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रघुवीर सहाय का जीवन परिचय और उनकी कविता ‘कैमरे में बंद अपाहिज’ कि व्याख्या

रघुवीर सहाय का परिचय
जन्म: 9 दिसंबर 1929 लखनऊ उत्तर प्रदेश।
निधन: 30 दिसंबर 1990
नई दिल्ली


नई कविता के प्रखर स्वर रघुवीर सहाय का जन्म 9 दिसंबर 1929 को लखनऊ में हुआ। आरंभिक शिक्षा-दीक्षा के बाद परास्नातक अँग्रेज़ी साहित्य में लखनऊ विश्वविद्यालय से किया। आकाशवाणी, नवभारत टाइम्स, दिनमान, प्रतीक, कल्पना, वाक् आदि पत्र-पत्रिकाओं के साथ पत्रकारिता, साहित्यिक पत्रकारिता और संपादन से संबंध रहा।

कविताओं में उनका प्रवेश ‘दूसरा सप्तक’ के साथ हुआ। वह समकालीन हिंदी कविता के संवेदनशील ‘नागर’ चेहरा कहे जाते हैं। उनका सौंदर्यशास्त्र ख़बरों का सौंदर्यशास्त्र है। उनकी भाषा ख़बरों की भाषा है और उनकी अधिकांश कविताओं की विषयवस्तु ख़बरधर्मी है। ख़बरों की यह भाषा कविता में उतरकर भी निरावरण और टूक बनी रहती है। इसमें वक्तव्य है, विवरण है, संक्षेप-सार है। उसमें प्रतीकों और बिंबों का उलझाव नहीं है। ख़बर में घटना और पाठक के बीच भाषा जितनी पारदर्शी होगी, ख़बर की संप्रेषणीयता उतनी ही बढ़ेगी। वह इसलिए कविता की एक पारदर्शी भाषा लेकर आते हैं। वह अपनी कविताओं की जड़ों को समकालीन यथार्थ में रखते हैं, जैसा उन्होंने ‘दूसरा सप्तक’ के अपने वक्तव्य में कहा था कि ‘विचारवस्तु का कविता में ख़ून कि तरह दौड़ते रहना कविता को जीवन और शक्ति देता है, और यह तभी संभव है जब हमारी कविता की जड़ें यथार्थ में हों।’ इस यथार्थ के विविध आयाम के अनुसरण में उनकी कविताएँ बहुआयामी बनती जाती हैं और इनकी प्रासंगिकता कभी कम नहीं होती। उन्होंने सड़क, चौराहा, दफ़्तर, अख़बार, संसद, बस, रेल और बाज़ार की बेलौस भाषा में कविताएँ लिखी। रोज़मर्रा की तमाम ख़बरें उनकी कविताओं में उतरकर सनसनीख़ेज़ रपटें नहीं रह जाती, आत्म-अन्वेषण का माध्यम बन जाती हैं।   


कविताओं के अलावे उन्होंने कहानी, निबंध और अनुवाद विधा में महती योगदान किया है। उनकी पत्रकारिता पर अलग से बात करने का चलन बढ़ा है।        

दूसरा सप्तक (1951), सीढ़ियों पर धूप में (1960), आत्महत्या के विरुद्ध (1967), हँसो, हँसो जल्दी हँसो (1975), लोग भूल गए हैं (1982) और कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ (1989), एक समय था (1994) उनके प्रमुख काव्य-संग्रह हैं। सीढ़ियों पर धूप में (1960), रास्ता इधर से है (1972) और जो आदमी हम बना रहे हैं (1983) संग्रहों में उनकी कहानियाँ संकलित हैं। दिल्ली मेरा परदेस (1976), लिखने का कारण (1978), ऊबे हुए सुखी और वे और नहीं होंगे जो मारे जाएँगे; भँवर लहरें और तरंग (1983) उनके निबंध-संग्रह हैं। रघुवीर सहाय रचनावली (2000) के छह खंडों में उनकी सभी कृतियों को संकलित किया गया है। 

कैमरे में बंद अपाहिज’ कविता का सार

कैमरे में बंद अपाहिज” कविता के कवि ‘रघुवीर सहाय जी’ हैं। “कैमरे में बंद अपाहिज” कविता को उनके काव्य संग्रह “लोग भूल गए हैं” से लिया गया है। यह एक व्यंग्यात्मक कविता है। दूरदर्शन के संचालक जिस तरीके से अपाहिज लोगों से बार-बार बेतुके प्रश्न करके उनके दुख का मजाक उड़ाते हैं। यह कविता इन्हीं सब बातों को दर्शाती है। इस कविता के माध्यम से कवि ने यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि एक कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए और उससे लाभ कमाने के लिए मीडिया किसी भी हद तक जा सकती हैं। मीडिया वाले दूसरों के दुख को अपने व्यापार का माध्यम बनाने से बिलकुल नहीं कतराते, उन्हें सिर्फ पैसे कमाने से मतलब होता है और इसी बात पर व्यंग्य कसते हुए कवि ने इस कविता को लिखा है। दूरदर्शन के कार्यक्रम के संचालक अपने आप को बहुत सक्षम और शक्तिशाली समझता है। इसीलिए दूरदर्शन के स्टूडियो के एक बंद कमरे में उस साक्षात्कार में उस अपाहिज व्यक्ति से बहुत ही बेतुके प्रश्न पूछे जाते हैं जैसे “क्या वह अपाहिज हैं?” “यदि हाँ तो वह क्यों अपाहिज हैं?” “उसका अपाहिजपन तो उसे दु:ख देता होगा?”। इन बेतुके सवालों का वह व्यक्ति कोई जवाब नहीं दे पायेगा क्योंकि उसका मन पहले से ही इन सबसे दुखी होगा और इन सवालों को सुनकर वह और अधिक दुखी हो जायेगा। कार्यक्रम का संचालक को उस अपाहिज व्यक्ति के दुःख व् दर्द से कोई मतलब नहीं है वह केवल अपना फायदा देख  रहा है। उस अपंग व्यक्ति के चेहरे व आँखों में पीड़ा को साफ़-साफ़ देखने के बाबजूद भी उससे और बेतुका सवाल पूछा जाएगा कि “वह  कैमर पर बताए कि उसका दु:ख क्या है?” ऐसे प्रश्न विकलांग लोगों को और भी कमजोर बना देते हैं। मीडिया के अधिकारी इतने क्रूर होते हैं कि वह जानबूझकर अपाहिज लोगों से बेतुके सवाल पूछते हैं ताकि वे सवालों का उत्तर ही ना दे पाए। आप सोच कर देखिए कि उस व्यक्ति को कैसा लग रहा होगा जिससे पूछा जा रहा हो कि उसे अपाहिज होकर कैसा लग रहा है। जब वह अपाहिज व्यक्ति नहीं रोता हैं तो संचालक कैमर मैन से कैमर बंद करने को कहता है क्योंकि वह उस अपाहिज व्यक्ति को रुलाने में नाकामयाब रहा और कैमरा बंद होने से पहले वह यह घोषणा करता हैं कि आप सभी दर्शक समाज के जिस उद्देश्य के लिए यह कार्यक्रम देख रहे थे वह कार्यक्रम अब समाप्त हो चुका है। लेकिन संचालक को ऐसा लगता हैं कि थोड़ी सी कसर रह गई थी वरना उसने उस व्यक्ति को लगभग रुला ही दिया था। कहने का अभिप्राय यह है कि मीडिया अपना टीआरपी बढ़ाने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।

कैमरे में बंद अपाहिज’ कविता की व्याख्या

 

काव्यांश 1 –

हम दूरदर्शन पर बोलेंगे

हम समर्थ शक्तिवान
हम एक दुर्बल को लाएँगे
एक बंद कमरे में
उससे पूछेंगे तो आप क्या अपाहिज हैं?
तो आप क्यों अपाहिज हैं?
आपका अपाहिजपन तो दु:ख देता होगा
देता है?
कैमर दिखाओ इसे बड़ा-बड़ा)
हाँ तो बताइए आपका दु:ख क्या है
जल्दी बताइए वह दु:ख बताइए
बता नहीं पाएगा।


व्याख्या  प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘आरोह’ कविता ‘कैमरे में बंद अपाहिज’ से ली गई हैं। मीडिया वाले दूसरों के दुख को अपने व्यापार का माध्यम बनाने से बिलकुल नहीं कतराते, उन्हें सिर्फ पैसे कमाने से मतलब होता है और इसी बात पर व्यंग्य कसते हुए कवि ने इस कविता को लिखा है। उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि दूरदर्शन के कार्यक्रम के संचालक अपने आप को बहुत सक्षम और शक्तिशाली समझता है। इसीलिए वह अपने दर्शकों से कहता है कि वह उनके लिए एक व्यक्ति को दूरदर्शन के स्टूडियो के एक बंद कमरे में लाएंगें और उससे प्रश्न पूछेंगे? कहने का तात्पर्य यह है कि दूरदर्शन के कार्यक्रम के संचालक असल में अपनी लोकप्रियता और व्यापार को बढ़ाने के लिए एक अपाहिज व्यक्ति का साक्षात्कार दर्शकों को दिखाना चाह रहे हैं।
दूरदर्शन के स्टूडियो के एक बंद कमरे में उस साक्षात्कार में उस अपाहिज व्यक्ति से बहुत ही बेतुके प्रश्न पूछे जाते हैं जैसे “क्या वह अपाहिज हैं?” “यदि हाँ तो वह क्यों अपाहिज हैं?” “उसका अपाहिजपन तो उसे दु:ख देता होगा?”। इन बेतुके सवालों का वह व्यक्ति कोई जवाब नहीं दे पायेगा क्योंकि उसका मन पहले से ही इन सबसे दुखी होगा और इन सवालों को सुनकर वह और अधिक दुखी हो जायेगा। उसके चेहरे पर उसकी लाचारी व दर्द को दर्शकों को दिखाने के लिए कार्यक्रम का संचालक कैमरामैन से कहेगा कि इसे बड़ा कर के दर्शकों को दिखाओ। कहने का अभिप्राय यह है कि कार्यक्रम का संचालक को उस अपाहिज व्यक्ति के दुःख व् दर्द से कोई मतलब नहीं है वह केवल अपना फायदा देख रहा है। उस अपंग व्यक्ति के चेहरे व आँखों में पीड़ा को साफ़-साफ़ देखने के बाबजूद भी उससे और बेतुका सवाल पूछा जाएगा कि “वह कैमर पर बताए कि उसका दु:ख क्या है?” उससे जल्दी कहने के लिए कहा जाएगा कि “वह जल्दी बताए कि उसका दु:ख क्या है?” कहने का अभिप्राय यह है कि टेलीविजन वालों के पास हर कार्यक्रम के लिए एक निश्चित समय होता हैं। उन्हें किसी के दुःख से कोई मतलब नहीं होता। इसी कारण वे उस अपाहिज व्यक्ति से उसका दुःख जल्दी-जल्दी बताने के लिए कहते हैं क्योंकि उनके पास सीमित समय हैं। परन्तु वह अपंग व्यक्ति इन बेतुके प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं बता पाएगा।


काव्यांश 2-

सोचिए
बताइए
आपको अपाहिज होकर कैसा लगता है
कैसा
यानी कैसा लगता है
(
हम खुद इशारे से बताएँगे कि क्या ऐसा ? )
सोचिए
बताइए
थोड़ी कोशिश करिए
(
यह अवसर खो देंगे ? )
आप जानते हैं कि कार्यक्रम रोचक बनाने के वास्ते
हम पूछ-पूछकर उसको रुला देंगे
इंतजार करते हैं आप भी उसके रो पड़ने का
करते हैं ?
(
यह प्रश्न नही पूछा जायेगा )

व्याख्या  उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि कार्यक्रम का संचालक उस अपाहिज व्यक्ति से फिर से सवाल करता हैं कि वह सोचे और बताए कि उसको अपाहिज होकर कैसा महसूस होता है। कहने का आशय यह है कि मीडिया के अधिकारी इतने क्रूर होते हैं कि वह जानबूझकर अपाहिज लोगों से बेतुके सवाल पूछते हैं ताकि वे सवालों का उत्तर ही ना दे पाए। आप सोच कर देखिए कि उस व्यक्ति को कैसा लग रहा होगा जिससे पूछा जा रहा हो कि उसे अपाहिज होकर कैसा लग रहा है। संचालक उस व्यक्ति को और अधिक जोर देकर पूछता है कि वह आखिर कैसा महसूस करता है? मिडिया के अमानवीय व्यवहार का अंदाजा यहीं से लगाया जा सकता है कि कार्यक्रम का संचालक उस अपाहिज व्यक्ति से कहता है कि वह इशारा करके उसे बताएगा कि उसे अपने आप को दर्शकों के सामने कैसा दिखाना हैं कि वह आखिर कैसा महसूस करता है। संचालक अपाहिज व्यक्ति को उत्तर देने के लिए उकसाते हुए फिर से पूछता है कि वह थोड़ी कोशिश करके सोच कर बताए कि वह कैसा महसूस करता है? कहने का अभिप्राय यह है कि संचालक चाहता है कि वह अपाहिज व्यक्ति कैमर के सामने वैसा ही व्यवहार करके दिखाए जैसा उसने उससे कहा है। ताकि उसके दर्शक अपनी दिलचस्पी उसके साथ बनाए रखें।
आगे संचालक अपाहिज व्यक्ति को उकसाता हुआ कहता है कि इस वक्त वो नही बोलेगा तो अपना दुःख दुनिया के समक्ष रखने का सुनहरा अवसर उसके हाथ से निकल जाएगा। वह उसे समझा रहा है कि अपनी अपंगता व अपने दुख को दुनिया के सामने लाने का इससे बेहतर मौका उसे नहीं मिल सकता है। कवि कहते है कि उस अपाहिज व्यक्ति से उसकी शाररिक दुर्बलता से सम्बंधित प्रश्न पूछ-पूछ कर, उसे बार-बार उसकी अपंगता का एहसास दिलाकर उसे रोने के लिए मजबूर कर दिया जाएगा। और दर्शक भी उसके रोने का ही इंतजार कर रहे होंगे क्योंकि कार्यक्रम का संचालक यही तो चाहता हैं कि वह रोये , अपना दुःख लोगों के सामने प्रदर्शित करे ताकि उसका कार्यक्रम और अधिक रोचक बन सके, सफल हो सके। और दर्शकों से कोई यह प्रश्न नहीं पूछेगा कि वे क्यों उस अपाहिज व्यक्ति के रोने का इन्तजार कर रहे थे।

 

काव्यांश 3 –

फिर हम परदे पर दिखलाएंगे
फूली हुई आँख की एक बड़ी तसवीर
बहुत बड़ी तसवीर
और उसके होंठों पर एक कसमसाहट भी
(
आशा हैं आप उसे उसकी अपंगता की पीड़ा मानेंगे )
एक और कोशिश
दर्शक
धीरज रखिए
देखिए
हमें दोनों एक संग रुलाने हैं
आप और वह दोनों
(कैमरा
बस करो
नहीं हुआ
रहने दो
परदे पर वक्त की कीमत है )
अब मुसकुराएँगे हम
आप देख रहे थे सामाजिक उद्देश्य से युक्त कार्यक्रम
बस थोड़ी ही कसर रह गई। 


व्याख्या  उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि कार्यक्रम के संचालक ने सारी हदे पार करते हुए उस अपाहिज व्यक्ति से तरह-तरह के प्रश्न पूछ कर उसे रुलाने का प्रयास कर रहा था ताकि उस अपाहिज व्यक्ति का दर्द और बैचैनी उसकी आंखों व उसके होठों पर दिखाई पड़े और फिर कार्यक्रम का संचालक उस अपंग व्यक्ति की फूली हुई आंखों व उसके होठों की बैचेनी की बड़ी-बड़ी तस्वीर को टेलीविजन के पर्दे पर बड़ा करके दर्शकों को दिखा सके और फिर दर्शकों से कह सके कि इसी दर्द और बैचैनी को वे उस अपाहिज व्यक्ति की पीड़ा समझें। कहने का आशय यह है कि जब कार्यक्रम का संचालक उस अपाहिज व्यक्ति को रुलाने में नाकामयाब हो गया तब उस अपाहिज व्यक्ति की दर्द भरी आँखों और बैचैनी भरे होंठों को ही बड़ा करके पर्दे पर दिखाकर दर्शकों को भावुक करने का प्रयास कर रहा हैं।
कवि आगे कहते हैं कि उस अपाहिज व्यक्ति को रुलाने की एक और कोशिश करते हुए कार्यक्रम का संचालक दर्शकों से कहता हैं कि आप लोग धीरज बनाए रखिए। देखिए उनका कार्यक्रम दोनों को एक साथ रुलाने वाला हैं यानि उस अपाहिज व्यक्ति को और दर्शकों को।
लेकिन कार्यक्रम के संचालक के अनेक प्रयास करने के बाद भी जब वह अपाहिज व्यक्ति नहीं रोता हैं तो संचालक कैमरा मैन से कैमरा बंद करने को कहता है क्योंकि वह उस अपाहिज व्यक्ति को रुलाने में नाकामयाब रहा और साथ ही साथ वह उस अपाहिज व्यक्ति को पर्दे पर वक्त की कीमत का एहसास भी करा देते है कि उस व्यक्ति को अपनी पीड़ा एक निर्धारित समय के अंदर ही व्यक्त करनी थी। और कैमरा बंद होने से पहले वह यह घोषणा करता हैं कि आप सभी दर्शक समाज के जिस उद्देश्य के लिए यह कार्यक्रम देख रहे थे वह कार्यक्रम अब समाप्त हो चुका है। लेकिन संचालक को ऐसा लगता हैं कि थोड़ी सी कसर रह गई थी वरना उसने उस व्यक्ति को लगभग रुला ही दिया था। कहने का अभिप्राय यह है कि मीडिया अपना टीआरपी बढ़ाने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।

 

 


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