मैथिलीशरण गुप्त का जीवन परिचय और मनुष्यता कविता की सप्रसंग व्याख्या
मैथिलीशरण गुप्त का जीवन परिचय
एक धनी सेठ था जिसका नाम सेठ रामचरण गुप्त था। वह धनी वैश्य परिवार से संबंध रखते थे। वह और उनका परिवार झाँसी जिले के चिरगांव गाँव में रहते थे। उनकी पत्नी का नाम काशीबाई था। वह बेहद समझदार महिला थी। यह दोनों पति-पत्नी वैष्णव धर्म को मानने वाले थे। इन दोनों को 3 अगस्त 1886 को एक तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई। इस बच्चे का नाम मैथिलीशरण रखा गया।
वह बचपन से ही तेज दिमाग वाला बालक था। उसने बचपन से ही कविताएं लिखना शुरू कर दी थी। यह विरासत उसको अपने पिता से मिली थी। मैथिलीशरण के पिता को भी हिंदी साहित्य से बड़ा गहरा लगाव था। बचपन के दिनों में मैथिलीशरण एक आम बच्चे की ही तरह बहुत शरारती था। लेकिन धीरे-धीरे बड़े होने पर वह बहुत समझदार हो गया। मैथिलीशरण के माता-पिता को यह पता नहीं था कि उनका बेटा बड़ा होकर एक महान लेखक बनेगा।
वह बचपन से ही तेज दिमाग वाला बालक था। उसने बचपन से ही कविताएं लिखना शुरू कर दी थी। यह विरासत उसको अपने पिता से मिली थी। मैथिलीशरण के पिता को भी हिंदी साहित्य से बड़ा गहरा लगाव था। बचपन के दिनों में मैथिलीशरण एक आम बच्चे की ही तरह बहुत शरारती था। लेकिन धीरे-धीरे बड़े होने पर वह बहुत समझदार हो गया। मैथिलीशरण के माता-पिता को यह पता नहीं था कि उनका बेटा बड़ा होकर एक महान लेखक बनेगा।
मैथिलीशरण गुप्त की शिक्षा
मैथिलीशरण गुप्त एक विद्यार्थी के रूप में साधारण ही रहे। उनका पढ़ाई के प्रति कोई गहरा लगाव नहीं था। उन्होंने पांचवी कक्षा तक की पढ़ाई अपने चिरगांव गाँव में ही रहकर की। जब आगे की पढ़ाई की बात आई तो उनके पिताजी ने उन्हें झाँसी के मेक्डोनल हाई स्कूल में दाखिला दिलवाया। जब वह कक्षा में होते थे तो पढ़ाई की जगह कहानी और कविताएं लिखने में उनका मन लगता था। उनके शिक्षक उनकी इसी बात से बड़े ही परेशान रहते थे। कविताएं लिखने के अलावा इनको इधर-उधर घूमना बहुत ही पसंद था। वह अपने दोस्तों को भी कविताएं लिखने के लिए प्रेरित किया करते थे। हालांकि 10 -11 साल तक आते आते उन्होंने पढ़ाई ही छोड़ दी। हिन्दी, बंगला, संस्कृत साहित्य पर इनकी अच्छी पकड़ हो गई थी। वह घर पर ही सारे विषयों को पढ़ा करते थे। जब वह 12 साल के हुए तो ब्रजभाषा में कविता भी लिखने लग गए थे। वह अपनी कविताएं सरस्वती मैग्जीन में छपवाने के लिए देते थे।
मैथिलीशरण गुप्त की उपलब्धियां
मैथिलीशरण गुप्त अपने दौर के महान कवि थे। उनकी कलम से शानदार शब्द निकलते थे जो कि भारत के नागरिकों में राष्ट्र प्रेम जगा देते थे। सिर्फ यही नहीं उन्होंने समाज-सुधार, धर्म, राजनीति, भक्ति जैसे विषयों पर भी बहुत अच्छी कविताएं लिखी। 1948 ई॰ में आगरा विश्वविद्यालय और 1958 ई॰ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने मैथिलीशरण गुप्त को डी॰ लिट् की मानद उपाधि प्रदान की थी। इन्होंने राज्यसभा के सदस्य के रूप में पदभार ग्रहण किया। यही नहीं सन् 1954 में उन्हें पद्मभूषण से भी नवाजा गया।
मैथिलीशरण गुप्त के गुरु
मैथिलीशरण गुप्त के गुरु आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी थे। वह एक महान कवि और लेखक थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में खूब कविताएं लिखी। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ही मैथिलीशरण गुप्त को लिखने की प्रेरणा दी थी। मैथिलीशरण गुप्त ने हालांकि बचपन से ही लिखना शुरू कर दिया था पर उनको लिखने की असली प्रेरणा आचार्य महावीर प्रसाद से ही मिली। मैथिलीशरण ने उनको अपना गुरु मान लिया था।
मैथिलीशरण ने उनको अपना आदर्श मान लिया था। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने मैथिलीशरण गुप्त पर बहुत मेहनत की। उन्होंने मैथिलीशरण की कविता लिखने की शैली को और भी ज्यादा निखारा। वह मैथिलीशरण के प्रेरणा स्तोत्र रहे थे। उनके मार्गदर्शन के चलते ही मैथिलीशरण की कविताएं छोटी सी उम्र में ही सरस्वती पत्रिका में छपने लगी थी।
मैथिलीशरण गुप्त एक राष्ट्र भक्ति से ओत-प्रोत कवि और लेखक थे। उनकी भाषा बड़ी ही सुंदर और निर्मल थी। वह अपने पूरे मन से लिखते थे। उनका कविता लिखने का सरल और सीधा स्वभाव लोगों को बहुत ज्यादा पसंद आता था। उनके विचार सीधे दिल से निकलते थे। वह अपनी कविताओं में लोकोक्तियां एवं मुहावरे का बहुत अच्छे से इस्तेमाल करते थे। वह अपनी कविताओं के माध्यम से लोगों में देश प्रेम के बीज़ बो देते थे। वह अपनी रचनाओं में संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू जैसी भाषाओं का अच्छे से इस्तेमाल करते थे।
मनुष्यता कविता का सारांश
इस कविता में कवि मनुष्यता का सही अर्थ समझाने का प्रयास कर रहा है। पहले भाग में कवि कहता है कि मृत्यु से नहीं डरना चाहिए क्योंकि मृत्यु तो निश्चित है पर हमें ऐसा कुछ करना चाहिए कि लोग हमें मृत्यु के बाद भी याद रखें। असली मनुष्य वही है जो दूसरों के लिए जीना व मरना सीख ले। दूसरे भाग में कवि कहता है कि हमें उदार बनना चाहिए क्योंकि उदार मनुष्यों का हर जगह गुण गान होता है। मनुष्य वही कहलाता है जो दूसरों की चिंता करे। तीसरे भाग में कवि कहता है कि पुराणों में उन लोगों के बहुत उदाहरण हैं जिन्हे उनकी त्याग भाव के लिए आज भी याद किया जाता है। सच्चा मनुष्य वही है जो त्याग भाव जान ले। चौथे भाग में कवि कहता है कि मनुष्यों के मन में दया और करुणा का भाव होना चाहिए, मनुष्य वही कहलाता है जो दूसरों के लिए मरता और जीता है। पांचवें भाग में कवि कहना चाहता है कि यहाँ कोई अनाथ नहीं है क्योंकि हम सब उस एक ईश्वर की संतान हैं। हमें भेदभाव से ऊपर उठ कर सोचना चाहिए।छठे भाग में कवि कहना चाहता है कि हमें दयालु बनना चाहिए क्योंकि दयालु और परोपकारी मनुष्यों का देवता भी स्वागत करते हैं। अतः हमें दूसरों का परोपकार व कल्याण करना चाहिए।सातवें भाग में कवि कहता है कि मनुष्यों के बाहरी कर्म अलग अलग हो परन्तु हमारे वेद साक्षी है की सभी की आत्मा एक है ,हम सब एक ही ईश्वर की संतान है अतः सभी मनुष्य भाई -बंधु हैं और मनुष्य वही है जो दुःख में दूसरे मनुष्यों के काम आये।अंतिम भाग में कवि कहना चाहता है कि विपत्ति और विघ्न को हटाते हुए मनुष्य को अपने चुने हुए रास्तों पर चलना चाहिए ,आपसी समझ को बनाये रखना चाहिए और भेदभाव को नहीं बढ़ाना चाहिए ऐसी सोच वाला मनुष्य ही अपना और दूसरों का कल्याण और उद्धार कर सकता है।
1.
विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,
मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी।
हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,
मारा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।
वही पशु- प्रवृति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,
मरो, परंतु यों मरो कि याद जो करें सभी।
हुई न यों सुमृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,
मारा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए।
वही पशु- प्रवृति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
प्रसंग -: प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई है। इसके कवि मैथिलीशरण गुप्त हैं। इन पंक्तिओं में कवि बताना चाहता है कि मनुष्यों को कैसा जीवन जीना चाहिए।
व्याख्या -: कवि कहता है कि हमें यह जान लेना चाहिए कि मृत्यु का होना निश्चित है, हमें मृत्यु से नहीं डरना चाहिए। कवि कहता है कि हमें कुछ ऐसा करना चाहिए कि लोग हमें मरने के बाद भी याद रखे। जो मनुष्य दूसरों के लिए कुछ भी ना कर सकें, उनका जीना और मरना दोनों बेकार है । मर कर भी वह मनुष्य कभी नहीं मरता जो अपने लिए नहीं दूसरों के लिए जीता है, क्योंकि अपने लिए तो जानवर भी जीते हैं। कवि के अनुसार मनुष्य वही है जो दूसरे मनुष्यों के लिए मरे अर्थात जो मनुष्य दूसरों की चिंता करे वही असली मनुष्य कहलाता है।
2.
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
प्रसंग -: प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई है। इसके कवि मैथिलीशरण गुप्त हैं। इन पंक्तिओं में कवि बताना चाहता है कि जो मनुष्य दूसरों के लिए जीते हैं उनका गुणगान युगों – युगों तक किया जाता है।
व्याख्या -: कवि कहता है कि जो मनुष्य अपने पूरे जीवन में दूसरों की चिंता करता है उस महान व्यक्ति की कथा का गुण गान सरस्वती अर्थात पुस्तकों में किया जाता है। पूरी धरती उस महान व्यक्ति की आभारी रहती है। उस व्यक्ति की बातचीत हमेशा जीवित व्यक्ति की तरह की जाती है और पूरी सृष्टि उसकी पूजा करती है। कवि कहता है कि जो व्यक्ति पुरे संसार को अखण्ड भाव और भाईचारे की भावना में बाँधता है वह व्यक्ति सही मायने में मनुष्य कहलाने योग्य होता है।
3.
क्षुधार्त रंतिदेव ने दिया करस्थ थाल भी,
तथा दधीचि ने दिया परार्थ अस्थिजाल भी।
उशीनर क्षितीश ने स्वमांस दान भी किया,
सहर्ष वीर कर्ण ने शरीर-चर्म भी दिया।
अनित्य देह के लिए अनादि जीव क्या डरे?
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
प्रसंग -: प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई है। इसके कवि मैथिलीशरण गुप्त हैं। इन पंक्तिओं में कवि ने महान पुरुषों के उदाहरण दिए हैं जिनकी महानता के कारण उन्हें याद किया जाता है।
व्याख्या -: कवि कहता है कि पौराणिक कथाएं ऐसे व्यक्तिओं के उदाहरणों से भरी पड़ी हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन दूसरों के लिए त्याग दिया जिस कारण उन्हें आज तक याद किया जाता है। भूख से परेशान रतिदेव ने अपने हाथ की आखरी थाली भी दान कर दी थी और महर्षि दधीचि ने तो अपने पूरे शरीर की हड्डियाँ वज्र बनाने के लिए दान कर दी थी। उशीनर देश के राजा शिबि ने कबूतर की जान बचाने के लिए अपना पूरा मांस दान कर दिया था। वीर कर्ण ने अपनी ख़ुशी से अपने शरीर का कवच दान कर दिया था। कवि कहना चाहता है कि मनुष्य इस नश्वर शरीर के लिए क्यों डरता है क्योंकि मनुष्य वही कहलाता है जो दूसरों के लिए अपने आप को त्याग देता है।
4.
सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है यही;
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
विरुद्धभाव बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
विनीत लोकवर्ग क्या न सामने झुका रहा ?
अहा ! वही उदार है परोपकार जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
प्रसंग -: प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई है। इसके कवि मैथिलीशरण गुप्त हैं। इन पंक्तिओं में कवि ने महात्मा बुद्ध का उदाहरण देते हुए दया ,करुणा को सबसे बड़ा धन बताया है।
व्याख्या -: कवि कहता है कि मनुष्यों के मन में दया व करुणा का भाव होना चाहिए ,यही सबसे बड़ा धन है। स्वयं ईश्वर भी ऐसे लोगों के साथ रहते हैं । इसका सबसे बड़ा उदाहरण महात्मा बुद्ध हैं जिनसे लोगों का दुःख नहीं देखा गया तो वे लोक कल्याण के लिए दुनिया के नियमों के विरुद्ध चले गए। इसके लिए क्या पूरा संसार उनके सामने नहीं झुकता अर्थात उनके दया भाव व परोपकार के कारण आज भी उनको याद किया जाता है और उनकी पूजा की जाती है। महान उस को कहा जाता है जो परोपकार करता है वही मनुष्य ,मनुष्य कहलाता है जो मनुष्यों के लिए जीता है और मरता है।
5.
रहो न भूल के कभी मदांघ तुच्छ वित्त में,
सनाथ जान आपको करो न गर्व चित्त में।
अनाथ कौन है यहाँ ? त्रिलोकनाथ साथ हैं,
दयालु दीन बन्धु के बड़े विशाल हाथ हैं।
अतीव भाग्यहीन है अधीर भाव जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
प्रसंग -: प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई है। इसके कवि मैथिलीशरण गुप्त हैं। इन पंक्तिओं में कवि कहता है कि सम्पति पर कभी घमण्ड नहीं करना चाहिए और किसी को अनाथ नहीं समझना चाहिए क्योंकि ईश्वर सबके साथ हैं।
व्याख्या -: कवि कहता है कि भूल कर भी कभी संपत्ति या यश पर घमंड नहीं करना चाहिए। इस बात पर कभी गर्व नहीं करना चाहिए कि हमारे साथ हमारे अपनों का साथ है क्योंकि कवि कहता है कि यहाँ कौन सा व्यक्ति अनाथ है ,उस ईश्वर का साथ सब के साथ है। वह बहुत दयावान है उसका हाथ सबके ऊपर रहता है। कवि कहता है कि वह व्यक्ति भाग्यहीन है जो इस प्रकार का उतावलापन रखता है क्योंकि मनुष्य वही व्यक्ति कहलाता है जो इन सब चीजों से ऊपर उठ कर सोचता है।
6.
अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े,
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े।
परस्परावलंब से उठो तथा बढ़ो सभी,
अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
रहो न यां कि एक से न काम और का सरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
प्रसंग -: प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई है। इसके कवि मैथिलीशरण गुप्त हैं। इन पंक्तिओं में कवि कहता है कि कलंक रहित रहने व दूसरों का सहारा बनने वाले मवषयों का देवता भी स्वागत करते हैं।
व्याख्या -: कवि कहता है कि उस कभी न समाप्त होने वाले आकाश में असंख्य देवता खड़े हैं, जो परोपकारी व दयालु मनुष्यों का सामने से खड़े होकर अपनी भुजाओं को फैलाकर स्वागत करते हैं। इसलिए दूसरों का सहारा बनो और सभी को साथ में लेकर आगे बड़ो। कवि कहता है कि सभी कलंक रहित हो कर देवताओं की गोद में बैठो अर्थात यदि कोई बुरा काम नहीं करोगे तो देवता तुम्हे अपनी गोद में ले लेंगे। अपने मतलब के लिए नहीं जीना चाहिए अपना और दूसरों का कल्याण व उद्धार करना चाहिए क्योंकि इस मरणशील संसार में मनुष्य वही है जो मनुष्यों का कल्याण करे व परोपकार करे।
7.
‘मनुष्य मात्रा बन्धु हैं’ यही बड़ा विवेक है,
पुराणपुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं,
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
अनर्थ है कि बन्धु ही न बन्धु की व्यथा हरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
प्रसंग -: प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई है। इसके कवि मैथिलीशरण गुप्त हैं। इन पंक्तिओं में कवि कहता है कि हम सब एक ईश्वर की संतान हैं। अतः हम सभी मनुष्य एक – दूसरे के भाई – बन्धु हैं।
व्याख्या -: कवि कहता है कि प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे के भाई – बन्धु हैं ।यह सबसे बड़ी समझ है। पुराणों में जिसे स्वयं उत्पन्न पुरुष मना गया है, वह परमात्मा या ईश्वर हम सभी का पिता है, अर्थात सभी मनुष्य उस एक ईश्वर की संतान हैं। बाहरी कारणों के फल अनुसार प्रत्येक मनुष्य के कर्म भले ही अलग अलग हों परन्तु हमारे वेद इस बात के साक्षी है कि सभी की आत्मा एक है। कवि कहता है कि यदि भाई ही भाई के दुःख व कष्टों का नाश नहीं करेगा तो उसका जीना व्यर्थ है क्योंकि मनुष्य वही कहलाता है जो बुरे समय में दूसरे मनुष्यों के काम आता है।
8.
चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति,विघ्न जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
घटे न हेलमेल हाँ, बढ़े न भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
प्रसंग -: प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई है। इसके कवि मैथिलीशरण गुप्त हैं। इन पंक्तिओं में कवि कहता है कि यदि हम ख़ुशी से,सारे कष्टों को हटते हुए ,भेदभाव रहित रहेंगे तभी संभव है की समाज की उन्नति होगी।
व्याख्या -: कवि कहता है कि मनुष्यों को अपनी इच्छा से चुने हुए मार्ग में ख़ुशी ख़ुशी चलना चाहिए,रास्ते में कोई भी संकट या बाधाएं आये, उन्हें हटाते चले जाना चाहिए। मनुष्यों को यह ध्यान रखना चाहिए कि आपसी समझ न बिगड़े और भेद भाव न बड़े। बिना किसी तर्क वितर्क के सभी को एक साथ ले कर आगे बढ़ना चाहिए तभी यह संभव होगा कि मनुष्य दूसरों की उन्नति और कल्याण के साथ अपनी समृद्धि भी कायम करे
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