प्रेमचंद का जीवन परिचय
लिखना पढ़ना मेरा शौक है मौज मस्ती के लिए कभी-.कभी पढ़ लिख लेता हूँ । ................................................
Sunday
मुंशी प्रेमचंद की जयंती
प्रेमचंद का नाम असली नाम धनपत राय था. उनका जन्म 31 जुलाई, 1880 को बनारस के लमही नामक गांव में हुआ था।इन्होंने ब्रिटिश हुकूमत की सजा भी भोगी, लेकिन पीछे नहीं हटे।अपने मित्र मुंशी दयानारायण निगम के कहने पर उन्होंने अपना नाम धनपतराय की जगह प्रेमचंद रख लिया। इनके पिता का नाम मुंशी अजायब लाल था, जो डाकघर में मुंशी का पद संभालते थे।
Saturday
मीराबाई और उनके पद
मीराबाई का जीवन परिचय
मीराबाई, जिन्हें मीरा बाई या मीरा के नाम से भी जाना जाता है, ये 16वीं शताब्दी की प्रसिद्ध भारतीय कवयित्री, संत और श्री कृष्ण जी की भक्त थी। उनका जन्म सन् 1498 ई. के लगभग भारत के वर्तमान राजस्थान में मेड़ता के पास एक गांव चौकड़ी (कुड़की) में एक राजपूत शाही परिवार में हुआ था, उनके पिता का नाम रत्नसिंह राठौड़ और माता का नाम वीर कुमारी था। तथा ये जोधपुर के संस्थापक राव जोधा की प्रपौत्री थी।
मीरा दादी मां की कृष्ण भक्ति को देखकर प्रभावित हुई। एक दिन जब एक बारात दूल्हे सहित जा रही थी तब बालिका मीरा ने उस दूल्हे को देखकर अपनी दादी से अपने दूल्हे के बारे में पूछने लगी। तो दादी ने तुरंत ही गिरधर गोपाल का नाम बता दिया और उसी दिन से मीरा ने गिरधर गोपाल को अपना वर मान लिया।
साहित्यिक परिचय –
इनके काव्य रचना में इनका कृष्ण भक्ति प्रेम इनके हृदय की सरलता तथा निश्चलता का स्पष्ट रूप मिलता है, भक्ति-भजन ही इनकी काव्य रचना है, इनकी प्रत्येक पंक्ति सच्चे प्रेम से परिपूर्ण है, इनकी इसी प्रेमपूर्ण शैली की वजह से लोग आज भी इनकी पंक्तिया उतनी ही तन्मयता से गाते है !
पद
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरे न कोईजा के सिर मोर -मुकुट मेरो पति सोई
छाड़ी दयी कुल की कानि,कहा करिहै कोई?
संतन ढिग बैठि-बैठि,लोक लाज खोयी
अंसुवन जल सीचि- सीचि, प्रेम बोलि बोयी
अब त बेलि फैलि गयी , आनंद -फल होयी
दूध की मथनियां बड़े प्रेम से बिलोयी
दधि मथि घृत काढि लियो, डारि दयी छोयी
भगत देखी राजीव हुई ,जगत देखि रोई
दासी मीरा लाल गिरधर! तारों अब मोही ।
प्रसंग-
भावार्थ पंक्तियां कवित्री मीरा के द्वारा रचित है जो पद नरोत्तम दास स्वामी द्वारा संकलित मेरा मुक्तावली से लिया गया है इन पंक्तियों के माध्यम से कवित्री मीरा मोर मुकुट धारण किए हुए श्री कृष्ण को अपना पति मानते हुए कहते हैं कि उनके सिवा इस जगत में मेरा कोई दूसरा नहीं
व्याख्या-
इस दोहे में मीरा बाई श्री कृष्ण को अपना पति कह रही हैं और कहती हैं – मेरे तो बस श्री कृष्ण हैं जिसने पर्वत को ऊँगली पर उठाकर गिरधर नाम पाया। उसके अलावा मैं किसी को अपना नहीं मानती। जिसके सिर पर मौर का पंख का मुकुट हैं वही हैं मेरे पति।उनके सिवा इस जगत में मेरा कोई दूसरा नहीं आगे कवित्री कहती है कि मैंने कुल की मर्यादा का भी ध्यान छोड़ दिया है तथा संतो के साथ उठते बैठते लोक - लज्जा सब कुछ त्याग कर स्वयं को कृष्ण भक्ति में लीन कर लिया है कवित्री मीरा कहती हैं कि कृष्ण के प्रेम रूपी बेल को सीखने के लिए मैंने अपने आंसुओं को निस्वार्थ भाव से न्योछावर किया है। फलस्वरूप जिस बेल के बढ़ने से आनंद रूप फल की प्राप्ति हुई है आगे कवित्री एक दृष्टांत प्रस्तुत करते हुए कहते हैं। कि जिस प्रकार दूध में मथानी डालकर दही से मक्खन निकाला जाता है और सिर्फ छाछ को पृथक कर दिया जाता है। ठीक उसी तरह मीरा ने भी संसारिकता के ढकोसलेपन से स्वयं को दूर रखा है और अपनी सच्ची और आत्मिक भक्ति से श्री कृष्ण के प्रेम को प्राप्त किया है आगे कवित्री मीरा कहती है कि जब मैं भक्तों को देखती हूं तो मुझे प्रसन्नता होती है और उन लोगों को देखकर मुझे दुख होता है जो संसार एकता के जाल में फंसे हुए हैं मीरा खुद को श्री कृष्ण की दासी मानती है और श्री कृष्ण से स्वयं का उद्धार करने की कामना करती है।
2.पद
पग घुंघरू बांध मीरा नाची,
मैं तो मेरे नारायण सू , अपाहिज हो गई सांची,
लोग कहे मीरा बाई बावरी: न्यात कहै कूल - नासी ,
विष का प्याला राणा भेज्या , पीवत मीरा हांसी ,
मीरा के प्रभु गिरिधर नागर, सहज मिले अविनासी
प्रसंग-
प्रस्तुत पंक्तियां कवियत्री मीरा के द्वारा रचित है जो पद नरोत्तम दास स्वामी द्वारा संकलित मेरा मुक्तावली से लिया गया है इन पंक्तियों के माध्यम से कवित्री मीरा करती है कि वह श्री कृष्ण के प्रेम में दीवानी हो गई है।
व्याख्या-
इन पक्तियों के माध्यम से कवित्री मीरा करती है कि वह श्री कृष्ण के प्रेम में दीवानी हो गई है तथा पैरों में घुंघरू बांधकर नाचने में मग्न है कवित्री मीरा श्री कृष्ण के प्रेम में इतना रस विभोर हो गई है कि लोग उसे पागल की संज्ञा देने लगे हैं उनके संगे संबंधी कहते हैं कि ऐसा करके वह कुल का नाम खराब कर रही है आगे कवित्री मीरा कहती है कि राणा जी ने उसे मारने के लिए विष का प्याला भेजा था, जिसे वह हंसते-हंसते पीली और अमृत को प्राप्त हुए। आगे कवित्री कहती है कि यदि प्रभु की भक्ति सच्चे मन से की जाए तो वह सहजता से प्राप्त हो जाती है। ईश्वर को अविनाश जी की संज्ञा इसलिए दी गई है क्योंकि वह नच्श्रर है।
Tuesday
कबीरदास और उनके पद
कबीर का जीवन परिचय-
हम तौ एक एक करि जाना।
दोइ कहैं तिनहीं कौ दोजग जिन नाहिंन पहिचाना ।।
एकै पवन एक ही पानीं एकै जोति समाना।
एकै खाक गढ़े सब भांडै़ एकै कोंहरा साना।।
जैसे बाढ़ी काष्ट ही काटै अगिनि न काटै कोई।
सब घटि अंतरि तूँही व्यापक धरै सरूपै सोई।।
माया देखि के जगत लुभांनां काहे रे नर गरबाना।
निरभै भया कछू नहिं ब्यापै कहै कबीर दिवाना।।
प्रसंग
प्रस्तुत पद पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित निर्गुण परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि कबीर के पदों से उद्धृत है। इस पद में, कबीर ने एक ही परम तत्व की सत्ता को स्वीकार किया है, जिसकी पुष्टि वे कई उदाहरणों से करते हैं।
व्याख्या
कबीरदास कहते हैं कि हमने तो जान लिया है कि ईश्वर एक ही है। इस तरह से मैंने ईश्वर के अद्वैत रूप को पहचान लिया है। हालाँकि कुछ लोग ईश्वर को अलग-अलग बताते हैं; उनके लिए नरक की स्थिति है, क्योंकि वे वास्तविकता को नहीं पहचान पाते। वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग मानते हैं। कवि ईश्वर की अद्वैतता का प्रमाण देते हुए कहता है कि संसार में एक जैसी हवा बहती है, एक जैसा पानी है तथा एक ही प्रकाश सबमें समाया हुआ है। कुम्हार भी एक ही तरह की मिट्टी से सब बर्तन बनाता है, भले ही बर्तनों का आकार-प्रकार अलग-अलग हो। बढ़ई लकड़ी को तो काट सकता है, परंतु आग को नहीं काट सकता। इसी प्रकार शरीर नष्ट हो जाता है, परंतु उसमें व्याप्त आत्मा सदैव रहती है। परमात्मा हरेक के हृदय में समाया हुआ है भले ही उसने कोई भी रूप धारण किया हो। यह संसार माया के जाल में फैसा हुआ है। और वही संसार को लुभाता है। इसलिए मनुष्य को किसी भी बात को लेकर घमंड नहीं करना चाहिए। प्रस्तुत पद के अंत में कबीर दास कहते हैं कि जब मनुष्य निर्भय हो जाता है तो उसे कुछ नहीं सताता। कबीर भी अब निर्भय हो गया है तथा ईश्वर का दीवाना हो गया है।
विशेष
1. कबीर ने आत्मा और परमात्मा को एक बताया है।
2. उन्होंने माया-मोह व गर्व की व्यर्थता पर प्रकाश डाला है।
3. ‘एक-एक’ में यमक अलंकार है।
4. ‘खाक’ और ‘कोहरा’ में रूपकातिशयोक्ति अलंकार है।
5. अनुप्रास अलंकार की छटा दर्शनीय है।
6. सधुक्कड़ी भाषा है।
7. उदाहरण अलंकार है।
8. पद में गेयता व संगीतात्मकता है।
2.पद
संतो देखत जग बौराना।
साँच कहौं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।।
नेमी देखा धरमी देखा, प्रात करै असनाना।
आतम मारि पखानहि पूजै, उनमें कछु नहिं ज्ञाना।।
बहुतक देखा पीर औलिया, पढ़ै कितेब कुराना।
कै मुरीद तदबीर बतावैं, उनमें उहै जो ज्ञाना।।
आसन मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना।
पीपर पाथर पूजन लागे, तीरथ गर्व भुलाना।।
टोपी पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक अनुमाना।
साखी सब्दहि गावत भूले, आतम खबरि न जाना।
हिन्दू कहै मोहि राम पियारा, तुर्क कहै रहिमाना।
आपस में दोउ लरि लरि मूए, मर्म न काहू जाना।।
घर घर मन्तर देत फिरत हैं, महिमा के अभिमाना।
गुरु के सहित सिख्य सब बूड़े, अंत काल पछिताना।
कहै कबीर सुनो हो संतो, ई सब भर्म भुलाना।
केतिक कहौं कहा नहिं मानै, सहजै सहज समाना ।।
व्याख्या
जो सत्य आचरण करता है, सत्य में मार्ग पर चलता है, उसे लोग पागल समझते हैं और सत्य बोलने पर मारने के लिए दौड़ते हैं। जो मायाजिनित झूठ का आचरण करता है, उससे लोग बातें करके खुश होते हैं। नियमों पर चलने वाले लोग, नेमी धर्मी लोग बहुत हैं जो सभी नियमों का पालन करते हैं, सुबह उठ कर स्नानकरते हैं लेकिन वे अपनी आत्मा की नहीं सुनते हैं। ऐसे लोग अपनी आत्मा को मार चुके होते हैं, आत्मा की नहीं सुनते हैं, वे पत्थर में ईश्वर को ढूंढते हैं और प्रतीकात्मक पूजा करते हैं, जबकि मानवता से बड़ा कोई धर्म नहीं है, मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है, सत्य की राह पर चलना और इंसान को इंसान समझना ना की वह किस धर्म का है, किस जाती का है।
वस्तुत यहाँ पर साहेब ने हिन्दू धर्म पर कटाक्ष किया है। हिन्दू धर्म को मानने वाले अपने नियमों का पालन करते हैं लेकिन उनके आचरण में मिथ्या और झूठा आचरण, दिखावे की भक्ति ही होती है। कण कण में ईश्वर का वास है उसे प्राप्त किया जा सकता है सत्य से। सत्य यही है की सभी लोगों को समान समझे, किसी पर धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक अत्याचार ना किया जाय, यही सच्ची भक्ति है।
वहीँ दूसरी तरफ मुसलमान भी आडम्बर और पाखंड से परे नहीं है। मुस्लिक धर्म के उपदेशक और ओलिया आदि बड़ी बड़ी किताबों को तो पढ़ लेते हैं लेकिन उन्हें अपने जीवन और आचरण में नहीं उतारते हैं। ईश्वर की प्राप्ति के वे बहुत से मार्ग और माध्यम बताते हैं लेकिन उन्हें स्वंय ही आत्म ज्ञान नहीं है तो वे लोगों को क्या बताएँगे ? भाव है की वे मात्र आडम्बर ही कर रहें हैं। वहीँ दूसरी और मानवता को भूल कर योग करने वालों पर भी साहेब व्यंग्य कसते हैं और कहते हैं की ऐसे लोग अहंकार करके एक स्थान पर बैठे रहते हैं लेकिन उन्होंने भी सच्चे रहस्य को प्राप्त नहीं किया है। मानवता को भूलकर हिन्दू धर्म के लोग पीपल को पूजते हैं, पत्थर को पूजते हैं लेकिन क्या इनसे ईश्वर की प्राप्ति संभव है ? नहीं, जब तक व्यक्ति छद्म आचरण का त्याग नहीं करता है तब तक ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं है। मुस्लिम लोग टोपी पहन लेते हैं, हिन्दू धर्म के अनुयायी माथे पर तिलक लगा लेते हैं, माला फेरते हैं जो साहेब के अनुसार और कुछ नहीं छद्म आचरण ही है और ऐसे लोग सखी (साक्षी) शब्द आदि को भूल गए हैं क्योंकि इन्होने आत्म ज्ञान की प्राप्ति नहीं की है।
हिन्दू धर्म के लोगों को राम प्यारा है और मुस्लिम धर्म के लोगों को रहमान प्यारा है। इसी बात को लेकर दोनों आपस में ही लड़ रहे हैं, लेकिन दोनों ने ही रहस्य को नहीं जाना है। रहस्य क्या है, रहस्य है की सभी का मालिक एक ही है उसे प्रथक प्रथक कर दिया है और उसके नाम भी कई रख दिए हैं, लेकिन है एक ही। पाखंडी लोग घर घर घूम कर लोगों को मन्त्र देते फिर रहे हैं लेकिन वे स्वंय भी अज्ञान में ही डूबे हुए हैं। अन्तकाल में ऐसे लोगों के हाथ सिर्फ पछतावे ही लगना है और कुछ भी नहीं।
अंत में साहेब की वाणी है की ईश्वर की प्राप्ति के लिए कोई विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है, वह तो सहज भाव से ही प्राप्त किया जा सकता है। सहज भाव क्या है ? सहज भाव है की मानवता के धर्म का पालन करें, जीव के प्रति दया भाव रखें, मानव को मानव समझे और सभी के प्रति सम भाव रखें। सभी के धर्मों का आदर करें, मोह और माया से दूर रहें, मिथ्या और आडम्बर से दूर रहें यही सहज भाव है।
कबीर साहेब ने जीवन पर्यंत धार्मिक और सामजिक आडम्बरों का ना केवल विरोध किया बल्कि लोगों का सत्य आचरण की और मार्ग भी प्रशस्त किया। अपने जीवन की परवाह ना करते हुए धार्मिक और सामंती ठेकेदारों के कारनामों से लोगों को बताकर उन्हें भी सत्य मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। साहेब की आवाज सदा ही समाज के दबे कुचले लोगों की आवाज बनी रही। धार्मिक पाखंड हो या सामाजिक सभी का खंडन कबीर साहेब ने किया है। साहेब का जो मूल सन्देश है वह यह है की आडम्बर और मिथ्या आचरण का त्याग करो और जो सत्य की राह है उस पर चलो, मानव जीवन तभी सार्थक होगा। मनुष्य को मनुष्य समझना ही सबसे बड़ा धर्म है और कल्याण का मार्ग है।
कबीरदास की भाषा, शैली
कबीर की भाषा एक सन्त की भाषा थी। क्योंकि संतों की संगति से ही इन्हें सब कुछ सीखने का मौका मिला। ये फक्कड़ प्रकृति के सन्त थे। इन्होंने समाज में फैले आडम्बरों का खुलकर प्रबल विरोध किया और अज्ञान में डूबी मानवता को एक प्रकाश की ओर ले जाने का जीतोड़ प्रयोस किया। इसी कारण इनकी भाषा साहित्यिक न हो सकी। इनकी रचनाओं में खड़ीबोली, ब्रज, अरबी, फारसी, पंजाबी, भोजपुरी, बुन्देखण्डी आदि भाषाओं के शब्द देखने को मिलते हैं। इसी कारण इनकी भाषा को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सधुक्कड़ी भाषा कहा है। तो हजारीप्रसाद द्विवेदी हैं - “भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया - बन गया है तो सीधे-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर।भाव प्रकट करने के लिए इनकी भाषा पूर्णतः सक्षम है।
इन्होंने सरल, सहज व सरल शैली में अपने उपदेश दिये। इसी कारण इनकी उपदेशात्मक शैली क्लिष्ट व बोझिल प्रतीत नहीं होती। इसमें स्पष्टता, स्वाभाविकता, सजीवता, एवं प्रवाहमयता के दर्शन होते हैं। इन्होंने चौपाई, दोहा व पदों की शैली अपनाई व उनका सफलतापूर्वक प्रयोग किया।
Monday
गुरु पूर्णिमा
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥
अर्थात् गुरु ही ब्रह्मा हैं,जो अपने शिष्यों को नया जन्म देता है, गुरु ही विष्णु हैं जो अपने शिष्यों की रक्षा करता है, गुरु ही शंकर है; गुरु ही साक्षात परमब्रह्म हैं; क्योंकि वह अपने शिष्य के सभी बुराईयों और दोषों को दूर करता है।ऐसे गुरु को मैं बार-बार नमन करता हूँ।अपनी संस्कृति और विरासत के लिए पहचाने जाने वाले भारत देश में गुरु पूर्णिमा का पर्व बेहद महत्वपूर्ण पर्व है। यह पर्व गुरुओं को समर्पित एक आदर्श पर्व है।
आषाढ़ महीने की पूर्णिमा को कई पुराणों, शास्त्रों, चारों वेदों को विभाजित करने वाले एवं हिन्दू धर्म के महाग्रंथ श्री महा भगवतगीता की रचना करने वाले महर्षि वेदव्यास जी का भी जन्म हुआ था।उनकी जयंती के उपलक्ष्य में गुरु पूर्णिमा का पावन पर्व मनाया जाता है और इस पर्व को व्यास पूर्णिमा और व्यास जयंती के नाम से भी जाना जाता है। महार्षि वेद व्यास जी को गुरु-शिष्य परंपरा का प्रथम गुरु माना गया है।
गुरु हर किसी के जीवन के लिए बेहद महत्वपूर्ण है गुरु के महत्व और इसके मूल्यों को सिर्फ शब्दों में नहीं पिरोया जा सकता है। गुरु हमारे जीवन में सभी अंधकारों को मिटाकर हमें प्रकाश की तरफ आगे बढ़ाता है और सही मार्गदर्शन कर हमें सफलता के पथ पर आगे बढ़ाता है।इसलिए हिन्दू धर्म के शास्त्रों में गुरु को भगवान का दर्जा दिया गया है। गुरु के बिना कोई भी व्यक्ति ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता है और न ही अपने जीवन में सफलता हासिल कर सकता है।
गुरु के बिना किसी भी व्यक्ति का जीवन बिना नाविक के नाव की तरह होता है। जिस तरह बिना नाविक के नाव दिशाहीन होकर चलती है या फिर बेसहारा भंवर में फंस जाती है,ठीक उसी तरह बिना गुरु के मनुष्य जीवन रूपी भंवर में फंसा रहता है और दिशाहीन हो जाता है, उसे यह कभी ज्ञात नहीं होता है कि उसे जाना किस तरफ है।गुरु अपनी पूरी जिंदगी अपने शिष्य को योग्य और सफल बनाने के लिए समर्पित कर देते हैं। इसलिए हमारे हिन्दू धर्म और शास्त्रों में गुरुओं को विशिष्ट स्थान दिया गया है और गुरु को भगवान का रुप मानकर गुरु पूर्णिमा के दिन उनका पूजन किया जाता है और उनके प्रति सम्मान प्रकट किया जाता है।
वहीं गुरु की अद्भुत महिमा का बखान तो हिन्दी साहित्य के कई महान कवियों ने भी अपने लेखों, दोहों आदि के माध्यम से भी किया है।महान कवि कबीर दास जी ने अपने इस दोहे के माध्यम से गुरु को भगवान से बढ़कर दर्जा देते हुए कहा है कि –
“गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय॥”
संत कबीर दास जी ने अपने इस दोहे में यह कहा है कि अगर गुरू और गोबिंद अर्थात भगवान दोनों एक साथ खड़े हों तो हमें किसे प्रणाम करना चाहिए – गुरू को अथवा गोबिन्द को? उन्होंने बताया कि ऐसी स्थिति में हमें अपने गुरू के चरणों में अपना शीश झुकाना चाहिए क्योंकि गुरु ने ही भगवान तक जाने का रास्ता बताया है, अर्थात मोक्ष प्राप्ति का मार्ग दिखाया है और गुरु की कृपा से ही भगवान के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।गुरु, सभ्य समाज का निर्माण करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं एवं राष्ट्र के विकास में मद्द करते हैं। गुरु, परमात्मा और संसार के बीच एवं शिष्य और ईश्वर के बीच एक सेतु की तरह काम करते हैं।
गुरु के बिना किसी भी व्यक्ति को ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है, और बिना ज्ञान का कोई भी व्यक्ति आत्मसात नहीं कर सकता है। गुरु ही मनुष्य को उसके कर्तव्यों का बोध करवाता है एवं हमारे अंदर धैर्य अथवा धीरज पैदा करता है,ज्ञान का बोध करवाता है,और मोक्ष का मार्ग बताता है। इसलिए किसी विद्धान ने कहा भी है कि –
“गुरु बिना ज्ञान नहीं और ज्ञान बिना आत्मा नहीं,
कर्म, धैर्य, ज्ञान और ध्यान सब गुरु की ही देन है।।”
गुरु की महिमा का तो जितना भी बखान किया जाए उतना कम है। “गुरू बिन ज्ञान न उपजै, गुरू बिन मिलै न मोष।गु
रू बिन लखै न सत्य को गुरू बिन मिटै न दोष।।
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