प्रेमचन्द के कथा साहित्य की प्रासंगिकता
भारतवर्ष पर दो व्यक्तित्व का गहरा प्रभाव रहा है, प्रथम गाँधी का दूसरा साहित्यकार प्रेमचंद का। ये दोनों दो अलग-अलग क्षेत्र् के सरताज होते हुए भी एक दूसरे से जुडे हुए रहे हैं। गाँधी को यह देश राष्ट्रपिता कहता है, तो प्रेमचन्द को ‘उपन्यास सम्राट’ कह कर सम्मानित करता है। गाँधी का महत्त्व इस देश की राजनीति पर जितना रहा है, उससे अधिक सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक परिवेश पर भी पडता है। इस अर्थ में प्रेमचन्द के कथा साहित्य पर गाँधीवाद का प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता है। हिन्दी साहित्य पर प्रेमचन्द का वैसा ही प्रभाव रहा है जिस तरह से उस दौर में गाँधी का रहा है। प्रेमचन्द ने हिन्दी कथा साहित्य को निश्चित दिशा दी है। प्रेमचन्द आज भी उतने ही प्रासंगिक है जितने अपने दौर में रहे हैं, बल्कि किसान जीवन की उनकी पकड और समझ को देखते हुए उनकी प्रासंगिकता और अधिक बढ जाती है। किसान की दृष्टि से उनकी पकड और समझ को देखते हुए उनकी प्रासंगिकता और अधिक बढ जाती है। किसान की दृष्टि से अगर प्रेमचन्द के कथा साहित्य को यदि पुनः देखा जाए तो कई अर्थों में प्रेमचन्द गाँधी से भी आगे की सोच रखते हुए दिखाई देते हैं। किसान जीवन के यथार्थवादी चित्र्ण में प्रेमचन्द हिन्दी साहित्य में अनूठे और लाजवाब रचनाकार रहे हैं।
प्रेमचंद की आलोचनात्मक पडताल करने वाले नंद दुलारे वाजपेयी भी जब उनके कथा साहित्य के महत्त्व पर विचार करते हैं, तब वे उनकी तुलना तोल्सतोय से करते हुए नजर आते हैं तो आज के रचनाकार रमेश उपाध्याय, प्रेमचन्द को अपने लिए प्रेरक मानते हैं। असगर वजाहत हो या अखिलेश ‘कफन’ कहानी को महत्त्वपूर्ण बताते हैं तो ममता कालिया आज के संदर्भ में ‘सवा सेर गेहूँ’ को महत्त्वपूर्ण मानती हैं।’सारे विवादों, असहमतियों के बावजूद रचनाकार कुछ कारणों से कालातीत होता है, तभी तुलसीदास, कबीरदास और प्रेमचन्द आज भी हमें प्रासंगिक लगते हैं। गहरी अंतर्दृष्टि के जरिए वे सामाजिक व्यवस्था को चित्र्ति करने में सिद्धहस्त रहे हैं। प्रेमचन्द हमें आज और अधिक प्रासंगिक किसान जीवन के संदर्भ में भी लगते हैं। प्रेमचन्द का जितना विरोध आज हो रहा है उससे अधिक अपने जीवन काल में भी हुआ था। उन्हें गाँधीवादी, आदर्शवादी और माक्र्सवादी कहा जाता रहा है, जबकि वे सही अर्थों में देखा जाए तो किसान जीवन के चितेरे होने के कारण आज भी हमें उतने ही नवीन लगते हैं, जितने कल थे।
प्रेमचन्द का कथा साहित्य जितना समकालीन परिस्थितियों पर खरा उतरता है,उतना ही बहुत हद तक आज भी दिखाई देता है। भले ही देश आजाद है पर महिलाओं, दलितों और किसानों की स्थितियों में बहुत कुछ वैसा ही अन्याय और शोषण दिखाई देता है। उनकी रचनाओं में गरीब श्रमिक, किसान और स्त्री जीवन का सशक्त चित्र्ण उनकी दर्जनों कहानियों और उपन्यासों में हुआ है, ‘सद्गति’, ‘कफन’, ‘पूस की रात’ और ‘गोदान’ में मिलता है। ‘रंगभूमि’, ‘प्रेमाश्रम’ और ‘गोदान’ के किसान आज भी गाँवों में देखे जा सकते हैं जो वैसे ही ऋणग्रस्त और शोषण का शिकार जिस तरह होरी रहा है। जो गाय जैसी महत्त्वाकांक्षा को साथ लिये हुए इस दुनिया से कूच कर जाते हैं। ‘सेवासदन’ की सुमन की तरह कोठे पर बैठने का सिलसिला आज भी बंद नहीं हुआ है। ‘गबन’ उपन्यास का रमानाथ हैसियत से अधिक दिखने की लालसा में सरकारी धन का घपला करता है। प्रेमचन्द के कथा साहित्य में भारतीय समाज के सभी वर्गों, भारतीय जीवन के सभी पक्षों और भारतीय मनुष्य के सभी रूपों का चित्र्ण किया है। उतना दूसरे किसी भारतीय लेखक में शायद ही मिले। उनका रचनात्मक संदर्भ यूरोपीय उपन्यासों से भी भिन्न रहा है।
प्रेमचन्द जिस दौर में रचनारत थे, उस समय विश्व स्तर पर लू-शुन और मैक्सिम गोर्की भी लेखनी चला रहे थे। इनके अलावा सम्पन्न देशों में साहित्य की स्थिति को कॉडवेल के शब्दों में, ‘मरणासन्न संस्कृति ही कही जा सकती है।’ उस समय प्रेमचन्द गुलामी से लडती जनता को अभिव्यक्त कर रहे थे तो चीन के लू-शुन भी। ये दोनों अपनी मुक्ति, राष्ट्रीय मुक्ति और संघर्षरत जनता के लेखक रहे हैं। लेकिन लू-शुन केवल कहानियाँ ही लिखते हैं, प्रेमचन्द कहानियों के अलावा उपन्यास भी लिखते हैं। तब जब दुनिया में उपन्यास मर रहा था ऐसे दौर में प्रेमचन्द ने कथा साहित्य के इस रूप को अपनी ऊँचाई तक पहुँचाकर ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि हासिल की हैं। बंगाल के शरतचन्द्र और रवीन्द्रनाथ के ‘गोरा’, ‘श्रीकांत’ की तुलना प्रेमचन्द के ‘प्रेमाश्रम’ और ‘गोदान’ से करने पर वे अनूठे रचनाकार नजर आते हैं। प्रेमचन्द देश की विशाल जनता, खेतिहर देश के श्रमिक और किसानों की महागाथा लिखने वाले भारतीय साहित्यकार रहे हैं। प्रेमचन्द के कई प्रेरक रहे हैं। उन पर तोल्सताय का प्रभाव किसान जीवन पर लिखने से रहा है। आश्चर्य है कि तोल्सताय का लेखन जहाँ रूकता है, वहाँ से प्रेमचन्द शुरुआत करते हुए लगते हैं। लेकिन दोनों में बहुत बडा अंतर भी दिखाई देता है, तोल्सताय अंतर्विरोधग्रस्त लगते हैं, प्रेमचन्द नहीं। वे अंतिम समय में चर्च के पादरी अधिक लगने लगते हैं। प्रेमचन्द भले ही आर्य समाज से शुरुआत करते हैं पर लगातार क्रांति की दिशा में अग्रसर होते हैं। गोर्की भी अंतिम समय में ईश्वर की तलाश में भटकते नजर आते हैं। ‘प्रेमचन्द कभी भी ईश्वर से इतने परेशान नहीं थे, जितने गोर्की रहे होंगे।’
प्रेमचन्द के कथा साहित्य की प्रासंगिकता को कई तरह से देखा जा सकता है। इस अर्थ में प्रेमचन्द हमारे लिए चुनौती है कि हम उन्हें कितना कम जानते हैं। रमेश उपाध्याय लिखते हैं कि जब भी मैं उनको पढता हूँ, वे आज भी उतने ही नये लगते हैं। कमलकिशोर गोयनका उनको चुनौती देते हैं जो मानकर चलते हैं कि प्रेमचन्द पर बहुत काम हो चुका है। वे आज भी इस लेखक पर कई तरह से काम करने की जरूरत महसूस करते हैं। अभी भी प्रेमचन्द की रचनाओं की समग्र कालक्रमानुसार सूची नहीं बन सकी है। इस कमी के कारण गलत तथ्य, गलत निष्कर्ष दिये जाते हैं। नन्द दुलारे वाजपेयी, डॉ. मदान और रामविलास शर्मा तक के यहाँ भी गलत तिथियाँ देखी गई है।प्रेमचन्द पर गाँधीवादी प्रभाव को लेकर असमंजस, अंतविर्रोध और अस्पष्टता का कोहरा आज भी पूरी तरह से छंट नहीं सका है। प्रेमचन्द पर गाँधीवाद का प्रभाव आज तक चर्चा में है।
देश की राजनीति पर एक मात्र् गाँधी का वर्चस्व था। गाँधी ने आजादी की लडाई को सुचिंतित दिशा प्रदान की थी। राजनीति में राष्ट्रीय चरित्र् निर्माण का जैसा काम गाँधी ने किया वैसा साहित्य में प्रेमचन्द ने किया है। डॉ. बच्चन सिंह व प्रो. केसरी कुमार प्रेमचन्द को गाँधीवाद के प्रतिनिधि लेखक मानते हैं। वे हिन्दी साहित्य को प्रेमचन्द का केवल इसलिए ऋणी नहीं मानते कि स्वदेशी आंदोलन व अछूतोद्धार को गाँव-गाँव पहुँचाया, क्योंकि ये सारे काम करने वाले गाँधी रहे हैं। क्या प्रेमचन्द गाँधी के भक्त थे ? ऐसे ढेरों सवाल आज भी मुंह बाये खडे मिलते हैं। शिवरानी देवी ने ‘प्रेमचंद घर में’ पुस्तक में जो लिखा है, उनमें से एक घटना उल्लेखनीय है। प्रेमचन्द गाँधी जी से वर्धा से मिलकर लौटते हैं। बात ही बात में गाँधी जी की प्रशंसा सुनकर शिवरानी ने साफ शब्दों में कह बैठती है, ‘‘तुम गाँधी के चेला होकर लौटे हो !’’ प्रेमचन्द ने बताया जो बात वे कह रहे हैं, वह मैं ‘प्रेमाश्रम’ में किसानों के बारे में पहले से ही लिखता चला आ रहा हूँ और गाँधी भी तो यही कह रहे हैं।4 इस उद्धरण से विचारकों ने मान लिया कि प्रेमचन्द गाँधीवादी थे। प्रगतिशील उन्हें माक्र्सवादी साबित करने में लग रहे हैं। दरअसल हिन्दी साहित्य में गाँधीवादी, प्रेमचन्द के बजाए जैनेन्द्र कहे जा सकते हैं।
प्रेमचन्द पर गाँधीवाद का प्रभाव वैसे ही था जिस तरह तोल्सताय का रहा है। प्रेमचन्द की कई बातों पर गाँधी से असहमतियाँ रही है। जिन किसानों की अहम् भूमिका गाँधी के आंदोलन में रही है, वे प्रेमचन्द की रचनाओं में भी प्रमुख रूप से दिखाई देते हैं। किसान एक ऐसी कडी रही है जिससे ये दोनों अलग-अलग क्षेत्र् के व्यक्तित्व समान रूप से जुडे हुए दिखाई देते हैं। गाँधी के यहाँ किसान कठपुतली की तरह है तो प्रेमचन्द के यहाँ आजाद है। अगर किसान जमींदार के खिलाफ, मजदूर पूँजीपति के खिलाफ खडे होते तो गाँधी उन्हें तुरन्त रोक देते हैं। गाँधी के यहाँ किसान की जो स्थिति रही है वही प्रेमचन्द के यहाँ नहीं थी। इससे यह साबित होता है कि प्रेमचन्द न गाँधीवादी थे और न ही उनके अंधभक्त थे। प्रेमचन्द के उपन्यास और कहानियों में किसान-जमींदार की टकराहटें खूब सुनाई देती हैं। प्रेमचन्द गाँधीवाद के प्रचारक मात्र् नहीं थे और न ही गाँधी के सत्याग्रह की वकालत ही करने वाले थे। नामवर सिंह स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं, ‘प्रेमचन्द के साहित्य में केवल गाँधीवाद की गहरी छाप देखना गाँधी जी के समस्त विचारों की छाया देखना और यह कहना कि अंत में न सही तो आरम्भिक दिनों में वे गाँधीवादी थे ही, सरासर गलत है, ज्यादती है।’नामवर सिंह गाँधी के प्रभाव को सिरे से ही नकार रहे हैं तो दूसरी तरफ बच्चन सिंह की राय अधिक सच लगती है, ‘प्रेमचन्द गाँधीवाद से प्रभावित थे। उनका आरम्भिक उपन्यास, ‘प्रेमाश्रम’ गाँधीवाद के प्रभाव में ही लिखा गया था। हृदय परिवर्तन द्वारा रामराज्य स्थापना करना इनका ध्येय रहा था। उन पर गाँधी की कार्यप्रणाली, जीवन दर्शन और व्यक्तित्व के प्रति प्रेमचन्द की गहरी श्रद्धा रही है। यह प्रभाव प्रारम्भिक रचनाओें में अधिक दिखाई देता है जो गोदान तक आते-आते मुक्त होने लगते हैं।’ यह सही है कि प्रेमचन्द पर गाँधीवाद का प्रभाव रहा है पर आरम्भिक दौर में जैसा जितना प्रभाव होता है, वैसा बाद तक नहीं रह पाता है।
स्वाधीनता संग्राम में किसानों की भूमिका को राजनीति में समझने वाले पहले गाँधी थे जो साहित्य में प्रेमचन्द कहे जा सकते हैं। जबकि किसान की भूमिका को राजनीति में साम्यवादी भी नहीं समझ सके थे। किसान के महत्त्व को दोनों ने अपनी- अपनी तरह से समझा था और आगे चलकर दोनों के रास्ते भी अलग हो जाते हैं, क्योंकि गाँधी किसान को जमींदारों के विरोध में जाने से रोकते हैं। पर प्रेमचन्द के कथा साहित्य में प्रमुख रूप से किसानों का संघर्ष जमींदारों, साहूकारों और पटवारियों से होता है। गाँधी के लिए आजादी के आंदोलन म जितनी आवश्यकता किसान की थी उतनी ही जमींदारों, पूँजीपतियों की भी होती है। वे आंदोलन में सबको साथ लेकर चलना चाहते थे। ऐसी किसी तरह की मजबूरी रचनाकार के नाते प्रेमचन्द की नहीं थी, जैसे राजनीति में गाँधी की रही है। गाँधी के स्वराज्य में रामराज्य की परिकल्पना निहित होती है, जबकि प्रेमचन्द का स्वराज अलग तरह का रहा है। प्रेमचन्द गाँधी की आध्यात्मिकता और रहस्यवादिता की धारणा से मुक्त रहे हैं। देश की सत्तर फीसदी आबादी किसान को वास्तविकता में समझने वाले पहले रचनाकार साबित होते हैं। किसान जीवन से जुडा आधुनिक महाकाव्य लिखते हैं। वे एक तरफ किसान आंदोलन से जुडा ‘प्रेमाश्रम’ (1922) लिखते हैं, जिसमें किसान जमींदार के खिलाफ तनकर खडे मिलते हैं तो दूसरी तरफ ‘रंगभूमि’ (1924) का सूरदास छोटी-सी जमीन का मालिक होते हुए भी पूँजीपति से सीधा संघर्ष करता है। ‘कर्मभूमि’ (1932) ‘प्रेमाश्रम’ की अगली कडी के रूप में हैं। इसमें किसान के अलावा छात्र्, मजदूर, हिन्दू, मुसलमान, गरीब-अमीर सभी लोग हैं। ‘गोदान’ (1936) में आते-आते भारतीय किसान की दयनीय व वास्तविक स्थिति से सीधा साक्षात्कार होता है।
भारतीय उपन्यास साहित्य में किसान जीवन के यथार्थवादी चित्र्ण की परम्परा को फकीर मोहन सेनापति के बाद प्रेमचन्द ने विकसित किया है। ‘भारतीय उपन्यास और प्रेमचन्द’ पर मैनेजर पाण्डेय विचार करते हुए लिखते हैं, ‘प्रेमचन्द के कथा साहित्य में मध्यवर्ग भी है, लेकिन केन्द्रीय स्थिति किसान-जनता की ही है। यहाँ किसानों का जीवन संघर्ष ही केन्द्रीय विषय है। किसान जिस शोषण के शिकार थे, उस शोषण के पेचीदा तंत्र्, उसकी जटिल प्रक्रिया और उसकी भयानक परिणति का चित्र्ण प्रेमचन्द ने किया है।7 इनके कथा साहित्य के लगभग सभी नायक किसान ही रहे हैं। किसान जीवन के विभिन्न रूप, जीवन संघर्ष और मुक्ति संघर्ष में लगे किसान के विभिन्न रूप दिखाई देते हैं। इनके यहाँ किसान जीवन समग्रता म चित्र्ति होता है। कथा साहित्य में किसान को केन्द्र में रखकर उनकी वास्तविकता और आकांक्षाओं का कलात्मक चित्र्ण कर उपन्यास की विशिष्ट यथार्थवपादी परम्परा का निर्माण किया है। उनका किसानों से प्रेम और सहानुभूति साफ दिखाई देती है, जब किसान संघर्ष करते हुए हारने के बावजूद जीतते हैं और सामंतवाद हारता है। उनकी रचनाओं को किसान जीवन का ‘ट्रैजिक महाकाव्य’ कह सकते हैं। इस ट्रैजिक स्थिति का ‘रंगभूमि’ में कलात्मक स्तर प्रकट होता है तो ‘गोदान’ कला का चरमोत्कर्ष है। प्रेमचन्द के हाथों हिन्दी उपन्यास की ‘कर्मभूमि’ ही नहीं बदलती, बल्कि उसका ‘कायाकल्प’ भी होता है। ‘गोदान’ उपन्यास किसान जीवन का मर्मस्पर्शी, करुण और त्रसद दस्तावेज बन जाता है। प्रेमचन्द के कथा साहित्य में जीवनानुसार भाषा का प्रयोग हुआ है। हर वर्ग, जातियों की सांस्कृतिक जडें उसकी भाषा में निहित होती है। मालती-मेहता, रमानाथ और देवीदीन खटीक और होरी-धनिया की किसान संस्कृति की भाषा अलग दिखाई देती है। सही कहते हैं मैनेजर पाण्डेय कि ‘शेखर एक जीवनी के शिल्प और भाषा में ‘गोदान’ नहीं लिखा जा सकता है।’ होरी की भाषा में शेखर का द्वंद्व नहीं आ सकता है, ठीक वैसे ही किसानों आदिवासियों और दलित समुदाय की अभिव्यक्ति के लिए भारतीय जनजीवन की भाषा और बोली का रचनात्मक प्रयोग हुआ है। लोक से जुडी अनुभूति दलित से लेकर आदिवासी तक की परम्परा भारतीय कथा साहित्य में रही है। बंगला की महाश्वेता देवी से लेकर गोपीनाथ महंती तक यह परम्परा जाती है। किसान, आदिवासी और दलित जीवन भारतीय आमजन रहा है।
किसी रचनाकार की प्रासंगिकता इस बात में भी है कि वे सार्वकालिक होते हैं जो रचनाकार की जीवंतता ही है। गाँधी का हरिजन व अछूतोद्धार और प्रेमचंद का दलित पात्रें पर कलम चलाना आज बहस में है। फिर भी वे दलित पर कलम चलाने से एक नयी बहस के घेरे में हैं। सही लिखते हैं गोयनका जी की प्रेमचन्द पर शोध होना आज भी जरूरी है प्रेमचंद पर काम बंद नहीं हुआ है। एक नये फ्रंट के रूप दलित संदर्भ में पुनः उनकी पडताल जारी है। डॉ. धर्मवीर ‘सामंत का मुंशी’, ‘प्रेमचन्द की नीली आँखें’ रत्न कुमार सांभरिया ‘मुंशी प्रेमचंद और दलित’ लिख रहे हैं तो जनसत्ता के मंच पर कल तक भी वे बीच बहस में होते हैं। तो दूसरी तरफ रूप नारायण सोनकर अगर ‘कफन’, ‘सद्गति’ और ‘दूध का दाम’ और ‘सुअरदान’ लिख रहे हैं तो यह चुनौती ही है कि कौन अधिक दलित चेतना सम्पन्न है ? दलितों पर जितना आज सोचा- विचारा जा रहा है, उस दौर में प्रेमचन्द पहले साहित्यकार रहे हैं जिन्होंने आज की चिंता उस दौर में व्यक्त की थी। दोनों की चिंताएँ एक होते हुए एक समान नहीं है। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि जिस गाय की पूँछ को पकड कर इस भवसागर से पार पाया जा सकता है उस मिथ को दूसरे मिथ (सूअरदान) का सामना करना पड जायेगा ? प्रेमचन्द की दलित चेतना को चुनौती देता दलित साहित्य वर्तमान में कितने ही सवाल जड रहा है ? तभी डॉ. बच्चन सिंह ‘हिन्दी साहित्य का दूसरा साहित्य’ म दलित साहित्य की पडताल करते हुए सलाह देते हैं, ‘दलित साहित्यकारों को अपने हित में यह जिद्द छोडनी पडेगी कि दलित साहित्य दलित ही लिख सकते हैं।’इस संदर्भ में बहस जारी है।
साहित्य में प्रेमचन्द का कद गाँधी जैसा ही था। इनके धुर विरोधी कहे जाने वाले नन्ददुलारे वाजपेयी को विश्व साहित्यकारों में तोल्सतोय के समकक्ष बताना पडता है तो नामवर सिंह लू-शुन, गोर्की से तुलना करते हुए उन्हें गोर्की और तोल्सतोय से कम अंतर्विरोधग्रस्त मानते हैं। मैनेजर पाण्डेय विचारों से गोर्की के नजदीक और यथार्थवादी चित्र्ण में बालजाक के। जिस रचनाकार ने जीते जी ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि पा ली थी, इस विषय पर उस समय भले ही विवाद हुआ हो पर आज उन्हें सर्वसम्मति से इस तमगे से नवाज दिया गया है, जैसे आजाद कृतज्ञ राष्ट्र गाँधी को राष्ट्रपिता की उपाधि देता है। साहित्य में यह उपाधि पाने वाले प्रेमचन्द अकेले हैं। एक यही रचनाकार है जो वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखे जा रहे हैं तो जिसे लेकर हिन्दी पट्टी में बहस बनी हुई है।