया है। फलस्वरूप जिस बेल के बढ़ने से आनंद रूप फल की प्राप्ति हुई है आगे कवित्री एक दृष्टांत प्रस्तुत करते हुए कहते हैं। कि जिस प्रकार दूध में मथानी डालकर दही से मक्खन निकाला जाता है और सिर्फ छाछ को पृथक कर दिया जाता है। ठीक उसी तरह मीरा ने भी संसारिकता के ढकोसलेपन से स्वयं को दूर रखा है और अपनी सच्ची और आत्मिक भक्ति से श्री कृष्ण के प्रेम को प्राप्त किया है आगे कवित्री मीरा कहती है कि जब मैं भक्तों को देखती हूं तो मुझे प्रसन्नता होती है और उन लोगों को देखकर मुझे दुख होता है जो संसार एकता के जाल में फंसे हुए हैं मीरा खुद को श्री कृष्ण की दासी मानती है और श्री कृष्ण से स्वयं का उद्धार करने की कामना करती है।


                          2.पद


पग घुंघरू बांध मीरा नाची,

मैं तो मेरे नारायण सू , अपाहिज हो गई सांची,

लोग कहे मीरा बाई बावरी: न्यात कहै कूल - नासी ,

विष का प्याला राणा भेज्या , पीवत मीरा हांसी ,

मीरा के प्रभु गिरिधर नागर, सहज मिले अविनासी


प्रसंग-

प्रस्तुत पंक्तियां कवियत्री मीरा के द्वारा रचित है जो पद नरोत्तम दास स्वामी द्वारा संकलित मेरा मुक्तावली से लिया गया है इन पंक्तियों के माध्यम से कवित्री मीरा करती है कि वह श्री कृष्ण के प्रेम में दीवानी हो गई है।

व्याख्या-

इन पक्तियों के माध्यम से कवित्री मीरा करती है कि वह श्री कृष्ण के प्रेम में दीवानी हो गई है तथा पैरों में घुंघरू बांधकर नाचने में मग्न है कवित्री मीरा श्री कृष्ण के प्रेम में इतना रस विभोर हो गई है कि लोग उसे पागल की संज्ञा देने लगे हैं उनके संगे संबंधी कहते हैं कि ऐसा करके वह कुल का नाम खराब कर रही है आगे कवित्री मीरा कहती है कि राणा जी ने उसे मारने के लिए विष का प्याला भेजा था, जिसे वह हंसते-हंसते पीली और अमृत को प्राप्त हुए। आगे कवित्री कहती है कि यदि प्रभु की भक्ति सच्चे मन से की जाए तो वह सहजता से प्राप्त हो जाती है। ईश्वर को अविनाश जी की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि वह नच्श्रर है।



 

Tuesday

कबीरदास और उनके पद

 

कबीर का जीवन परिचय-
कबीरदास जी का जन्म 1398 ई. में काशी में हुआ। एक किंवदन्ती के अनुसार कबीर का जन्म एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था। लोकलाज के भय से वह स्त्री इन्हें वाराणसी के लहरतारा नामक स्थान पर एक तालाब के पास छोड़ आयी। वहाँ से नीरू व नीमा नामक एक मुस्लिम जुलाहा दम्पत्ति ने इन्हें उठा लिया और इनका पालनपोषण किया। इनका बचपन मगहर में बीता। इन्हें शिक्षा प्राप्ति का अवसर नहीं मिला। यह सत्य है कि इन्होने अपनी रचनाओं को स्वयं लिपिबद्ध नहीं किया। बाद में ये काशी में जाकर बस गए। इनका विवाह लोई नामक स्त्री से हुआ। जिससे इनकी कमाल और कमाली नामक दो संतान उत्पन्न हुईं। जीवन के अंतिम दिनों ये बापस मगहर में आकर रहने लगे। इनकी मृत्यु के संदर्भ में विद्वानों में मतभेद है। अधिकांश विद्वानों के अनुसार कबीर दास की मृत्यु 1518 ई. में मगहर में हुई।
धार्मिक आडम्बरों के प्रबल विरोधी होने के बाद भी इनकी मृत्यु के बाद दोनों धर्मों के लोग इनके मृत शरीर का अपने धर्मानुसार संस्कार करना चाहते थे। हिन्दू इनका अंतिम संस्कार चिता पर दाह कर्म द्वारा करना चाहते थे। वहीं दूसरी ओर मुस्लिम लोग इन्हें इस्लामिक परम्परानुसार दफनाना चाहते थे।
इनके गुरु रामानन्द थे। इनकी काव्य प्रतिभा इनके गुरु रामदास जी की कृपा से ही जागृत हुई। कबीरदास मूल रूप से एक सन्त कवि थे। वस्तुतः कबीर सन्त कवियों में सर्वाधिक प्रतिभाशाली थे। परंतु धर्म के बाहरी आचार-व्यवहार और कर्मकाण्डों में इन्हें जरा भी रुचि व आस्था नहीं थी। उस वक्त के समाज में व्याप्त कर्मकाण्डों व संकीर्णताओं को देख उनका मन व्याकुल हो उठता। फलस्वरूप उनकी व्यंग्यात्मक वाणी से विद्रोहपूर्ण स्वर से भावनाएं जाहिर हो जातीं। कबीर दास जी ऐसे व्यक्तित्व थे जिन्होंने रुढ़िवादी मानसिकता और परम्परा की जर्जर दीवारों को धराशायी कर दिया।
अशिक्षित होते हुए भी इनका काव्य क्षेत्र में योगदान विस्मयकारी है। ये भावना की प्रबल अनुभूति से युक्त, उत्कृष्ट रहस्यवादी, समाज सुधारक, पाखण्ड के आलोचक तथा मानवता की भावना से ओत प्रोत कवि थे। ये पढ़े लिखे नहीं थे यह इन्होंने स्वयं व्यक्त किया ‘मसि कागज छूयौ नहीं, कलम गही नहिं हाथ’। इन्होंने अपना ज्ञान सन्तों की संगति और देशाटन के माध्यम से अर्जित किया। इसी ज्ञान को इन्होंने अपने अनुभवों की कसोटी पर कसकर साधारण जनता के समक्ष उपदेशात्मक रूप में व्यक्त किया।
कबीर और उनके काव्य के विषय में डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने कहा कि वे एक उच्च कोटि के साधक, सत्य के उपासक और ज्ञान के अन्वेषक थे। उनका समस्त साहित्य एक जीवनमुक्त सन्त के गूढ़ और गम्भीर अनुभवों का भंडार है।

                     हम तौ एक एक करि जाना।

          दोइ कहैं तिनहीं कौ दोजग जिन नाहिंन पहिचाना ।।

         एकै पवन एक ही पानीं एकै जोति समाना। 

        एकै खाक गढ़े सब भांडै़ एकै कोंहरा साना।।

        जैसे बाढ़ी काष्ट ही काटै अगिनि न काटै कोई।

        सब घटि अंतरि तूँही व्यापक धरै सरूपै सोई।।

        माया देखि के जगत लुभांनां काहे रे नर गरबाना।

        निरभै भया कछू नहिं ब्यापै कहै कबीर दिवाना।।

प्रसंग

प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित निर्गुण परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के पदों से उद्धृत है। इस पद में, कबीर ने एक ही परम तत्व की सत्ता को स्वीकार किया है, जिसकी पुष्टि वे कई उदाहरणों से करते हैं।

व्याख्या

कबीरदास कहते हैं कि हमने तो जान लिया है कि ईश्वर एक ही है। इस तरह से मैंने ईश्वर के अद्वैत रूप को पहचान लिया है। हालाँकि कुछ लोग ईश्वर को अलग-अलग बताते हैं; उनके लिए नरक की स्थिति है, क्योंकि वे वास्तविकता को नहीं पहचान पाते। वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग मानते हैं। कवि ईश्वर की अद्वैतता का प्रमाण देते हुए कहता है कि संसार में एक जैसी हवा बहती है, एक जैसा पानी है तथा एक ही प्रकाश सबमें समाया हुआ है। कुम्हार भी एक ही तरह की मिट्टी से सब बर्तन बनाता है, भले ही बर्तनों का आकार-प्रकार अलग-अलग हो। बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है, परंतु आग को नहीं काट सकता। इसी प्रकार शरीर नष्ट हो जाता है, परंतु उसमें व्याप्त आत्मा सदैव रहती है। परमात्मा हरेक के हृदय में समाया हुआ है भले ही उसने कोई भी रूप धारण किया हो। यह संसार माया के जाल में फैसा हुआ है। और वही संसार को लुभाता है। इसलिए मनुष्य को किसी भी बात को लेकर घमंड नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत पद के अंत में कबीर दास कहते हैं कि जब मनुष्य निर्भय हो जाता है तो उसे कुछ नहीं सताता। कबीर भी अब निर्भय हो गया है तथा ईश्वर का दीवाना हो गया है।

विशेष

1. कबीर ने आत्मा और परमात्मा को एक बताया है।

2. उन्होंने माया-मोह व गर्व की व्यर्थता पर प्रकाश डाला है।

3. ‘एक-एक’ में यमक अलंकार है।

4. ‘खाक’ और ‘कोहरा’ में रूपकातिशयोक्ति अलंकार है।

5. अनुप्रास अलंकार की छटा दर्शनीय है।

6. सधुक्कड़ी भाषा है।

7. उदाहरण अलंकार है।

8. पद में गेयता व संगीतात्मकता है।


2.पद

संतो देखत जग बौराना।

साँच कहौं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।।

नेमी देखा धरमी देखा, प्रात करै असनाना।

आतम मारि पखानहि पूजै, उनमें कछु नहिं ज्ञाना।।

बहुतक देखा पीर औलिया, पढ़ै कितेब कुराना।

कै मुरीद तदबीर बतावैं, उनमें उहै जो ज्ञाना।।

आसन मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना।

पीपर पाथर पूजन लागे, तीरथ गर्व भुलाना।।

टोपी पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक अनुमाना।


साखी सब्दहि गावत भूले, आतम खबरि न जाना।

हिन्दू कहै मोहि राम पियारा, तुर्क कहै रहिमाना।

आपस में दोउ लरि लरि मूए, मर्म न काहू जाना।।

घर घर मन्तर देत फिरत हैं, महिमा के अभिमाना।

गुरु के सहित सिख्य सब बूड़े, अंत काल पछिताना।

कहै कबीर सुनो हो संतो, ई सब भर्म भुलाना।

केतिक कहौं कहा नहिं मानै, सहजै सहज समाना ।।


व्याख्या

जो सत्य आचरण करता है, सत्य में मार्ग पर चलता है, उसे लोग पागल समझते हैं और सत्य बोलने पर मारने के लिए दौड़ते हैं। जो मायाजिनित झूठ का आचरण करता है, उससे लोग बातें करके खुश होते हैं। नियमों पर चलने वाले लोग, नेमी धर्मी लोग बहुत हैं जो सभी नियमों का पालन करते हैं, सुबह उठ कर स्नानकरते हैं लेकिन वे अपनी आत्मा की नहीं सुनते हैं। ऐसे लोग अपनी आत्मा को मार चुके होते हैं, आत्मा की नहीं सुनते हैं, वे पत्थर में ईश्वर को ढूंढते हैं और प्रतीकात्मक पूजा करते हैं, जबकि मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं है, मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है, सत्य की राह पर चलना और इंसान को इंसान समझना ना की वह किस धर्म का है, किस जाती का है। 

वस्तुत यहाँ पर साहेब ने हिन्दू धर्म पर कटाक्ष किया है। हिन्दू धर्म को मानने वाले अपने नियमों का पालन करते हैं लेकिन उनके आचरण में मिथ्या और झूठा आचरण, दिखावे की भक्ति ही होती है। कण कण में ईश्वर का वास है उसे प्राप्त किया जा सकता है सत्य से। सत्य यही है की सभी लोगों को समान समझे, किसी पर धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक अत्याचार ना किया जाय, यही सच्ची भक्ति है।


वहीँ दूसरी तरफ मुसलमान भी आडम्बर और पाखंड से परे नहीं है। मुस्लिक धर्म के उपदेशक और ओलिया आदि बड़ी बड़ी किताबों को तो पढ़ लेते हैं लेकिन उन्हें अपने जीवन और आचरण में नहीं उतारते हैं। ईश्वर की प्राप्ति के वे बहुत से मार्ग और माध्यम बताते हैं लेकिन उन्हें स्वंय ही आत्म ज्ञान नहीं है तो वे लोगों को क्या बताएँगे ? भाव है की वे मात्र आडम्बर ही कर रहें हैं। वहीँ दूसरी और मानवता को भूल कर योग करने वालों पर भी साहेब व्यंग्य कसते हैं और कहते हैं की ऐसे लोग अहंकार करके एक स्थान पर बैठे रहते हैं लेकिन उन्होंने भी सच्चे रहस्य को प्राप्त नहीं किया है। मानवता को भूलकर हिन्दू धर्म के लोग पीपल को पूजते हैं, पत्थर को पूजते हैं लेकिन क्या इनसे ईश्वर की प्राप्ति संभव है ? नहीं, जब तक व्यक्ति छद्म आचरण का त्याग नहीं करता है तब तक ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं है। मुस्लिम लोग टोपी पहन लेते हैं, हिन्दू धर्म के अनुयायी माथे पर तिलक लगा लेते हैं, माला फेरते हैं जो साहेब के अनुसार और कुछ नहीं छद्म आचरण ही है और ऐसे लोग सखी (साक्षी) शब्द आदि को भूल गए हैं क्योंकि इन्होने आत्म ज्ञान की प्राप्ति नहीं की है।

हिन्दू धर्म के लोगों को राम प्यारा है और मुस्लिम धर्म के लोगों को रहमान प्यारा है। इसी बात को लेकर दोनों आपस में ही लड़ रहे हैं, लेकिन दोनों ने ही रहस्य को नहीं जाना है। रहस्य क्या है, रहस्य है की सभी का मालिक एक ही है उसे प्रथक प्रथक कर दिया है और उसके नाम भी कई रख दिए हैं, लेकिन है एक ही। पाखंडी लोग घर घर घूम कर लोगों को मन्त्र देते फिर रहे हैं लेकिन वे स्वंय भी अज्ञान में ही डूबे हुए हैं। अन्तकाल में ऐसे लोगों के हाथ सिर्फ पछतावे ही लगना है और कुछ भी नहीं। 

अंत में साहेब की वाणी है की ईश्वर की प्राप्ति के लिए कोई विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है, वह तो सहज भाव से ही प्राप्त किया जा सकता है। सहज भाव क्या है ? सहज भाव है की मानवता के धर्म का पालन करें, जीव के प्रति दया भाव रखें, मानव को मानव समझे और सभी के प्रति सम भाव रखें। सभी के धर्मों का आदर करें, मोह और माया से दूर रहें, मिथ्या और आडम्बर से दूर रहें यही सहज भाव है।

कबीर साहेब ने जीवन पर्यंत धार्मिक और सामजिक आडम्बरों का ना केवल विरोध किया बल्कि लोगों का सत्य आचरण की और मार्ग भी प्रशस्त किया। अपने जीवन की परवाह ना करते हुए धार्मिक और सामंती ठेकेदारों के कारनामों से लोगों को बताकर उन्हें भी सत्य मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। साहेब की आवाज सदा ही समाज के दबे कुचले लोगों की आवाज बनी रही। धार्मिक पाखंड हो या सामाजिक सभी का खंडन कबीर साहेब ने किया है। साहेब का जो मूल सन्देश है वह यह है की आडम्बर और मिथ्या आचरण का त्याग करो और जो सत्य की राह है उस पर चलो, मानव जीवन तभी सार्थक होगा। मनुष्य को मनुष्य समझना ही सबसे बड़ा धर्म है और कल्याण का मार्ग है।


कबीरदास की भाषा, शैली 

कबीर की भाषा एक सन्त की भाषा थी। क्योंकि संतों की संगति से ही इन्हें सब कुछ सीखने का मौका मिला। ये फक्कड़ प्रकृति के सन्त थे। इन्होंने समाज में फैले आडम्बरों का खुलकर प्रबल विरोध किया और अज्ञान में डूबी मानवता को एक प्रकाश की ओर ले जाने का जीतोड़ प्रयोस किया। इसी कारण इनकी भाषा साहित्यिक न हो सकी। इनकी रचनाओं में खड़ीबोली, ब्रज, अरबी, फारसी, पंजाबी, भोजपुरी, बुन्देखण्डी आदि भाषाओं के शब्द देखने को मिलते हैं। इसी कारण इनकी भाषा को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सधुक्कड़ी भाषा कहा है। तो हजारीप्रसाद द्विवेदी हैं - “भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया - बन गया है तो सीधे-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर।भाव प्रकट करने के लिए इनकी भाषा पूर्णतः सक्षम है।

इन्होंने सरल, सहज व सरल शैली में अपने उपदेश दिये। इसी कारण इनकी उपदेशात्मक शैली क्लिष्ट व बोझिल प्रतीत नहीं होती। इसमें स्पष्टता, स्वाभाविकता, सजीवता, एवं प्रवाहमयता के दर्शन होते हैं। इन्होंने चौपाई, दोहा व पदों की शैली अपनाई व उनका सफलतापूर्वक प्रयोग किया।

 






Monday

गुरु पूर्णिमा

 



               गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।

              गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

अर्थात् गुरु ही ब्रह्मा हैं,जो अपने शिष्यों को नया जन्म देता है, गुरु ही विष्णु हैं जो अपने शिष्यों की रक्षा करता है, गुरु ही शंकर है; गुरु ही साक्षात परमब्रह्म हैं; क्योंकि वह अपने शिष्य के सभी बुराईयों और दोषों को दूर करता है।ऐसे गुरु को मैं बार-बार नमन करता हूँ।अपनी संस्कृति और विरासत के लिए पहचाने जाने वाले भारत देश में गुरु पूर्णिमा का पर्व बेहद महत्वपूर्ण पर्व है। यह पर्व गुरुओं को समर्पित एक आदर्श पर्व है।

आषाढ़ महीने की पूर्णिमा को कई पुराणों, शास्त्रों, चारों वेदों को विभाजित करने वाले एवं हिन्दू धर्म के महाग्रंथ श्री महा भगवतगीता की रचना करने वाले महर्षि वेदव्यास जी का भी जन्म हुआ था।उनकी जयंती के उपलक्ष्य में गुरु पूर्णिमा का पावन पर्व मनाया जाता है और इस पर्व को व्यास पूर्णिमा और व्यास जयंती के नाम से भी जाना जाता है। महार्षि वेद व्यास जी को गुरु-शिष्य परंपरा का प्रथम गुरु माना गया है।

गुरु हर किसी के जीवन के लिए बेहद महत्वपूर्ण है गुरु के महत्व और इसके मूल्यों को सिर्फ शब्दों में नहीं पिरोया जा सकता है। गुरु हमारे जीवन में सभी अंधकारों को मिटाकर हमें प्रकाश की तरफ आगे बढ़ाता है और सही मार्गदर्शन कर हमें सफलता के पथ पर आगे बढ़ाता है।इसलिए हिन्दू धर्म के शास्त्रों में गुरु को भगवान का दर्जा दिया गया है। गुरु के बिना कोई भी व्यक्ति ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता है और न ही अपने जीवन में सफलता हासिल कर सकता है।

गुरु के बिना किसी भी व्यक्ति का जीवन बिना नाविक के नाव की तरह होता है। जिस तरह बिना नाविक के नाव दिशाहीन होकर चलती है या फिर बेसहारा भंवर में फंस जाती है,ठीक उसी तरह बिना गुरु के मनुष्य जीवन रूपी भंवर में फंसा रहता है और दिशाहीन हो जाता है, उसे यह कभी ज्ञात नहीं होता है कि उसे जाना किस तरफ है।गुरु अपनी पूरी जिंदगी अपने शिष्य को योग्य और सफल बनाने के लिए समर्पित कर देते हैं। इसलिए हमारे हिन्दू धर्म और शास्त्रों में गुरुओं को विशिष्ट स्थान दिया गया है और गुरु को भगवान का रुप मानकर गुरु पूर्णिमा के दिन उनका पूजन किया जाता है और उनके प्रति सम्मान प्रकट किया जाता है।

वहीं गुरु की अद्भुत महिमा का बखान तो हिन्दी साहित्य के कई महान कवियों ने भी अपने लेखों, दोहों आदि के माध्यम से भी किया है।महान कवि कबीर दास जी ने अपने इस दोहे के माध्यम से गुरु को भगवान से बढ़कर दर्जा देते हुए कहा है कि –

गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय।

बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय॥”

संत कबीर दास जी ने अपने इस दोहे में यह कहा है कि अगर गुरू और गोबिंद अर्थात भगवान दोनों एक साथ खड़े हों तो हमें किसे प्रणाम करना चाहिए – गुरू को अथवा गोबिन्द को? उन्होंने बताया कि ऐसी स्थिति में हमें अपने गुरू के चरणों में अपना शीश झुकाना चाहिए क्योंकि गुरु ने ही भगवान तक जाने का रास्ता बताया है, अर्थात मोक्ष प्राप्ति का मार्ग दिखाया है और गुरु की कृपा से ही भगवान के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।गुरु, सभ्य समाज का निर्माण करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं एवं राष्ट्र के विकास में मद्द करते हैं। गुरु, परमात्मा और संसार के बीच एवं शिष्य और ईश्वर के बीच एक सेतु की तरह काम करते हैं।

गुरु के बिना किसी भी व्यक्ति को ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है, और बिना ज्ञान का कोई भी व्यक्ति आत्मसात नहीं कर सकता है। गुरु ही मनुष्य को उसके कर्तव्यों का बोध करवाता है एवं हमारे अंदर धैर्य अथवा धीरज पैदा करता है,ज्ञान का बोध करवाता है,और मोक्ष का मार्ग बताता है। इसलिए किसी विद्धान ने कहा भी है कि –

गुरु बिना ज्ञान नहीं और ज्ञान बिना आत्मा नहीं,

कर्म, धैर्य, ज्ञान और ध्यान सब गुरु की ही देन है।।”

गुरु की महिमा का तो जितना भी बखान किया जाए उतना कम है। “गुरू बिन ज्ञान न उपजै, गुरू बिन मिलै न मोष।गु

रू बिन लखै न सत्य को गुरू बिन मिटै न दोष।। 

Saturday

चीफ की दावत समीक्षा


                          चीफ की दावत समीक्षा 

चीफ की दावत कला की दृष्टि से भीष्म साहनी की प्रसिद्ध कहानी है। ‘चीफ की दावत’ एक ऐसी ही कहानी है, जिसमें स्वार्थी बेटे शामनाथ को अपनी विधवा बूढ़ी माँ का बलिदान फर्ज ही नजर आता है। भीष्म साहनी ने शामनाथ के माध्यम से शिक्षित युवा पीढ़ी पर करारा व्यंग्य किया है। आज के शिक्षित युवा वर्ग अपने माता पिता को बोझ समझते हैं। व्यक्ति अपनी सुख सुविधा के लिए अपने माता पिता को छोड़ देते हैं।

वे यह तक भूल जाते हैं कि आज जिस समाज मे तुम रह रहे हो उनकी बदौलत है। अपने बच्चो को काबिल बनाने के लिए माता पिता अपना सर्वस्व समर्पित कर देते हैं। उनका पूरा जीवन अपने बच्चों की खुशी के लिए बलिदान में व्यतीत हो जाता है।

चीफ की दावत समीक्षा – 

कथानक

कहानी के नायक सामनाथ अपने मध्यवर्गीय परिवार को आधुनिक बोध से जकड़े हुए है। नए पन का ढोंग उन्हें मां और पत्नी के मध्य चमकीले पर्दे की भांति लटकाए हुए हैं या आधुनिकता की गंध सामान्य माध्यम परिवारों में देखी जा सकती है। पुरानी मान्यताओं और परंपराओं के ढांचे से निकले माता-पिता जब अपनी संतानों को नए रंग में पाते हैं तो उन्हें आशय मिश्रित असंतोष के कारण भीतर ही भीतर गोटन का अनुभव होता है।

शामनाथ नौकरी पेशा व्यक्ति है- इनकी पदोन्नति की संभावनाएं संबंधित चीफ साहब पर निर्भर करती है चीफ साहब है कि बड़े ही फैशनेबल और संपन्न व्यक्ति व अमेरिकन है। सामनाथ अपनी हैसियत और परिस्थिति को ध्यान में रखकर जीना कबूल नहीं करते। वे चीफ साहब को दावत देते हैं की खुशामद करने से हमारी पदोन्नति मैं उनका सहयोग मिलेगा अपनी आय के हिसाब से ना रहकर दिखावे की जिंदगी जीना शामनाथ को बेहतर लगने लगा था। परिणामत: हर प्रकार की भौतिकसुख सुविधाएं जुटाने में आर्थिक टूटन आ जाती है। किंतु शामनाथ अपनी उन्नति के लिए सब कुछ करने को तैयार है।

शामनाथ ने घर को खूब सजाया-संवारा है कमरे की सफाई घर के सामान की यथा स्थान व्यवस्था, भोजन-सामग्री की समय से तैयारी आज सब कुछ कर ली है। अब समस्या यह है कि मकान में सब नया आधुनिकता से ओतप्रोत होते हुए भी मां पुरानी है। इस पुराने पन से छुटकारा पाने का सामना को कोई उपाय नहीं सुजाता कभी वह सोचते हैं। आप चीफ की दावत समीक्षा पढ़ रहे हैं।

कि पड़ोसी के घर भेज दिया जाए और कभी कमरे में बंद कर दिया जाए। वरना कहीं चीफ साहब के सामने ना पड़ जाए और उसकी शान में धब्बा लग जाए अथवा उनके व्यवहार से चीफ साहब पर्सन हो जाए। अंत में उन्होंने या निर्णय लिया कि मां को अच्छे ढंग से पहना उड़ा कर रखा जाए कि संयोगवश चीफ साहब की नजर पड़ ही जाए तो उनकी स्थिति बिगड़ने ना पावे मां को बताया गया। कि उनके आने पर वह कैसी रहेंगी और कैसे बोलेंगे मां असमंजस में एक नई दुनिया के घेरे में स्वयं को बंधा अनुभव करने लगी है।

किंतु इस स्थिति में भी वह अपने पुत्र को पदोन्नति के लिए सब कुछ करने को तैयार हैं। साहब के आने पर मां को अंधेरे में बैठाया गया है किंतु पार्टी का पहला दौर समाप्त होता है और लोग भोजन पर जाने लगते हैं। तो चीफ साहब के दस्त सामनाथ की मां पर जाती है। कि बड़े प्रेम से मिलकर मां का आदर करते हैं और उन्हें भारतीय संस्कृति की प्रतीक रूप मानते हैं।

उन्होंने मां से लोक कला के बारे में जानने की इच्छा व्यक्त की और फिर एक गीत सुनाने का प्रस्ताव रखा वह मासी लोक कला का प्रतीक फुलकारी मांगते थे। और उससे लोकगीत सुनकरबहुत प्रसन्न होते हैं। जबकि पुत्र के संतुष्ट होने पर मां हरिद्वार जाने की इच्छा प्रकट करती है। पुत्र का पूजा व्यवहार होने पर भी आजमा उनके लिए सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हैं। नई पीढ़ी की व अनैतिक और अब व्यावहारिक मान्यताएं व महत्वकांक्षी आएं हमारे पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन के लिए घातक दिखाई देती है।प्रेम के मूल्य को ही नैतिक आधार मिलना चाहिए। आप चीफ की दावत समीक्षा पढ़ रहे हैं।

चीफ की दावत समीक्षा – कथोपकथन

कहानी के संवाद छुट्टी ले और व्यंग्यात्मक है। कहानीकार के नई कहानी के संवाद शैली को मानव मनोविश्लेषण के समायोजन में प्रयुक्त किया है।मन की गहरी चाल मनुष्य की छवि को धूमिल भी कर लेती है।पात्रों की संभावित विकास व मुख भावना आधुनिकता की चौखट से टकराकर चोट खा जाती है।संवादों के द्वारा कथानक को खींचने का प्रयास नहीं तो सार्थक है और कहीं महंगा साबित होने लगता है। छोटे-छोटे वाक्यों द्वारा कथन तो पैन आपन सिद्ध होता है।शब्दों और वाक्यों विन्यास की ध्वनियों में अर्थ की व्यंजना होती है।

मुहावरे आदि के प्रयोगों में कहानीकार की कोई विशेष रूचि नहीं है।तथ्य के विकास और चरित्रों के उद्देश्य पर निर्माण में संवाद योजना उपयुक्त है तथा तो इन्हें कह देंगे कि अंदर से दरवाजा बंद कर ले मैं बाहर से ताला लगा दूंगा और जो सो गई। तो डिनर का क्या मालूम कब तक चले 11:11 बजे तक तो तुम लोग ड्रिंक ही करते रहते हो। अच्छी वाली या भाई के पास जा रही थी। तुमने यूं ही कुछ अच्छा बनने के लिए बीच में टांग अड़ा दी। आप चीफ की दावत समीक्षा पढ़ रहे हैं।

चीफ की दावत कहानी का चरित्र चित्रण

कहानी के पात्र वर्तमान परिस्थितियों के है। आज का परिवारिक जीवन इन्हीं यथा स्थितियों में स्थित है या विसंगति अतिशय स्वार्थपरता और स्थिर बुद्धि का परिणाम है सामना इस कहानी का केंद्र बिंदु है। जो अपनी पदोन्नति और भौतिक जीवन के सुख क्षेत्रों की प्राप्ति से 100 पदों हेतु आर्थिक लाभ देखता है। उसके या नहीं जाना कि मां के निस्वार्थ प्रेम और भारतीय आदर्श को खोदकर हम पश्चिमी सभ्यता की होल फ्रांस में फसने जा रहे हैं। आप चीफ की दावत समीक्षा पढ़ रहे हैं।

शाम नाथ के प्रतिनिधि आज के भारतीय परिवारों में बहुसंख्यक है या दो एकात्मक स्थिति मनुष्य के चरित्र का खंडन करती जा रही है।शामनाथ की पत्नी पति के शौक से गांठ बांधे हुए हैं। उनकी मान्यता भी ऐसी है कि शामनाथ की मां है कि बुढ़ापे में एक युग बिताकर नए युग की धरती को मां जालपा ले बैठी हैं। पुत्र का विवाह मूवी उन्हें यहां तक खींच लाया की घुंघट में जीने वाली भारतीय महिला अमेरिकन जीत के समक्ष लोकप्रिय सुनने को बाध्य हो जाती है। चीफ है कि भारतीय जीवन दर्शन की पहचान करने में तत्पर है।

चीफ की दावत समीक्षा – कहानी का उद्देश्य

मध्यवर्ती आर्थिक टूटन कुंडा ग्रस्त जीवन शैली भोग विलास कि कृष्णा और अंतर्विरोध से उत्पन्न चुनावी कहानी में सामाजिक विषमताओं के परिणाम है।भारतीय संस्कृति और आदर्शों को तोड़कर पाश्चात्य मान्यताओं की ललक व्यक्ति की मानसिक पीड़ा को बढ़ावा ही देगी।मां के अस्तित्व पर खतरे की घंटी बजने ही लगी है और पुत्र के प्रति समर्पण का भाव भी नित्या होने की आशंका है।इन तथ्यों की खोज और समाधान के लिए इस कहानी को हम सफलतम कर सकते हैं।

परीक्षा के एक दिन पूर्व दो मित्रों की बातचीत का संवाद लेखन कीजिए-

संवाद लेखन किसे कहते हैं  संवाद लेखन -  वह लेखनी है जिसमें दो या अधिक व्यक्तियों के बीच होने वाली बातचीत को लिखित रूप में व्यक्त किया जाता ह...