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हिन्दी दिवस विशेष नाटक

 

हिन्दी दिवस विशेष नाटक 

14 सितंबर का दिन हिन्दी दिवस के नाम से जाना जाता है । आज कक्षा ------------------के कुछ छात्र हिन्दी दिवस के अवसर पर एक नाटिका प्रस्तुत करने जा रहे है । जिसके पात्र है ,माँ, पिता , बहु, बेटी और मैं ।

माँ-  (भजन)

ओ पालनहारे
निर्गुण और न्यारे,
ओ पालनहारे
निर्गुण और न्यारे,
तुमरे बिन हमरा कौनो नाहीं,



मैं हूँ हिन्दी राजभाषा,मातृभाषा वही हिन्दी जिसके पास अलंकार, गद्य,पद्य, व्याख्या,वर्णमाला भी है । अब कुछ नहीं है तो मुझे पढ़ने वाले । अब किसी से क्या कहना, जो मेरे ही बेटे ने अंग्रेजी से शादी कर ली । बताओ इतनी अंग्रेज, इतनी अंग्रेज है की हमेशा T बनाएगी, चाय कभी नहीं ।

बहु- English song बैकग्राउंड

माँ- बहु, अपना चलत दूरभाष यंत्र बंद करो।

बहु- what

माँ- इशारे से फोन की तरफ

बहु- ohh

माँ- बहु यह हिन्दी का घर है, यहाँ पर सुबह-सुबह भगवान का नाम लिया जाता है ।  

बहु -hahaha हाँ अब जितने दिन बचे है, हिन्दी के पास अब तो भगवान का नाम लेना ही चाहिए। ----और मम्मी जी अगर आपको सुनना ही है तो पॉप, जस,ट्रन्स सुनिए।

माँ- बहु अपनी बकवास बंद कर, वर्ना तेरा पॉप्स अलग और जोज अलग कर दूँगी ।

बहु- मम्मी जी चावल मे से कंकड़ अलग नहीं किया जाता आपसे, पॉप और जैस अलग करेंगी ।

माँ- बहु अपनी जबान पर (,) कोमा लगा

बहु- BY THE WAY I AM GOING TODAY KITTY PARTY, आज बाहर से मेरी cousin friends आई है ।

माँ- जिस फ़्रेंड्स को तुम cousin बनाकर रखती हो ना, उस friends की तो 25 दिन दाढ़ी बनाकर रखते है ।

बहु- shut up वर्ना full stop कर दूँगी ।

माँ -तेरे जैसे full stop की तो हम बिंदी लगाकर रखती है,समझी ।

बहु – हिन्दी और बिंदी दोनों ही out of fashion है ।

मां -हिन्दी कोई fashion नहीं भाषा है ।

बहु ---------------------------------------------------

माँ – थप्पड़ मारती है------------------

बहु -vvv, vvv

माँ -क्या vvv लगा रखा है । छोटी है छोटी बनकर रह । खबरदार अगर मेरे साथ बड़ी ई की मात्रा लगाकर बात की तो ।

बहु -मम्मी जी मै आपको देख लूँगी।

माँ -देख तो मै तुझे लूँगी सब टाइटल के साथ

बहु- vvv वो तो देखना ही पड़ेगा,क्योंकि आने वाले समय में सब लोग मुझे ही तो देखेंगे ।

माँ- लगता है तू ऐसे नहीं मानेगी, अपनी बेटी को बुलाना पड़ेगा -----------बेटी .. बेटी

बेटी- songs play

बहु --------------

बेटी – बारी बरसी खतन गया सी खत के लेयंदी भिंडी-------- बारी बरसी खतन गया सी खत के लेयंदी भिंडी—वो टंग तोड़ दियांगी जिसने ठीक से ना बोली हिन्दी बोलो तारा—तारा—तारा ओ भाभी साडे नाल रहोगी तो ऐश करोगी ।

बहु- हां--- हां सारे काम ऐश करे फिल्म वो करे बच्चों को स्कूल वो छोड़े, घर वो चलाए अभिषेक कुछ ना करे ।



माँ-ए मै तुझे वचन देती हूँ अगर तेरे noun का pronoun ना किया तो कहना ।

बहु- हां--- हां तो मैंने भी आपके अनुलोम का विलोम ना किया तो कहना -----------

बेटी – वो तो मैंने सिद्धू का मनमोहन न किया तो कहना वॉय ठोको ताली वॉय

बहु- what the hell you are talking

सभी एक साथ बोलने लगते है ------

पिता -लगातार बोलते है कुछ समझ नहीं आता

पिता – भाषा कम्यूनिकेशन के लिए होती है और हिंदुस्तान तो अनेक बोलियों का देश है---यहाँ सदियों से एक ही भाषा चली आई है । प्यार की भाषा----------------- oye-कोई हजार मांगे तो लख दियांगे मिलजुलकर रहे, हिंदुस्तान के नाम चक दियांगे। 

Songs play चक दे इंडिया-----। 

Thursday

सर्वपल्ली राधाकृष्णन और उनका जीवन परिचय

 

सर्वपल्ली राधाकृष्णन और उनका जीवन परिचय 



सर्वपल्ली राधाकृष्णन (जन्म: 5 सितंबर 1888; मृत्यु: 17 अप्रैल, 1975) स्वतंत्र भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति थे। इन्होंने डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की गौरवशाली परम्परा को आगे बढ़ाया। इनका कार्यकाल 13 मई, 1962 से 13 मई, 1967 तक रहा। इनका नाम भारत के महान् राष्ट्रपतियों की प्रथम पंक्ति में सम्मिलित है। इनके व्यक्तित्व और कृतित्व के लिए सम्पूर्ण राष्ट्र इनका सदैव ॠणी रहेगा। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म तमिलनाडु के तिरूतनी ग्राम में, 5 सितंबर 1888 को हुआ था। इनका जन्मदिवस 5 सितंबर आज भी पूरा राष्ट्र 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाता है। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के ज्ञानी, एक महान् शिक्षाविद, महान् दार्शनिक, महान् वक्ता होने के साथ ही साथ विज्ञानी हिन्दू विचारक थे। डॉक्टर राधाकृष्णन ने अपने जीवन के 40 वर्ष एक शिक्षक के रूप में व्यतीत किए थे। वह एक आदर्श शिक्षक थे।




जन्म

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म तमिलनाडु के तिरूतनी ग्राम में, जो मद्रास ,अब चेन्नई से लगभग 64 कि॰ मी॰ की दूरी पर स्थित है, 5 सितंबर 1888 को हुआ था। यह एक ब्राह्मण परिवार से संबंधित थे। इनका जन्म स्थान एक पवित्र तीर्थस्थल के रूप में विख्यात रहा है।[1] डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के पुरखे पहले 'सर्वपल्ली' नामक ग्राम में रहते थे और 18वीं शताब्दी के मध्य में उन्होंने तिरूतनी ग्राम की ओर निष्क्रमण किया था। लेकिन इनके पुरखे चाहते थे कि उनके नाम के साथ उनके जन्मस्थल के ग्राम का बोध भी सदैव रहना चाहिए। इसी कारण इनके परिजन अपने नाम के पूर्व 'सर्वपल्ली' धारण करने लगे थे।

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक ग़रीब किन्तु विद्वान ब्राह्मण की दूसरी संतान के रूप में पैदा हुए। इनके पिता का नाम 'सर्वपल्ली वीरास्वामी' और माता का नाम 'सीताम्मा' था। इनके पिता राजस्व विभाग में वैकल्पिक कार्यालय में काम करते थे। इन पर बड़े परिवार के भरण-पोषण का दायित्व था। इनके पाँच पुत्र तथा एक पुत्री थी। राधाकृष्णन का स्थान इन संततियों में दूसरा था। इनके पिता काफ़ी कठिनाई के साथ परिवार का निर्वहन कर रहे थे। इस कारण बालक राधाकृष्णन को बचपन में कोई विशेष सुख नहीं प्राप्त हुआ।

विद्यार्थी जीवन

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का बाल्यकाल तिरूतनी एवं तिरूपति जैसे धार्मिक स्थलों पर ही व्यतीत हुआ। इन्होंने प्रथम आठ वर्ष तिरूतनी में ही गुजारे। यद्यपि इनके पिता पुराने विचारों के इंसान थे और उनमें धार्मिक भावनाएं भी थीं, इसके बावजूद उन्होंने राधाकृष्णन को क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कूल, तिरूपति में 1896-1900 के मध्य विद्याध्ययन के लिए भेजा। फिर अगले 4 वर्ष (1900 से 1904) की शिक्षा वेल्लूर में हुई। इसके बाद इन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास में शिक्षा प्राप्त की। वह बचपन से ही मेधावी थे।




इन 12 वर्षों के अध्ययन काल में डॉक्टर राधाकृष्णन ने बाइबिल के महत्त्वपूर्ण अंश भी याद कर लिए। इसके लिए इन्हें विशिष्ट योग्यता का सम्मान प्रदान किया गया। इस उम्र में इन्होंने वीर सावरकर और स्वामी विवेकानन्द का भी अध्ययन किया। इन्होंने 1902 में मैट्रिक स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की और इन्हें छात्रवृत्ति भी प्राप्त हुई। इसके बाद इन्होंने 1904 में कला संकाय परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इन्हें मनोविज्ञान, इतिहास और गणित विषय में विशेष योग्यता की टिप्पणी भी उच्च प्राप्तांकों के कारण मिली। इसके अलावा क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास ने इन्हें छात्रवृत्ति भी दी। उन्होंने दर्शन शास्त्र में एम.ए. किया और सन् 1916 में मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक नियुक्त हुए। वह प्राध्यापक भी रहे। डॉ. राधाकृष्णन ने अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से विश्व को भारतीय दर्शन शास्त्र से परिचित कराया। सारे विश्व में उनके लेखों की प्रशंसा की गई।




दाम्पत्य जीवन

उस समय मद्रास के ब्राह्मण परिवारों में कम उम्र में ही शादी सम्पन्न हो जाती थी और राधाकृष्णन भी उसके उपवाद नहीं रहे। 1903 में 16 वर्ष की आयु में ही उनके विवाह दूर के रिश्ते की बहन 'सिवाकामू' के साथ सम्पन्न हो गया। उस समय उनकी पत्नी की आयु मात्र 10 वर्ष की थी। अतः तीन वर्ष बाद उनकी पत्नी ने उनके साथ में रहना आरम्भ कर दिया। यद्यपि उनकी पत्नी सिवाकामू ने परम्परागत रूप से शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, लेकिन उनका तेलुगु भाषा पर अच्छा अधिकार था। वह अंग्रेज़ी भाषा भी लिख-पढ़ सकती थीं। 1908 में राधाकृष्णन दम्पति को संतान के रूप में पुत्री की प्राप्ति हुई। 1908 में ही उन्होंने कला स्नातक की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की और दर्शन शास्त्र में विशिष्ट योग्यता प्राप्त की। शादी के 6 वर्ष बाद ही 1909 में इन्होंने कला में स्नातकोत्तर परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। इनका विषय दर्शन शास्त्र ही रहा। उच्च अध्ययन के दौरान वह अपनी निजी आमदनी के लिए बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का काम भी करते रहे। 1908 में इन्होंने एम. ए. की उपाधि प्राप्त करने के लिए एक शोध लेखन किया। इस समय इनकी आयु मात्र बीस वर्ष की थी। इससे शास्त्रों के प्रति इनकी ज्ञान-पिपासा बढ़ी। शीघ्र ही इन्होंने वेदों और उपनिषदों का भी गहन अध्ययन कर लिया। इन्होंने हिन्दी और संस्कृत भाषा का भी रुचिपूर्वक अध्ययन किया।

पत्नी का देहांत

डॉक्टर राधाकृष्णन को बचपन से ही पुस्तकों से प्रेम था। इस कारण तभी स्पष्ट हो गया था कि यह बालक बड़ा होकर विद्वत्ता एवं महानता का वरण अवश्य करेगा। उनका स्वभाव संकोची था, अतः वह घर के सामाजिक समारोहों में उत्साह एवं उल्लास का अनुभव नहीं करते थे। यह इनके परिवार के गहरे संस्कारों का ही प्रभाव रहा कि जीवन भर शाकाहारी रहे। इन्होंने कभी भी धूम्रपान अथवा मद्यपान नहीं किया। परिवार में प्रथम पुत्री पैदा होने के बाद अगले पन्द्रह वर्षों में राधाकृष्णन दम्पति को छह अन्य सन्तानें हुई। इस दौरान इनकी पत्नी का जीवन परिवार तथा पति के लिए पूर्णतया समर्पित रहा। लेकिन 26 नवम्बर, 1956 को इनकी पत्नी का देहांत हो गया। इस प्रकार 53 वर्ष तक साथ निभाने वाली जीवन-संगिनी का इन्हें विछोह भी सहन करना पड़ा। पत्नी की अन्तिम क्रिया सम्पन्न करने के बाद जब वह लौटे तो उन्होंने एक टिप्पणी की- एक लम्बे अध्याय का अंत हो गया। जीवन के नाज़ुक रिश्तों को भी उन्होंने दर्शन शास्त्र की परिभाषाओं के अनुसार अनुभूत किया था।




हिन्दूवादिता का गहरा अध्ययन

शिक्षा का प्रभाव जहाँ प्रत्येक इन्सान पर निश्चित रूप से पड़ता है, वहीं शैक्षिक संस्थान की गुणवत्ता भी अपना प्रभाव छोड़ती है। क्रिश्चियन संस्थाओं द्वारा उस समय पश्चिमी जीवन मूल्यों को विद्यार्थियों में गहरे तक स्थापित किया जाता था। यही कारण है कि क्रिश्चियन संस्थाओं में अध्ययन करते हुए राधाकृष्णन के जीवन में उच्च गुण समाहित हो गए। लेकिन उनमें एक अन्य परिवर्तन भी आया जो कि क्रिश्चियन संस्थाओं के कारण ही था। कुछ लोग हिन्दुत्ववादी विचारों को हेय दृष्टि से देखते थे और उनकी आलोचना करते थे। उनकी आलोचना को डॉक्टर राधाकृष्णन ने चुनौती की तरह लिया और हिन्दूवादिता का गहरा अध्ययन करना आरम्भ कर दिया। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन यह जानना चाहते थे कि वस्तुतः किस संस्कृति के विचारों में चेतनता है और किस संस्कृति के विचारों में जड़ता है। तब स्वाभाविक अंतर्प्रज्ञा द्वारा इस बात पर दृढ़ता से विश्वास करना आरम्भ कर दिया कि भारत के दूरस्थ स्थानों पर रहने वाले ग़रीब तथा अनपढ़ व्यक्ति भी प्राचीन सत्य को जानते थे। इस कारण राधाकृष्णन ने तुलनात्मक रूप से यह जान लिया कि भारतीय आध्यात्म काफ़ी समृद्ध है और क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा हिन्दुत्व की आलोचनाएँ निराधार हैं। इससे इन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीय संस्कृति धर्म, ज्ञान और सत्य पर आधारित है जो प्राणी को जीवन का सच्चा संदेश देती है।

भारतीय संस्कृति

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह जान लिया था कि जीवन छोटा है और इसमें व्याप्त खुशियाँ अनिश्चित हैं। इस कारण व्यक्ति को सुख-दुख में समभाव से रहना चाहिए। वस्तुतः मृत्यु एक अटल सच्चाई है, जो कि अमीर-ग़रीब सभी को अपना ग्रास बनाती है तथा किसी भी प्रकार का वर्ग-विभेद नहीं करती है। सच्चा ज्ञान वही है जो आपके अन्दर के अज्ञान को समाप्त कर सकता है। सादगीपूर्ण संतोषवृत्ति का जीवन अमीरों के अहंकारी जीवन से बेहतर है, जिनमें असंतोष का निवास है। एक शांत मस्तिष्क बेहतर है, तालियों की उन गड़गड़ाहटों से जो संसदों एवं दरबारों में सुनाई देती हैं। इस कारण डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के नैतिक मूल्यों को समझ पाने में सफल रहे, क्योंकि वह मिशनरियों द्वारा की गई आलोचनाओं के सत्य को स्वयं परखना चाहते थे। इसीलिए कहा गया है कि आलोचनाएँ परिशुद्धि का कार्य करती हैं। सभी माताएँ अपने बच्चों में उच्च संस्कार देखना चाहती हैं। इस कारण वे बच्चों को ईश्वर पर विश्वास रखने, पाप से दूर रहने एवं मुसीबत में फंसे लोगों की मदद करने का पाठ पढ़ाती हैं। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह भी जाना कि भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों का आदर करना सिखाया गया है और सभी धर्मों के लिए समता का भाव भी हिन्दू संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। इस प्रकार उन्होंने भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान को समझा और उसके काफ़ी नज़दीक हो गए।

जीवन दर्शन

डॉक्टर राधाकृष्णन समूचे विश्व को एक विद्यालय मानते थे। उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है। अत: विश्व को एक ही इकाई मानकर शिक्षा का प्रबंधन करना चाहिए। ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में दिये अपने भाषण में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि 'मानव को एक होना चाहिए। मानव इतिहास का संपूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति है। जब देशों की नीतियों का आधार पूरे विश्व में शांति की स्थापना का प्रयत्न हो।' डॉ. राधाकृष्णन अपनी बुद्धि से पूर्ण व्याख्याओं, आनंददायक अभिव्यक्ति और हल्की गुदगुदाने वाली कहानियों से छात्रों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारने की प्रेरणा वह अपने छात्रों को देते थे। वह जिस भी विषय को पढ़ाते थे, पहले स्वयं उसका गहन अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गंभीर विषय को भी वह अपनी शैली से सरल, रोचक और प्रिय बना देते थे।

व्यावसायिक जीवन

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, इंदिरा गाँधी एवं कुमारास्वामी कामराज


21
वर्ष की उम्र अर्थात 1909 में राधाकृष्णन ने मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में कनिष्ठ व्याख्याता के तौर पर दर्शन शास्त्र पढ़ाना आरम्भ किया। यह उनका परम सौभाग्य था कि उनको अपनी प्रकृति के अनुकूल आजीविका प्राप्त हुई थी। यहाँ उन्होंने 7 वर्ष तक न केवल अध्यापन कार्य किया बल्कि स्वयं भी भारतीय दर्शन और भारतीय धर्म का गहराई से अध्ययन किया। उन दिनों व्याख्याता के लिए यह आवश्यक था कि अध्यापन हेतु वह शिक्षण का प्रशिक्षण भी प्राप्त करे। इस कारण 1910 में राधाकृष्णन ने शिक्षण का प्रशिक्षण मद्रास में लेना आरम्भ कर दिया। इस समय इनका वेतन मात्र 37 रुपये था। दर्शन शास्त्र विभाग के तत्कालीन प्रोफ़ेसर राधाकृष्णन के दर्शन शास्त्रीय ज्ञान से काफ़ी अभिभूत हुए। उन्होंने उन्हें दर्शन शास्त्र की कक्षाओं से अनुपस्थित रहने की अनुमति प्रदान कर दी। लेकिन इसके बदले में यह शर्त रखी कि वह उनके स्थान पर दर्शन शास्त्र की कक्षाओं में पढ़ा दें। तब राधाकृष्ण ने अपने कक्षा साथियों को तेरह ऐसे प्रभावशाली व्याख्यान दिए, जिनसे वह शिक्षार्थी चकित रह गए। इनकी विषय पर गहरी पकड़ थी, दर्शन शास्त्र के सम्बन्ध में इनका दृष्टिकोण स्पष्ट था और इन्होंने उपयुक्त शब्दों का चयन भी किया था। 1912 में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की 'मनोविज्ञान के आवश्यक तत्व' शीर्षक से प्रकाशित हुई जो कक्षा में दिए गए उनके व्याख्यानों का संग्रह था। इस पुस्तक के द्वारा इनकी यह योग्यता प्रमाणित हुई कि प्रत्येक पद की व्याख्या करने के लिए इनके पास शब्दों का अतुल भण्डार था और स्मरण शक्ति भी अत्यन्त विलक्षण थी।

प्रथम भेंट

राधाकृष्णन की महात्मा गांधी से प्रथम भेंट 1915 में हुई थी। उनके विचारों से प्रभावित होकर राधाकृष्णन ने राष्ट्रीय आन्दोलन के समर्थन में लेख भी लिखे। वह कभी भी किसी पार्टी से नहीं जुड़े, लेकिन निर्भय होकर राष्ट्रप्रेम को अभिव्यक्त करते थे। बाद में इन्होंने गांधी जी को अभिव्यक्त करते हुए कहा था – "मनुष्य के सर्वोत्तम प्रयासों में गांधी जी की आवाज़ सदैव अनश्वर रहेगी और संसार के सभी मानवों में श्रेष्तम भी होगी।" यहाँ पर आवाज़ का आशय गांधी जी की समग्र सोच से किया गया था। यद्यपि राधाकृष्णन ब्रिटिश सरकार की नौकरी कर रहे थे, तथापि देश की स्वतंत्रता के लिए वह ख़्वाहिशमंद थे। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उन्होंने अंग्रेज़ों से यह आशा रखी थी कि वे देश को स्वतंत्र कर देंगे। वह अंग्रेज़ों से यह आश्वासन भी चाहते थे कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वे भारत को ग़ुलामी से मुक्त कर देंगे।

स्थानान्तरण

1916
में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन का स्थानान्तरण अनन्तपुर हो गया। यहाँ यह छह माह तक रहे। इसके बाद पुनः प्रेसिडेंसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर के रूप में लौटे। 1972 में वह दर्शन शास्त्र के प्रोफ़ेसर के रूप में 'कन्फर्म' किए गए और इनका स्थानान्तरण राजामुन्द्री में कर दिया गया। यहाँ पर इनके अध्यापन को काफ़ी प्रसिद्ध पाप्त हुई। इन्होंने दर्शन शास्त्र जैसे बोझिल विषय को मनोरंजन का स्वरूप प्रदान कर अपने छात्रों को मित्र की तरह पढ़ाया। वह प्रत्येक छात्र को एक विशिष्ट उपनाम से पुकारते थे। राधाकृष्णन ने अपने शिक्षार्थियों की अधिकतम मदद की। यही कारण है कि शिक्षार्थी उनका हृदय से आदर करते थे। 1918 में वह 'न्यू मैसूर यूनिवर्सिटी' में 'एडीशनल प्रोफ़ेसर' की हैसियत से नियुक्त हुए और वहाँ पर 13 वर्षों (1921) तक अध्यापन कार्य किया।




रवीन्द्रनाथ टैगोर से भेंट

दर्शन शास्त्र के मर्मज्ञ के तौर पर डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की पहचान क़ायम हो चुकी थी। जुलाई, 1918 में मैसूर प्रवास के समय उनकी भेंट रवीन्द्रनाथ टैगोर से हुई। इस मुलाकात के बाद वह टैगोर से काफ़ी अभिभूत हुए। उनके विचारों की अभिव्यक्ति हेतु डॉक्टर राधाकृष्णन ने 1918 में 'रवीन्द्रनाथ टैगोर का दर्शन' शीर्षक से एक पुस्तक लिखी जो 'मैकमिलन प्रकाशन' द्वारा प्रकाशित हुई। इसके बाद उन्होंने दूसरी पुस्तक 'द रीन आफ रिलीजन इन कंटेंपॅररी फिलॉस्फी' लिखी। इस पुस्तक ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दी। इस पुस्तक को भारत के शिक्षार्थियों ने 'आत्मतत्त्व ज्ञान' की पुस्तक के रूप में स्वीकार किया। यही नहीं, इसे इंग्लैण्ड तथा अमेरिका के विश्वविद्यालयों में भी बेहद पसन्द किया गया। एक बार मैसूर में इनके शिक्षार्थियों ने इनसे पूछा था-क्या आप उच्च अध्ययन के लिए विदेश जाना पसन्द करेंगे? तब इनका प्रेरक जवाब था - नहीं, लेकिन वहाँ शिक्षा प्रदान करने के लिए अवश्य ही जाना चाहूँगा।

मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध

विद्यार्थियों के साथ राधाकृष्णन के सम्बन्ध मैत्रीपूर्ण रहते थे। जब वह अपने आवास पर शैक्षिक गतिविधियों का संचालन करते थे, तो घर पर आने वाले विद्यार्थियों का स्वागत हाथ मिलाकर करते थे। वह उन्हें पढ़ाई के दौरान स्वयं ही चाय देते थे और साथी की भाँति उन्हें घर के द्वार तक छोड़ने भी जाते थे। राधाकृष्णन में प्रोफेसर होने का रंचमात्र भी अहंकार नहीं था। उनका मानना था कि जब गुरु और शिष्य के मध्य संकोच की दूरी न हो तो अध्यापन का कार्य अधिक श्रेष्ठतापूर्वक किया जा सकता है। डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के ऐसे मैत्री सम्बन्धों के कारण एक मिसाल भी क़ायम हुई, जो कि बहुत ही अनोखी थी। दरअसल जब उनको कलकत्ता में स्थानान्तरित होना था, तब विदाई का कोई भी कार्यक्रम आयोजित नहीं किया गया। इसके लिए उन्होंने मना कर दिया। इनके विद्यार्थियों ने बग्घी के द्वारा इन्हें स्टेशन तक पहुँचाया था। इस बग्घी में घोड़े नहीं जुते थे, बल्कि विद्यार्थियों के द्वारा ही उस बग्घी को खींचकर रेलवे स्टेशन तक ले जाया गया। उनकी विदाई के समय मैसूर स्टेशन का प्लेटफार्म 'सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जय हो' के नारों से गूँज उठा था। वहाँ पर मौजूद लोगों की आँखों में अश्रु थे। राधाकृष्णन भी उस अदभुत प्रेम के वशीभूत होकर अपने आँसू रोक नहीं पाए थे। गुरु एवं विद्यार्थियों का ऐसा सम्बन्ध वर्तमान युग में कम ही देखने को प्राप्त होता है।

आलोचनाओं का सामना

इसके बाद डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कोलकाता में 1921 से 1931 तक समय व्यतीत किया। इन्हें कोलकाता के 'किंग जॉर्ज पंचम विश्वविद्यालय' में मानसिक एवं नैतिक दर्शन शास्त्र का प्रोफेसर नियुक्त किया गया। इस दौरान उन्होंने भारत की शैक्षिक सेवा में अभिवृद्धि करने का भी कार्य किया। यहाँ पर वह गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के सम्पर्क में भी रहे। टैगोर के विचारों का काफ़ी प्रभाव राधाकृष्णन पर पड़ा। कलकत्ता विश्वविद्यालय के सभी संगठनों और विभागों को उन्नत करने के लिए इन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। यूरोप के विद्वान भी इनके दर्शन शास्त्रीय विचारों से काफ़ी प्रभावित हुए। इनके विचारों में विषय की स्पष्टता होती थी। यह सम्बोधन में क्लिष्टता का समावेश नहीं करते थे। इनकी भाषा में विद्यार्जित विद्वत्ता का ऐसा चमत्कार होता था कि श्रोता मंत्रमुग्ध होकर सुनता रह जाता था। लेकिन वर्तमान युग में आलोचना तो संसार के रचयिता की भी होती है। इस कारण डॉक्टर राधाकृष्णन को भी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। इनके आलोचकों का कहना था कि राधाकृष्णन ने दर्शन शास्त्र को नया कुछ भी नहीं दिया है, भारत के आध्यात्मिक दर्शन की प्राचीनता को ही उजागर किया है। पश्चिम के सम्मुख उन्होंने भारतीय आध्यात्म को मात्र अंग्रेज़ी भाषा में उदधृत करने का ही कार्य किया है, लेकिन राधाकृष्णन ने अपने आलोचकों को कभी भी स्पष्टीकरण देने की आवश्यकता महसूस नहीं की। इसके बाद इनका एक लेख 'एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका' के 14वें संस्करण में प्रकाशित हुआ जो एक बड़ी उपलब्धि थी।

राजनीतिक जीवन

यह सर्वपल्ली राधाकृष्णन की ही प्रतिभा थी कि स्वतंत्रता के बाद इन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वह 1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे। इस समय यह विश्वविद्यालयों के चेयरमैन भी नियुक्त किए गए। अखिल भारतीय कांग्रेसजन यह चाहते थे कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी संविधान सभा के सदस्य बनाये जाएं। जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि राधाकृष्णन के संभाषण एवं वक्तृत्व प्रतिभा का उपयोग 14 - 15 अगस्त, 1947 की रात्रि को किया जाए, जब संविधान सभा का ऐतिहासिक सत्र आयोजित हो। राधाकृष्णन को यह निर्देश दिया गया कि वह अपना सम्बोधन रात्रि के ठीक 12 बजे समाप्त करें। उसके पश्चात संवैधानिक संसद द्वारा शपथ ली जानी थी।




राजनयिक कार्य

सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने ऐसा किया और ठीक रात्रि 12 बजे अपने सम्बोधन को विराम दिया। पंडित नेहरू और राधाकृष्णन के अलावा किसी अन्य को इसकी जानकारी नहीं थी। आज़ादी के बाद उनसे आग्रह किया गया कि वह मातृभूमि की सेवा के लिए विशिष्ट राजदूत के रूप में सोवियत संघ के साथ राजनयिक कार्यों की पूर्ति करें। इस प्रकार विजयलक्ष्मी पंडित का इन्हें नया उत्तराधिकारी चुना गया। पंडित नेहरू के इस चयन पर कई व्यक्तियों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि एक दर्शन शास्त्री को राजनयिक सेवाओं के लिए क्यों चुना गया? उन्हें यह संदेह था कि डॉक्टर राधाकृष्णन की योग्यताएँ सौंपी गई ज़िम्मेदारी के अनुकूल नहीं हैं। लेकिन बाद में सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने यह साबित कर दिया कि मॉस्को में नियुक्त भारतीय राजनयिकों में वह बेहतरीन थे। वह एक गैर परम्परावादी राजनयिक थे। जो मंत्रणाएँ देर रात्रि होती थीं, वह उनमें रात्रि 10 बजे तक ही भाग लेते थे, क्योंकि उसके बाद उनके शयन का समय हो जाता था। जब राधाकृष्णन एक शिक्षक थे, तब वह नियमों के दायरों में नहीं बंधे थे। कक्षा में यह 20 मिनट देरी से आते थे और दस मिनट पूर्व ही चले जाते थे। इनका कहना था कि कक्षा में इन्हें जो व्याख्यान देना होता था, वह 20 मिनट के पर्याप्त समय में सम्पन्न हो जाता था। इसके उपरान्त भी यह विद्यार्थियों के प्रिय एवं आदरणीय शिक्षक बने रहे।

सोवियत संघ से विदाई

डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन को स्टालिन से भेंट करने का दुर्लभ अवसर दो बार प्राप्त हुआ। 14 जनवरी, 1945 के दिन वह पहला अवसर आया, जब स्टालिन के निमंत्रण पर वह उनसे मिले। स्टालिन के हृदय में 'फिलास्फर राजदूत' के प्रति गहरा सम्मान था। इनकी दूसरी मुलाकात 5 अप्रैल, 1952 को हुई। जब भारतीय राजदूत सोवियत संघ से विदा होने वाले थे। विदा होते समय राधाकृष्णन ने स्टालिन के सिर और पीठ पर हाथ रखा। तब स्टालिन ने कहा था तुम पहले व्यक्ति हो, जिसने मेरे साथ एक इंसान के रूप में व्यवहार किया हैं और मुझे अमानव अथवा दैत्य नहीं समझा है। तुम्हारे जाने से मैं दु:ख का अनुभव कर रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम दीर्घायु हो। मैं ज़्यादा नहीं जीना चाहता हूँ। इस समय स्टालिन की आँखों में नमी थी। फिर छह माह बाद ही स्टालिन की मृत्यु हो गई।

उपराष्ट्रपति

1952
में सोवियत संघ से आने के बाद डॉक्टर राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किए गए। संविधान के अंतर्गत उपराष्ट्रपति का नया पद सृजित किया गया था। नेहरू जी ने इस पद हेतु राधाकृष्णन का चयन करके पुनः लोगों को चौंका दिया। उन्हें आश्चर्य था कि इस पद के लिए कांग्रेस पार्टी के किसी राजनीतिज्ञ का चुनाव क्यों नहीं किया गया। उपराष्ट्रपति के रूप में राधाकृष्णन ने राज्यसभा में अध्यक्ष का पदभार भी सम्भाला। सन् 1952 में वे भारत के उपराष्ट्रपति बनाए गए। बाद में पंडित नेहरू का यह चयन भी सार्थक सिद्ध हुआ, क्योंकि उपराष्ट्रपति के रूप में एक गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति ने सभी राजनीतिज्ञों को प्रभावित किया। संसद के सभी सदस्यों ने उन्हें उनके कार्य व्यवहार के लिए काफ़ी सराहा। इनकी सदाशयता, दृढ़ता और विनोदी स्वभाव को लोग आज भी याद करते हैं। सितंबर, 1952 में इन्होंने यूरोप और मिडिल ईस्ट देशों की यात्रा की ताकि नए राष्ट्र हेतु मित्र राष्ट्रों का सहयोग मिल सके।

यात्राएँ

1956
में डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की पत्नी का देहान्त हो गया। तब एक पुत्र और पांच पुत्रियों का दायित्व इन पर आ गया। इन ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए 1957 में यह दूसरी बार भी उपराष्ट्रपति निर्वाचित हुए। इस कार्यकाल के दौरान राधाकृष्णन ने चीन, मंगोलिया, हांगकांग और इंग्लैण्ड की यात्राएँ कीं। 1961 में इन्हें जर्मनी के पुस्तक प्रकाशन द्वारा दिया जाने वाला 'विश्व शान्ति पुरस्कार' भी प्राप्त हुआ। इस दौरान इन्होंने राज्यसभा का संचालन काफ़ी कुशलता के साथ किया। तब पंडित पंत को कहना पड़ा - राज्यसभा इनके हाथों का खिलौना मात्र है।



महत्त्वपूर्ण पद

डॉ. राधाकृष्णन ने अनेक महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। वे पेरिस में यूनेस्को नामक संस्था की कार्यसमि‍ति के अध्यक्ष भी रहे। यह संस्था 'संयुक्त राष्ट्र संघ' का एक अंग है और पूरे विश्व के लोगों की भलाई के लिए अनेक कार्य करती है।डॉ. राधाकृष्णन सन् 1949 से सन् 1952 तक रूस की राजधानी मास्को में भारत के राजदूत पद रहे। भारत रूस की मित्रता बढ़ाने में उनका भारी योगदान रहा ।  

 

Tuesday

हिन्दी दिवस

 

हिन्दी दिवस मनाने के आडम्बर का क्या अर्थ है?

साल भर चाहे हिन्दी की चिन्दी होती रहे पर साल में कम से कम एक दिन के लिए तो उसकी पूछ हो ही जाती है यानि कि प्रतिवर्ष 14 सितम्बर के दिन हिन्दी को, दिखावे के लिए ही सही, रानी बना दिया जाता है। हिन्दी दिवस मनाया जाता है, शासकीय कार्यालयों में हिन्दी से सम्बन्धित अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं जिनमें बड़े-बड़े शासकीय अधिकारी अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी में भाषण दिया करते हैं। भारत सरकार ने आखिर हिन्दी को "राजभाषा" का दर्जा जो दिया है। 




न राज रहे न राजा, रह गई है तो सिर्फ राजभाषा। भारत एक राष्ट्र है न कि एक राज। जब राज ही नहीं है तो यह बात समझ से परे है कि भारत की संविधान सभा ने 14 सितम्बर,  1949 को हिन्दी को राजभाषा बनाने का फैसला किस आधार पर किया? इस प्रकार से तो राष्ट्रपिता के स्थान पर राजपिता होना चाहिए था। भारत के पास अपना राष्ट्रीय ध्वज है, राष्ट्रीय गान है, राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न है .... नहीं है तो सिर्फ राष्ट्रभाषा नहीं है।

आखिर क्यों हो एक राष्ट्रभाषा? भारत में अनेक भाषाएँ और बोलियाँ है भाई! संविधान के अनुच्छेद 344 (1) और 351 के अनुसार उनमें से निम्न भाषाएँ मुख्य तौर पर बोली जाती हैं

अंग्रेजी, आसामी, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगु और उर्दू।

अब भारत शासन यदि हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दे देती तो शेष भाषाओं को क्या दोयम दर्जा देना नहीं होगा? तो निश्चय किया गया कि भारत में राष्ट्रभाषा न होकर राजभाषा होनी चाहिए! इस प्रकार से सभी सन्तुष्ट रहेंगे। भारत में तो तुष्टिकरण का शुरू से ही रवैया रहा है।




भारत में अधिकृत रूप से कोई भी भाषा राष्ट्रभाषा नहीं है किन्तु देखा जाए तो आज भी परोक्ष रूप से अंग्रेजी ही इस राष्ट्र की राष्ट्रभाषा है। शासकीय नियम के अनुसार हिन्दीभाषी क्षेत्र के कार्यालयों के नामपटल द्विभाषीय अर्थात् हिन्दी और अंग्रेजी में तथा अन्य क्षेत्रों में त्रिभाषीय अर्थात् क्षेत्रीय भाषा, हिन्दी और अंग्रेजी में होने चाहिए। याने कि क्षेत्र चाहे हिन्दीभाषी हो या अन्य, अंग्रेजी का वहाँ होना आवश्यक है। तो है कि नहीं परोक्ष रूप से भारत की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी!

भारत का राष्ट्रीय शासन अपने संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार संकल्प लेती है कि संघ की राजभाषा हिंदी रहेगी और उसके अनुच्छेद  351  के अनुसार हिंदी  भाषा का प्रसारवृद्धि करना और उसका विकास करना ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृति  के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम हो सके, संघ का कर्तव्य है।
हिंदी के प्रसार एंव विकास की गति बढ़ाने के हेतु तथा संघ के विभिन्न राजकीय प्रयोजनों के लिए उत्तरोत्तर इसके प्रयोग हेतु भारत सरकार द्वारा एक अधिक गहन एवं व्यापक कार्यक्रम तैयार किया जाएगा और उसे कार्यान्वित किया जाएगा।




इस संकल्प को पूरा करने का कितना प्रयास किया गया और जा रहा है यह तो इसी बात से पता चल जाता है कि हमारे बच्चे आज हमसे पूछते हैं कि "चौंसठ" का मतलब "सिक्स्टी फोर" ही होता है ना? उन्हें "सिक्स्टी फोर" की समझ है, "चौंसठ" की नहीं। बच्चों की बात छोड़िए आज हममें से ही अधिकतर लोगों को यह भी नहीं पता है कि अनुस्वार, चन्द्रबिंदु और विसर्ग क्या होते हैं। हिन्दी के पूर्णविराम के स्थान पर अंग्रेजी के फुलस्टॉप का अधिकांशतः प्रयोग होने लगा है। अल्पविराम का प्रयोग तो यदा-कदा देखने को मिल जाता है किन्तु अर्धविराम का प्रयोग तो लुप्तप्राय हो गया है।




विडम्बना तो यह है कि परतन्त्रता में तो हिन्दी का विकास होता रहा किन्तु जब से देश स्वतन्त्र हुआ, हिन्दी का विकास ही रुक गया उल्टे उसकी दुर्गति होनी शुरू हो गई। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद शासन की नीति तुष्टिकरण होने के कारण हिन्दी को राष्ट्रभाषा के स्थान पर "राजभाषा" बना दिया गया। विदेश से प्रभावित शिक्षानीति ने हिन्दी को गौण बना कर अग्रेजी के महत्व को ही बढ़ाया। हिन्दी की शिक्षा धीरे-धीरे मात्र औपचारिकता बनते चली गई। दिनों-दिन अंग्रेजी माध्यम वाले कान्वेंट स्कूलों के प्रति मोह बढ़ते चला गया और आज हालत यह है कि अधिकांशतः लोग हिन्दी की शिक्षा से ही वंचित हैं।

भाषा के प्रचार के लिए सिनेमा एक सशक्त माध्यम है किन्तु भारतीय सिनमा में हिन्दी फिल्मों की भाषा हिन्दी न होकर हिन्दुस्तानी, जो कि हिन्दी और उर्दू की खिचड़ी है, रही। और इसका प्रभाव यह हुआ कि लोग हिन्दुस्तानी को ही हिन्दी समझने लगे। दूसरा प्रभावशाली माध्यम है मीडिया किन्तु टीव्ही के निजी चैनलों ने हिन्दी में अंग्रेजी का घालमेल करके हिन्दी को गर्त में और भी नीचे ढकेलना शुरू कर दिया और वहाँ प्रदर्शित होने वाले विज्ञापनों ने तो हिन्दी की चिन्दी करने में "सोने में सुहागे" का काम किया। इसी प्रकार से रोज पढ़े जाने वाले हिन्दी समाचार पत्रों, जिनका प्रभाव लोगों पर सबसे अधिक पड़ता है, ने भी वर्तनी तथा व्याकरण की गलतियों पर ध्यान देना बंद कर दिया और पाठकों का हिन्दी ज्ञान अधिक से अधिक दूषित होते चला गया।

अब अन्तरजाल में ब्लोग्स का साम्राज्य है। हिन्दी ब्लोग्स की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है किन्तु प्रायः हिन्दी ब्लोग्स में "हम मुर्ख हैं", "बातें कि जाये" आदि पढ़ने के लिए मिलता है। यह सोचकर कि वर्तमान में हिन्दी भाषा के लिए उन्नत तकनीक उपलब्ध नहीं हैं और अनेक अहिन्दीभाषी लोग भी हिन्दी ब्लोग लिख रहे हैं तथा उनसे ऐसा होना स्वाभाविक है, एक बार इसे अनदेखा किया भी जा सकता है मगर दुःख तो इस बात का होता है कि कई बार उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे हिन्दीभाषी क्षेत्र के ब्लोगरों के ब्लोग्स में भी हिज्जे और व्याकरण की गलतियाँ मिलती हैं। इसका मुख्य कारण सिर्फ यही लगता है कि हम हिन्दीभाषी ब्लोगर्स अपनी प्रविष्टियाँ आनन फानन में बिना जाँचे ही प्रकाशित कर देते हैं। यदि हम अपनी प्रविष्टियाँ प्रकाशित करने के पहले एक बार उसे पढ़ लें तो इस प्रकार की गलतियाँ हो ही नहीं सकती।




हिन्दी ब्लोग्स में अंग्रेजी-हिन्दी की खिचड़ी वाले ऐसे-ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है जिनका अर्थ न तो नलंदा विशाल शब्दसागर जैसे हिन्दी से हिन्दी शब्दकोश में खोजने पर भी नहीं मिलता और न ही आक्फोर्ड, भार्गव आदि अंग्रेजी से हिन्दी शब्दकोशों में।

इन्सान गलतियों का पुतला है, मुझसे भी अपने पोस्ट में अनेक बार हिज्जों तथा व्याकरण की गलतियाँ होती हैं, हो सकता है कि इस पोस्ट में भी हुई हों। मेरा प्रयास तो यही रहता है कि ऐसी गलतियाँ न हों किन्तु कई बार प्रयास के बावजूद भी रह जाती हैं, पता चलने पर उन्हें सुधारता भी हूँ। अनजाने में हुई गलती क्षम्य है किन्तु जानबूझ कर की जाने वाली गलतियों के विषय में क्या कहा जा सकता है?




यदि हम अपनी रचनाओं के माध्यम से हिन्दी को सँवारने-निखारने का कार्य नहीं कर सकते तो क्या हमारा यह कर्तव्य नहीं बनता कि कम से कम उसके रूप को विकृत करने का प्रयास तो न करें।

 

परीक्षा के एक दिन पूर्व दो मित्रों की बातचीत का संवाद लेखन कीजिए-

संवाद लेखन किसे कहते हैं  संवाद लेखन -  वह लेखनी है जिसमें दो या अधिक व्यक्तियों के बीच होने वाली बातचीत को लिखित रूप में व्यक्त किया जाता ह...