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पर्वत प्रदेश में पावस कविता की सप्रसंग व्याख्या-सुमित्रानंद पंत

पर्वत प्रदेश में पावस पाठ सार

 कवि ने इस कविता में प्रकृति का ऐसा वर्णन किया है कि लग रहा है कि प्रकृति सजीव हो उठी है। कवि कहता है कि वर्षा ऋतु में प्रकृति का रूप हर पल बदल  रहा है कभी वर्षा होती है तो कभी धूप निकल आती है। पर्वतों पर उगे हजारों फूल ऐसे लग रहे है जैसे पर्वतों की आँखे हो और वो इन आँखों के सहारे अपने आपको अपने चरणों ने फैले दर्पण रूपी तालाब में देख रहे हों। पर्वतो से गिरते हुए झरने कल कल की मधुर आवाज कर रहे हैं जो नस नस को प्रसन्नता से भर रहे हैं। पर्वतों पर उगे हुए पेड़ शांत आकाश को ऐसे देख रहे हैं जैसे वो उसे छूना चाह रहे हों।  बारिश के बाद मौसम ऐसा हो गया है कि घनी धुंध के कारण लग रहा है मानो पेड़ कही उड़ गए हों अर्थात गायब हो गए हों,चारों ओर धुँआ होने के कारण लग रहा है कि तालाब में आग लग गई है। ऐसा लग रहा है कि ऐसे मौसम में इंद्र भी अपना बादल रूपी विमान ले कर इधर उधर जादू का खेल दिखता हुआ घूम रहा है।



पर्वत प्रदेश में पावस पाठ की व्याख्या

काव्यांश 1
पावस ऋतु थी ,पर्वत प्रवेश ,
पल पल परिवर्तित प्रकृति -वेश।

प्रसंग -: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श – भाग 2’ से लिया गया है। इसके कवि ‘सुमित्रानंदन पंत जी ‘हैं। इसमें कवि ने वर्षा ऋतु का सुंदर वर्णन किया है।

व्याख्या -: कवि कहता है कि पर्वतीय क्षेत्र में वर्षा ऋतु का प्रवेश हो गया है। जिसकी वजह से प्रकृति के रूप में बार बार बदलाव आ रहा है अर्थात कभी बारिश होती है तो कभी धूप निकल आती है।



काव्यांश 2
मेखलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्र दृग- सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार बार ,
नीचे जल ने निज महाकार ,
-जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण सा फैला है विशाल !


प्रसंग -: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श – भाग 2’ से लिया गया है। इसके कवि ‘सुमित्रानंदन पंत जी ‘हैं। इसमें कवि ने पर्वतों का सजीव चित्रण किया है।

व्याख्या -: इस पद्यांश में कवि ने पहाड़ों के आकार की तुलना करघनी अर्थात कमर में बांधने वाले आभूषण से की है । कवि कहता है कि करघनी के आकर वाले पहाड़ अपनी हजार पुष्प रूपी आंखें फाड़ कर नीचे जल में अपने विशाल आकार को देख रहे हैं।ऐसा लग रहा है कि पहाड़ ने जिस तालाब को अपने चरणों में पाला है वह तालाब पहाड़ के लिए विशाल आईने का काम कर रहा है।

काव्यांश 3


गिरि का गौरव गाकर झर- झर
मद में नस -नस उत्तेजित कर
मोती की लड़ियों- से सुन्दर
झरते हैं झाग भरे निर्झर !
गिरिवर के उर से उठ -उठ कर
उच्चाकांक्षाओं से तरुवर
है झाँक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष ,अटल कुछ चिंतापर।

प्रसंग -: प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श – भाग 2’ से लिया गया है। इसके कवि ‘सुमित्रानंदन पंत जी ‘हैं। इसमें कवि ने झरनों की सुंदरता का वर्णन किया है।

व्याख्या -: इस पद्यांश में कवि कहता है कि मोतियों की लड़ियों के समान सुंदर झरने झर झर की आवाज करते हुए बह रहे हैं ,ऐसा लग रहा है की वे पहाड़ों का गुणगान कर रहे हों। उनकी करतल ध्वनि नस नस में उत्साह अथवा प्रसन्नता भर देती है।
पहाड़ों के हृदय से उठ-उठ कर अनेकों पेड़ ऊँच्चा उठने की इच्छा लिए एक टक दृष्टि से स्थिर हो कर शांत आकाश को इस तरह देख रहे हैं, मनो वो किसी चिंता में डूबे हुए हों। अर्थात वे हमें निरन्तर ऊँच्चा उठने की प्रेरणा दे रहे हैं।

काव्यांश 4
उड़ गया ,अचानक लो ,भूधर
फड़का अपार पारद *  के पर !
रव -शेष रह गए हैं निर्झर !
है टूट पड़ा भू पर अम्बर !
धँस गए धारा में सभय शाल !
उठ रहा धुआँ  ,जल गया ताल !
-यों जलद -यान में विचर -विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल।

प्रसंग :- प्रस्तुत पद्यांश हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श – भाग 2’ से लिया गया है। इसके कवि ‘सुमित्रानंदन पंत जी ‘हैं। इसमें कवि ने बारिश के कारण प्रकृति का बिल्कुल बदला हुआ रूप दर्शाया है।

व्याख्या :- इस पद्यांश में कवि कहता है कि तेज बारिश के बाद मौसम ऐसा हो गया है कि घनी धुंध के कारण लग रहा है मानो पेड़ कही उड़ गए हों अर्थात गायब हो गए हों। ऐसा लग रहा है कि पूरा आकाश ही धरती पर आ गया हो केवल झरने की आवाज़ ही सुनाई दे रही है। प्रकृति का ऐसा भयानक रूप देख कर शाल के पेड़ डर कर धरती के अंदर धंस गए हैं। चारों ओर धुँआ होने के कारण लग रहा है कि तालाब में आग लग गई है। ऐसा लग रहा है कि ऐसे मौसम में इंद्र भी अपना बादल रूपी विमान ले कर इधर उधर जादू का खेल दिखता हुआ घूम रहा है।

Saturday

मैथिलीशरण गुप्त का जीवन परिचय और मनुष्यता कविता की सप्रसंग व्याख्या

                         मैथिलीशरण गुप्त का जीवन परिचय और मनुष्यता कविता की सप्रसंग व्याख्या

                                                        
                                                        मैथिलीशरण गुप्त का जीवन परिचय
एक धनी सेठ था जिसका नाम सेठ रामचरण गुप्त था। वह धनी वैश्य परिवार से संबंध रखते थे। वह और उनका परिवार झाँसी जिले के चिरगांव गाँव में रहते थे। उनकी पत्नी का नाम काशीबाई था। वह बेहद समझदार महिला थी। यह दोनों पति-पत्नी वैष्णव धर्म को मानने वाले थे। इन दोनों को 3 अगस्त 1886 को एक तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई। इस बच्चे का नाम मैथिलीशरण रखा गया।
वह बचपन से ही तेज दिमाग वाला बालक था। उसने बचपन से ही कविताएं लिखना शुरू कर दी थी। यह विरासत उसको अपने पिता से मिली थी। मैथिलीशरण के पिता को भी हिंदी साहित्य से बड़ा गहरा लगाव था। बचपन के दिनों में मैथिलीशरण एक आम बच्चे की ही तरह बहुत शरारती था। लेकिन धीरे-धीरे बड़े होने पर वह बहुत समझदार हो गया। मैथिलीशरण के माता-पिता को यह पता नहीं था कि उनका बेटा बड़ा होकर एक महान लेखक बनेगा।

मैथिलीशरण गुप्त की शिक्षा
मैथिलीशरण गुप्त एक विद्यार्थी के रूप में साधारण ही रहे। उनका पढ़ाई के प्रति कोई गहरा लगाव नहीं था। उन्होंने पांचवी कक्षा तक की पढ़ाई अपने चिरगांव गाँव में ही रहकर की। जब आगे की पढ़ाई की बात आई तो उनके पिताजी ने उन्हें झाँसी के मेक्डोनल हाई स्कूल में दाखिला दिलवाया। जब वह कक्षा में होते थे तो पढ़ाई की जगह कहानी और कविताएं लिखने में उनका मन लगता था। उनके शिक्षक उनकी इसी बात से बड़े ही परेशान रहते थे। कविताएं लिखने के अलावा इनको इधर-उधर घूमना बहुत ही पसंद था। वह अपने दोस्तों को भी कविताएं लिखने के लिए प्रेरित किया करते थे। हालांकि 10 -11 साल तक आते आते उन्होंने पढ़ाई ही छोड़ दी। हिन्दी, बंगला, संस्कृत साहित्य पर इनकी अच्छी पकड़ हो गई थी। वह घर पर ही सारे विषयों को पढ़ा करते थे। जब वह 12 साल के हुए तो ब्रजभाषा में कविता भी लिखने लग गए थे। वह अपनी कविताएं सरस्वती मैग्जीन में छपवाने के लिए देते थे।



मैथिलीशरण गुप्त की उपलब्धियां

मैथिलीशरण गुप्त अपने दौर के महान कवि थे। उनकी कलम से शानदार शब्द निकलते थे जो कि भारत के नागरिकों में राष्ट्र प्रेम जगा देते थे। सिर्फ यही नहीं उन्होंने समाज-सुधार, धर्म, राजनीति, भक्ति जैसे विषयों पर भी बहुत अच्छी कविताएं लिखी। 1948 ई॰ में आगरा विश्वविद्यालय और 1958 ई॰ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने मैथिलीशरण गुप्त को डी॰ लिट् की मानद उपाधि प्रदान की थी। इन्होंने राज्यसभा के सदस्य के रूप में पदभार ग्रहण किया। यही नहीं सन् 1954 में उन्हें पद्मभूषण से भी नवाजा गया।


मैथिलीशरण गुप्त के गुरु
मैथिलीशरण गुप्त के गुरु आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी थे। वह एक महान कवि और लेखक थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में खूब कविताएं लिखी। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ही मैथिलीशरण गुप्त को लिखने की प्रेरणा दी थी। मैथिलीशरण गुप्त ने हालांकि बचपन से ही लिखना शुरू कर दिया था पर उनको लिखने की असली प्रेरणा आचार्य महावीर प्रसाद से ही मिली। मैथिलीशरण ने उनको अपना गुरु मान लिया था।
मैथिलीशरण ने उनको अपना आदर्श मान लिया था। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने मैथिलीशरण गुप्त पर बहुत मेहनत की। उन्होंने मैथिलीशरण की कविता लिखने की शैली को और भी ज्यादा निखारा। वह मैथिलीशरण के प्रेरणा स्तोत्र रहे थे। उनके मार्गदर्शन के चलते ही मैथिलीशरण की कविताएं छोटी सी उम्र में ही सरस्वती पत्रिका में छपने लगी थी।


मैथिलीशरण गुप्त की भाषा शैली

मैथिलीशरण गुप्त एक राष्ट्र भक्ति से ओत-प्रोत कवि और लेखक थे। उनकी भाषा बड़ी ही सुंदर और निर्मल थी। वह अपने पूरे मन से लिखते थे। उनका कविता लिखने का सरल और सीधा स्वभाव लोगों को बहुत ज्यादा पसंद आता था। उनके विचार सीधे दिल से निकलते थे। वह अपनी कविताओं में लोकोक्तियां एवं मुहावरे का बहुत अच्छे से इस्तेमाल करते थे। वह अपनी कविताओं के माध्यम से लोगों में देश प्रेम के बीज़ बो देते थे। वह अपनी रचनाओं में संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू जैसी भाषाओं का अच्छे से इस्तेमाल करते थे।



मनुष्यता कविता का सारांश

इस कविता में कवि मनुष्यता का सही अर्थ समझाने का प्रयास कर रहा है। पहले भाग में कवि कहता है कि मृत्यु से नहीं डरना चाहिए क्योंकि मृत्यु तो निश्चित है पर हमें ऐसा कुछ करना चाहिए कि लोग हमें मृत्यु के बाद भी याद रखें। असली मनुष्य वही है जो दूसरों के लिए जीना व मरना सीख ले। दूसरे भाग में कवि कहता है कि हमें उदार बनना चाहिए क्योंकि उदार मनुष्यों का हर जगह गुण गान होता है। मनुष्य वही कहलाता है जो दूसरों की चिंता करे। तीसरे भाग में कवि कहता है कि पुराणों में  उन लोगों के बहुत उदाहरण हैं जिन्हे उनकी  त्याग भाव के लिए आज भी याद किया जाता है। सच्चा मनुष्य वही है जो त्याग भाव जान ले। चौथे भाग में कवि कहता है कि मनुष्यों के मन में दया और करुणा का भाव होना चाहिए, मनुष्य वही कहलाता है जो दूसरों के लिए मरता और जीता है। पांचवें भाग में कवि कहना चाहता है कि यहाँ  कोई अनाथ नहीं है क्योंकि हम सब उस एक ईश्वर की संतान हैं। हमें भेदभाव से ऊपर उठ कर सोचना चाहिए।छठे भाग में कवि कहना चाहता है कि हमें दयालु बनना चाहिए क्योंकि दयालु और परोपकारी मनुष्यों का देवता भी स्वागत करते हैं। अतः हमें दूसरों का परोपकार व कल्याण करना चाहिए।सातवें भाग में कवि कहता है कि मनुष्यों के बाहरी कर्म अलग अलग हो परन्तु हमारे वेद साक्षी है की सभी की आत्मा एक है ,हम सब एक ही ईश्वर की संतान है अतः सभी मनुष्य भाई -बंधु हैं और मनुष्य वही है जो दुःख में दूसरे मनुष्यों के काम आये।अंतिम भाग में कवि कहना चाहता है कि विपत्ति और विघ्न को हटाते हुए मनुष्य को अपने चुने हुए रास्तों पर चलना चाहिए ,आपसी समझ को बनाये रखना चाहिए और भेदभाव को नहीं बढ़ाना चाहिए ऐसी सोच वाला मनुष्य ही अपना और दूसरों का कल्याण और उद्धार कर सकता है।
1.
विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,
मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी।
हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,
मारा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।
वही पशु- प्रवृति  है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

प्रसंग -: प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई है। इसके कवि मैथिलीशरण गुप्त हैं। इन पंक्तिओं में कवि बताना चाहता है कि मनुष्यों को कैसा जीवन जीना चाहिए।

व्याख्या -: कवि कहता है कि हमें यह जान लेना चाहिए कि मृत्यु का होना निश्चित है, हमें मृत्यु से नहीं डरना चाहिए। कवि कहता है कि हमें कुछ ऐसा करना चाहिए कि लोग हमें मरने के बाद भी याद रखे। जो मनुष्य दूसरों के लिए कुछ भी ना कर सकें, उनका जीना और मरना दोनों बेकार है । मर कर भी वह मनुष्य कभी नहीं मरता जो अपने लिए नहीं दूसरों के लिए जीता है, क्योंकि अपने लिए तो जानवर भी जीते हैं। कवि के अनुसार मनुष्य वही है जो दूसरे मनुष्यों के लिए मरे अर्थात जो मनुष्य दूसरों की चिंता करे वही असली मनुष्य कहलाता है।
2.
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

प्रसंग -: प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई है। इसके कवि मैथिलीशरण गुप्त हैं। इन पंक्तिओं में कवि बताना चाहता है कि जो मनुष्य दूसरों के लिए जीते हैं उनका गुणगान युगों – युगों तक किया जाता है।

व्याख्या -: कवि कहता है कि जो मनुष्य अपने पूरे जीवन में दूसरों की चिंता करता है उस महान व्यक्ति की कथा का गुण गान सरस्वती अर्थात पुस्तकों में किया जाता है। पूरी धरती उस महान व्यक्ति की आभारी रहती है। उस व्यक्ति की बातचीत हमेशा जीवित व्यक्ति की तरह की जाती है और पूरी सृष्टि उसकी पूजा करती है। कवि कहता है कि जो व्यक्ति पुरे संसार को अखण्ड भाव और भाईचारे की भावना में बाँधता है वह व्यक्ति सही मायने में मनुष्य कहलाने योग्य होता है।
3.
क्षुधार्त रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।
अनित्य देह के  लिए अनादि जीव क्या डरे?
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के  लिए मरे।।

प्रसंग -: प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई है। इसके कवि मैथिलीशरण गुप्त हैं। इन पंक्तिओं में कवि ने महान पुरुषों के उदाहरण दिए हैं जिनकी महानता के कारण उन्हें याद किया जाता है।

व्याख्या -: कवि कहता है कि पौराणिक कथाएं ऐसे व्यक्तिओं के उदाहरणों से भरी पड़ी हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन दूसरों के लिए त्याग दिया जिस कारण उन्हें आज तक याद किया जाता है। भूख से परेशान रतिदेव ने अपने हाथ की आखरी थाली भी दान कर दी थी और महर्षि दधीचि ने तो अपने पूरे  शरीर की हड्डियाँ वज्र बनाने के लिए दान कर दी थी। उशीनर देश के राजा शिबि ने कबूतर की जान बचाने के लिए अपना पूरा मांस दान कर दिया था। वीर कर्ण ने अपनी ख़ुशी से अपने शरीर का कवच दान कर दिया था। कवि कहना चाहता है कि मनुष्य इस नश्वर शरीर के लिए क्यों डरता है क्योंकि मनुष्य वही कहलाता है जो दूसरों के लिए अपने आप को त्याग देता है।
4.
सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धभाव बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा ?
अहा ! वही उदार है परोपकार जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

प्रसंग -: प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई है। इसके कवि मैथिलीशरण गुप्त हैं। इन पंक्तिओं में कवि ने महात्मा बुद्ध का उदाहरण देते हुए दया ,करुणा को सबसे बड़ा धन बताया है।

व्याख्या -: कवि कहता है कि मनुष्यों के मन में दया व करुणा का भाव होना चाहिए ,यही सबसे बड़ा धन है। स्वयं ईश्वर भी ऐसे लोगों के साथ रहते हैं । इसका सबसे बड़ा उदाहरण महात्मा बुद्ध हैं जिनसे लोगों का दुःख नहीं देखा गया तो वे लोक कल्याण के लिए दुनिया के नियमों के विरुद्ध चले गए। इसके लिए क्या पूरा संसार उनके सामने नहीं झुकता अर्थात उनके दया भाव व परोपकार के कारण आज भी उनको याद किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है। महान उस को कहा जाता है जो परोपकार करता है वही मनुष्य ,मनुष्य कहलाता है जो मनुष्यों के लिए जीता है और मरता है।
5.
रहो न भूल के कभी मदांघ तुच्छ वित्त में,
सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।
अनाथ कौन है यहाँ ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,
दयालु दीन बन्धु के बड़े विशाल हाथ हैं।
अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

प्रसंग -: प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई है। इसके कवि मैथिलीशरण गुप्त हैं। इन पंक्तिओं में कवि कहता है कि सम्पति पर कभी घमण्ड नहीं करना चाहिए और किसी को अनाथ नहीं समझना चाहिए क्योंकि ईश्वर सबके साथ हैं।

व्याख्या -: कवि कहता है कि भूल कर भी कभी संपत्ति या यश पर घमंड नहीं करना चाहिए। इस बात पर कभी गर्व नहीं करना चाहिए कि हमारे साथ हमारे अपनों का साथ है क्योंकि कवि कहता है कि यहाँ कौन सा व्यक्ति अनाथ है ,उस ईश्वर का साथ सब के साथ है। वह बहुत दयावान है उसका हाथ सबके ऊपर रहता है। कवि कहता है कि वह व्यक्ति भाग्यहीन है जो इस प्रकार का उतावलापन रखता है क्योंकि मनुष्य वही व्यक्ति कहलाता है जो इन सब चीजों से ऊपर उठ कर सोचता है।
6.
अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े,
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े।
परस्परावलंब से उठो तथा बढ़ो सभी,
अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यां कि एक से न काम और का सरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

प्रसंग -: प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई है। इसके कवि मैथिलीशरण गुप्त हैं। इन पंक्तिओं में कवि कहता है कि कलंक रहित रहने व दूसरों का सहारा बनने वाले मवषयों का देवता भी स्वागत करते हैं।

व्याख्या -: कवि कहता है कि उस कभी न समाप्त होने वाले आकाश में असंख्य देवता खड़े हैं, जो परोपकारी व दयालु मनुष्यों का सामने से खड़े होकर अपनी भुजाओं को फैलाकर स्वागत करते हैं। इसलिए दूसरों का सहारा बनो और  सभी को साथ में लेकर आगे बड़ो। कवि कहता है कि सभी कलंक रहित हो कर देवताओं की गोद में बैठो अर्थात यदि कोई बुरा काम नहीं करोगे तो देवता तुम्हे अपनी गोद में ले लेंगे। अपने मतलब के लिए नहीं जीना चाहिए अपना और दूसरों का कल्याण व उद्धार करना चाहिए क्योंकि इस मरणशील संसार में मनुष्य वही है जो मनुष्यों का कल्याण करे व परोपकार करे।
7.
‘मनुष्य मात्रा बन्धु हैं’ यही बड़ा विवेक है,
पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं,
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बन्धु ही न बन्धु की व्यथा हरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

प्रसंग -: प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई है। इसके कवि मैथिलीशरण गुप्त हैं। इन पंक्तिओं में कवि कहता है कि हम सब एक ईश्वर की संतान हैं। अतः हम सभी मनुष्य एक – दूसरे के भाई – बन्धु हैं।
व्याख्या -: कवि कहता है कि प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे के भाई – बन्धु हैं ।यह सबसे बड़ी समझ है। पुराणों में जिसे स्वयं उत्पन्न पुरुष मना गया है, वह परमात्मा या ईश्वर हम सभी का पिता है, अर्थात सभी मनुष्य उस एक ईश्वर की संतान हैं। बाहरी  कारणों के फल अनुसार प्रत्येक मनुष्य के कर्म भले ही अलग अलग हों परन्तु हमारे वेद इस बात के साक्षी है कि सभी की आत्मा एक है। कवि कहता है कि यदि भाई ही भाई के दुःख व कष्टों का नाश नहीं करेगा तो उसका जीना व्यर्थ है क्योंकि मनुष्य वही कहलाता है जो बुरे समय में दूसरे मनुष्यों के काम आता है।
8.
चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति,विघ्न जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

प्रसंग -: प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई है। इसके कवि मैथिलीशरण गुप्त हैं। इन पंक्तिओं में कवि कहता है कि यदि हम ख़ुशी से,सारे कष्टों को हटते हुए ,भेदभाव रहित रहेंगे तभी संभव है की समाज की उन्नति होगी।
व्याख्या -: कवि कहता है कि मनुष्यों को अपनी इच्छा से चुने हुए मार्ग में ख़ुशी ख़ुशी चलना चाहिए,रास्ते में कोई भी संकट या बाधाएं आये, उन्हें हटाते  चले जाना चाहिए। मनुष्यों को यह ध्यान रखना चाहिए कि आपसी समझ न बिगड़े और भेद भाव न बड़े। बिना किसी तर्क वितर्क के सभी को एक साथ ले कर आगे बढ़ना चाहिए तभी यह संभव होगा कि मनुष्य दूसरों की उन्नति और कल्याण के साथ अपनी समृद्धि भी कायम करे



अक्कमहादेवी कविता की व्याख्या

                                                               अक्कमहादेवी कविता की व्याख्या


                                                              वचन का पाठ सारांश

अक्क महादेवी जी कर्नाटक के प्रसिद्ध कवयित्री के रूप में जानी जाती है। यहाँ इनके दो वचन पाठ्यक्रम में लिए गए हैं। दोनों वचनों का अंग्रेजी से अनुवाद केदारनाथ सिंह ने किया है। प्रथम वचन में इंद्रियों पर नियंत्रण का संदेश दिया गया है। यह उपदेशात्मक न होकर प्रेम-भरा मनुहार है। वे चाहती हैं कि मनुष्य को अपनी भूख, प्यास, नींद आदि वृत्तियों व क्रोध, मोह, लोभ, अह, ईष्र्या आदि भावों पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। वह लोगों को समझाती हैं कि इंद्रियों को वश में करने से ही शिव की प्राप्ति संभव है। अक्क महादेवी की कविता हे! भूख मत मचल बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता है। इस कविता में कवयित्री भूख से कहती हैं कि तू ज्यादा मत मचल इससे उनकी भक्ति में अवरोध उत्पन्न होता है।
दूसरा वचन एक भक्त का ईश्वर के प्रति समर्पण है। कवयित्री ने कविता के माध्यम से ईश्वर के प्रति अपनी संपूर्ण भक्ति को व्यक्त करती है। प्रस्तुत कविता में अहंकार को नष्ट कर ईश्वर की भक्ति में खुद को समाहित करने की बात की गई है। चन्नमल्लिकार्जुन की अनन्य भक्त अक्क महादेवी उनकी अनुकंपा के लिए हर भौतिक वस्तु से अपनी झोली खाली रखना चाहती हैं। वे ऐसी निस्पृह स्थिति की कामना करती हैं जिससे उनका स्व या अहंकार पूरी तरह से नष्ट हो जाए। वह ईश्वर को जूही के फूल के समान बताती हैं, वह कामना करती हैं कि ईश्वर उससे ऐसे काम करवाए जिनसे उसका अहंकार समाप्त हो जाए। वह उससे भीख मँगवाए, भले ही उसे भीख न मिले। वह उससे घर की मोह-माया छुड़वा दे। जब कोई उसे कुछ देना चाहे तो वह गिर जाए और उसे कोई कुत्ता छीनकर ले जाए। कवयित्री का एकमात्र लक्ष्य अपने परमात्मा की प्राप्ति है।

वचन (कविता) पाठ व्याख्या

1.हे भूख! मत मचल
प्यास, तड़प मत
हे नींद! मत सता
क्रोध, मचा मत उथल-पुथल
हे मोह! पाश अपने ढील
लोभ, मत ललचा
हे मद ! मत कर मदहोश
ईर्ष्या, जला मत
ओ चराचर ! मत चूक अवसर
आई हूँ सदेश लेकर चन्नमल्लिकार्जुन का
प्रसंग:-- प्रस्तुत पंक्तियाँ शैव आंदोलन से जुड़ी कवयित्री अक्क महादेवी द्वारा रचित हैं। उनके इस वचन का अनुवाद केदारनाथ सिंह ने किया है। अक्क महादेवी चन्नमल्लिकार्जुन (शिव) की भक्त है। यहाँ उन्होंने मनुष्य को इंद्रियों पर नियंत्रण रखने का संदेश दिया है।
व्याख्या – प्रस्तुत पद में कवयित्री अक्क महादेवी इंद्रियों पर नियंत्रण का संदेश देती है। इसमें कवयित्री इंद्रियों से आग्रह करती हुई भूख से कहती हैं कि तू मचलकर मुझे मत सता। सांसारिक प्यास से वे कहती हैं कि तू मन में और कुछ पाने की इच्छा मत जगा। नींद से कहती हैं कि हे नींद ! तू मानव को सताना छोड़ दे, क्योंकि नींद से उत्पन्न आलस्य के कारण वह प्रभु-भक्ति को भूल जाता है। क्रोध से कहती हैं कि हे क्रोध! तू उथल-पुथल मत मचा, क्योंकि तेरे कारण मनुष्य का विवेक व् बुद्धि नष्ट हो जाती है। वह मोह को कहती हैं कि वह अपने बंधन ढीले कर दे। क्योंकि उसके कारण मनुष्य दूसरे का अहित करने की सोचता है। लोभ से कहती हैं कि हे लोभ! तू मानव को ललचाना छोड़ दे। अहंकार से कहती हैं कि हे अहंकार! तू मनुष्य को अधिक पागल न बना। ईर्ष्या को मनुष्य को जलाना छोड़ देने का आग्रह करती हैं। वे सृष्टि के जड़-चेतन जगत् को संबोधित करते हुए कहती हैं कि तुम्हारे पास शिव-भक्ति का जो अवसर है, उससे चूकना मत, क्योंकि मैं शिव का संदेश लेकर तुम्हारे पास आई हैं। चराचर को इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए।

2.हे मेरे जूही के फूल जैसे ईश्वर
मँगवाओ मुझसे भीख
और कुछ ऐसा करो
कि भूल जाऊँ अपना घर पूरी तरह
झोली फैलाऊँ और न मिले भीख
कोई हाथ बढ़ाए कुछ देने को
तो वह गिर जाए नीचे
और यदि मैं झुकूँ उसे उठाने
तो कोई कुत्ता आ जाए
और उसे झपटकर छीन ले मुझसे।

प्रसंग:-- प्रस्तुत पंक्तियाँ अक्क महादेवी द्वारा रचित हैं। अक्क महादेवी शैव आंदोलन से जुड़ी हैं। उनके इस वचन का अनुवाद केदारनाथ सिंह ने किया है। अक्क महादेवी चन्नमल्लिकार्जुन की भक्त हैं। यहाँ उनका अपने आराध्य के प्रति अनन्य समर्पण भाव अभिव्यक्त हुआ है। अपने आराध्य के लिए वे भौतिक वस्तुओं से अपनी झोली को खाली रखना चाहती हैं। वे अहंकार विहीन होकर ईश्वर की प्राप्ति करना चाहती हैं।

व्याख्या – इस पद में कवयित्री ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव व्यक्त करती है। वह अपने अहंकार को नष्ट करके ईश्वर में समा जाना चाहती है। कवयित्री ईश्वर से प्रार्थना करती है कि हे जूही के फूल को समान कोमल व परोपकारी ईश्वर! आप मुझसे ऐसे-ऐसे कार्य करवाइए जिससे मेरा अहम् भाव नष्ट हो जाए। आप ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कीजिए जिससे मुझे भीख माँगनी पड़े। मेरे पास कोई साधन न रहे। आप ऐसा कुछ कीजिए कि मैं पारिवारिक मोह से दूर हो जाऊँ। क्योंकि घर का मोह सांसारिक चक्र में उलझने का सबसे बड़ा कारण है और घर के भूलने पर ईश्वर का घर ही लक्ष्य बन जाता है। वह आगे कहती है कि जब वह भीख माँगने के लिए झोली फैलाए तो उसे कोई भीख न दे। यदि कोई उसे कुछ देने के लिए हाथ बढ़ाए तो जो वह दे रहा हो वह वस्तु नीचे गिर जाए। इस प्रकार वह सहायता भी व्यर्थ हो जाए। उस गिरे हुए पदार्थ को वह उठाने के लिए झुके तो कोई कुत्ता उससे झपटकर छीनकर ले जाए। यहाँ कवयित्री त्याग की पराकाष्ठा को प्राप्त करना चाहती है। वह मान-अपमान के दायरे से बाहर निकलकर ईश्वर में विलीन होना चाहती है। सारे मोह-बंधनों से मुक्त होना चाहती हैं।



Friday

बच्चे काम पर जा रहे हैं कविता की व्याख्या

                                                                         बच्चे काम पर जा रहे हैं कविता की व्याख्या

    

          
राजेश जोशी का जीवन परिचय
समकालीन कविता के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर राजेश जोशी का जन्म 18 जुलाई 1946 को नरसिंहगढ़, मध्य प्रदेश में हुआ। शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने कुछ समय पत्रकारिता की और फिर कुछ वर्षों तक अध्यापन भी किया।
उनकी राजनीतिक कविताएँ बारीकी और नफ़ासत का नमूना पेश करती हैं। वे समय, स्थान और गतियों के अछूते संदर्भो से भरी हैं। इनमें काल का बोध गहरा और आत्मीय है। वे अपने मनुष्य होने के अहसास और उसे बचाए रखने का जद्दोजहद करती हैं। उनकी कविताओं में सामाजिक यथार्थ गहरे उतरता है। वे जीवन के संकट में भी गहरी आस्था को बनाए रखती हैं। उनकी कविताओं में बचपन की स्मृतियों, स्थितियों व प्रसंगों की बहुलता है। स्थानीयता उनकी कविता की एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है। उनकी कविताओं में स्थानीय बोली-बानी, मिज़ाज और मौसम सबसे परिचय हो जाता है। अपनी प्रतिबद्धता को वे अब एक ज़िद की तरह सामने लेकर आए हैं। वह स्वयं कहते हैं कि ‘‘...इस समय के अंतर्विरोधों और विडंबनाओं को व्यक्त करने और प्रतिरोध के नए उपकरण तलाश करने की बेचैनी हमारी पूरी कविता की मुख्य चिंता है! उसमें कई बार निराशा भी हाथ लगती है और उदासी भी लेकिन साधारण जन के पास जो सबसे बड़ी ताक़त है और जिसे कोई बड़ी से बड़ी वर्चस्वशाली शक्ति और बड़ी से बड़ी असफलता भी उससे छीन नहीं सकती, वह है उसकी ज़िद।’’

‘एक दिन बोलेंगे पेड़’, ‘मिट्टी का चेहरा’, ‘नेपथ्य में हँसी’, ‘दो पंक्तियों के बीच’ और ‘ज़िद’ उनके काव्य-संग्रह हैं। 'गेंद निराली मिट्ठू की' नाम से बाल कविताओं का भी एक संग्रह प्रकाशित हुआ है। उन्होंने गद्य रचनाएँ भी की हैं। उनके दो कहानी-संग्रह ‘सोमवार और अन्य कहानियाँ’ और ‘कपिल का पेड़’ छप चुके हैं। ‘जादू जंगल’, ‘अच्छे आदमी’, ‘कहन कबीर’, ‘टंकारा का गाना’, ‘तुक्के पर तुक्का’ उनकी नाट्य-कृतियाँ हैं। ‘एक कवि की नोटबुक’ और ‘एक कवि की दूसरी नोटबुक’ के रूप में आलोचनात्मक टिप्पणियों की दो किताबें प्रकाशित हुई हैं। इसके अतिरिक्त, उन्होंने भर्तृहरि की कविताओं की अनुरचना ‘भूमि का कल्पतरु यह भी’ शीर्षक से और मायकोव्स्की की कविताओं का अनुवाद ‘पतलून पहिना बादल’ शीर्षक से किया है। उन्होंने कुछ लघु फ़िल्मों के लिए पटकथाएँ भी लिखी हैं।
‘दो पंक्तियों के बीच’ कविता-संग्रह के लिए उन्हें वर्ष 2002 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।


                                                                         बच्चे काम पर जा रहे हैं कविता की व्याख्या

बच्चे काम पर जा रहे हैं' कविता में कवि राजेश जोशी ने बाल मजदूरी के विषय को आधार बनाकर बच्चों के बचपन को छीन जाने की व्यथा को अभिव्यक्ति दी है। इस कविता में उस सामाजिक - आर्थिक विडम्बना की ओर समाज का ध्यान आकर्षित किया गया है , जिसमें अनेक बच्चे शिक्षा, खेल और जीवन की खुशियों से वंचित रह जाते हैं।


कोहरे से ढ़ँकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं
सुबह सुबह बच्चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह
काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे?

व्याख्या-यह कविता राजेश जोशी ने लिखी है। इस कविता में बाल श्रम की समस्या को उजागर किया गया है। कवि का कहना है कि बच्चे मजदूरों की तरह काम करते हैं और सुबह से ही काम पर लगा दिए जाते हैं। बच्चों का काम करना हमारे समय की एक भयानक और शर्मनाक बात हैं। कवि का कहना है कि उससे भी भयानक है इस बात को किसी विवरण या समाचार या खबर की तरह लिखा जाना। कवि का कहना है कि इस बात को एक सवाल की तरह लिखा जाना चाहिए कि बच्चों को काम पर जाने की नौबत क्यों आई।


क्या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
क्या दीमकों ने खा लिया है
सारी रंग बिरंगी किताबों को
क्या काले पहाड़े के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने
क्या किसी भूकंप में ढ़ह गई हैं
सारे मदरसों की इमारतें
क्या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन
खत्म हो गए हैं एकाएक
तो फिर बचा ही क्या है इस दुनिया में?


व्याख्या-बच्चों की उम्र काम करने की नहीं होती है। यह उम्र खेलने कूदने, पढ़ने लिखने की होती है ताकि बच्चों का समुचित शारीरिक और मानसिक विकास हो सके। कवि सवाल पूछता है कि क्या सारी गेंदें अंतरिक्ष में गिर गई हैं, या फिर सारे खिलौने किसी काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं कि बच्चों के लिए खेलने की कोई चीज ही नहीं बची है। कवि सवाल पूछता है कि क्या सभी स्कूलों की इमारतें किसी भूकंप में तबाह हो गई हैं कि बच्चे पढ़ने नहीं जा रहे हैं। कवि सवाल करता है कि क्या सभी मैदान, बगीचे और आँगन समाप्त हो गए हैं कि बच्चे अपने घरों या आस पड़ोस में अपने बचपन का जश्न नहीं मना पा रहे हैं।जिस बच्चे को काम पर जाने के लिए मजबूर होना पड़ता  है उसे खेल खिलौनों और पढ़ाई लिखाई से कोसों दूर होना पड़ता है। ऐसे बच्चों का बचपन बहुत त्रासदी में बीतता है।


कितना भयानक होता अगर ऐसा होता
भयानक है लेकिन इससे भी ज्यादा यह
कि हैं सारी चीजें हस्बमामूल
पर दुनिया की हजारों सड़कों से गुजरते हुए
बच्चे, बहुत छोटे बच्चे
काम पर जा रहे हैं।


व्याख्या-कवि का कहना है अगर वाकई में सारे खिलौने, किताबें, स्कूल और घर आँगन तबाह हो जाए तो बड़ी ही भयानक स्थिति बन जाए। लेकिन ऐसा नहीं है। इससे भी ज्यादा बुरी बात यह है कि पूरा समाज बच्चों द्वारा मजदूरी करने की बात को हमारे रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा मान लेता है। समाज को लगता है कि यह सब सामान्य बात है। बहुत कम ही लोग होते हैं जो इस गंभीर मुद्दे पर गंभीरता से सोचते हैं। इसी का नतीजा है कि आज जब इंसान चाँद पर जाने के काबिल हो चुका है, कई गंभीर बीमारियों का इलाज संभव हो चुका है, उसके बावजूद हजारों लाखों बच्चों को बाल मजदूरी करने को विवश होना पड़ता है।



काव्यात्मक विशेषताएं

राजेश जोशी की कविताएँ गहरी हैं। उनके कार्यों में जीवन की स्थिति के बारे में गहरे विचार सामने आते हैं। वे जब भी मानवता को खतरे में देखते हैं तो जीवन की संभावनाओं को खोजने के लिए बेचैन नजर आते हैं। और उनकी बेचैनी की यह स्पष्ट छाप उनकी कविता में दिखाई देती है। उनके जीवन के सभी छोटे-बड़े अनुभव उनकी कविता के दायरे में आते हैं। राजेश जोशी जी एक ऐसे कवि हैं जिनकी कविता में नाटक, गीतकार, संगीत, गद्य है और ये सभी मानव जीवन के एक सूत्र, मानव जीवन की सच्चाई से जुड़े हुए हैं। राजेश जोशी की कविताओं का जितना महत्वपूर्ण पहलू है, वह मानवीय चेतना है, उतना ही महत्वपूर्ण पहलू सामाजिक चेतना और स्वाभाविक प्रेम है। वह अपनी सामग्री की विविधता को व्यक्त करने के कई तरीके ढूंढता है। यानी वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए नए विषय और रास्ते खोजते हैं। राजेश जोशी की रचनाएँ निराशा के बादलों से उभरती आशा की किरण की तरह हैं।




भाषा शैली

राजेश जोशी जी अपनी भाषा, कहानी कहने की शैली और स्पष्ट और सपाट कथन के लिए जाने जाते हैं। गद्य शैली में काव्य को प्रस्तुत करने की कला में वे दक्ष हैं। वे एक अद्वितीय गद्य कलाकार भी हैं। उनके पास गद्य का एक नया स्वर है। जिसमें सामाजिक सातत्य अपनी लय के साथ हर जगह अभिव्यक्ति पाता है। राजेश जोशी जी एक संवेदनशील लेखक, संवेदनशील आलोचक और भाषा के अद्वितीय आविष्कारक हैं। भाषा उनके लिए एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इनकी भाषा में गीतकारिता, गीतकारिता, संगीतमयता है। जोशी जी की भाषा सरल, बोधगम्य और बनावट से बिल्कुल दूर है। उनकी कविता में वाक्य-विन्यास आत्मीयता से भरा है। और भावनाओं को व्यक्त करने में सक्षम है। उनकी कविता छवियों से भरी है। और चंद्रमा उनकी पसंदीदा छवि है। इनकी भाषा में अद्भुत सम्मोहन देखने को मिलता है। राजेश जोशी की भाषा स्थानीय बोली, मिजाज और मौसम का अनूठा मेल है। 



Monday

"असाध्य वीणा"-अज्ञेय

                                                                                                "असाध्य वीणा"-अज्ञेय



 प्रयोगवाद और नयी कविता के प्रवर्तक "अज्ञेय" जी ने सभी विधाओं में अपनी अदभुत प्रयोगात्मक प्रगति का परिचय दिया है अज्ञेय स्वभाव से ही विद्रोही थे उनकी यह विद्रोही भावना उनके द्वारा रचे साहित्य में भी विविध रूपों में भी प्रतिफलित हुई। साहित्यिक-सृजन के क्षेत्र में अज्ञेय जी ने एक साथ कवि ,कथाकार , आलोचक, संपादक, आदि विविध रूपों में साहित्यिक प्रेमियों को लुभाया तो दूसरी ओर व्यवहारिक जगत में फोटोग्राफी, चर्म-शिल्प, पर्वतारोहण, सिलाई- कला आदि से लोगो को चौंकाया । लेकिन उनका कवि व आलोचक व्यक्तित्व ही अधिक लोकप्रिय हुआ। कवि क्षेत्र में उनका सबसे विशिष्ट अवदान यह है कि उन्होंने तत्कालीन परिवेश के अनुकूल कविता को जीवन की अनुरुपता में ढालकर नई काव्यात्मक चेतना के लिए एक नया वातावरण रचा। वैसे तो अज्ञेय प्रगीतात्मक अभिव्यक्ति वाली छोटी कविताओं के कवि माने जाते हैं किंतु उन्होंने एक लम्बी कविता भी लिखी है- "असाध्य वीणा "। यह उनकी एक मात्र लंबी कविता है जिसकी रचना 'रमेशचन्द्र शाह' के अनुसार 18-20 जून ,1961 के दौरान हुई थी। यह कविता अज्ञेय के काव्य-संग्रह "आंगन के पार द्वार " में संग्रहीत है।



"असाध्य वीणा" एक जापानी पुराकथा पर आधारित है यह कथा 'आकोकुरा' की पुस्तक "द बुक ऑफ टी" में 'टेमिंग ऑफ द हार्प' शीर्षक से संग्रहीत है। श्री नरेन्द्र शर्मा ने अपने एक लेख में वह कथा इस प्रकार दी है लुंगामिन खाल में एक विशाल कीरी वृक्ष था , जिससे इस वीणा का निर्माण किया गया था। अनेक वादक कलाकार प्रयत्न करके हार गए पर वीणा नहीं बजा सके इसीलिए इसका नाम "असाध्य वीणा" पड़ गया। अंत में बीनकारों का राजकुमार पीवो ही उस वीणा को साध सका। इस वीणा से उसने ऐसी तान छेडी कि उससे तरह तरह की स्वर लहरियां फूट पडी। कभी उसमे से प्रेम गीत निकलते, तो कभी युद्ध का राग सुनाई पडता है। लेकिन अज्ञेय जी द्वारा रचित 'असाध्य वीणा' कविता में कथा नितांत भारतीय संदर्भो में ही घटित होती है और इस तरह घटित होती है कि उसका अभारतीय रूप धुल जाता है। दूसरे शब्दों में अज्ञेय ने एक अभारतीय कथा के आख्यान को एक भारतीय कविता के आख्यान में अदभुत काव्य-कौशल के साथ घुलनशील बना दिया है। इस घुलनशील से जो काव्यानुभव प्राप्त होता है वह इस कविता में प्रस्तुत दो भिन्न संस्कृतियों के आख्यानों की सीमा रेखाओं का अतिक्रमण करता प्रतीत होता है। अज्ञेय जी ने इस कथा का भारतीयकरण करते हुए बताया है कि किरीटी नामक वृक्ष से यह वीणा वज्रकीर्ति ने बनाई थी। लेकिन राजदरबार के समस्त कलावंत इस वीणा को बजाने का प्रयास करते हुए हार गये किन्तु सबकी विद्या व्यर्थ हो गई क्योंकि यह वीणा तभी बजेगी जब कोई सच्चा साधक इसे साधेगा। अन्त में इस 'असाध्य वीणा' को केशकम्बली प्रियंवद ने साधकर दिखाया।जब केशकम्बली प्रियंवद ने असाध्य वीणा को बजाकर दिखाया तब उससे निकलने वाले स्वरों को राजा , रानी और प्रजाजनों ने अलग-अलग सुना। किसी को उसमें ईश्वरीय कृपा सुनाई पड़ रही थी तो किसी को उसकी खनक तिजोरी में रखे धन की खनक लग रही थी । किसी को उसमें से नववधू की पायल की रूनझुन सुनाई दे रही थी तो किसी को उसमें शिशु की किलकारी की ध्वनि सुनाई पड़ रही थी। वस्तुत : असाध्य वीणा जीवन का प्रतीक है, हर व्यक्ति को अपनी भावना के अनुरूप ही उसकी स्वर लहरी प्रतीत होती है । व्यक्ति को अपनी भावना के अनुरूप ही सत्य की उपलब्धि होती है तथा भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को कला की प्रतीति भिन्न-भिन्न रूप में इसलिए होती है, क्योकि उनकी आन्तरिक भावनाओं में भिन्नता होती है । इससे यह भी ध्वनित होता है कि कला की विशिष्टता उसके अलग-अलग सन्दर्भों में , अलग-अलग अर्थो में होती है। 'असाध्य वीणा' को वही साध पाता है जो सत्य को एवं स्वयं को शोधता है या वो जो परिवेश और अपने को भूलकर उसी के प्रति समर्पित हो जाता है । यह बाहर से भीतर मुडने की प्रक्रिया है जिसे अंतर्मुखी होना भी कहा जा सकता है। बौद्ध दर्शन में इसे 'तथता' कहा गया है जिसमे स्वयं को देकर ही सत्य को पाया जा सकता है, अज्ञेय जी यही कहना चाहते हैं इस कविता के माध्यम से।


Friday

महादेवी वर्मा और उनका साहित्य

                                                                             महादेवी वर्मा और उनका साहित्य

                                                                                विस्तृत नभ का कोई कोना
                                                                                मेरा न कभी अपना होना,
                                                                                परिचय इतना, इतिहास यही-
                                                                                उमड़ी कल थी, मिट आज चली।



भारतीय साहित्य जगत को अपनी लेखनी से समृद्ध करने वाली लेखिका महादेवी वर्मा (Mahadevi Verma) हिंदी साहित्य के छायावाद काल के प्रमुख 4 स्तम्भों में से एक के रूप में अमर हैं। हिंदी साहित्य में उनकी एक सशक्त हस्ताक्षार के रूप में पहचान है और छायावादी काव्य के विकास में इनका अविस्मरणीय योगदान रहा है। साहित्य और संगीत का अद्भुत संयोजन करके गीत विधा को विकास की चरम सीमा पर पहुंचा देने का श्रेय महादेवी को ही है।




कवि निराला, ने उन्हें ‘हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती‘ की उपमा से भी सम्मानित किया है। वह हिंदी साहित्य में वेदना की कवयित्री के नाम से जानी जाती हैं एवं आधुनिक हिंदी साहित्य में रहस्यवाद की प्रवर्तक भी मानी जाती हैं।
महादेवी वर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले में गोविंद प्रसाद वर्मा और हेम रानी देवी के घर हुआ था। जबकि उनके पिता, भागलपुर के एक कॉलेज में एक अंग्रेजी प्रोफेसर, ने उन्हें पश्चिमी शिक्षाओं और अंग्रेजी साहित्य से परिचित कराया, उनकी माँ ने उनके भीतर हिंदी और संस्कृत साहित्य में एक स्वाभाविक रुचि का आह्वान किया।
एक साहित्य से भरपूर, वातावरण में पली बढ़ी युवा महादेवी वर्मा ने बहुत ही कम उम्र में काव्य लेखन की ओर स्वाभाविक रूप से एक जुनून विकसित किया। हालाँकि महादेवी ने अपनी पहली कविता 7 साल की उम्र में लिखी थी, लेकिन वह अपनी कविता और अन्य लेखन को छिपा कर रखती थीं। जब उनकी सहेली और सुप्रसिद्ध कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान को उनके लेखन का पता चला, तब महादेवी की प्रतिभा सामने आई।

जैसा कि उस समय का चलन था, 9 साल की उम्र में महादेवी की शादी एक डॉक्टर स्वरूप नारायण वर्मा से कर दी गई थी, जिसकी स्मृति कुछ इन शब्दों में वह दर्ज़ करती हैं:‘बारात आई तो बाहर भागकर हम सबके बीच खड़े होकर बारात देखने लगे। व्रत रखने को कहा गया तो मिठाई कमरे में बैठकर खूब मिठाई खाई। रात को सोते समय नाउन ने गोद में लेकर फेरे दिलवाए होंगे, हमें कुछ ध्यान नहीं है। प्रातः आंख खुली तो कपड़े में गांठ लगी देखी तो उसे खोलकर भाग गए।
अब इसे महादेवी का विद्रोही मन कहा जाए या अति-संवेदनशील हृदय, महादेवी पिंजड़े की नहीं रेगिस्तान की चिड़िया थीं और सांसारिक जीवन से विरक्ति के कारण उन्होंने शादी के बंधन में बंधना मंज़ूर नहीं किया।
हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती
महादेवी जी का गद्य और पद्य दोनों पर ही समानाधिकार था । नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत, यामा, दीपशिखा उनके प्रसिद्ध गीत सग्रह हैं । अतीत की स्मृतियां, शृंखला की कड़ियां, पथ के साथी आदि उनके रेखाचित्र संस्मरण निबन्ध से सम्बन्धित संग्रह हैं । वहीं महादेवीजी ने श्रेष्ठ कहानियां भी लिखीं । पशु-पक्षी जगत् पर उनकी मार्मिक कहानियां अत्यन्त जीवन्त हैं।


                                                                        कितनी करूणा कितने संदेश
                                                                        पथ में बिछ जाते बन पराग
                                                                        गाता प्राणों का तार तार
                                                                        अनुराग भरा उन्माद राग
                                                                        आँसू लेते वे पथ पखार
                                                                         जो तुम आ जाते एक बार।
वेदना के स्वरों की अमर गायिका महादेवी वर्मा ने हिंदी-साहित्य की जो अनवरत सेवा की है उसका समर्थन दूसरे लेखक भी करते हैं। कवितामय हृदय लेकर और कल्पना के सप्तरंगी आकाश में बैठकर जिस काव्य का उन्होंने सृजन किया, वह हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है।
जीवन के अंतिम समय तक साहित्य-साधना में लीन रहते हुए 80 वर्ष की अवस्था में 11 सितंबर, 1987 को प्रयाग में वेदना की महान कवयित्री महादेवी वर्मा ने अपनी आंखें सदा-सदा के लिए बंद कर ली।
महादेवी वर्मा का साहित्य
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने गीति-काव्य की विशिष्टता बताते हुए कहा है कि “गीति-काव्य उस नई कविता का नाम है, जिसमें प्रकृत्ति के साधारण-असाधारण सब रूपों पर प्रेम-दृष्टि डालकर, उसके रहस्य भरे सच्चे संकेतों को परखकर, भाषा को चित्रमय, सजीव और मार्मिक रूप देकर कविता का एक कृत्रिम, स्वच्छंद मार्ग निकाला गया है। यह सर्वाधिक अन्तर्भाव व्यंजक होता है।”
वेदना, प्रकृति के सुंदर दृश्य चित्र, दिव्य प्रेम, विरह, हर्ष, विषाद, सुख-दुख की अनुभूतियाँ, आत्मा-परमात्मा के मधुर संबंध के साथ ही उनकी कविताओं में संवेदना का प्रबल भाव देखने को मिलता है।


महादेवी जी की गद्य कृतियाँ इस प्रकार हैं :
रेखाचित्र : अतीत के चलचित्र और स्मृति की रेखाएँ
ललित निबंध : क्षणदा
संस्मरण : पथ के साथी और मेरा परिवार और संस्मरण
चुने हुए भाषणों का संकलन : संभाषण
निबंध : श्रृंखला की कड़ियाँ, विवेचनात्मक गद्य, साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध एवं संकल्पिता
संस्मरण, रेखाचित्र और निबंधों का संग्रह : हिमालय
संपादन : चाँद, आधुनिक कवि काव्यमाला आदि।
आलोचना : विभिन्न काव्य संग्रहों की भूमिकाएँ, हिंदी का विवेचनात्मक गद्य।
महादेवी जी ने कोई उपन्यास, कहानी या नाटक नहीं लिखा तो भी उन्होंने जो गद्य लिखा है, वह गद्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। उसमें जीवन का संपूर्ण वैविध्य समाया है। बिना कल्पना का सहारा लिए महादेवी जी ने जो सामाजिक जीवन को छूने वाले गद्य लिखे हैं वे उन्हें पढ़कर ही जाना जा सकता है।
महादेवी जी के जीवन पर महात्मा गाँधी का तथा कला-साहित्य साधना पर रविंद्रनाथ टैगोर का गहरा प्रभाव पड़ा और इसलिए उनके रचित साहित्य में करुणा और भावुकता का गहरा प्रभाव रहा। उनके पात्रों में कथात्मकता से अधिक संवेदनशीलता है और उनकी यही खूबी पाठक को रचना के साथ-साथ चलने पर मजबूर कर देती है।
महादेवी जी की गद्य शैली चित्रात्मक एवं प्रभावपूर्ण है। महादेवी वर्मा जी के गद्य साहित्य में समकालीन समाज का यथार्थ चित्रण देखने को मिलता है। समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं भेदभाव को आईना दिखाते हुए, उनका समाज से परिचय कराया है।
महादेवी वर्मा जी ने गद्य साहित्य में समाज के पिछड़े समाज के पात्रों का भी अत्यंत सजीव एवं मार्मिक चित्रण है। वह पशु पक्षियों से भी बहुत प्रेम करती थी और उनकी रचनाओं में उन्होंने बहुत ही सुंदरता से उन सभी का वर्णन किया है। उन्होंने अपने घर में भी कुत्ते, बिल्ली, गाय, गिलहरी, नेवला आदि को पाला हुआ था।
उन्होंने लिखा है, “मेरे शब्दचित्रों का आरम्भ बहुत गद्यात्मक और बचपन का है। मेरा पशु-पक्षियों का प्रेम तो जन्मजात था, अतः क्रॉस्थवेट गर्ल्स कॉलेज के छात्रावास में मुझे उन्हीं का अभाव कष्ट देता था। हमारे स्कूल के आम के बाग़ में रहने वाली खटकिन ने कुछ मुर्गि़यां पाल रखी थीं। जिनके छोटे बच्चों को मैं प्रतिदिन दाना देती और गिनती थी। एक दिन एक बच्चा कम निकला और पूछने पर ज्ञात हुआ कि हमारी नई अध्यापिका उसे मारकर खाने के लिए ले गई है। अन्त में मेरे रोने-धोने और कुछ न खाने के कारण वह मुझे वापस मिल गया। तब मेरे बालकपन ने सोचा कि सब मुर्गी के बच्चों की पहचान रखी जावे, अन्यथा कोई और उठा ले जाएगा। तब मैंने पंजों का, चोंच का और आंखों का रंग, पंखों की संख्या आदि एक पुस्तिका में लिखी। फिर सबके नाम रखे और प्रतिदिन सबको गिनना आरम्भ किया। इस प्रकार मेरे रेखाचित्रों का आरम्भ हुआ, जो मेरे पशु-पक्षियों के परिवार में पल्लवित हुआ है। फिर एक ऐसे नौकर को देखा जिसे उसकी स्वामिनी ने निकाल दिया था। पर वह बच्चों के प्रेम के कारण कभी बताशे, कभी फल लेकर बाहर बच्चों की प्रतीक्षा में बैठा रहता था। उसे देखकर मुझे अपना बचपन का सेवक रामा याद आ गया और उसका शब्दचित्र लिखा।”
कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि महादेवी वर्मा के बिना आधुनिक हिन्दी साहित्य का उल्लेख हमेशा अधूरा ही होगा और हिन्दी साहित्य जगत में महादेवी जी ध्रुव तारे की भाँति सदा ही चमकती रहेंगी।

 



परीक्षा के एक दिन पूर्व दो मित्रों की बातचीत का संवाद लेखन कीजिए-

संवाद लेखन किसे कहते हैं  संवाद लेखन -  वह लेखनी है जिसमें दो या अधिक व्यक्तियों के बीच होने वाली बातचीत को लिखित रूप में व्यक्त किया जाता ह...