समकालीन हिन्दी कहानी एक नये वेग, नयी वेश-भूषा, और नई तकनीक एवं विचारधारा के साथ आगे बढ़ी है। समकालीन कहानी में पुराने - नए सभी कहानीकार अविराम गति से कहानी - साहित्य का सृजन करते रहे है। जीवन में जटिल और व्यापक यथार्थ की सीधी और बेबाक अभिव्यक्ति समकालीन कहानी की विशेषता है। इसमें जहाँ शिल्प की नीवनता है भाव बोध और उद्देश्य की नवीनता है, वहीं भाषागत नवीनता भी विद्यमान है। आज की कहानी बदली हुई मानसिकता की कहानी है। समकालीन कहानीकार अनुभुत सत्य के प्रति अधिक आग्रह रखता है। अनेक नारों अैर वादों से निकलकर समकालीन कहानी पुनः अपने सहज और सन्तुलित रूप को प्राप्त कर रही है विसंगतियों से सीधा साक्षात्कार करती हुई समकालीन कहानियाँ जीवन के भोगे हुए सत्यों को ईमानदारी व प्रखरता के साथ अभिव्यक्त करती हुई प्रगति पथ पर अग्रसर है।
कहानी मनुष्य की अभिव्यक्ति का आदि रूप है या नहीं इस विवाद में पड़े बिना यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि अपने अनुभव को दूसरों से कहना मनुष्य की आदिम सभ्यता से ही शुरू हो गया होगा। आदिम सभ्यता से लेकर अब तक मानव विकास - यात्रा का इतिहास जिन कलारूपों में मिलता है, कहानी उनमें से एक प्रधान रूप है। मानव सभ्यता की इस विकास यात्रा के समान्तर कहानी यात्रा को देखें तो भारतीय कथा-साहित्य के युग संचरण को समझा जा सकता है। दुनिया का पहला कथा केन्द्र भारत ही माना जाता है। लगातार बारह शताब्दियों तक सारी दुनिया की कहानियों का स्त्रोत यहाँ मिलता है। आदिम सभ्यता से लेकर विश्व की लगभग सारी संस्कृतियों को अपने कथाबीज यही से मिलते रहे हंै।
वेदों के संवादों और सूक्तों में, उपनिषदों के उपाख्यानों में, पुराण कथाओं में, रामायण और महाभारत में बोध और ज्ञान, नीति और धर्म की जो कहानियाँ मिलती है वे मनुष्य - सभ्यता के आदिम युग से लेकर संस्कृति और समृद्धि तक की यात्रा के वृतान्त है।
बौद्ध जातक और जैनपुरा कथाएँ, पंचतंत्र और हितोपदेश इस कथा-यात्रा के उल्लेखनीय पड़ाव है। इन कहानियों का प्रयोजन मनोरंजन से अधिक ज्ञान और आनन्द से अधिक शिक्षा रहा है। लेकिन इतनी कहानी का आधुनिक रूप इनसे भिन्न और विकसित परम्परा की देन है। इतनी समृद्ध और विविधता भरी कथा-परम्परा के बावजूद आधुनिक हिन्दी कहानी अधिकांशतः पश्चिम के सम्पर्क से ही विकसित हुई। बीसवीं शताब्दी की यात्रा सम्पन्न कर ली थी ऐसा नहीं है कि भारतीय साहित्य में इस बीच कहानी का प्रवाह रूक गया हो। सच तो यह है कि कहानी जीवन के समान्तर हमेशा जीवन्त और गतिशील रही है।
पिछले बीस बरसों की कथा-यात्रा में हिन्दी कहानी ने अनुभव एवं शिल्प के स्तर पर कई प्रयोग किए है। इस यात्रा में प्रत्येक छोटे-मोटे मोड़ को सूचित करने के लिए कहानी लेखकों, आलोचकों ने विविध नाम भी दिये है। नई कहानी, सचेतन कहानी, अ-कहानी वैज्ञानिक कहानी, अगली शताब्दी की कहानी जैसे कई नाम कहानी के बहुस्तरीय रूप को प्रकट करते है। वैसे दस-बीस बरस साहित्य के किसी नवीनतम दृष्टिकोण के पनपने के लिए बहुत ज्यादा नहीं है और इसीलिए नामकरणों की जल्दबाजी में दृष्टिकोण का अर्थसंकोच होने का खतरा बराबर बना रहता है। किन्तु कई बार किसी साहित्य विधा की विशिष्टधारा को विभिन्न नामांे से संबोधित करने का मतलब उस धारा के प्रयोग-धर्मी व्यक्तित्व की सूचना में भी हो सकता है।
आधुनिक युग यथास्थिति से चिपके रहने का युग नहीं है। युगीन संवेदनशीलता इतनी तीव्रगति से बदलती जा रही है कि हर नई व्यवस्था के जन्म के साथ ही उसकी मृत्यु के आसार नजर आते है। इस अर्थ में किसी भाषा के साहित्य में बहुत कम अवधि में विविध मोड़ो का निर्माण होना उस भाषा के साहित्य की जीवन्तता का लक्षण माना जाना चाहिए। हिन्दी कहानी के सम्बंध में यदि उक्त विश्लेषण सही माना जाए तो बीस बरसों की छोटी अवधि में हिन्दी कहानी की गतिशीलता, जो उसके विविध नामकरणों से सूचित हुई है, हमारे लिए अभिमानास्पद होनी चाहिए।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कहानी के क्षेत्र में ही नहीं, समूचे साहित्य के क्षेत्र में जो एक जबरदस्त प्रवाह फूट पड़ा था, अपने आप में पूर्ववर्तियों की अपेक्षा बिल्कुल ही नया था। यह नयापन मात्र पाश्चात्य साहित्य के अनुकरण का फल नहीं था और न रचनात्मक स्तर पर बौद्धिक बाजीगरी का, किन्तु यह नयापन या समूचे भाव बोध का जो तत्कालीन जीवन बोध का परिणाम था। परम्परागत जीवन मूल्यों के विरोध में नयी जीवन का एक ऐसा आक्रमण था, जहाँ हर पुरानी चीज अस्वीकृत की जाती है। इसलिए उस विशिष्ट संस्कृति- युग में ंपैदा हुए कहानी साहित्य को नई कहानी से संबंोधित करना कई दृष्टियों से युक्त लगता है।
सन् 1960 के बाद कथा रचना की ऐसी एक नचनात्मक चेतना सामने आई है जो पूर्ववर्ती रचना पीढ़ी से कई अर्थो में भिन्न है।
हिन्दी कहानी के विकास की परम्परा को छः भागों में विभक्त किया जा सकता है -
1. प्रथम उत्थान काल (सन् 1900 से 1910 तक)
2. द्वितीय उत्थान काल (सन् 1911 से 1919 तक)
3. तृृतीय उत्थान काल (सन् 1920 से 1935 तक)
4. चतुर्थ उत्थान काल (सन् 1936 से 1949 तक)
5. पंचम उत्थान काल (सन् 1950 से 1960 तक)
6. षष्ठ उत्थान काल (सन् 1961 से अब तक)
1. प्रथम उत्थान काल (सन् 1900 से 1910 तक)- हिन्दी कहानी का आरम्भिक काल है। किशोरीलाल गोस्वामी की इन्दुमती हिन्दी की सर्पप्रथम कहानी मानी जाती है।
2. द्वितीय उत्थान काल (सन् 1911 से 1919 तक) - इस काल में महाकथाकार जयशंकर प्रसाद का आगमन हुआ। श्री चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की कहानी उसने कहा था। इस काल की एक ऐसी यथार्थवादी कहानी है जो हिन्दी की दृष्टि से सर्वप्रथम कहानी मानी जाती है।
3. तृृतीय उत्थान काल (सन् 1920 से 1935 तक) - इस काल में ही कहानीकार सम्राट मुंशी प्रेमचंद्र का आगमन हुआ। मुंशी प्रेमचन्द्रजी ने अपनी कहानियों में भारतीय राजनीति, अर्थ व्यवस्था, धर्म, साहित्य, दर्शन इतिहास और परिवार वर्ग का जो चित्र उतारा वह न तो किसी काल में और न किसी कहानीकार के द्वारा संभव हो सका।
4. चतुर्थ उत्थान काल (सन् 1936 से 1949 तक) - इस काल की कहानियों ने विभिन्न प्रकार की विचारधाराओं में प्रवेश किया। इस काल में मनोवैज्ञानिक और प्रगतिवादी विचार श्रृंखला प्रधान रूप से आई मनोवैज्ञानिक कथाकारों में इलाचन्द्र जोशी, अज्ञेय, जैनेन्द्रकुमार, चन्द्रगुप्त, विद्यालेकार और पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उम्र’ के नाम अधिक उल्लेखनीय है।
5. पंचम उत्थान काल (सन् 1950 से 1960 तक) - इस काल की कहानियाँ पूर्वापेक्षा अधिक चर्चा का विषय बन गई। इस काल की कहानियाँ पूरी तरह से ‘कहानी’ और ‘नई कहानी’ आदि के नाम से जानी गयी। इस समय की कहानियों में वर्तमान युगबोध, सामाजिक चरित्रता, वैयक्तिकता, अहमन्यता की अभिव्यंजना ही मुख्य रूप से सामने आयी। इस युग के कमलेश्वर, फणीश्वरनाथ रेणु, अमरकान्त, निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी, राजेन्द्र अवस्थी आदि उल्लेखनीय कहानीकार है।
1.समकालीन हिन्दी कहानी का नया रचनात्मक मोड़ षष्ठ उत्थान काल (सन् 1961 से अब तक) - इस काल को साठोत्तरी हिन्दी कहानी काल के नाम से जाना जाता है। इस युग के कहानीकारों की पूर्वापेक्षीनयी चेतना और नये शिल्प के साथ रचना प्रक्रिया में जुट गयी है। इस कहानी की यात्रा विभिन्न प्रकार के आन्दोलनों जैसे नयी कहानी (कमलेश्वर अमरकांत, मार्कण्डेय, रेणु, राजेन्द्र यादव, मन्नू भण्डारी, मोहन राकेश, शिवप्रसाद सिंह, निर्मल वर्मा, उषा, प्रियंवदा आदि) अकहानी (रमेश बख्शी, गंगाप्रसाद, विमल, जगदीश चतुर्वेदी, प्रयाग शुक्ल, दूधनाथ सिंह, ज्ञानरंजन आदि)सचेतन कहानी (महीपसिंह, योगेश गुप्त, मनहर चैहान, वेदराही, रामकुमार भ्रमर आदि) समान्तर कहानी (कामतानाथ, से.रा.यात्री, राम अरोड़ा, जितेन्द्र भाठिया, मधुकरसिंह, इब्राहिम शरीफ, दिनेश पालीवाल, हिमांशु जोशी आदि।) सक्रिय कहानी (रमेश बत्ता, चित्रा मुद्रल, राकेश वत्स, धीरेन्द्र अस्थाना आदि) इनके अतिरिक्त ऐसे भी कथाकार है जो आन्दोलनों से अलग कथा प्रक्रिया में समर्पित है, जैसे रामदरश मिश्र, विवेक राम, मृणाल पाण्डेय, मृदुला गर्ग, निरूपमा सेवती, शैलेश मटियानी ज्ञानप्रकाश विवेक, बलराम, सूर्यबाला, मेहरूनिसा परवेज, मंगलेश डबराल आदि प्रमुख है। आज की कहानी शहरी सभ्यता, स्त्री-पुरूष सम्बंधों की नई अवधारणा त्रासदी औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप संबंधों के बिखराव, यौन कुण्ठा घिनौनी मानसिकता, हा्रस, अन्याय, अत्याचार के विरूद्ध संघर्ष के भाव के भार को ढोती हुई दिखाई दे रही है। इससे शिल्प और भाषा दोनों ही स्तरों को तराशती हुई नये तेवर को लिए हुए आज की कहानी प्रत्यनशील दिखाई दे रही है।
आज की हिन्दी कहानी जिसमें पिछले दोनों दशक शामिल है, निश्चित रूप से नये युग की सृष्टि है। अतः स्वभाव से ही उसमें संक्रांतिकालीन चेतना का स्तर सबसे तीव्र है। इसके अन्तर्गत हर परम्परा की अस्वीकृति, प्रयोगशीलता, वैज्ञानिक दृष्टि और बौद्धिक जटिलता के साथ युग संत्रास को अस्तित्व के रूप में झेलने की क्षमता भी है। स्पष्ट है, नई कहानी आधुनिक जीवन की हा्रसोन्मुखी प्रक्रिया एवं विघटन के प्रति अपना तीव्र क्षेम प्रकट कर रही है। स्वतंत्रता के बाद परिवर्तन के जिस सत्य को तात्कालिक लेखकीय संवेदना अनुभूतियों का हिस्सा बनकर व्यक्त करना चाह रहा था, उसी संवेदना को समकालीन कहानी अधिक सफलता से प्रकट कर रही है।-करना चाहती है। वह इसलिए भी कि आज की कहानियों में घटना और पात्र की उपयोगिता वहीं तक है जहाॅं तक वह किसी मनः स्थिति या विचारगत विशेषता को उद्घाटित करने में सहायक हो। इसलिए आज कहानियों के सामाजिक, राजनीतिक, मनोवैज्ञानिक, ऐतिहासिक, पौराणिक आदि अथवा चरित्र प्रधान, घटना प्रधान, वातावरण प्रधान आदि अथवा प्रकृतिवादी प्रतिक्रयावादी आदि वर्गीकरण झूठे और अस्वाभाविक हो गये हैं।
प्रश्न यह है कि नई कहानी के प्रांरभ से लेकर आज तक कहानी की धारा आधुनिक भाव-बोध को कितनी सफलता से प्रकट कर रही है जिसे समझना इसलिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि नई कहानी के अन्तर्गत समकालीन कहानी का चेहरा बहुत कुछ बदला हुआ-सा दिखाई देता है। इस बदलाव के स्पष्ट आसार पिछली चार बरसों की कहानियों में दिखाई दे रहे हैं। यह बदलाव महज दृष्टि का न होकर दृष्टि को पचाकर व्यक्त करने का है। साहित्य की श्रेष्ठता एवं सफलता तभी सिद्ध होती है जब लेखकीय-बोध रचना द्वारा कला के स्तर को प्राप्त कर लेता हैं जहाॅं जीवन-बोध की नवीनता अपने आप में परम्परा से हर मायने में असंगत हो, वहाँ तो जीवन-बोध का साहित्य में रूपान्तरण और भी कठिन हो जाता है। एक ओर इस प्रतिक्रया को पूर्ण होते देर भी लगती है और दूसरी ओर संक्रातिकालीन अनुभूतियों के साथ ईमानदार रहने में भयंकर यातनाओं से गुजरना पड़ता है। परिणाम यह होता है कि साहित्य निर्मित प्रक्रिया अधूरी रह जाती है, और फिर उसी धारा के अन्तर्गत रचनात्मकता का नया प्रवाह ऊपर उठने की कोशिश करता है। यह नया प्रवाह पुराने प्रवाह की प्रेरणाओं को लेकर ही आगे बढ़ता है, और गलत दिशा में जाने वाले अपने ही प्रवाह के पिछले हिस्से को सही दिशा देता है। हमें लगता है कि नई कहानी की धारा के अन्तर्गत सातवें दशक की हिन्दी कहानी इस प्रकार के रचनात्मक मोड़ को स्पष्ट करती है। चाहे हम सचेतन कहानी, अ-कहानी या कोई और कहानी कहकर पुकार ले, इन नामों की विशिष्टता नई कहानी की समग्र पृष्ठभूमि में ही समझी जा सकती है। साठोत्तरी हिन्दी कहानी नई कहानी का ही प्रकारान्तर है। वही उसी का नया रचनात्मक मोड़ है।
छठे दशक का अंतिम चरण और सातवें दशक के प्रारंभिक चरण के बीच की ऐतिहासिक एवं साहित्यिक परिस्थितियों में नई कहानी का ठहराव स्तर परिलक्षित होता है जहाँ से समकालीन कहानी नया मोड़ धारण कर लेती हैं।
2. समकालीन कहानी का स्वरूप-समकालीन कहानी जीवन यथार्थ से सीधे टकराती है। इस टकराव के पीछे एक ऐसी पूर्वाग्रह रहित दृष्टि है जो किसी भी परम्परागत मूल्य-परिपाटी को नकारती हुई अस्तित्व-बोध की गहरी जटिलता को अभिव्यक्त करती है।
माक्र्सीय, मनोवैाानिक, समाजशास्त्रीय और मूल्य परक दृष्टियाॅं अब आरोपित न रहकर उसकी मानसिकता का अंग बन चुकी हैं। पिछली कहानियाॅं किताबी एवं आरोपित बोध का शिकार बनकर व्यवस्था के संबंध में एक समझदार चुप्पी अख्तियार कर लेती रही है। लेकिन समकालीन कथा ने व्यवस्था के प्रति जो प्रचण्ड आक्रोश व्यक्त किया है उसका स्तर बेहद तल्ख एवं बेलाग होता हुआ, आधुनिक मनुष्य के संबंध में एक व्यंग्य और करूणा का एहसास कराता है।
समकालीन कहानी के इस परिपाश्र्व में सचेतन कहानी और अकहानी जैसे नाम उभर रहे हैं। सचेतन कहानी को आन्दोलन का रूप देने वाले डा. महीपसिंह की घोषणा के अनुसार सचेतना एक दृष्टि है, जिसमें जीवन जिया भी जाता है और जाना भी जाता है। सचेतन दृष्टि जीवन से नहीं, जीवन की ओर भागती है।
सचेतन कहानी ने फिर से मनुष्य के टोटल सेल्फ को स्थापित करने का प्रयत्न किया और जीवन को स्वीकारने का स्वर बुलंद किया।
सचेतन कहानी मनुष्य और जीवन के तनाव का चित्रण नहीं, बल्कि उसके संघर्ष को भी समर्पित है। इसमें निराशा, अनास्था और बौद्धिक तटस्थता का प्रत्याख्यान किया जाता है और मृत्युभय, व्यर्थता, एवं आत्म-परभूत चेतना का परिहार भी इस दृष्टि से आत्म-सजगता है, तथा संघर्ष की इच्छा भी सचेतन कहानीकार भविष्यहीन नहीं है। वस्तुतः समकालीन कहानी साहित्य इन्हीं विशेषताओं को लेकर विकसित हो रहा है। इसे स्वतंत्र आन्दोलन न कहकर यदि नई कहानी में अन्व्र्याप्त अकहानीत्व का विरोध करने वाली समकालीन धारा कहा जाय तो अधिक उचित होगा।
3. समकालीन कहानी की सम्भावनाए-कथ्य के संबंध में समकालीन कहानी परम्परा-मुक्त होने के सफल प्रयास कर रही है। आज का कहानीकार किसी भी कथ्य पर अवलम्बित नहीं रहा है। सतही और सामान्य कथ्यात्मकता से आज की कहानी मुक्त हो रही है।
इन कहानियों में जो दुनिया उभर रही है, उसमें रहने वाला व्यक्ति किसी भी व्यवस्था का गुलाम नहीं है। वह यथास्थिति को भी स्वीकार नहीं करता, पर सक्रिय जरूर है, इसलिए इस दुनिया का व्यक्ति भविष्यवादी न होकर भी आने वाले भविष्य की खोज कर रहा है। इसे कमलेश्वर ने आगतवादी कहा है। इस दुनिया का व्यक्ति भविष्य के किसी सपने को संजोना नहीं चाहता, क्योंकि वह पूर्णतः सपनों से मुक्त है। इसीलिए किसी भी नारे और घोषणा बाजी में उसका विश्वास नहीं है। इस दुनिया का व्यक्ति अपने लिए अपनी दुनिया चाहता है, एक ऐसी दुनिया जो वर्तमान की विसंगतियों से निकलना चाहती है और आने वाले कल के प्रति सचेत है। इस दुनिया का व्यक्ति अपनेपन की पहचान की तलाश में अग्रसर रहा है। इसका कोई पिछला कल नहीं न अलगा स्पप्न-प्रेरित कल वह उधर जा रहा है जिधर सही जमीन की संभावनाए है। इस मार्ग पर भी वह झूठ को छाॅंटते जा रहा है। उसकी विकास यात्रा जैनुइन की तलाश की यात्रा हैं।