Saturday

सुमित्रानंदन पंत और बरसते बादल कविता

                                        पाठ-1

                        बरसते बादल -सुमित्रानंदन पंत 

सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय

सुमित्रानंदन पंत का जन्म सन् 1900 में उत्तराखंड के अल्मोड़ा में हुआ था । जन्म के कुछ घंटों के बाद ही इनकी माता के निधन हो जाने के बाद इनका पालन पोषण इनकी दादी ने किया । इनका निधन सन् 1977 में हुआ था । इनके साहित्य लेखन के लिए इन्हें साहित्य अकादमी, सोवियत रूस और ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया । इनकी प्रमुख रचनाएं हैं – वीणा , गुंजन , कला और बूढ़ा चाँद तथा चिदंबरा आदि । इन्हें चिदंबरा काव्य के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।



 

शब्दार्थ

1. झम-झम    = भारी वर्षा होने की आवाज, the sound of heavy rainfall

2. मेघ = बादल clouds

3. बरसना = बारिश होना to rain

4. बूंदें = वर्षा के छोटे कण rain drops

5. तरु = वृक्ष tree

6. तम = अंधकार darkness

7. चातक = पपीहा a kind of bird

8. गण = दल a group

9. सोनबालक = जल में रहने वाला पक्षी  a kind of water birds

10. क्रंदन = आवाज करना making sounds

11. घुमड़ -घुमड़ = चारों ओर फैलना spreading all over

12. गर्जन – गरजना = thundering

13. रिमझिम- रिमझिम = छोटी बूंदें little drops

14. स्वर = आवाज sound

15. सिहर उठना = आश्चर्य चकित होना amazing

16. धाराएं = पानी का बहना flow of water

17. रजकण = धूलि कण  dust particles

18. तृण = तिनका a particle

19. घेरना = फैलना to surround

20. सावन = श्रावण मास name of a month

21.  मनभावन = मन को भाने वाला pleasing mind

 

अर्थग्राहयता – प्रतिक्रिया

(अ) घने बादलों का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए ।

उत्तर - वर्षा ऋतु के समय आकाश में घने बादल छा जाते हैं । वे आकाश भर में इधर-उधर फिरते हैं और वे एक दूसरे से टकराकर गरजते हैं और वर्षा देते हैं । कभी-कभी उनके उर में बिजली चमकती है ।

(आ)1.  हैं झम - झम बरसते झम- झम मेघ के सावन।  

उत्तर- झम- झम- झम- झम मेघ बरसते हैं सावन के ।

2. गगन में गर्जन घुमड़ – घुमड़ गिर भरते मेघ ।

उत्तर - घुमड़ – घुमड़ गिर मेघ गगन में भरते गर्जन ।

3. धरती पर झरती धाराएं पर धाराओं ।

उत्तर – धाराओं पर धाराएं झरती धरती पर ।

 

(इ) नीचे दिए गए भाव की पंक्तियाँ लिखिए ।

1. बादलों के घोर अंधकार के बीच बिजली चमक रही है और मन दिन में ही सपने देखने लगा है ।

उत्तर – चम-चम बिजली चमक रही रे उर में घन के,

       थम थम दिन के तम में सपने जगते मन के ।

2. कवि चाहता है की जीवन में सावन बार-बार आए और सब मिलकर झूलों में झूलें ।

उत्तर – इंद्रधनुष के झूले में झूलें सब जन ,

       फिर-फिर आए जीवन में सावन मनभावन ।।

(ई) पदयांश पढ़कर प्रश्नों के उत्तर दीजिए ।

बंद किए हैं बादल ने अंबर के दरवाजे सारे ,

नहीं नजर आता है सूरज ना कहीं चाँद-सितारे ।

ऐसा मौसम देखकर, चिड़ियों ने भी पंख पसारे ,

हो प्रसन्न धरती के वासी , नभ की ओर निहारे ।।

1. किसने अम्बर के दरवाजे बंद कर दिए हैं ?

उत्तर – बादल ने अंबर के दरवाजे बंद कर दिए हैं ।

2. इस कविता का विषय क्या हैं ?

उत्तर –इस कविता का विषय वर्षा के समय का प्रकृति का वर्णन है।

 अभिव्यक्ति सृजनात्मकता

(अ) वर्षा सभी प्राणियों के लिए जीवन का आधार है। कैसे ?

उत्तर - वर्षा सभी प्राणियों के लिए आवश्यक है बिना वर्षा और पानी के किसी के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती । वर्षा से पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और मनुष्य सभी खुशी से झूम उठते हैं । वर्षा से किसान खेती करते है और इससे प्राप्त पानी से हमारी प्यास बुझती है । इस प्रकार वर्षा सभी प्राणियों के लिए जीवन का आधार है।

(आ) ‘बरसते बादल’ कविता में प्रकृति का सुंदर चित्रण है । उसे अपने शब्दों में लिखिए ।

उत्तर- बरसते बादल” कविता में पंतजी ने वर्षा ऋतु का सुंदर और सजीव चित्रण किया । वह कहते हैं - सावन के मेघ झम – झम बरसते हैं। वर्षा की बूंदें पेडों से छनकर छम – छम आवाज़ करती धरती पर गिरती हैं। मेघों के हृदय में बिजली चम – चम चमकती है। दिन में भी वर्षा के कारण अंधेरा छा जाता है। लोगों के दिलों में सपने जगने लगते हैं।

वर्षा के बरसने पर दादुर टर – टर आवाज़ करते हैं। झींगुर झींझी आवाज़ देते हैं। मोर म्यव – म्यव करते नाचते हैं। पपीहे पीउ – पीउ करके कूकते हैं। सोनबालक पक्षी गीली – खुशी से आह्वान करते हैं। आसमान पर बादल घुमडते गरजते हैं।

रिमझिम बरसनेयाली बूंदों के स्वर हम से कुछ कहते हैं। अर्थात् मन खुश करते हैं। उनके छूते ही शरीर के रोम सिहर उठते हैं। धरती पर जल की धाराएँ झरती हैं। इससे मिट्टी के कण – कण में कोमल अंकुर फूट पडते हैं। अर्थात् मिट्टी का हर कण अतिप्रसन्न लगता है।

वर्षा की धाराओं के साथ कवि का मन झूलने लगता है। वे लोगों को आमंत्रित करते हैं कि आप सब आइए मुझे घेरकर सावन के गीत गाइए। हम सब लोग इंद्रधनुष के झूले में झूलने का आनंद लें। यह कामना करें कि मनभावन सावन हमारे जीवन में बार – बार आए ।

(इ) प्रकृति सौंदर्य पर एक छोटी-सी कविता लिखिए ।  

उत्तर – पेड़ लगाओ, हरियाली लाओ ,

       धरती माँ को स्वच्छ बनाओ।

       नदियाँ हँसे, जंगल लहराए,

       नीला आसमाँ मुस्कुराए ।

(ई) ‘फिर – फिर आए जीवन में सावन मनभावन’ ऐसा क्यों कहा गया होगा ? स्पष्ट कीजिए ।     

उत्तर -वर्षा ऋतु सबकी प्रिय ऋतु है। यह ऋतुओं की रानी कहलाती है। सावन के आने से प्रकृति रमणीय होती है। प्रकृति का कण – कण अति प्रसन्न दिखता है। पशु – पक्षी, पेड – पौधे मानव यहाँ तक कि धरती के सभी प्राणी, धरती तक खुशी से नाच उठते हैं। इसीलिए पंतजी ने मनभावन सावन को बार – बार आने के लिए कहा होगा ।

भाषा की बात

(अ) तरु, गगन, घन पर्याय शब्द लिखिए ।

1. तरु- पेड़, वृक्ष, पादप, वट, विटप आदि।

2. गगन- आसमान, फलक, अंबर, अंतरिक्ष, आकाश, व्योम, नभ अनंत, अधर आदि ।

3. घन - मेघ, बादल, घटा, अंबुद, अंबुधर, नीरद, बारिधर, तोयड, बलाहक आदि ।

 

(आ) मेघ, तरु वाक्य प्रयोग कीजिए ।

1. मेघ- मेघ बरसते हैं ।

2. तरु – तरु फल देते हैं ।

(इ) इन्हें समझिए और सूचना के अनुसार कीजिए ।

1. बादल बरसते हैं ।( रेखांकित शब्द का पद परिचय दीजिए।)   

उत्तर- बादल = संज्ञा, जातिवाचक, पुलिंग शब्द है।

2. पेड़-पौधे, पशु-पक्षी ( समास पहचानिए)

पेड़-पौधे = पेड़ और पौधे ( द्वंद्व समास )

पशु-पक्षी = पशु और पक्षी ( द्वंद्व समास )

 

(ई) शब्द संक्षेप में लिखिए ।

1. मन को भाने वाला = मनभावन

2.मन को मोहने वाला = मनमोहन  

 

Sunday

रामधारी सिंह दिनकर का काव्य

 

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ – जीवन परिचय, साहित्यिक परिचय, रचनाएँ व भाषा-शैली

राष्ट्रकवि 'रामधारी सिंह ‘दिनकर’  का हिंदी के ओजस्वी कवियों में शीर्ष स्थान हैं। राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत उनकी कविताओं में प्रगतिवादी स्वर भी मुखरित है, जिसमें उन्होंने शोषण का विरोध करते हुए मानवतावादी मूल्यों का समर्थन किया है। वे हिंदी के महान कवि, श्रेष्ठ निबंधकार , विचारक एवं समीक्षक के रूप में जाने जाते हैं।




रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जीवन परिचय

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी का जन्म 30 सितम्बर, सन् 1908 ई० में बिहार के मुंगेर जिले के सिमरिया नामक ग्राम में एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री रवि सिंह तथा माता का नाम श्रीमती मनरूप देवी था। अल्पायु में ही इनके पिता का देहान्त हो गया था। इन्होंने पटना विश्वविद्यालय से बी० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की और इच्छा होते हुए भी पारिवारिक कारणों से आगे की पढ़ाई न क सके और नौकरी में लग गये।

कुछ दिनों तक इन्होंने माध्यमिक विद्यालय मोकामाघाट में प्रधानाचार्य के पद पर कार्य किया। फिर सन् 1934 ई० में बिहार के सरकारी विभाग में सब-रजिस्ट्रार की नौकरी की। सन् 1950 ई० में इन्होंने मुजफ्फरपुर के स्नातकोत्तर महाविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया। सन् 1952 ई० में ये राज्यसभा के सदस्य मनोनीत हुए। कुछ समय ये भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रहे।

उसके पश्चात्‌ भारत सरकार के गृह-विभाग में हिन्दी सलाहकार के रूप में एक लम्बे अर्से तक हिन्दी के संवर्द्धन एवं प्रचार-प्रसार के लिए कार्यरत रहे। सन्‌ 1959 ई0 में भारत सरकार ने इन्हें ‘पद्मभूषण‘ से सम्मानित किया तथा सन् 1962 ई० में भागलपुर विश्वविद्यालय ने इन्हें डी० लिट्० की उपाधि प्रदान की। सन् 1972 ई० में इनकी काव्य-रचना ‘उर्वशी‘ पर इन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। हिन्दी-साहित्य-गगन का यह सुर्य 24 अप्रैल, सन् 1974 ई० को सदा के लिए अस्त हो गया।



रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का साहित्यिक परिचय

‘दिनकर’ जी में काव्य-प्रतिभा जन्मजात थी, मैट्रिक में पढ़ते समय ही इनका ‘प्रणभंग‘ नामक काव्य प्रकाशित हो गया था। इसके पश्चात सन्‌ 1928-29 से विधिवत्‌ साहित्य-सृजन के क्षेत्र में पदार्पण किया। राष्ट्र-प्रेम से ओत-प्रोत इनकी ओजस्वी कविताओं ने सोए हुए जनमानस को झकझोर दिया।

मुक्तक, खंडकाव्य और महाकाव्य की रचना कर इन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा का परिचय दिया। गद्य के क्षेत्र में निबंधों और ग्रंथों की रचना कर भारतीय दर्शन, संस्कृति, कला एवं साहित्य का गंभीर विवेचन प्रस्तुत कर हिंदी साहित्य के भंडार को परिपूर्ण करने का सतत प्रयास किया।

इनकी साहित्य साधना को देखते हुए राष्ट्रपति महोदय ने सन्‌ 1959 मे इन्हें ‘पद्मभूषण‘ की उपाधि से अलंकृत किया। इनकी रचना ‘उर्वशी’ के लिए इन्हें ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार‘ तथा ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के लिए ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार‘ से सम्मानित किया गया।



रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की भाषा-शैली

दिनकर जी की भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ीबोली है, जिसमें संस्कृत शब्दों की बहुलता है। इन्होंने तद्भव और देशज शब्दों तथा मुहावरों और लोकोक्तियों का भी सहज स्वाभाविक प्रयोग किया है।

अंग्रेजी और उर्दू के प्रचलित शब्द भी उनकी भाषा में दिखाई पड़ते हैं। संस्कृतनिष्ठ भाषा के साथ-साथ व्यावहारिक भाषा भी उनकी गद्य रचनाओं में देखने को मिलती है। कहीं-कहीं उनकी भाषा में देशज शब्दों और मुहावरों का प्रयोग भी मिल जाता है।

विषय के अनुरूप उनकी शैली में विविधता दिखाई पड़ती है। गंभीर विषयों के वर्णन में उन्होंने विवेचनात्मक शैली का प्रयोग किया है। कवि-हदय होने से उनकी गद्य रचनाओं में भावात्मक शैली भी दिखाई पड़ती है।

समीक्षात्मक निबंधों में उन्होंने अक्सर आलोचनात्मक शैली का प्रयोग किया है तो कहीं-कहीं जीवन के शाश्वत सत्यों को अभिव्यक्त करने के लिए वे सूक्ति शैली का भी प्रयोग करते हैं।

Wednesday

प्रयोगवाद किसे कहते हैं ? प्रयोगवाद की विशेषताएं -

 

प्रयोगवाद 

हिन्दी मे प्रयोगवाद का प्रारंभ सन् 1943 मे अज्ञेय के सम्पादन मे प्रकाशित तारसप्तक से माना जा सकता है। इसकी भूमिका मे अज्ञेय ने लिखा है-कि कवि नवीन राहों के अन्वेषी हैं।" स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अज्ञेय के सम्पादक मे प्रतीक पत्रिका प्रकाशन हुआ। उसमे प्रयोगवाद का स्वरूप स्पष्ट हुआ। सन् 1951 मे दूसरा तार सप्तक प्रकाशित हुआ और तत्पश्चात तीसरा तार सप्तक।

Prem Yaduvanshi : 


 प्रयोगवाद किसे कहते हैं?

प्रयोगवाद हिन्दी साहित्य की आधुनिकतम विचारधार है। इसका एकमात्र उद्देश्य प्रगतिवाद के जनवादी दृष्टिकोण का विरोध करना है। प्रयोगवाद कवियों ने काव्य के भावपक्ष एवं कलापक्ष दोनों को ही महत्व दिया है। इन्होंने प्रयोग करके नये प्रतीकों, नये उपमानों एवं नवीन बिम्बों का प्रयोग कर काव्य को नवीन छवि प्रदान की है। प्रयोगवादी कवि अपनी मानसिक तुष्टि के लिए कविता की रचना करते थे।
जीवन और जगत के प्रति अनास्था प्रयोगवाद का एक आवश्यक तत्व है। साम्यवाद के प्रति भी अनास्था उत्पन्न कर देना उसका लक्ष्य है। वह कला को कला के लिए, अपने अहं की अभिव्यक्ति के लिए ही मानता है।

Prem Yaduvanshi : 


प्रयोगवाद की विशेषताएं 

प्रयोगवाद की निम्नलिखित विशेषताएं हैं--

1. नवीन उपमानों का प्रयोग
प्रयोगवादी कवियों ने पुराने एवं प्रचलित उपमानों के स्थान पर नवीन उपमानों का प्रयोग किया हैं। प्रयोगवादी कवि मानते है कि काव्य के पुराने उपमान अब बासी पड़ गए हैं।

2. वैयक्तिकता की प्रधानता 

प्रयोगवादी कविता में सामाजिक दृष्टिकोण के प्रति व्यक्तिवाद की घोर प्रतिक्रिया हुई। प्रयोगवादी कवि अहं से जकड़ा हुआ है। वह समाज से दृष्टि हटाकर अपने तक ही सीमित रहना चाहता है। भारत भूषण की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-- 

साधारण नगर के, एक साधारण घर में 

मेरा जन्म हुआ है

बचपन बीता अति साधारण, साधारण खान-पान।

3. प्रेम भावनाओं का खुला चित्रण
इन्होंने  ने प्रेम भावनाओं का अत्यंत खुला चित्रण कर उसमे अश्लीलता का समावेश कर दिया है।

4. यौन-भावनाओं का खुला चित्रण 

प्रयोगवादी कवि यौन (सैक्स) भावनाओं से आक्रांत है। वह इस भावना को अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष दोनों रूपों में व्यक्त करता है। अज्ञेय ने इस विषय में लिखा है कि आज के मानव का मन यौन-परिकल्पनाओं से लदा है और वे सब कल्पनायें कुण्ठित है। उसकी सौंदर्य चेतना भी इसमें आक्रांत है। उसके उपमान सब यौन कल्पनायें कुण्ठित हैं। उसकी सौंदर्य चेतना भी इसमें आक्रांत है। उसके उपमान सब यौन प्रतीकात्मक है। इस प्रकार प्रयोगवादी कवि सेक्स की भावना से आबद्ध है। उसे मलमल की बारीक साड़ी के मध्य गुलाबी चोली में कसे स्तनों का सौंदर्य अपनी ओर आकर्षित करता हैं-

"पगले! तू क्यों उसमें फँसता है? रे दुनियादारी

तह महीन मलमल की सारी। 

उसके नीचे नरम गुलाबी चोली में कसे हुए, पीनोन्नत स्तन।।"

5. बुद्धिवाद की प्रधानता
प्रगतिवादी कवियों ने बुद्धि तत्व को अधिक प्रधानता दी है इसके कारण काव्य मे कहीं-कहीं दुरूहता आ गई है।

6. वैचित्र्य प्रदर्शन की भावना

प्रयोगवादी कविता में वैचित्र्य प्रदर्शन की भावना के भी दर्शन होते है। इसमें विलक्षणता, आश्चर्य और नवीनता के दर्शन होते है। कहीं-कहीं पर प्रयोगवादी वैचित्र्य प्रदर्शन मात्र हास्य की वस्तु बनकर ही रह गया है, यथा 

"अगर कहीं मैं- तोता होता!

तो क्या होता? तो क्या होता? तोता होता।।

7. सौंदर्य के प्रति व्यापक दृष्टिकोण 

सौंदर्यानुभूति मानव का शाश्वत गुण है। प्रयोगवादी कविता में सौंदर्य के व्यापक स्वरूप के दर्शन होते हैं। प्रयोगवादी कवि संसार से तुच्छ वस्तु में भी सौंदर्य का आभास पाता हैं-- 

'हवा चली, छिपकली की टाँग

मकड़ी के जाले में फँसी रही, फँसी रही।।"

8. निराशावाद की प्रधानता
इस काल के कवियों ने मानव मन की निराशा, कुंठा व हताशा का यथातथ्य रूप मे वर्णन किया है।
9. लघुमानव वाद की प्रतिष्ठा
इस काल की कविताओं मे मानव से जुड़ी प्रेत्यक वस्तु को प्रतिष्ठा प्रदान की गई है तथा उसे कविता का विषय बनाया गया है।

10. अहं की प्रधानता
फ्रायड के मनोविश्लेषण से प्रभावित ये कवि अपने अंह को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं।
11. रूढ़ियों के प्रति विद्रोह
इस काल की कविताओं मे रूढ़ियों के प्रति विद्रोह का स्वर मुखर हुआ है। इन कवियों ने रूढ़ि मुक्त नवीन समाज की स्थापना पर बल दिया हैं।
12. मुक्त छन्दों का प्रयोग
प्रगतिवादी कवियों ने अपनी कविताओं के लिए मुक्त छन्दों का चयन किया हैं।
13. व्यंग्य की प्रधानता
इस काल के कवियों ने व्यक्ति व समाज दोनों पर अपनी व्यंग्यात्मक लेखनी चलाई है।

 

Sunday

अलंकार किसे कहते है ? और अलंकारों का वर्गीकरण

 

अलंकार किसे कहते है ?

अलंकार का अर्थ है- आभूषण; जैसे -आभूषण सौन्दर्य को बढ़ाने में सहायक होते है,उसी प्रकार में अलंकारों का प्रयोग करने से काव्य की शोभा बढ़ जाती है।अतः काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्वो को अलंकार कहते है। अलंकारों के प्रयोग से शब्द और अर्थ में चमत्कार उत्पन्न होता है।



अलंकारों का वर्गीकरण:-मुख्य रूप से अलंकारों के दो प्रकार है ।

1. शब्दालंकार

2. अर्थालंकार

1.शब्दालंकार-: जहां केवल शब्दों के प्रयोग के कारण काव्य में चमत्कार पाया जाता है,उसे शब्दालंकार कहते है।यदि उन शब्दों के स्थान पर उनके पर्यायवाची शब्द रख दिए जाए तो वह चमत्कार समाप्त हो जाएगा और वहाँ अलंकार नहीं रह जाएगा। है। इसमें मुख्य रूप से यमक, अनुप्रास, और श्लेष अलंकार शामिल है।

(I) यमक अलंकार:- यमक का अर्थ होता है-दो। जब किसी शब्द को दो या दो से अधिक प्रयोग में लाया जाए और उसका अर्थ अलग-अलग आए तो वह यमक अलंकार होता है।

जैसे:- कनक-कनक ते सो गुनी मादकता अधिकाय

     “या पाए बौराय जग या खाए बौराय”।। यहाँ पर कनक के दो अर्थ है, पहला अर्थ सोना और दूसरा कनक का अर्थ धतूरा है। इसलिए यहाँ पर यमक अलंकार है।

“तीन बेर खाती है, वे तीन बेर खाती है” आदि। यमक अलंकार के उदाहरण है ।

(II) अनुप्रास अलंकार:- अनुप्रास शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है-अनु +प्रास। यहाँ पर अनु का अर्थ है बार-बार और प्रास का अर्थ है-वर्ण।जब किसी काव्य में एक ही वर्ण दो या दो से अधिक बार आए वहाँ उसे अनुप्रास अलंकार होता है। 

जैसे-“पोथी पढ़-पढ़ कर जग मुआ,पंडित भया न कोई ।

     ढाई आक्षर प्रेम का, पढे सो पंडित होई”।।

     “रघुपति राघव राजा राम”

     “जय हनुमान ज्ञान गुण सागर”। आदि पंकितयों में अनुप्रास अलंकार है ।

(III) श्लेष अलंकार :- जहां काव्य एक शब्द के दो या दो से अधिक अर्थ आए वहाँ पर श्लेष अलंकार होता है।

जैसे:- “रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून

     पानी गए न उबरै, मोती, मानुष, चून”।।

     “सजना है मुझे,सजना के लिए”।  

     “मंगन को देख पट देति बार-बार”।आदि पंकितयों में अनुप्रास अलंकार है।

 

2. अर्थालंकार-: जहां अर्थ के कारण काव्य में चमत्कार पाया जाता है, वहाँ अर्थालंकार होता है। इसमें शब्दों के पर्यायवाची रखने पर भी चमत्कार बना रहता है। इसमें मुख्य रूप से उपमा,रुपक,उत्प्रेक्षा तथा अतिशयोक्ति अलंकार शामिल है।

(I) उपमा अलंकार-:जहां किसी वस्तु या व्यक्ति की किसी अन्य वस्तु या व्यक्ति से समान गुण-धर्म के आधार पर तुलना की जाए या समानता बताई जाए,वहाँ उपमा अलंकार होता है।

जैसे-:”राधा के चरण गुलाब के समान कोमल है।“ यहाँ राधा के चरण की तुलना या समानता गुलाब से बताई गई है। इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।

“पीपल पात सरिस मन डोला।“ यहाँ पर पीपल के पत्ते से मन की तुलना हो रही है। जिसका अर्थ है-: पीपल के पत्ते के समान मन डोला । इसलिए यहाँ उपमा अलंकार है।

“हरिपद कोमल कमाल से” आदि। उपमा अलंकार के उदाहरण हैं।

(II) रुपक अलंकार-: जहां उपमेय में उपमान का भेदरहित आरोप किया जाता है,अर्थात उपमेय (प्रस्तुत) और उपमान (अप्रस्तुत) में अभिनंता प्रकट की जाए, वहाँ रुपक अलंकार होता है।   

जैसे-:”मैया मै तो चंद्र खिलौना लैहों”। यहाँ पर श्रीकृष्ण अपनी माँ यशोदा से हठ कर रहे है कि उन्हें चंद्र रूपी जैसा खिलौना चाहिए। अर्थात यहाँ पर खिलौने कि तुलना चंद्रमा के रूप से की गई है। इसलिए यहाँ रुपक अलंकार है।

“पायो जी मैंने राम रतन धन पायो” आदि। रुपक अलंकार के उदाहरण हैं।

(III) उत्प्रेक्षा अलंकार :-जहां उपमेय में उपमान की संभवना की जाए,वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। मनु-मानो, जनु-जानो, मनहूँ-जनहूँ आदि उत्प्रेक्षा अलंकार के वाचक शब्द है।

जैसे:- “मोर-मुकुट की चंद्रिकनु, यों राजत नंद-नन्द”, मनु ससि शेखर की अकस,किए शेखर सत-चंद” आदि। उत्प्रेक्षा अलंकार के उदाहरण हैं।

(IV) अतिशयोक्ति अलंकार:- जब किसी वस्तु, व्यक्ति आदि का वर्णन बहुत बढ़ा चढाकर किया जाए तो वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।

जैसे:- “हनुमान की पूंछ में लगन ना पाई आग,

     लंका सागरी जल गई गए निशाचर भाग।।“

     “आगे नदियाँ बड़ी अपार घोड़ा कैसे उतरे उस पार

     राणा ने सोचा इस पार तब तक चेतक था उस पार।।“

आदि अतिशयोक्ति अलंकार के उदाहरण हैं।  

   

 

परीक्षा के एक दिन पूर्व दो मित्रों की बातचीत का संवाद लेखन कीजिए-

संवाद लेखन किसे कहते हैं 

संवाद लेखन - वह लेखनी है जिसमें दो या अधिक व्यक्तियों के बीच होने वाली बातचीत को लिखित रूप में व्यक्त किया जाता है। 



परीक्षा के एक दिन पूर्व दो मित्रों की बातचीत का संवाद लेखन-

अक्षर – नमस्ते विमल, कुछ परेशान से दिखते हो?
विमल – नमस्ते अक्षर, कल हमारी गणित की परीक्षा है।
अक्षर – मैंने तो पूरा पाठ्यक्रम दोहरा लिया है, और तुमने?
विमल – पाठ्यक्रम तो मैंने भी दोहरा लिया है, पर कई सवाल ऐसे हैं, जो मुझे नहीं आ रहे हैं।
अक्षर – ऐसा क्यों?
विमल – जब वे सवाल समझाए गए थे, तब बीमारी के कारण मैं स्कूल नहीं जा सका था।
अक्षर – कोई बात नहीं चलो, मैं तुम्हें समझा देता हूँ। शायद तुम्हारी समस्या हल हो जाए।
विमल – पर इससे तो तुम्हारा समय बेकार जाएगा।
अक्षर – कैसी बातें करते हो यार, अरे! तुम्हें पढ़ाते हुए मेरा दोहराने का काम स्वतः हो जाएगा। फिर, इतने दिनों की मित्रता कब काम आएगी।
विमल – पर, मैं उस अध्याय के सूत्र रट नहीं पा रहा हूँ।
अक्षर – सूत्र रटने की चीज़ नहीं, समझने की बात है। एक बार यह तो समझो कि सूत्र बना कैसे। फिर सवाल कितना भी घुमा-फिराकर आए तुम ज़रूर हल कर लोगे।
विमल – तुमने तो मेरी समस्या ही सुलझा दी। चलो अब कुछ समझा भी दो।

Monday

प्रसाद की ध्रुवस्वामिनी और नारी

 प्रसाद की ध्रुवस्वामिनी और नारी



ध्रुवस्वामिनी में प्रसाद ने अपने युग से सम्बद्ध दो समस्याओं को मुख्य रूप से उठाया है जो नारी के विवाह-मोक्ष और राज्याधिकार से सम्बंधित है। विवाह-मोक्ष और पुनर्लग्न की समस्या जो भारतीय समाज की सर्वकालिक समस्या है इस नाटक की केंद्रीय समस्या है। इसके अंतर्गत नाटककार ने समाज में नारी का स्थान क्या है? क्या उसका पुनर्विवाह संभव है? वह जिस पुरुष से प्रेम करती है उससे विवाह नहीं कर पाती और जिससे उसका विवाह हुआ है उससे वह प्रेम नहीं करती, इन समस्याओं का सूत्रपात नाटक के प्रारंभ में ही हो जाता है जब ध्रुवस्वामिनी अपने वैवाहिक जीवन पर शंका प्रकट करते हुए कहती है कि –

“उस दिन राजपुरोहित ने कुछ आहुतियों के बाद मुझे जो आशीर्वाद दिया था क्या वह अभिशाप था?”

विवाह-मोक्ष की समस्या उस समय और भी प्रबल हो जाती है जब रामगुप्त विवाह की धार्मिक क्रिया को ही अस्वीकार करते हुए कहता है कि –

“मैं तो द्राक्षासव में उस दिन डुबकी लगा रहा था कि पुरोहितों ने न जाने क्या पढ़ा दिया होगा? ”

ध्रुवस्वामिनी में पुरुष सत्तात्मक समाज के शोषण के प्रति नारी का विद्रोही स्वर सुनाई पड़ता है। हालाँकि नाटककार ने समाज में पुरुषों के हाथों नारी की शोचनीय अवस्था का यथार्थ चित्रण किया है किन्तु नारी स्वातंत्र्य की आधुनिक चेतना के कारण ही इसमें नारी पहली बार प्रतिक्रिया करती हुई दिखाई देती है।

उदहारण के लिए –“पुरुषों ने स्त्रियों को पशु-संपत्ति समझकर उस पर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया है। यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते, अपने कुल की मर्यादा, नारी का गौरव नहीं बचा सकते तो मुझे बेच भी नहीं सकते।”



प्रसाद का युग नवजागरण का युग था जब एक ओर गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता आन्दोलन चल रहे थे तो दूसरी ओर राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद जैसे समाज-सुधारक जिन सामाजिक बुराईयों से जूझ रहे थे, नारी स्वातंत्र्य उनमें महत्वपूर्ण था। इसलिए ध्रुवस्वामिनी में प्रसाद ने नारी शोषण, बेमेल विवाह, पुनर्विवाह, निर्णय का अधिकार आदि पर गहन विचार किया है। धर्म और परम्परानुमोदित रीति- नीति की हमारे जातीय जीवन में व्यापक स्वीकृति है। इसलिए नारी स्वतंत्रता का पक्ष लेते हुए तलाक या पुनर्विवाह की समस्या को नाटककार ने शास्त्र अनुमोदित दृष्टि से ही पुरोहित द्वारा सुलझवाया है। यथा-

“विवाह की विधि ने देवी ध्रुवस्वामिनी और रामगुप्त को एक भ्रांतिपूर्ण बंधन में बाँध दिया है। धर्म का उद्देश्य इस तरह पददलित नहीं किया जा सकता।”

धर्मभीरुता भारतीय समाज की ज्वलंत समस्या रही है। ध्रुवस्वामिनी में प्रसाद ने नारी जीवन से सम्बंधित रुढियों पर प्रहार करते हुए नवजागरण की भूमिका प्रस्तुत की है। बदली हुई मानसिकता को व्यापक रूप प्रदान करने के लिए इस नाटक में मंदाकिनी जैसे पात्रों की सृष्टि की गयी है, जो धर्मशास्त्रीय रीतियों के खिलाफ आवाज उठाती है कि क्या धर्म केवल नारी के अधिकारों को छीनने के लिए ही है या उन्हें कोई और सुरक्षा प्रदान करने के लिए भी। जैसे –

“जिन स्त्रियों को धर्मं बंधन में बांधकर उसकी सम्मति के बिना उसका अधिकार छीन लेते हैं, क्या धर्मं के पास कोई प्रतिकार कोई संरक्षण नहीं जिससे स्त्रियाँ आपत्ति में अपना अवलंब मांग सके।”

ध्रुवस्वामिनी में प्रसाद ने नारी अस्मिता तथा तलाक की समस्या को युगीन सन्दर्भ में उठाया है। पुरोहित द्वारा विवाह की व्याख्या में नारी समानाधिकार की ही वकालत की गयी है।

यथा- “स्त्री और पुरुष का परस्पर विश्वासपूर्ण अधिकार, रक्षा और सहयोग ही तो विवाह कहलाता है। यदि ऐसा न हो तो धर्मं और विवाह खेल है।”

कहना न होगा कि विवाह, मोक्ष, पुनर्लग्न के सन्दर्भ में नाटककार के विचार भारतीय चिंतन से प्रेरित तो हैं ही, आधुनिक समाज में नारी की भूमिका एवं उसके पहचान को भी व्याख्यायित करते हैं।

क्या आप जानते हैं ?

ध्रुवस्वामिनी के प्रकाशन से पहले प्रसाद जी पर यह आरोप किया जाता था कि उनके नाटक काव्य-रूपक हैं, उनके संवादों में कृत्रिमता है। कहा जाता था कि उनके संवादों में चमत्कार, वाग्वैदग्ध्य और जवाब-सवाल की कमी है।



ध्रुवस्वामिनी नाटक में राज्याधिकार से सम्बंधित समस्या भी प्रमुख समस्या है। क्रूर, कायर, मद्यप, अकर्मण्य राजा को गद्दी से हटाया जा सकता है अथवा नहीं। वस्तुतः अयोग्य शासक की व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह, राष्ट्र-सम्मान और स्वाभिमान के लिए प्राणोत्सर्ग तथा अक्षम शासक की दुर्गति की मांग भी प्रसाद के समय महत्वपूर्ण थे। इसलिए इस नाटक की मूल समस्या के रूप में ही इन समस्याओं को भी प्रतिपादित किया गया है। सामाजिक समस्या के ताने-बाने में ही राजनैतिक अव्यवस्था को भी उभारा गया है। रामगुप्त ने गुप्त साम्राज्य पर कौशलपूर्वक अधिकार तो कर लिया था लेकिन उसकी रक्षा कर पाने में वह अक्षम था। इसलिए शक आक्रमण का समाचार सुनकर भी वह अपनी प्रेम संबंधी चिंता में लीन रहा। युद्ध परिषद् में युद्ध की समस्या पर विचार करने के बजाय उसे हिजड़ों और बौनों का नृत्य अधिक आकर्षक और मोहक प्रतीत हुआ। शक संधि की शर्तों में ध्रुवस्वामिनी और सामंत स्त्रियों की मांग को सुनकर वह अपना क्षत्रिय धर्म निभाने के बदले शांत भाव से कहता है –“ठीक ही है जब उसके यहाँ सामंत हैं, तब उन लोगों के लिए भी स्त्रियाँ चाहिए।”

रामगुप्त जब किसी प्रकार ध्रुवस्वामिनी की रक्षा के लिए तैयार नहीं हुआ तब चन्द्रगुप्त अपने प्राणों की बाजी लगाकर शक शिविर में जाकर शकराज का वध करता है और ध्रुवस्वामिनी और गुप्त साम्राज्य की रक्षा करता है। चन्द्रगुप्त के विजयोपरांत रामगुप्त राज्य पर अपना अधिकार प्रकट करता है किन्तु विद्रोह के कारण वह सफल नहीं हो पाता है।

ध्रुवस्वामिनी और चन्द्रगुप्त का पुनर्लग्न प्रसाद की प्रगतिशीलता है क्योंकि वह पौरुष के बल पर नारी को दासी मानने वाले रामगुप्त का परित्याग कर अपनी इच्छा से चन्द्रगुप्त का वरण करती है। तत्कालीन परिस्थिति में इसे विधवा विवाह से अधिक क्रांतिकारी कदम मानना चाहिए। भारतीय समाज में उपेक्षित एवं शोषित नारी वर्ग की यथार्थ स्थिति के प्रति सजग एवं जागरुक रचनाकार प्रसाद ने मुक्ति के इस सन्देश द्वारा इतिहास को सामाजिक परिवर्तन की निर्माणात्मक भूमिका में ला खड़ा किया है।

ध्रुवस्वामिनी में उपर्युक्त समस्या का समावेश होने पर भी उसे समस्या नाटक की संज्ञा देने में विद्वानों में पर्याप्त मतभिन्नता है। नन्द दुलारे वाजपेयी मानते हैं कि ध्रुवस्वामिनी नाटक में समस्या अवश्य है परन्तु वह समस्या नाटक नहीं है। गोविन्द चातक इसे समस्या नाटक की अपेक्षा विषयनाटक मानते हैं, क्योंकि इस समस्या को लेखक ने अपनी दृष्टि से देखकर, अपने चिंतन के अनुसार ही समाधान प्रस्तुत किया है। कुछ आलोचक इसे इब्सन के प्रसिद्ध नाटक ‘द डॉल्स हाउस’ की प्रेरणा पृष्ठभूमि के रूप में स्वीकार करते हैं। इसमें संदेह नहीं कि प्रसाद जी ने जो समस्याएँ उठाई है उनका प्रस्तुतीकरण ऐसा नहीं है कि ध्रुवस्वामिनी को इब्सन, बर्नार्ड शॉ और गार्ल्सवर्दी की समस्या नाटकों की पंक्ति में रखा जा सके। वस्तुतः अधिकांश आलोचकों ने ध्रुवस्वामिनी को आधुनिक ढंग का समस्या नाटक मानने में असमर्थता ही जाहिर की है। कहा जा सकता है कि इस नाटक में प्रसाद ने सामाजिक जीवन में नारी की स्थिति, दासता की श्रृंखला से उसकी मुक्ति का प्रश्न एवं विशिष्ट परिस्थिति में पुनर्विवाह की समस्या जैसे प्रश्नों को उठाया है। इतिहास के भिन्न-भिन्न पृष्ठों में विश्रृंखल कथा-माणिक्यों को कल्पना के एक सूत्र में पिरोकर उन्होंने निश्चय ही सफल ऐतिहासिक नाटक की रचना की है जिसमें समस्याओं के चित्रण तथा युगानुरूप विचार-संयोजन की ओर भी ध्यान दिया गया है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार - ध्रुवस्वामिनी में नारी के अस्तित्व, स्वातंत्र्य और मोक्ष की जो समस्या प्रसाद ने इतिहास के पृष्ठों से उठायी है वह स्वयं उनके युग की नारी समस्या थी। यह समस्याप्रधान नाटक नहीं है पर सामाजिक एवं राजनैतिक समस्याओं को उन्होंने जीवंत रूप से उठाया है।”

प्रेमचंद और उनकी कहानी ईदगाह

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