Sunday

रामधारी सिंह दिनकर का काव्य

 

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ – जीवन परिचय, साहित्यिक परिचय, रचनाएँ व भाषा-शैली

राष्ट्रकवि 'रामधारी सिंह ‘दिनकर’  का हिंदी के ओजस्वी कवियों में शीर्ष स्थान हैं। राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत उनकी कविताओं में प्रगतिवादी स्वर भी मुखरित है, जिसमें उन्होंने शोषण का विरोध करते हुए मानवतावादी मूल्यों का समर्थन किया है। वे हिंदी के महान कवि, श्रेष्ठ निबंधकार , विचारक एवं समीक्षक के रूप में जाने जाते हैं।




रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जीवन परिचय

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी का जन्म 30 सितम्बर, सन् 1908 ई० में बिहार के मुंगेर जिले के सिमरिया नामक ग्राम में एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री रवि सिंह तथा माता का नाम श्रीमती मनरूप देवी था। अल्पायु में ही इनके पिता का देहान्त हो गया था। इन्होंने पटना विश्वविद्यालय से बी० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की और इच्छा होते हुए भी पारिवारिक कारणों से आगे की पढ़ाई न क सके और नौकरी में लग गये।

कुछ दिनों तक इन्होंने माध्यमिक विद्यालय मोकामाघाट में प्रधानाचार्य के पद पर कार्य किया। फिर सन् 1934 ई० में बिहार के सरकारी विभाग में सब-रजिस्ट्रार की नौकरी की। सन् 1950 ई० में इन्होंने मुजफ्फरपुर के स्नातकोत्तर महाविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया। सन् 1952 ई० में ये राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हुए। कुछ समय ये भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रहे।

उसके पश्चात्‌ भारत सरकार के गृह-विभाग में हिन्दी सलाहकार के रूप में एक लम्बे अर्से तक हिन्दी के संवर्द्धन एवं प्रचार-प्रसार के लिए कार्यरत रहे। सन्‌ 1959 ई0 में भारत सरकार ने इन्हें ‘पद्मभूषण‘ से सम्मानित किया तथा सन् 1962 ई० में भागलपुर विश्वविद्यालय ने इन्हें डी० लिट्० की उपाधि प्रदान की। सन् 1972 ई० में इनकी काव्य-रचना ‘उर्वशी‘ पर इन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। हिन्दी-साहित्य-गगन का यह सुर्य 24 अप्रैल, सन् 1974 ई० को सदा के लिए अस्त हो गया।



रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का साहित्यिक परिचय

‘दिनकर’ जी में काव्य-प्रतिभा जन्मजात थी, मैट्रिक में पढ़ते समय ही इनका ‘प्रणभंग‘ नामक काव्य प्रकाशित हो गया था। इसके पश्चात सन्‌ 1928-29 से विधिवत्‌ साहित्य-सृजन के क्षेत्र में पदार्पण किया। राष्ट्र-प्रेम से ओत-प्रोत इनकी ओजस्वी कविताओं ने सोए हुए जनमानस को झकझोर दिया।

मुक्तक, खंडकाव्य और महाकाव्य की रचना कर इन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा का परिचय दिया। गद्य के क्षेत्र में निबंधों और ग्रंथों की रचना कर भारतीय दर्शन, संस्कृति, कला एवं साहित्य का गंभीर विवेचन प्रस्तुत कर हिंदी साहित्य के भंडार को परिपूर्ण करने का सतत प्रयास किया।

इनकी साहित्य साधना को देखते हुए राष्ट्रपति महोदय ने सन्‌ 1959 मे इन्हें ‘पद्मभूषण‘ की उपाधि से अलंकृत किया। इनकी रचना ‘उर्वशी’ के लिए इन्हें ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार‘ तथा ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के लिए ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार‘ से सम्मानित किया गया।



रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की भाषा-शैली

दिनकर जी की भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली है, जिसमें संस्कृत शब्दों की बहुलता है। इन्होंने तद्भव और देशज शब्दों तथा मुहावरों और लोकोक्तियों का भी सहज स्वाभाविक प्रयोग किया है।

अंग्रेजी और उर्दू के प्रचलित शब्द भी उनकी भाषा में दिखाई पड़ते हैं। संस्कृतनिष्ठ भाषा के साथ-साथ व्यावहारिक भाषा भी उनकी गद्य रचनाओं में देखने को मिलती है। कहीं-कहीं उनकी भाषा में देशज शब्दों और मुहावरों का प्रयोग भी मिल जाता है।

विषय के अनुरूप उनकी शैली में विविधता दिखाई पड़ती है। गंभीर विषयों के वर्णन में उन्होंने विवेचनात्मक शैली का प्रयोग किया है। कवि-हदय होने से उनकी गद्य रचनाओं में भावात्मक शैली भी दिखाई पड़ती है।

समीक्षात्मक निबंधों में उन्होंने अक्सर आलोचनात्मक शैली का प्रयोग किया है तो कहीं-कहीं जीवन के शाश्वत सत्यों को अभिव्यक्त करने के लिए वे सूक्ति शैली का भी प्रयोग करते हैं।

Wednesday

प्रयोगवाद किसे कहते हैं ? प्रयोगवाद की विशेषताएं -

 

प्रयोगवाद 

हिन्दी मे प्रयोगवाद का प्रारंभ सन् 1943 मे अज्ञेय के सम्पादन मे प्रकाशित तारसप्तक से माना जा सकता है। इसकी भूमिका मे अज्ञेय ने लिखा है-कि कवि नवीन राहों के अन्वेषी हैं।" स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अज्ञेय के सम्पादक मे प्रतीक पत्रिका प्रकाशन हुआ। उसमे प्रयोगवाद का स्वरूप स्पष्ट हुआ। सन् 1951 मे दूसरा तार सप्तक प्रकाशित हुआ और तत्पश्चात तीसरा तार सप्तक।

Prem Yaduvanshi : 


 प्रयोगवाद किसे कहते हैं?

प्रयोगवाद हिन्दी साहित्य की आधुनिकतम विचारधार है। इसका एकमात्र उद्देश्य प्रगतिवाद के जनवादी दृष्टिकोण का विरोध करना है। प्रयोगवाद कवियों ने काव्य के भावपक्ष एवं कलापक्ष दोनों को ही महत्व दिया है। इन्होंने प्रयोग करके नये प्रतीकों, नये उपमानों एवं नवीन बिम्बों का प्रयोग कर काव्य को नवीन छवि प्रदान की है। प्रयोगवादी कवि अपनी मानसिक तुष्टि के लिए कविता की रचना करते थे।
जीवन और जगत के प्रति अनास्था प्रयोगवाद का एक आवश्यक तत्व है। साम्यवाद के प्रति भी अनास्था उत्पन्न कर देना उसका लक्ष्य है। वह कला को कला के लिए, अपने अहं की अभिव्यक्ति के लिए ही मानता है।

Prem Yaduvanshi : 


प्रयोगवाद की विशेषताएं 

प्रयोगवाद की निम्नलिखित विशेषताएं हैं--

1. नवीन उपमानों का प्रयोग
प्रयोगवादी कवियों ने पुराने एवं प्रचलित उपमानों के स्थान पर नवीन उपमानों का प्रयोग किया हैं। प्रयोगवादी कवि मानते है कि काव्य के पुराने उपमान अब बासी पड़ गए हैं।

2. वैयक्तिकता की प्रधानता 

प्रयोगवादी कविता में सामाजिक दृष्टिकोण के प्रति व्यक्तिवाद की घोर प्रतिक्रिया हुई। प्रयोगवादी कवि अहं से जकड़ा हुआ है। वह समाज से दृष्टि हटाकर अपने तक ही सीमित रहना चाहता है। भारत भूषण की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-- 

साधारण नगर के, एक साधारण घर में 

मेरा जन्म हुआ है

बचपन बीता अति साधारण, साधारण खान-पान।

3. प्रेम भावनाओं का खुला चित्रण
इन्होंने  ने प्रेम भावनाओं का अत्यंत खुला चित्रण कर उसमे अश्लीलता का समावेश कर दिया है।

4. यौन-भावनाओं का खुला चित्रण 

प्रयोगवादी कवि यौन (सैक्स) भावनाओं से आक्रांत है। वह इस भावना को अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष दोनों रूपों में व्यक्त करता है। अज्ञेय ने इस विषय में लिखा है कि आज के मानव का मन यौन-परिकल्पनाओं से लदा है और वे सब कल्पनायें कुण्ठित है। उसकी सौंदर्य चेतना भी इसमें आक्रांत है। उसके उपमान सब यौन कल्पनायें कुण्ठित हैं। उसकी सौंदर्य चेतना भी इसमें आक्रांत है। उसके उपमान सब यौन प्रतीकात्मक है। इस प्रकार प्रयोगवादी कवि सेक्स की भावना से आबद्ध है। उसे मलमल की बारीक साड़ी के मध्य गुलाबी चोली में कसे स्तनों का सौंदर्य अपनी ओर आकर्षित करता हैं-

"पगले! तू क्यों उसमें फँसता है? रे दुनियादारी

तह महीन मलमल की सारी। 

उसके नीचे नरम गुलाबी चोली में कसे हुए, पीनोन्नत स्तन।।"

5. बुद्धिवाद की प्रधानता
प्रगतिवादी कवियों ने बुद्धि तत्व को अधिक प्रधानता दी है इसके कारण काव्य मे कहीं-कहीं दुरूहता आ गई है।

6. वैचित्र्य प्रदर्शन की भावना

प्रयोगवादी कविता में वैचित्र्य प्रदर्शन की भावना के भी दर्शन होते है। इसमें विलक्षणता, आश्चर्य और नवीनता के दर्शन होते है। कहीं-कहीं पर प्रयोगवादी वैचित्र्य प्रदर्शन मात्र हास्य की वस्तु बनकर ही रह गया है, यथा 

"अगर कहीं मैं- तोता होता!

तो क्या होता? तो क्या होता? तोता होता।।

7. सौंदर्य के प्रति व्यापक दृष्टिकोण 

सौंदर्यानुभूति मानव का शाश्वत गुण है। प्रयोगवादी कविता में सौंदर्य के व्यापक स्वरूप के दर्शन होते हैं। प्रयोगवादी कवि संसार से तुच्छ वस्तु में भी सौंदर्य का आभास पाता हैं-- 

'हवा चली, छिपकली की टाँग

मकड़ी के जाले में फँसी रही, फँसी रही।।"

8. निराशावाद की प्रधानता
इस काल के कवियों ने मानव मन की निराशा, कुंठा व हताशा का यथातथ्य रूप मे वर्णन किया है।
9. लघुमानव वाद की प्रतिष्ठा
इस काल की कविताओं मे मानव से जुड़ी प्रेत्यक वस्तु को प्रतिष्ठा प्रदान की गई है तथा उसे कविता का विषय बनाया गया है।

10. अहं की प्रधानता
फ्रायड के मनोविश्लेषण से प्रभावित ये कवि अपने अंह को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं।
11. रूढ़ियों के प्रति विद्रोह
इस काल की कविताओं मे रूढ़ियों के प्रति विद्रोह का स्वर मुखर हुआ है। इन कवियों ने रूढ़ि मुक्त नवीन समाज की स्थापना पर बल दिया हैं।
12. मुक्त छन्दों का प्रयोग
प्रगतिवादी कवियों ने अपनी कविताओं के लिए मुक्त छन्दों का चयन किया हैं।
13. व्यंग्य की प्रधानता
इस काल के कवियों ने व्यक्ति व समाज दोनों पर अपनी व्यंग्यात्मक लेखनी चलाई है।

 

Sunday

अलंकार किसे कहते है ? और अलंकारों का वर्गीकरण

 

अलंकार किसे कहते है ?

अलंकार का अर्थ है- आभूषण; जैसे -आभूषण सौन्दर्य को बढ़ाने में सहायक होते है,उसी प्रकार में अलंकारों का प्रयोग करने से काव्य की शोभा बढ़ जाती है।अतः काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्वो को अलंकार कहते है। अलंकारों के प्रयोग से शब्द और अर्थ में चमत्कार उत्पन्न होता है।



अलंकारों का वर्गीकरण:-मुख्य रूप से अलंकारों के दो प्रकार है ।

1. शब्दालंकार

2. अर्थालंकार

1.शब्दालंकार-: जहां केवल शब्दों के प्रयोग के कारण काव्य में चमत्कार पाया जाता है,उसे शब्दालंकार कहते है।यदि उन शब्दों के स्थान पर उनके पर्यायवाची शब्द रख दिए जाए तो वह चमत्कार समाप्त हो जाएगा और वहाँ अलंकार नहीं रह जाएगा। है। इसमें मुख्य रूप से यमक, अनुप्रास, और श्लेष अलंकार शामिल है।

(I) यमक अलंकार:- यमक का अर्थ होता है-दो। जब किसी शब्द को दो या दो से अधिक प्रयोग में लाया जाए और उसका अर्थ अलग-अलग आए तो वह यमक अलंकार होता है।

जैसे:- कनक-कनक ते सो गुनी मादकता अधिकाय

     “या पाए बौराय जग या खाए बौराय”।। यहाँ पर कनक के दो अर्थ है, पहला अर्थ सोना और दूसरा कनक का अर्थ धतूरा है। इसलिए यहाँ पर यमक अलंकार है।

“तीन बेर खाती है, वे तीन बेर खाती है” आदि। यमक अलंकार के उदाहरण है ।

(II) अनुप्रास अलंकार:- अनुप्रास शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है-अनु +प्रास। यहाँ पर अनु का अर्थ है बार-बार और प्रास का अर्थ है-वर्ण।जब किसी काव्य में एक ही वर्ण दो या दो से अधिक बार आए वहाँ उसे अनुप्रास अलंकार होता है। 

जैसे-“पोथी पढ़-पढ़ कर जग मुआ,पंडित भया न कोई ।

     ढाई आक्षर प्रेम का, पढे सो पंडित होई”।।

     “रघुपति राघव राजा राम”

     “जय हनुमान ज्ञान गुण सागर”। आदि पंकितयों में अनुप्रास अलंकार है ।

(III) श्लेष अलंकार :- जहां काव्य एक शब्द के दो या दो से अधिक अर्थ आए वहाँ पर श्लेष अलंकार होता है।

जैसे:- “रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून

     पानी गए न उबरै, मोती, मानुष, चून”।।

     “सजना है मुझे,सजना के लिए”।  

     “मंगन को देख पट देति बार-बार”।आदि पंकितयों में अनुप्रास अलंकार है।

 

2. अर्थालंकार-: जहां अर्थ के कारण काव्य में चमत्कार पाया जाता है, वहाँ अर्थालंकार होता है। इसमें शब्दों के पर्यायवाची रखने पर भी चमत्कार बना रहता है। इसमें मुख्य रूप से उपमा,रुपक,उत्प्रेक्षा तथा अतिशयोक्ति अलंकार शामिल है।

(I) उपमा अलंकार-:जहां किसी वस्तु या व्यक्ति की किसी अन्य वस्तु या व्यक्ति से समान गुण-धर्म के आधार पर तुलना की जाए या समानता बताई जाए,वहाँ उपमा अलंकार होता है।

जैसे-:”राधा के चरण गुलाब के समान कोमल है।“ यहाँ राधा के चरण की तुलना या समानता गुलाब से बताई गई है। इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।

“पीपल पात सरिस मन डोला।“ यहाँ पर पीपल के पत्ते से मन की तुलना हो रही है। जिसका अर्थ है-: पीपल के पत्ते के समान मन डोला । इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।

“हरिपद कोमल कमाल से” आदि। उपमा अलंकार के उदाहरण हैं।

(II) रुपक अलंकार-: जहां उपमेय में उपमान का भेदरहित आरोप किया जाता है,अर्थात उपमेय (प्रस्तुत) और उपमान (अप्रस्तुत) में अभिनंता प्रकट की जाए, वहाँ रुपक अलंकार होता है।   

जैसे-:”मैया मै तो चंद्र खिलौना लैहों”। यहाँ पर श्रीकृष्ण अपनी माँ यशोदा से हठ कर रहे है कि उन्हें चंद्र रूपी जैसा खिलौना चाहिए। अर्थात यहाँ पर खिलौने कि तुलना चंद्रमा के रूप से की गई है। इसलिए यहाँ रुपक अलंकार है।

“पायो जी मैंने राम रतन धन पायो” आदि। रुपक अलंकार के उदाहरण हैं।

(III) उत्प्रेक्षा अलंकार :-जहां उपमेय में उपमान की संभवना की जाए,वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। मनु-मानो, जनु-जानो, मनहूँ-जनहूँ आदि उत्प्रेक्षा अलंकार के वाचक शब्द है।

जैसे:- “मोर-मुकुट की चंद्रिकनु, यों राजत नंद-नन्द”, मनु ससि शेखर की अकस,किए शेखर सत-चंद” आदि। उत्प्रेक्षा अलंकार के उदाहरण हैं।

(IV) अतिशयोक्ति अलंकार:- जब किसी वस्तु, व्यक्ति आदि का वर्णन बहुत बढ़ा चढाकर किया जाए तो वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।

जैसे:- “हनुमान की पूंछ में लगन ना पाई आग,

     लंका सागरी जल गई गए निशाचर भाग।।“

     “आगे नदियाँ बड़ी अपार घोड़ा कैसे उतरे उस पार

     राणा ने सोचा इस पार तब तक चेतक था उस पार।।“

आदि अतिशयोक्ति अलंकार के उदाहरण हैं।  

   

 

परीक्षा के एक दिन पूर्व दो मित्रों की बातचीत का संवाद लेखन कीजिए-

संवाद लेखन किसे कहते हैं 

संवाद लेखन - वह लेखनी है जिसमें दो या अधिक व्यक्तियों के बीच होने वाली बातचीत को लिखित रूप में व्यक्त किया जाता है। 



परीक्षा के एक दिन पूर्व दो मित्रों की बातचीत का संवाद लेखन-

अक्षर – नमस्ते विमल, कुछ परेशान से दिखते हो?
विमल – नमस्ते अक्षर, कल हमारी गणित की परीक्षा है।
अक्षर – मैंने तो पूरा पाठ्यक्रम दोहरा लिया है, और तुमने?
विमल – पाठ्यक्रम तो मैंने भी दोहरा लिया है, पर कई सवाल ऐसे हैं, जो मुझे नहीं आ रहे हैं।
अक्षर – ऐसा क्यों?
विमल – जब वे सवाल समझाए गए थे, तब बीमारी के कारण मैं स्कूल नहीं जा सका था।
अक्षर – कोई बात नहीं चलो, मैं तुम्हें समझा देता हूँ। शायद तुम्हारी समस्या हल हो जाए।
विमल – पर इससे तो तुम्हारा समय बेकार जाएगा।
अक्षर – कैसी बातें करते हो यार, अरे! तुम्हें पढ़ाते हुए मेरा दोहराने का काम स्वतः हो जाएगा। फिर, इतने दिनों की मित्रता कब काम आएगी।
विमल – पर, मैं उस अध्याय के सूत्र रट नहीं पा रहा हूँ।
अक्षर – सूत्र रटने की चीज़ नहीं, समझने की बात है। एक बार यह तो समझो कि सूत्र बना कैसे। फिर सवाल कितना भी घुमा-फिराकर आए तुम ज़रूर हल कर लोगे।
विमल – तुमने तो मेरी समस्या ही सुलझा दी। चलो अब कुछ समझा भी दो।

Monday

प्रसाद की ध्रुवस्वामिनी और नारी

 प्रसाद की ध्रुवस्वामिनी और नारी



ध्रुवस्वामिनी में प्रसाद ने अपने युग से सम्बद्ध दो समस्याओं को मुख्य रूप से उठाया है जो नारी के विवाह-मोक्ष और राज्याधिकार से सम्बंधित है। विवाह-मोक्ष और पुनर्लग्न की समस्या जो भारतीय समाज की सर्वकालिक समस्या है इस नाटक की केंद्रीय समस्या है। इसके अंतर्गत नाटककार ने समाज में नारी का स्थान क्या है? क्या उसका पुनर्विवाह संभव है? वह जिस पुरुष से प्रेम करती है उससे विवाह नहीं कर पाती और जिससे उसका विवाह हुआ है उससे वह प्रेम नहीं करती, इन समस्याओं का सूत्रपात नाटक के प्रारंभ में ही हो जाता है जब ध्रुवस्वामिनी अपने वैवाहिक जीवन पर शंका प्रकट करते हुए कहती है कि –

“उस दिन राजपुरोहित ने कुछ आहुतियों के बाद मुझे जो आशीर्वाद दिया था क्या वह अभिशाप था?”

विवाह-मोक्ष की समस्या उस समय और भी प्रबल हो जाती है जब रामगुप्त विवाह की धार्मिक क्रिया को ही अस्वीकार करते हुए कहता है कि –

“मैं तो द्राक्षासव में उस दिन डुबकी लगा रहा था कि पुरोहितों ने न जाने क्या पढ़ा दिया होगा? ”

ध्रुवस्वामिनी में पुरुष सत्तात्मक समाज के शोषण के प्रति नारी का विद्रोही स्वर सुनाई पड़ता है। हालाँकि नाटककार ने समाज में पुरुषों के हाथों नारी की शोचनीय अवस्था का यथार्थ चित्रण किया है किन्तु नारी स्वातंत्र्य की आधुनिक चेतना के कारण ही इसमें नारी पहली बार प्रतिक्रिया करती हुई दिखाई देती है।

उदहारण के लिए –“पुरुषों ने स्त्रियों को पशु-संपत्ति समझकर उस पर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया है। यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते, अपने कुल की मर्यादा, नारी का गौरव नहीं बचा सकते तो मुझे बेच भी नहीं सकते।”



प्रसाद का युग नवजागरण का युग था जब एक ओर गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता आन्दोलन चल रहे थे तो दूसरी ओर राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद जैसे समाज-सुधारक जिन सामाजिक बुराईयों से जूझ रहे थे, नारी स्वातंत्र्य उनमें महत्वपूर्ण था। इसलिए ध्रुवस्वामिनी में प्रसाद ने नारी शोषण, बेमेल विवाह, पुनर्विवाह, निर्णय का अधिकार आदि पर गहन विचार किया है। धर्म और परम्परानुमोदित रीति- नीति की हमारे जातीय जीवन में व्यापक स्वीकृति है। इसलिए नारी स्वतंत्रता का पक्ष लेते हुए तलाक या पुनर्विवाह की समस्या को नाटककार ने शास्त्र अनुमोदित दृष्टि से ही पुरोहित द्वारा सुलझवाया है। यथा-

“विवाह की विधि ने देवी ध्रुवस्वामिनी और रामगुप्त को एक भ्रांतिपूर्ण बंधन में बाँध दिया है। धर्म का उद्देश्य इस तरह पददलित नहीं किया जा सकता।”

धर्मभीरुता भारतीय समाज की ज्वलंत समस्या रही है। ध्रुवस्वामिनी में प्रसाद ने नारी जीवन से सम्बंधित रुढियों पर प्रहार करते हुए नवजागरण की भूमिका प्रस्तुत की है। बदली हुई मानसिकता को व्यापक रूप प्रदान करने के लिए इस नाटक में मंदाकिनी जैसे पात्रों की सृष्टि की गयी है, जो धर्मशास्त्रीय रीतियों के खिलाफ आवाज उठाती है कि क्या धर्म केवल नारी के अधिकारों को छीनने के लिए ही है या उन्हें कोई और सुरक्षा प्रदान करने के लिए भी। जैसे –

“जिन स्त्रियों को धर्मं बंधन में बांधकर उसकी सम्मति के बिना उसका अधिकार छीन लेते हैं, क्या धर्मं के पास कोई प्रतिकार कोई संरक्षण नहीं जिससे स्त्रियाँ आपत्ति में अपना अवलंब मांग सके।”

ध्रुवस्वामिनी में प्रसाद ने नारी अस्मिता तथा तलाक की समस्या को युगीन सन्दर्भ में उठाया है। पुरोहित द्वारा विवाह की व्याख्या में नारी समानाधिकार की ही वकालत की गयी है।

यथा- “स्त्री और पुरुष का परस्पर विश्वासपूर्ण अधिकार, रक्षा और सहयोग ही तो विवाह कहलाता है। यदि ऐसा न हो तो धर्मं और विवाह खेल है।”

कहना न होगा कि विवाह, मोक्ष, पुनर्लग्न के सन्दर्भ में नाटककार के विचार भारतीय चिंतन से प्रेरित तो हैं ही, आधुनिक समाज में नारी की भूमिका एवं उसके पहचान को भी व्याख्यायित करते हैं।

क्या आप जानते हैं ?

ध्रुवस्वामिनी के प्रकाशन से पहले प्रसाद जी पर यह आरोप किया जाता था कि उनके नाटक काव्य-रूपक हैं, उनके संवादों में कृत्रिमता है। कहा जाता था कि उनके संवादों में चमत्कार, वाग्वैदग्ध्य और जवाब-सवाल की कमी है।



ध्रुवस्वामिनी नाटक में राज्याधिकार से सम्बंधित समस्या भी प्रमुख समस्या है। क्रूर, कायर, मद्यप, अकर्मण्य राजा को गद्दी से हटाया जा सकता है अथवा नहीं। वस्तुतः अयोग्य शासक की व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह, राष्ट्र-सम्मान और स्वाभिमान के लिए प्राणोत्सर्ग तथा अक्षम शासक की दुर्गति की मांग भी प्रसाद के समय महत्वपूर्ण थे। इसलिए इस नाटक की मूल समस्या के रूप में ही इन समस्याओं को भी प्रतिपादित किया गया है। सामाजिक समस्या के ताने-बाने में ही राजनैतिक अव्यवस्था को भी उभारा गया है। रामगुप्त ने गुप्त साम्राज्य पर कौशलपूर्वक अधिकार तो कर लिया था लेकिन उसकी रक्षा कर पाने में वह अक्षम था। इसलिए शक आक्रमण का समाचार सुनकर भी वह अपनी प्रेम संबंधी चिंता में लीन रहा। युद्ध परिषद् में युद्ध की समस्या पर विचार करने के बजाय उसे हिजड़ों और बौनों का नृत्य अधिक आकर्षक और मोहक प्रतीत हुआ। शक संधि की शर्तों में ध्रुवस्वामिनी और सामंत स्त्रियों की मांग को सुनकर वह अपना क्षत्रिय धर्म निभाने के बदले शांत भाव से कहता है –“ठीक ही है जब उसके यहाँ सामंत हैं, तब उन लोगों के लिए भी स्त्रियाँ चाहिए।”

रामगुप्त जब किसी प्रकार ध्रुवस्वामिनी की रक्षा के लिए तैयार नहीं हुआ तब चन्द्रगुप्त अपने प्राणों की बाजी लगाकर शक शिविर में जाकर शकराज का वध करता है और ध्रुवस्वामिनी और गुप्त साम्राज्य की रक्षा करता है। चन्द्रगुप्त के विजयोपरांत रामगुप्त राज्य पर अपना अधिकार प्रकट करता है किन्तु विद्रोह के कारण वह सफल नहीं हो पाता है।

ध्रुवस्वामिनी और चन्द्रगुप्त का पुनर्लग्न प्रसाद की प्रगतिशीलता है क्योंकि वह पौरुष के बल पर नारी को दासी मानने वाले रामगुप्त का परित्याग कर अपनी इच्छा से चन्द्रगुप्त का वरण करती है। तत्कालीन परिस्थिति में इसे विधवा विवाह से अधिक क्रांतिकारी कदम मानना चाहिए। भारतीय समाज में उपेक्षित एवं शोषित नारी वर्ग की यथार्थ स्थिति के प्रति सजग एवं जागरुक रचनाकार प्रसाद ने मुक्ति के इस सन्देश द्वारा इतिहास को सामाजिक परिवर्तन की निर्माणात्मक भूमिका में ला खड़ा किया है।

ध्रुवस्वामिनी में उपर्युक्त समस्या का समावेश होने पर भी उसे समस्या नाटक की संज्ञा देने में विद्वानों में पर्याप्त मतभिन्नता है। नन्द दुलारे वाजपेयी मानते हैं कि ध्रुवस्वामिनी नाटक में समस्या अवश्य है परन्तु वह समस्या नाटक नहीं है। गोविन्द चातक इसे समस्या नाटक की अपेक्षा विषयनाटक मानते हैं, क्योंकि इस समस्या को लेखक ने अपनी दृष्टि से देखकर, अपने चिंतन के अनुसार ही समाधान प्रस्तुत किया है। कुछ आलोचक इसे इब्सन के प्रसिद्ध नाटक ‘द डॉल्स हाउस’ की प्रेरणा पृष्ठभूमि के रूप में स्वीकार करते हैं। इसमें संदेह नहीं कि प्रसाद जी ने जो समस्याएँ उठाई है उनका प्रस्तुतीकरण ऐसा नहीं है कि ध्रुवस्वामिनी को इब्सन, बर्नार्ड शॉ और गार्ल्सवर्दी की समस्या नाटकों की पंक्ति में रखा जा सके। वस्तुतः अधिकांश आलोचकों ने ध्रुवस्वामिनी को आधुनिक ढंग का समस्या नाटक मानने में असमर्थता ही जाहिर की है। कहा जा सकता है कि इस नाटक में प्रसाद ने सामाजिक जीवन में नारी की स्थिति, दासता की श्रृंखला से उसकी मुक्ति का प्रश्न एवं विशिष्ट परिस्थिति में पुनर्विवाह की समस्या जैसे प्रश्नों को उठाया है। इतिहास के भिन्न-भिन्न पृष्ठों में विश्रृंखल कथा-माणिक्यों को कल्पना के एक सूत्र में पिरोकर उन्होंने निश्चय ही सफल ऐतिहासिक नाटक की रचना की है जिसमें समस्याओं के चित्रण तथा युगानुरूप विचार-संयोजन की ओर भी ध्यान दिया गया है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार - ध्रुवस्वामिनी में नारी के अस्तित्व, स्वातंत्र्य और मोक्ष की जो समस्या प्रसाद ने इतिहास के पृष्ठों से उठायी है वह स्वयं उनके युग की नारी समस्या थी। यह समस्याप्रधान नाटक नहीं है पर सामाजिक एवं राजनैतिक समस्याओं को उन्होंने जीवंत रूप से उठाया है।”

Sunday

हिन्दी दिवस विशेष नाटक

 

हिन्दी दिवस विशेष नाटक 

14 सितंबर का दिन हिन्दी दिवस के नाम से जाना जाता है । आज कक्षा ------------------के कुछ छात्र हिन्दी दिवस के अवसर पर एक नाटिका प्रस्तुत करने जा रहे है । जिसके पात्र है ,माँ, पिता , बहु, बेटी और मैं ।

माँ-  (भजन)

ओ पालनहारे
निर्गुण और न्यारे,
ओ पालनहारे
निर्गुण और न्यारे,
तुमरे बिन हमरा कौनो नाहीं,



मैं हूँ हिन्दी राजभाषा,मातृभाषा वही हिन्दी जिसके पास अलंकार, गद्य,पद्य, व्याख्या,वर्णमाला भी है । अब कुछ नहीं है तो मुझे पढ़ने वाले । अब किसी से क्या कहना, जो मेरे ही बेटे ने अंग्रेजी से शादी कर ली । बताओ इतनी अंग्रेज, इतनी अंग्रेज है की हमेशा T बनाएगी, चाय कभी नहीं ।

बहु- English song बैकग्राउंड

माँ- बहु, अपना चलत दूरभाष यंत्र बंद करो।

बहु- what

माँ- इशारे से फोन की तरफ

बहु- ohh

माँ- बहु यह हिन्दी का घर है, यहाँ पर सुबह-सुबह भगवान का नाम लिया जाता है ।  

बहु -hahaha हाँ अब जितने दिन बचे है, हिन्दी के पास अब तो भगवान का नाम लेना ही चाहिए। ----और मम्मी जी अगर आपको सुनना ही है तो पॉप, जस,ट्रन्स सुनिए।

माँ- बहु अपनी बकवास बंद कर, वर्ना तेरा पॉप्स अलग और जोज अलग कर दूँगी ।

बहु- मम्मी जी चावल मे से कंकड़ अलग नहीं किया जाता आपसे, पॉप और जैस अलग करेंगी ।

माँ- बहु अपनी जबान पर (,) कोमा लगा

बहु- BY THE WAY I AM GOING TODAY KITTY PARTY, आज बाहर से मेरी cousin friends आई है ।

माँ- जिस फ़्रेंड्स को तुम cousin बनाकर रखती हो ना, उस friends की तो 25 दिन दाढ़ी बनाकर रखते है ।

बहु- shut up वर्ना full stop कर दूँगी ।

माँ -तेरे जैसे full stop की तो हम बिंदी लगाकर रखती है,समझी ।

बहु – हिन्दी और बिंदी दोनों ही out of fashion है ।

मां -हिन्दी कोई fashion नहीं भाषा है ।

बहु ---------------------------------------------------

माँ – थप्पड़ मारती है------------------

बहु -vvv, vvv

माँ -क्या vvv लगा रखा है । छोटी है छोटी बनकर रह । खबरदार अगर मेरे साथ बड़ी ई की मात्रा लगाकर बात की तो ।

बहु -मम्मी जी मै आपको देख लूँगी।

माँ -देख तो मै तुझे लूँगी सब टाइटल के साथ

बहु- vvv वो तो देखना ही पड़ेगा,क्योंकि आने वाले समय में सब लोग मुझे ही तो देखेंगे ।

माँ- लगता है तू ऐसे नहीं मानेगी, अपनी बेटी को बुलाना पड़ेगा -----------बेटी .. बेटी

बेटी- songs play

बहु --------------

बेटी – बारी बरसी खतन गया सी खत के लेयंदी भिंडी-------- बारी बरसी खतन गया सी खत के लेयंदी भिंडी—वो टंग तोड़ दियांगी जिसने ठीक से ना बोली हिन्दी बोलो तारा—तारा—तारा ओ भाभी साडे नाल रहोगी तो ऐश करोगी ।

बहु- हां--- हां सारे काम ऐश करे फिल्म वो करे बच्चों को स्कूल वो छोड़े, घर वो चलाए अभिषेक कुछ ना करे ।



माँ-ए मै तुझे वचन देती हूँ अगर तेरे noun का pronoun ना किया तो कहना ।

बहु- हां--- हां तो मैंने भी आपके अनुलोम का विलोम ना किया तो कहना -----------

बेटी – वो तो मैंने सिद्धू का मनमोहन न किया तो कहना वॉय ठोको ताली वॉय

बहु- what the hell you are talking

सभी एक साथ बोलने लगते है ------

पिता -लगातार बोलते है कुछ समझ नहीं आता

पिता – भाषा कम्यूनिकेशन के लिए होती है और हिंदुस्तान तो अनेक बोलियों का देश है---यहाँ सदियों से एक ही भाषा चली आई है । प्यार की भाषा----------------- oye-कोई हजार मांगे तो लख दियांगे मिलजुलकर रहे, हिंदुस्तान के नाम चक दियांगे। 

Songs play चक दे इंडिया-----। 

Thursday

सर्वपल्ली राधाकृष्णन और उनका जीवन परिचय

 

सर्वपल्ली राधाकृष्णन और उनका जीवन परिचय 



सर्वपल्ली राधाकृष्णन (जन्म: 5 सितंबर 1888; मृत्यु: 17 अप्रैल, 1975) स्वतंत्र भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति थे। इन्होंने डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की गौरवशाली परम्परा को आगे बढ़ाया। इनका कार्यकाल 13 मई, 1962 से 13 मई, 1967 तक रहा। इनका नाम भारत के महान् राष्ट्रपतियों की प्रथम पंक्ति में सम्मिलित है। इनके व्यक्तित्व और कृतित्व के लिए सम्पूर्ण राष्ट्र इनका सदैव ॠणी रहेगा। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म तमिलनाडु के तिरूतनी ग्राम में, 5 सितंबर 1888 को हुआ था। इनका जन्मदिवस 5 सितंबर आज भी पूरा राष्ट्र 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाता है। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के ज्ञानी, एक महान् शिक्षाविद, महान् दार्शनिक, महान् वक्ता होने के साथ ही साथ विज्ञानी हिन्दू विचारक थे। डॉक्टर राधाकृष्णन ने अपने जीवन के 40 वर्ष एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किए थे। वह एक आदर्श शिक्षक थे।




जन्म

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म तमिलनाडु के तिरूतनी ग्राम में, जो मद्रास ,अब चेन्नई से लगभग 64 कि॰ मी॰ की दूरी पर स्थित है, 5 सितंबर 1888 को हुआ था। यह एक ब्राह्मण परिवार से संबंधित थे। इनका जन्म स्थान एक पवित्र तीर्थस्थल के रूप में विख्यात रहा है।[1] डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के पुरखे पहले 'सर्वपल्ली' नामक ग्राम में रहते थे और 18वीं शताब्दी के मध्य में उन्होंने तिरूतनी ग्राम की ओर निष्क्रमण किया था। लेकिन इनके पुरखे चाहते थे कि उनके नाम के साथ उनके जन्मस्थल के ग्राम का बोध भी सदैव रहना चाहिए। इसी कारण इनके परिजन अपने नाम के पूर्व 'सर्वपल्ली' धारण करने लगे थे।

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक ग़रीब किन्तु विद्वान ब्राह्मण की दूसरी संतान के रूप में पैदा हुए। इनके पिता का नाम 'सर्वपल्ली वीरास्वामी' और माता का नाम 'सीताम्मा' था। इनके पिता राजस्व विभाग में वैकल्पिक कार्यालय में काम करते थे। इन पर बड़े परिवार के भरण-पोषण का दायित्व था। इनके पाँच पुत्र तथा एक पुत्री थी। राधाकृष्णन का स्थान इन संततियों में दूसरा था। इनके पिता काफ़ी कठिनाई के साथ परिवार का निर्वहन कर रहे थे। इस कारण बालक राधाकृष्णन को बचपन में कोई विशेष सुख नहीं प्राप्त हुआ।

विद्यार्थी जीवन

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का बाल्यकाल तिरूतनी एवं तिरूपति जैसे धार्मिक स्थलों पर ही व्यतीत हुआ। इन्होंने प्रथम आठ वर्ष तिरूतनी में ही गुजारे। यद्यपि इनके पिता पुराने विचारों के इंसान थे और उनमें धार्मिक भावनाएं भी थीं, इसके बावजूद उन्होंने राधाकृष्णन को क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कूल, तिरूपति में 1896-1900 के मध्य विद्याध्ययन के लिए भेजा। फिर अगले 4 वर्ष (1900 से 1904) की शिक्षा वेल्लूर में हुई। इसके बाद इन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास में शिक्षा प्राप्त की। वह बचपन से ही मेधावी थे।




इन 12 वर्षों के अध्ययन काल में डॉक्टर राधाकृष्णन ने बाइबिल के महत्त्वपूर्ण अंश भी याद कर लिए। इसके लिए इन्हें विशिष्ट योग्यता का सम्मान प्रदान किया गया। इस उम्र में इन्होंने वीर सावरकर और स्वामी विवेकानन्द का भी अध्ययन किया। इन्होंने 1902 में मैट्रिक स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की और इन्हें छात्रवृत्ति भी प्राप्त हुई। इसके बाद इन्होंने 1904 में कला संकाय परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इन्हें मनोविज्ञान, इतिहास और गणित विषय में विशेष योग्यता की टिप्पणी भी उच्च प्राप्तांकों के कारण मिली। इसके अलावा क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास ने इन्हें छात्रवृत्ति भी दी। उन्होंने दर्शन शास्त्र में एम.ए. किया और सन् 1916 में मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक नियुक्त हुए। वह प्राध्यापक भी रहे। डॉ. राधाकृष्णन ने अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से विश्व को भारतीय दर्शन शास्त्र से परिचित कराया। सारे विश्व में उनके लेखों की प्रशंसा की गई।




दाम्पत्य जीवन

उस समय मद्रास के ब्राह्मण परिवारों में कम उम्र में ही शादी सम्पन्न हो जाती थी और राधाकृष्णन भी उसके उपवाद नहीं रहे। 1903 में 16 वर्ष की आयु में ही उनके विवाह दूर के रिश्ते की बहन 'सिवाकामू' के साथ सम्पन्न हो गया। उस समय उनकी पत्नी की आयु मात्र 10 वर्ष की थी। अतः तीन वर्ष बाद उनकी पत्नी ने उनके साथ में रहना आरम्भ कर दिया। यद्यपि उनकी पत्नी सिवाकामू ने परम्परागत रूप से शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, लेकिन उनका तेलुगु भाषा पर अच्छा अधिकार था। वह अंग्रेज़ी भाषा भी लिख-पढ़ सकती थीं। 1908 में राधाकृष्णन दम्पति को संतान के रूप में पुत्री की प्राप्ति हुई। 1908 में ही उन्होंने कला स्नातक की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की और दर्शन शास्त्र में विशिष्ट योग्यता प्राप्त की। शादी के 6 वर्ष बाद ही 1909 में इन्होंने कला में स्नातकोत्तर परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। इनका विषय दर्शन शास्त्र ही रहा। उच्च अध्ययन के दौरान वह अपनी निजी आमदनी के लिए बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का काम भी करते रहे। 1908 में इन्होंने एम. ए. की उपाधि प्राप्त करने के लिए एक शोध लेखन किया। इस समय इनकी आयु मात्र बीस वर्ष की थी। इससे शास्त्रों के प्रति इनकी ज्ञान-पिपासा बढ़ी। शीघ्र ही इन्होंने वेदों और उपनिषदों का भी गहन अध्ययन कर लिया। इन्होंने हिन्दी और संस्कृत भाषा का भी रुचिपूर्वक अध्ययन किया।

पत्नी का देहांत

डॉक्टर राधाकृष्णन को बचपन से ही पुस्तकों से प्रेम था। इस कारण तभी स्पष्ट हो गया था कि यह बालक बड़ा होकर विद्वत्ता एवं महानता का वरण अवश्य करेगा। उनका स्वभाव संकोची था, अतः वह घर के सामाजिक समारोहों में उत्साह एवं उल्लास का अनुभव नहीं करते थे। यह इनके परिवार के गहरे संस्कारों का ही प्रभाव रहा कि जीवन भर शाकाहारी रहे। इन्होंने कभी भी धूम्रपान अथवा मद्यपान नहीं किया। परिवार में प्रथम पुत्री पैदा होने के बाद अगले पन्द्रह वर्षों में राधाकृष्णन दम्पति को छह अन्य सन्तानें हुई। इस दौरान इनकी पत्नी का जीवन परिवार तथा पति के लिए पूर्णतया समर्पित रहा। लेकिन 26 नवम्बर, 1956 को इनकी पत्नी का देहांत हो गया। इस प्रकार 53 वर्ष तक साथ निभाने वाली जीवन-संगिनी का इन्हें विछोह भी सहन करना पड़ा। पत्नी की अन्तिम क्रिया सम्पन्न करने के बाद जब वह लौटे तो उन्होंने एक टिप्पणी की- एक लम्बे अध्याय का अंत हो गया। जीवन के नाज़ुक रिश्तों को भी उन्होंने दर्शन शास्त्र की परिभाषाओं के अनुसार अनुभूत किया था।




हिन्दूवादिता का गहरा अध्ययन

शिक्षा का प्रभाव जहाँ प्रत्येक इन्सान पर निश्चित रूप से पड़ता है, वहीं शैक्षिक संस्थान की गुणवत्ता भी अपना प्रभाव छोड़ती है। क्रिश्चियन संस्थाओं द्वारा उस समय पश्चिमी जीवन मूल्यों को विद्यार्थियों में गहरे तक स्थापित किया जाता था। यही कारण है कि क्रिश्चियन संस्थाओं में अध्ययन करते हुए राधाकृष्णन के जीवन में उच्च गुण समाहित हो गए। लेकिन उनमें एक अन्य परिवर्तन भी आया जो कि क्रिश्चियन संस्थाओं के कारण ही था। कुछ लोग हिन्दुत्ववादी विचारों को हेय दृष्टि से देखते थे और उनकी आलोचना करते थे। उनकी आलोचना को डॉक्टर राधाकृष्णन ने चुनौती की तरह लिया और हिन्दूवादिता का गहरा अध्ययन करना आरम्भ कर दिया। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन यह जानना चाहते थे कि वस्तुतः किस संस्कृति के विचारों में चेतनता है और किस संस्कृति के विचारों में जड़ता है। तब स्वाभाविक अंतर्प्रज्ञा द्वारा इस बात पर दृढ़ता से विश्वास करना आरम्भ कर दिया कि भारत के दूरस्थ स्थानों पर रहने वाले ग़रीब तथा अनपढ़ व्यक्ति भी प्राचीन सत्य को जानते थे। इस कारण राधाकृष्णन ने तुलनात्मक रूप से यह जान लिया कि भारतीय आध्यात्म काफ़ी समृद्ध है और क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा हिन्दुत्व की आलोचनाएँ निराधार हैं। इससे इन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीय संस्कृति धर्म, ज्ञान और सत्य पर आधारित है जो प्राणी को जीवन का सच्चा संदेश देती है।

भारतीय संस्कृति

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह जान लिया था कि जीवन छोटा है और इसमें व्याप्त खुशियाँ अनिश्चित हैं। इस कारण व्यक्ति को सुख-दुख में समभाव से रहना चाहिए। वस्तुतः मृत्यु एक अटल सच्चाई है, जो कि अमीर-ग़रीब सभी को अपना ग्रास बनाती है तथा किसी भी प्रकार का वर्ग-विभेद नहीं करती है। सच्चा ज्ञान वही है जो आपके अन्दर के अज्ञान को समाप्त कर सकता है। सादगीपूर्ण संतोषवृत्ति का जीवन अमीरों के अहंकारी जीवन से बेहतर है, जिनमें असंतोष का निवास है। एक शांत मस्तिष्क बेहतर है, तालियों की उन गड़गड़ाहटों से जो संसदों एवं दरबारों में सुनाई देती हैं। इस कारण डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के नैतिक मूल्यों को समझ पाने में सफल रहे, क्योंकि वह मिशनरियों द्वारा की गई आलोचनाओं के सत्य को स्वयं परखना चाहते थे। इसीलिए कहा गया है कि आलोचनाएँ परिशुद्धि का कार्य करती हैं। सभी माताएँ अपने बच्चों में उच्च संस्कार देखना चाहती हैं। इस कारण वे बच्चों को ईश्वर पर विश्वास रखने, पाप से दूर रहने एवं मुसीबत में फंसे लोगों की मदद करने का पाठ पढ़ाती हैं। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह भी जाना कि भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों का आदर करना सिखाया गया है और सभी धर्मों के लिए समता का भाव भी हिन्दू संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। इस प्रकार उन्होंने भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान को समझा और उसके काफ़ी नज़दीक हो गए।

जीवन दर्शन

डॉक्टर राधाकृष्णन समूचे विश्व को एक विद्यालय मानते थे। उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है। अत: विश्व को एक ही इकाई मानकर शिक्षा का प्रबंधन करना चाहिए। ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में दिये अपने भाषण में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि 'मानव को एक होना चाहिए। मानव इतिहास का संपूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति है। जब देशों की नीतियों का आधार पूरे विश्व में शांति की स्थापना का प्रयत्न हो।' डॉ. राधाकृष्णन अपनी बुद्धि से पूर्ण व्याख्याओं, आनंददायक अभिव्यक्ति और हल्की गुदगुदाने वाली कहानियों से छात्रों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारने की प्रेरणा वह अपने छात्रों को देते थे। वह जिस भी विषय को पढ़ाते थे, पहले स्वयं उसका गहन अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गंभीर विषय को भी वह अपनी शैली से सरल, रोचक और प्रिय बना देते थे।

व्यावसायिक जीवन

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, इंदिरा गाँधी एवं कुमारास्वामी कामराज


21
वर्ष की उम्र अर्थात 1909 में राधाकृष्णन ने मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में कनिष्ठ व्याख्याता के तौर पर दर्शन शास्त्र पढ़ाना आरम्भ किया। यह उनका परम सौभाग्य था कि उनको अपनी प्रकृति के अनुकूल आजीविका प्राप्त हुई थी। यहाँ उन्होंने 7 वर्ष तक न केवल अध्यापन कार्य किया बल्कि स्वयं भी भारतीय दर्शन और भारतीय धर्म का गहराई से अध्ययन किया। उन दिनों व्याख्याता के लिए यह आवश्यक था कि अध्यापन हेतु वह शिक्षण का प्रशिक्षण भी प्राप्त करे। इस कारण 1910 में राधाकृष्णन ने शिक्षण का प्रशिक्षण मद्रास में लेना आरम्भ कर दिया। इस समय इनका वेतन मात्र 37 रुपये था। दर्शन शास्त्र विभाग के तत्कालीन प्रोफ़ेसर राधाकृष्णन के दर्शन शास्त्रीय ज्ञान से काफ़ी अभिभूत हुए। उन्होंने उन्हें दर्शन शास्त्र की कक्षाओं से अनुपस्थित रहने की अनुमति प्रदान कर दी। लेकिन इसके बदले में यह शर्त रखी कि वह उनके स्थान पर दर्शन शास्त्र की कक्षाओं में पढ़ा दें। तब राधाकृष्ण ने अपने कक्षा साथियों को तेरह ऐसे प्रभावशाली व्याख्यान दिए, जिनसे वह शिक्षार्थी चकित रह गए। इनकी विषय पर गहरी पकड़ थी, दर्शन शास्त्र के सम्बन्ध में इनका दृष्टिकोण स्पष्ट था और इन्होंने उपयुक्त शब्दों का चयन भी किया था। 1912 में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की 'मनोविज्ञान के आवश्यक तत्व' शीर्षक से प्रकाशित हुई जो कक्षा में दिए गए उनके व्याख्यानों का संग्रह था। इस पुस्तक के द्वारा इनकी यह योग्यता प्रमाणित हुई कि प्रत्येक पद की व्याख्या करने के लिए इनके पास शब्दों का अतुल भण्डार था और स्मरण शक्ति भी अत्यन्त विलक्षण थी।

प्रथम भेंट

राधाकृष्णन की महात्मा गांधी से प्रथम भेंट 1915 में हुई थी। उनके विचारों से प्रभावित होकर राधाकृष्णन ने राष्ट्रीय आन्दोलन के समर्थन में लेख भी लिखे। वह कभी भी किसी पार्टी से नहीं जुड़े, लेकिन निर्भय होकर राष्ट्रप्रेम को अभिव्यक्त करते थे। बाद में इन्होंने गांधी जी को अभिव्यक्त करते हुए कहा था – "मनुष्य के सर्वोत्तम प्रयासों में गांधी जी की आवाज़ सदैव अनश्वर रहेगी और संसार के सभी मानवों में श्रेष्तम भी होगी।" यहाँ पर आवाज़ का आशय गांधी जी की समग्र सोच से किया गया था। यद्यपि राधाकृष्णन ब्रिटिश सरकार की नौकरी कर रहे थे, तथापि देश की स्वतंत्रता के लिए वह ख़्वाहिशमंद थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उन्होंने अंग्रेज़ों से यह आशा रखी थी कि वे देश को स्वतंत्र कर देंगे। वह अंग्रेज़ों से यह आश्वासन भी चाहते थे कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वे भारत को ग़ुलामी से मुक्त कर देंगे।

स्थानान्तरण

1916
में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का स्थानान्तरण अनन्तपुर हो गया। यहाँ यह छह माह तक रहे। इसके बाद पुनः प्रेसिडेंसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर के रूप में लौटे। 1972 में वह दर्शन शास्त्र के प्रोफ़ेसर के रूप में 'कन्फर्म' किए गए और इनका स्थानान्तरण राजामुन्द्री में कर दिया गया। यहाँ पर इनके अध्यापन को काफ़ी प्रसिद्ध पाप्त हुई। इन्होंने दर्शन शास्त्र जैसे बोझिल विषय को मनोरंजन का स्वरूप प्रदान कर अपने छात्रों को मित्र की तरह पढ़ाया। वह प्रत्येक छात्र को एक विशिष्ट उपनाम से पुकारते थे। राधाकृष्णन ने अपने शिक्षार्थियों की अधिकतम मदद की। यही कारण है कि शिक्षार्थी उनका हृदय से आदर करते थे। 1918 में वह 'न्यू मैसूर यूनिवर्सिटी' में 'एडीशनल प्रोफ़ेसर' की हैसियत से नियुक्त हुए और वहाँ पर 13 वर्षों (1921) तक अध्यापन कार्य किया।




रवीन्द्रनाथ टैगोर से भेंट

दर्शन शास्त्र के मर्मज्ञ के तौर पर डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की पहचान क़ायम हो चुकी थी। जुलाई, 1918 में मैसूर प्रवास के समय उनकी भेंट रवीन्द्रनाथ टैगोर से हुई। इस मुलाकात के बाद वह टैगोर से काफ़ी अभिभूत हुए। उनके विचारों की अभिव्यक्ति हेतु डॉक्टर राधाकृष्णन ने 1918 में 'रवीन्द्रनाथ टैगोर का दर्शन' शीर्षक से एक पुस्तक लिखी जो 'मैकमिलन प्रकाशन' द्वारा प्रकाशित हुई। इसके बाद उन्होंने दूसरी पुस्तक 'द रीन आफ रिलीजन इन कंटेंपॅररी फिलॉस्फी' लिखी। इस पुस्तक ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दी। इस पुस्तक को भारत के शिक्षार्थियों ने 'आत्मतत्त्व ज्ञान' की पुस्तक के रूप में स्वीकार किया। यही नहीं, इसे इंग्लैण्ड तथा अमेरिका के विश्वविद्यालयों में भी बेहद पसन्द किया गया। एक बार मैसूर में इनके शिक्षार्थियों ने इनसे पूछा था-क्या आप उच्च अध्ययन के लिए विदेश जाना पसन्द करेंगे? तब इनका प्रेरक जवाब था - नहीं, लेकिन वहाँ शिक्षा प्रदान करने के लिए अवश्य ही जाना चाहूँगा।

मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध

विद्यार्थियों के साथ राधाकृष्णन के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण रहते थे। जब वह अपने आवास पर शैक्षिक गतिविधियों का संचालन करते थे, तो घर पर आने वाले विद्यार्थियों का स्वागत हाथ मिलाकर करते थे। वह उन्हें पढ़ाई के दौरान स्वयं ही चाय देते थे और साथी की भाँति उन्हें घर के द्वार तक छोड़ने भी जाते थे। राधाकृष्णन में प्रोफेसर होने का रंचमात्र भी अहंकार नहीं था। उनका मानना था कि जब गुरु और शिष्य के मध्य संकोच की दूरी न हो तो अध्यापन का कार्य अधिक श्रेष्ठतापूर्वक किया जा सकता है। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के ऐसे मैत्री सम्बन्धों के कारण एक मिसाल भी क़ायम हुई, जो कि बहुत ही अनोखी थी। दरअसल जब उनको कलकत्ता में स्थानान्तरित होना था, तब विदाई का कोई भी कार्यक्रम आयोजित नहीं किया गया। इसके लिए उन्होंने मना कर दिया। इनके विद्यार्थियों ने बग्घी के द्वारा इन्हें स्टेशन तक पहुँचाया था। इस बग्घी में घोड़े नहीं जुते थे, बल्कि विद्यार्थियों के द्वारा ही उस बग्घी को खींचकर रेलवे स्टेशन तक ले जाया गया। उनकी विदाई के समय मैसूर स्टेशन का प्लेटफार्म 'सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जय हो' के नारों से गूँज उठा था। वहाँ पर मौजूद लोगों की आँखों में अश्रु थे। राधाकृष्णन भी उस अदभुत प्रेम के वशीभूत होकर अपने आँसू रोक नहीं पाए थे। गुरु एवं विद्यार्थियों का ऐसा सम्बन्ध वर्तमान युग में कम ही देखने को प्राप्त होता है।

आलोचनाओं का सामना

इसके बाद डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कोलकाता में 1921 से 1931 तक समय व्यतीत किया। इन्हें कोलकाता के 'किंग जॉर्ज पंचम विश्वविद्यालय' में मानसिक एवं नैतिक दर्शन शास्त्र का प्रोफेसर नियुक्त किया गया। इस दौरान उन्होंने भारत की शैक्षिक सेवा में अभिवृद्धि करने का भी कार्य किया। यहाँ पर वह गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के सम्पर्क में भी रहे। टैगोर के विचारों का काफ़ी प्रभाव राधाकृष्णन पर पड़ा। कलकत्ता विश्वविद्यालय के सभी संगठनों और विभागों को उन्नत करने के लिए इन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। यूरोप के विद्वान भी इनके दर्शन शास्त्रीय विचारों से काफ़ी प्रभावित हुए। इनके विचारों में विषय की स्पष्टता होती थी। यह सम्बोधन में क्लिष्टता का समावेश नहीं करते थे। इनकी भाषा में विद्यार्जित विद्वत्ता का ऐसा चमत्कार होता था कि श्रोता मंत्रमुग्ध होकर सुनता रह जाता था। लेकिन वर्तमान युग में आलोचना तो संसार के रचयिता की भी होती है। इस कारण डॉक्टर राधाकृष्णन को भी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। इनके आलोचकों का कहना था कि राधाकृष्णन ने दर्शन शास्त्र को नया कुछ भी नहीं दिया है, भारत के आध्यात्मिक दर्शन की प्राचीनता को ही उजागर किया है। पश्चिम के सम्मुख उन्होंने भारतीय आध्यात्म को मात्र अंग्रेज़ी भाषा में उदधृत करने का ही कार्य किया है, लेकिन राधाकृष्णन ने अपने आलोचकों को कभी भी स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता महसूस नहीं की। इसके बाद इनका एक लेख 'एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका' के 14वें संस्करण में प्रकाशित हुआ जो एक बड़ी उपलब्धि थी।

राजनीतिक जीवन

यह सर्वपल्ली राधाकृष्णन की ही प्रतिभा थी कि स्वतंत्रता के बाद इन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वह 1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे। इस समय यह विश्वविद्यालयों के चेयरमैन भी नियुक्त किए गए। अखिल भारतीय कांग्रेसजन यह चाहते थे कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी संविधान सभा के सदस्य बनाये जाएं। जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि राधाकृष्णन के संभाषण एवं वक्तृत्व प्रतिभा का उपयोग 14 - 15 अगस्त, 1947 की रात्रि को किया जाए, जब संविधान सभा का ऐतिहासिक सत्र आयोजित हो। राधाकृष्णन को यह निर्देश दिया गया कि वह अपना सम्बोधन रात्रि के ठीक 12 बजे समाप्त करें। उसके पश्चात संवैधानिक संसद द्वारा शपथ ली जानी थी।




राजनयिक कार्य

सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ऐसा किया और ठीक रात्रि 12 बजे अपने सम्बोधन को विराम दिया। पंडित नेहरू और राधाकृष्णन के अलावा किसी अन्य को इसकी जानकारी नहीं थी। आज़ादी के बाद उनसे आग्रह किया गया कि वह मातृभूमि की सेवा के लिए विशिष्ट राजदूत के रूप में सोवियत संघ के साथ राजनयिक कार्यों की पूर्ति करें। इस प्रकार विजयलक्ष्मी पंडित का इन्हें नया उत्तराधिकारी चुना गया। पंडित नेहरू के इस चयन पर कई व्यक्तियों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि एक दर्शन शास्त्री को राजनयिक सेवाओं के लिए क्यों चुना गया? उन्हें यह संदेह था कि डॉक्टर राधाकृष्णन की योग्यताएँ सौंपी गई ज़िम्मेदारी के अनुकूल नहीं हैं। लेकिन बाद में सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह साबित कर दिया कि मॉस्को में नियुक्त भारतीय राजनयिकों में वह बेहतरीन थे। वह एक गैर परम्परावादी राजनयिक थे। जो मंत्रणाएँ देर रात्रि होती थीं, वह उनमें रात्रि 10 बजे तक ही भाग लेते थे, क्योंकि उसके बाद उनके शयन का समय हो जाता था। जब राधाकृष्णन एक शिक्षक थे, तब वह नियमों के दायरों में नहीं बंधे थे। कक्षा में यह 20 मिनट देरी से आते थे और दस मिनट पूर्व ही चले जाते थे। इनका कहना था कि कक्षा में इन्हें जो व्याख्यान देना होता था, वह 20 मिनट के पर्याप्त समय में सम्पन्न हो जाता था। इसके उपरान्त भी यह विद्यार्थियों के प्रिय एवं आदरणीय शिक्षक बने रहे।

सोवियत संघ से विदाई

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन को स्टालिन से भेंट करने का दुर्लभ अवसर दो बार प्राप्त हुआ। 14 जनवरी, 1945 के दिन वह पहला अवसर आया, जब स्टालिन के निमंत्रण पर वह उनसे मिले। स्टालिन के हृदय में 'फिलास्फर राजदूत' के प्रति गहरा सम्मान था। इनकी दूसरी मुलाकात 5 अप्रैल, 1952 को हुई। जब भारतीय राजदूत सोवियत संघ से विदा होने वाले थे। विदा होते समय राधाकृष्णन ने स्टालिन के सिर और पीठ पर हाथ रखा। तब स्टालिन ने कहा था तुम पहले व्यक्ति हो, जिसने मेरे साथ एक इंसान के रूप में व्यवहार किया हैं और मुझे अमानव अथवा दैत्य नहीं समझा है। तुम्हारे जाने से मैं दु:ख का अनुभव कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम दीर्घायु हो। मैं ज़्यादा नहीं जीना चाहता हूँ। इस समय स्टालिन की आँखों में नमी थी। फिर छह माह बाद ही स्टालिन की मृत्यु हो गई।

उपराष्ट्रपति

1952
में सोवियत संघ से आने के बाद डॉक्टर राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किए गए। संविधान के अंतर्गत उपराष्ट्रपति का नया पद सृजित किया गया था। नेहरू जी ने इस पद हेतु राधाकृष्णन का चयन करके पुनः लोगों को चौंका दिया। उन्हें आश्चर्य था कि इस पद के लिए कांग्रेस पार्टी के किसी राजनीतिज्ञ का चुनाव क्यों नहीं किया गया। उपराष्ट्रपति के रूप में राधाकृष्णन ने राज्यसभा में अध्यक्ष का पदभार भी सम्भाला। सन् 1952 में वे भारत के उपराष्ट्रपति बनाए गए। बाद में पंडित नेहरू का यह चयन भी सार्थक सिद्ध हुआ, क्योंकि उपराष्ट्रपति के रूप में एक गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति ने सभी राजनीतिज्ञों को प्रभावित किया। संसद के सभी सदस्यों ने उन्हें उनके कार्य व्यवहार के लिए काफ़ी सराहा। इनकी सदाशयता, दृढ़ता और विनोदी स्वभाव को लोग आज भी याद करते हैं। सितंबर, 1952 में इन्होंने यूरोप और मिडिल ईस्ट देशों की यात्रा की ताकि नए राष्ट्र हेतु मित्र राष्ट्रों का सहयोग मिल सके।

यात्राएँ

1956
में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की पत्नी का देहान्त हो गया। तब एक पुत्र और पांच पुत्रियों का दायित्व इन पर आ गया। इन ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए 1957 में यह दूसरी बार भी उपराष्ट्रपति निर्वाचित हुए। इस कार्यकाल के दौरान राधाकृष्णन ने चीन, मंगोलिया, हांगकांग और इंग्लैण्ड की यात्राएँ कीं। 1961 में इन्हें जर्मनी के पुस्तक प्रकाशन द्वारा दिया जाने वाला 'विश्व शान्ति पुरस्कार' भी प्राप्त हुआ। इस दौरान इन्होंने राज्यसभा का संचालन काफ़ी कुशलता के साथ किया। तब पंडित पंत को कहना पड़ा - राज्यसभा इनके हाथों का खिलौना मात्र है।



महत्त्वपूर्ण पद

डॉ. राधाकृष्णन ने अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। वे पेरिस में यूनेस्को नामक संस्था की कार्यसमि‍ति के अध्यक्ष भी रहे। यह संस्था 'संयुक्त राष्ट्र संघ' का एक अंग है और पूरे विश्व के लोगों की भलाई के लिए अनेक कार्य करती है।डॉ. राधाकृष्णन सन् 1949 से सन् 1952 तक रूस की राजधानी मास्को में भारत के राजदूत पद रहे। भारत रूस की मित्रता बढ़ाने में उनका भारी योगदान रहा ।  

 

सुमित्रानंदन पंत और बरसते बादल कविता

                                                  पाठ-1                               बरसते बादल -सुमित्रानंदन पंत  सुमित्रानंदन पंत का जी...