Saturday

CBSE Solutions for Class 10 Hindi Sparsh Chapter 10 बड़े भाई साहब

बड़े भाई साहब कहानी का सारांश

लेखक 9 वर्ष का था और उसका बड़ा भाई 14 वर्ष का था। बड़ा भाई 2 साल फेल हो चुका था। इसलिए वह लेखक से केवल तीन कक्षा आगे था। लेखक हमेशा अपने भाई को किताबे खोलकर बैठा देखा करता था परंतु उसका दिमाग कहीं और होता था। वह अपनी कॉपी और किताबों पर चिड़िया कबूतर आदि बनाया करता था। लेखक का मन पढ़ाई में बहुत कम लगता था इसलिए वह मौका पाते ही हॉस्टल से निकलकर खेलने लगता था।

परंतु घर पहुंचते ही उसे बड़े भाई का रूद्र रूप देखना पड़ता था उसके सामने लेखक मौन धारण कर लेता था। वार्षिक परीक्षा हुई तब बड़े भाई साहब फिर से फेल हो गए और लेखक अपनी कक्षा में प्रथम आया। लेखक के मन में आया कि वह बड़े भाई को खूब सुनाएं लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। बड़े भाई का फेल होना देखकर वह निडर हो गया और मैदान में जाकर खेलने लगा। भाई साहब बोले कि मैं देख रहा हूं कि कक्षा में प्रथम आने पर तुम्हें घमंड हो गया है मेरे फेल होने पर ना जाओ मेरी कक्षा में पहुंचेंगे तो पता चलेगा। अगले साल बड़ा भाई फिर से फेल हो गया जबकि लेखक दर्जे में प्रथम आया।

इस साल बड़े भाई ने खूब मेहनत की फिर भी वह फेल हो गया। यह देखकर लेखक को बड़े भाई साहब पर दया आने लगी अब सिर्फ एक ही कक्षा का अंतर दोनों में रह गया था। भाई बोला मैं तुम से 5 साल बड़ा हूं। तुम मेरे तजुर्बे की बराबरी नहीं कर सकते। तुम चाहे कितनी पढ़ाई क्यों ना कर लो समझ किताबें पढ़ने से नहीं आती है। हमारे दादा और अम्मा कोई अधिक पढ़े लिखे नहीं हैं। फिर भी हम पढ़े-लिखे को समझाने का हक उनका है। लेखक को बड़े भाई की यह नई युक्ति बहुत अच्छी लगी वहां उसके सामने झुक गया। उसे सचमुच अनुभव हुआ और वह बोला आपको कहने का पूरा अधिकार है बड़े भाई साहब। या सुनते ही बड़े भाई साहब और लेखक गले लग गए और दोनों हॉस्टल की और चल पड़े।


CBSE Solutions for Class 10 Hindi Sparsh Chapter 10 बड़े भाई साहब

मौखिक

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर एक-दो पंक्तियों में दीजिए-

प्रश्न 1. कथा नायक की रुचि किन कार्यों में थी?  
उत्तर- कथा नायक की रुचि खेल-कूद, मैदानों की सुखद हरियाली, हवा के हलके-हलके झोंके, फुटबॉल की उछल-कूद, बॉलीबॉल की फुरती और पतंगबाजी, कागज़ की तितलियाँ उड़ाना, चारदीवारी पर चढ़कर नीचे कूदना, फाटक पर सवार होकर उसे आगे-पीछे चलाना आदि कार्यों में थी।

प्रश्न 2. बड़े भाई साहब छोटे भाई से हर समय पहला सवाल क्या पूछते थे?
उत्तर- बड़े भाई छोटे भाई से हर समय एक ही सवाल पूछते थे-कहाँ थे? उसके बाद वे उसे उपदेश देने लगते थे।

प्रश्न 3. दूसरी बार पास होने पर छोटे भाई के व्यवहार में क्या परिवर्तन आया?

उत्तर- दूसरी बार पास होने पर छोटे भाई के व्यवहार में यह परिवर्तन आया कि वह स्वच्छंद और घमंडी हो गया। वह यह । सोचने लगा कि अब पढ़े या न पढ़े, वह पास तो हो ही जाएगा। वह बड़े भाई की सहनशीलता का अनुचित लाभ उठाकर अपना अधिक समय खेलकूद में लगाने लगा।

प्रश्न 4. बड़े भाई साहब छोटे भाई से उम्र में कितने बड़े थे और वे कौन-सी कक्षा में पढ़ते थे?
उत्तर- बड़े भाई साहब लेखक से उम्र में 5 साल बड़े थे। वे नवीं कक्षा में पढ़ते थे।

प्रश्न 5. बड़े भाई साहब दिमाग को आराम देने के लिए क्या करते थे?
उत्तर- बड़े भाई साहब दिमाग को आराम देने के लिए कभी कापी पर वे कभी किताब के हाशियों पर चिड़ियों, कुत्तों, बिल्लियों के चित्र बनाते थे। कभी-कभी वे एक शब्द या वाक्य को अनेक बार लिख डालते, कभी एक शेर-शायरी की बार-बार सुंदर अक्षरों में नकल करते। कभी ऐसी शब्द रचना करते, जो निरर्थक होती, कभी किसी आदमी को चेहरा बनाते।

लिखित-

(क) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर ( 25-30 शब्दों में) लिखिए-

प्रश्न 1. छोटे भाई ने अपनी पढ़ाई का टाइम-टेबिल बनाते समय क्या-क्या सोचा और फिर उसका पालन क्यों नहीं कर पाया?
उत्तर- छोटे भाई ने अधिक मन लगाकर पढ़ने का निश्चय कर टाइम-टेबिल बनाया, जिसमें खेलकूद के लिए कोई स्थान नहीं था। पढ़ाई का टाइम-टेबिल बनाते समय उसने यह सोचा कि टाइम-टेबिल बना लेना एक बात है और बनाए गए टाइम-टेबिल पर अमल करना दूसरी बात है। यह टाइम-टेबिल का पालन न कर पाया, क्योंकि मैदान की हरियाली, फुटबॉल की उछल-कूद, बॉलीबॉल की तेज़ी और फुरती उसे अज्ञात और अनिवार्य रूप से खींच ले जाती और वहाँ जाते ही वह सब कुछ भूल जाता।

प्रश्न 2. एक दिन जब गुल्ली-डंडा खेलने के बाद छोटा भाई बड़े भाई साहब के सामने पहुँचा तो उनकी क्या प्रतिक्रिया हुई ?
उत्तर- छोटा भाई दिनभर गुल्ली-डंडा खेलकर बड़े भाई के सामने पहुँचा तो बड़े भाई ने गुस्से में उसे खूब लताड़ा। उसे घमंडी कहा और सर्वनाश होने का डर दिखाया। उसने उसकी सफलता को भी तुक्का बताया और आगे की पढ़ाई का भय दिखलाया।

प्रश्न 3. बड़े भाई साहब को अपने मन की इच्छाएँ क्यों दबानी पड़ती थीं?
उत्तर- बड़े भाई साहब बड़े होने के नाते यही चाहते और कोशिश करते थे कि वे जो कुछ भी करें, वह छोटे भाई के लिए एक उदाहरण का काम करे। उन्हें अपने नैतिक कर्तव्य का वोध था कि स्वयं अनुशासित रह कर ही वे भाई को अनुशासन में रख पाएँगे। इस आदर्श तथा गरिमामयी स्थिति को बनाए रखने के लिए उन्हें अपने मन की इच्छाएँ दबानी पड़ती थीं।

प्रश्न 4. बड़े भाई साहब छोटे भाई को क्या सलाह देते थे और क्यों ?
उत्तर- बड़े भाई साहब छोटे भाई को दिन-रात पढ़ने तथा खेल-कूद में समय न गॅवाने की सलाह देते थे। वे बड़ा होने के कारण उसे राह पर चलाना अपना कर्तव्य समझते थे।

प्रश्न 5. छोटे भाई ने बड़े भाई साहब के नरम व्यवहार का क्या फ़ायदा उठाया?
उत्तर- छोटे भाई (लेखक) ने बड़े भाई साहब के नरम व्यवहार का अनुचित फ़ायदा उठाया, जिससे उसकी स्वच्छंदता बढ़ गई और उसने पढ़ना-लिखना बंद कर दिया। उसके मन में यह भावना बलवती हो गई कि वह पढ़े या न पढ़े परीक्षा में पास अवश्य हो जाएगा। इतना ही नहीं, उसने अपना सारा समय पतंगबाज़ी को ही भेंट कर दिया।

(ख) निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर (50-60 शब्दों में) लिखिए-

प्रश्न 1. बड़े भाई की डाँट-फटकार अगर न मिलती, तो क्या छोटा भाई कक्षा में अव्वल आता? अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर- मेरे विचार में यह सच है कि अगर बड़े भाई की डाँट-फटकार छोटे भाई को न मिलती, तो वह कक्षा में कभी भी अव्वल नहीं आता। यद्यपि उसने बड़े भाई की नसीहत तथा लताड़ से कभी कोई सीख ग्रहण नहीं की, परंतु उसपर अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव गहरा पड़ता था, क्योंकि छोटा भाई तो खे-प्रवृत्ति का था। बड़े भाई की डाँट-फटकार की ही भूमिका ने उसे कक्षा में प्रथम आने में सहायता की तथा उसकी चंचलता पर नियंत्रण रखा। मेरे विचार से बड़े भाई की डाँट-फटकार के कारण ही छोटा भाई कक्षा में अव्वल अता था अर्थात् बड़े भाई की डाँट-फटकार उसके लिए वरदान सिद्ध हुई।

प्रश्न 2. इस पाठ में लेखक ने समूची शिक्षा के किन तौर-तरीकों पर व्यंग्य किया है? क्या आप उनके विचार से सहमत हैं?
उत्तर- एक दिन जब गुल्ली-डंडा खेलने के बाद छोटा भाई बड़े भाई साहब के सामने पहुँचा तो उन्होंने रौद्र रूप धारण कर पूछा, “कहाँ थे? लेखक को मौन देखकर उन्होंने लताड़ते हुए घमंड पैदा होने तथा आगामी परीक्षा में फेल होने का भय दिखाया।

प्रश्न 3. बड़े भाई साहब के अनुसार जीवन की समझ कैसे आती है?

उत्तर- बड़े भाई साहब के अनुसार जीवन की समझ अनुभव रूपी ज्ञान से आती है, जोकि जीवन के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। उनके अनुसार पुस्तकीय ज्ञान से हर कक्षा पास करके अगली कक्षा में प्रवेश मिलता है, लेकिन यह पुस्तकीय ज्ञान अनुभव में उतारे बिना अधूरा है। दुनिया को देखने, परखने तथा बुजुर्गों के जीवन से हमें अनुभव रूपी ज्ञान को प्राप्त करना आवश्यक है, क्योंकि यह ज्ञान हर विपरीत परिस्थिति में भी समस्या का समाधान करने से सहायक होता है। इसलिए उनके अनुसार अनुभव पढ़ाई से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है, जिससे जीवन को परखा और सँवारा जाता है तथा जीवन को समझने की समझ आती है।

प्रश्न 4. छोटे भाई के मन में बड़े भाई साहब के प्रति श्रद्धा क्यों उत्पन्न हुई?
उत्तर- बड़े भाई साहब छोटे भाई को-

-खेलकूद में समय न गॅवाकर पढ़ने की सलाह देते थे।

-अभिमान न करने की सीख देते थे।अपनी बात मानने की सलाह देते थे।

-वे बड़ा होने के कारण ऐसा करना अपना कर्तव्य समझते थे।

प्रश्न 5. बड़े भाई की स्वभावगत विशेषताएँ बताइए?
उत्तर- बड़े भाई की स्वभावगत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1.बड़ा भाई बड़ा ही परिश्रमी था। वह दिन-रात पढ़ाई में ही जुटा रहता था इसलिए खेल-कूद, क्रिकेट मैच आदि में उसकी कोई रुचि नहीं थी।

2.वह बार-बार फेल होने के बावजूद पढ़ाई में लीन रहता था।

3.बड़ा भाई उपदेश की कला में बहुत माहिर है इसलिए वह अपने छोटे भाई को उपदेश ही देता रहता है, क्योंकि वह अपने छोटे भाई को एक नेक इंसान बनाना चाहता है।

4.वह अनुशासनप्रिय है, सिद्धांतप्रिय है, आत्मनियंत्रण करना जानता है। वह आदर्शवादी बनकर छोटे भाई के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता है।

5. बड़ा भाई अपने छोटे भाई से पाँच साल बड़ा है इसलिए वह अपने अनुभव रूपी ज्ञान को छोटे भाई को भी देता है।

प्रश्न 6. बड़े भाई साहब ने जिंदगी के अनुभव और किताबी ज्ञान में से किसे और क्यों महत्त्वपूर्ण कहा है?

उत्तर- बड़े भाई साहब ने जिंदगी के अनुभव और किताबी ज्ञान में से जिंदगी के अनुभव को अधिक महत्त्वपूर्ण माना है। उनका मत था कि किताबी ज्ञान तो रट्टा मारने का नाम है। उसमें ऐसी-ऐसी बातें हैं जिनका जीवन से कुछ लेना-देना नहीं। इससे बुधि का विकास और जीवन की सही समझ विकसित नहीं हो पाती है। इसके विपरीत अनुभव से जीवन की सही समझ विकसित होती है। इसी अनुभव से जीवन के सुख-दुख से सरलता से पार पाया जाता है। घर का खर्च चलाना हो घर के प्रबंध करने हो या बीमारी का संकट हो, वहीं उम्र और अनुभव ही इनमें व्यक्ति की मदद करते हैं।

प्रश्न 7. बताइए पाठ के किन अंशों से पता चलता है कि-

1. छोटा भाई अपने भाई साहब का आदर करता है।

2.भाई साहब को जिंदगी का अच्छा अनुभव है।

3. भाई साहब के भीतर भी एक बच्चा है।

4. भाई साहब छोटे भाई का भला चाहते हैं।

उत्तर- 1. छोटे भाई का मानना है कि बड़े भाई को उसे डाँटने-डपटने का पूरा अधिकार है क्योंकि वे उससे बड़े हैं। छोटे भाई की शालीनता व सभ्यता इसी में थी कि वह उनके आदेश को कानून की तरह माने अर्थात् पूरी सावधानी व सर्तकता से उनकी बात का पालन करे।

2. भाई साहब ने छोटे भाई से कहा कि मुझे जीवन का तुमसे अधिक अनुभव है। समझ किताबी ज्ञान से नहीं आती अपितु दुनिया के अनुभव से आती है। जिस प्रकार अम्मा व दादा पढ़े लिखे नहीं है, फिर भी उन्हें संसार का अनुभव हम से अधिक है। बड़े भाई ने कहा कि यदि मैं आज अस्वस्थ हो जाऊँ, तो तुम भली प्रकार मेरी देख-रेख नहीं कर सकते। यदि दादा हों, तो वे स्थिति को सँभाल लेंगे। तुम अपने हेडमास्टर को देखो, उनके पास अनेक डिग्रियाँ हैं। उनके घर का इंतजाम उनकी बूढ़ी माँ करती हैं। इन सब उदाहरणों से स्पष्ट है कि भाई साहब को जिंदगी का अच्छा अनुभव था।

3. भाई साहब ने छोटे भाई से कहा कि मैं तुमको पतंग उड़ान की मनाहीं नहीं करता। सच तो यह कि पतंग उड़ाने की मेरी भी इच्छा होती है। बड़े भाई साहब बड़े होने के नाते अपनी भावनाओं को दवा जाते हैं। एक दिन भाई साहब के ऊपर से पतंग गुजरी, भाई साहब ने अपनी लंबाई का लाभ उठाया। वे उछलकर पतंग की डोर पकड़कर हॉस्टल की ओर दौड़कर आ रहे थे, छोटा भाई भी उनके पीछे-पीछे दौड़ रहा था। इन सभी बातों से यह सिद्ध होता है कि बड़े भाई साहब के भीतर भी एक बच्चा है, जो अनुकूल वातावरण पाकर उभर उठता है।

4. बड़े भाई साहब द्वारा छोटे भाई को यह समझाना कि किताबी ज्ञान होना एक बात है और जीवन का अनुभव दूसरी बात। तुम पढ़ाई में परीक्षा पास करके मेरे पास आ गए हो, लेकिन यह याद रखो कि मैं तुमसे बड़ा हूँ और तुम मुझसे छोटे हो। मैं तुम्हें गलत रास्ते पर रखने के लिए थप्पड़ का डर दिखा सकता हूँ या थप्पड़ मार भी सकता हूँ अर्थात् तुम्हें डाँटने का हक मुझे है।

(ग) निम्नलिखित के आशय स्पष्ट कीजिए-

प्रश्न 1. इम्तिहान पास कर लेना कोई चीज नहीं, असल चीज़ है बुद्धि का विकास।

उत्तर- इस पंक्ति का आशय है कि इम्तिहान में पास हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है, क्योंकि इम्तिहान तो रटकर भी पास किया जा सकता है। केवल इम्तिहान पास करने से जीवन का अनुभव प्राप्त नहीं होता और बिना अनुभव के बुधि का विकास नहीं होता। वास्तविक ज्ञान तो बुधि का विकास है, जिससे व्यक्ति जीवन को सार्थक बना सकता है।

प्रश्न 2.फिर भी जैसे मौत और विपत्ति के बीच भी आदमी मोह और माया के बंधन में जकड़ा रहता है, मैं फटकार घुड़कियाँ खाकर भी खेलकूद का तिरस्कार न कर सकता था।

उत्तर- लेखक खेल-कूद, सैर-सपाटे और मटरगश्ती का बड़ा प्रेमी था। उसका बड़ा भाई इन सब बातों के लिए उसे खूब डाँटता-डपटता था। उसे घुड़कियाँ देता था, तिरस्कार करता था। परंतु फिर भी वह खेल-कूद को नहीं छोड़ सकता था। वह खेलों पर जान छिड़कता था। जिस प्रकार विविध संकटों में फँसकर भी मनुष्य मोहमाया में बँधा रहता है, उसी प्रकार लेखक डाँट-फटकार सहकर भी खेल-कूद के आकर्षण से बँधा रहता था।

प्रश्न 3. बुनियाद ही पुख्ता न हो, तो मकान कैसे पायेदार बने ?

उत्तर- इस पंक्ति का आशय है कि जिस प्रकार मकान को मजबूत तथा टिकाऊ बनाने के लिए उसकी नींव को गहरा तथा ठोस बनाया जाता है, ठीक उसी प्रकार से जीवन की नींव को मजबूत बनाने के लिए शिक्षा रूपी भवन की नींव भी बहुत मज़बूत होनी चाहिए, क्योंकि इसके बिना जीवन रूपी मकान पायदार नहीं बन सकता।

प्रश्न 4. आँखें आसमान की ओर थीं और मन उस आकाशगामी पथिक की ओर, जो बंद राति से आ रहा था, मानो कोई आत्मा स्वर्ग से निकलकर विरक्त मन से नए संस्करण ग्रहण करने जा रही हो।

उत्तर- लेखक पतंग लूटने के लिए आकाश की ओर देखता हुआ दौड़ा जा रहा था। उसकी आँखें आकाश में उड़ने वाली पतंग रूपी यात्री की ओर थीं। अर्थात् उसे पतंग आकाश में उड़ने वाली दिव्य आत्मा जैसी मनोरम प्रतीत हो रही थी। वह आत्मा मानो मंद गति से झूमती हुई नीचे की ओर आ रही थी। आशय यह है कि कटी हुई पतंग धीरे-धीरे धरती की ओर गिर रही थी। लेखक को कटी पतंग इतनी अच्छी लग रही थी मानो वह कोई आत्मा हो जो स्वर्ग से मिल कर आई हो और बड़े भारी मन से किसी दूसरे के हाथों में आने के लिए धरती पर उतर रही हो।


Thursday

आलोक धन्वा का जीवन परिचय और उनकी कविता पतंग की सप्रसंग व्याख्या

आलोक धन्वा का जीवन परिचय और उनकी कविता पतंग की सप्रसंग व्याख्या

आलोक धन्वा का जन्म 1948 में मुँगेर, बिहार में हुआ था। उनकी पहली कविता ‘जनता का आदमी’ 1972 में ‘वाम पत्रिका’ में प्रकाशित हुई थी और उसी वर्ष फिर उनकी दूसरी कविता ‘गोली दाग़ो पोस्टर’ ‘फ़िलहाल’ पत्रिका में छपी। इन दोनों कविताओं ने एक मज़बूत प्रतिरोधी धमक दर्ज की और देश के वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन में इनकी गहरी पैठ हुई। आगे फिर ‘कपड़े के जूते’, ‘पतंग’, ‘भागी हुई लड़कियाँ’, ‘ब्रूनो की बेटियाँ’ जैसी लंबी कविताओं से उनकी कविता उपस्थिति और गहन हुई और वह प्रतिरोधी चेतना के अनिवार्य कवि के रूप में स्थापित हुए।   


सातवें दशक के उत्तरार्द्ध में बदलते सामाजिक परिदृश्यों और सत्ता के क्रूर स्वरूप के विरुद्ध उभरती जन भागीदारियों ने एक नए तरह की कविता की आवश्यकता को जन्म दिया था। कविता की यह धारा, जिसे हम ‘तीसरी धारा’ के रूप में जानते हैं, नक्सलबाड़ी आंदोलन और किसान  विद्रोहों के गर्भ से उत्पन्न हुई थी। इस धारा में प्रतिबद्धता को रचनाकर्म के एक नए प्रतिमान के रूप में स्वीकार किया गया। प्रतिबद्धता के इस प्रतिमान ने रचनाकारों को मार्क्सवादी राजनीति की ओर तो मोड़ा ही, कविता एवं राजनीति के बीच एक अनिवार्य संबंध और उनके परस्पर संघर्षों को भी स्वीकार किया जाने लगा। इस युगीन आवश्यकता में रचनाकारों के लिए आवश्यक हो गया कि वह न केवल मज़दूर, किसान, स्त्री, युवाओं के जीवन संघर्ष के भागी बनें बल्कि उन्हें रचनात्मक और वैचारिक नेतृत्व भी प्रदान करें। 


इसी परिदृश्य में आलोकधन्वा का उदय किसी ‘फ़िनोमेनन’ की तरह हुआ था। उनकी कविता का स्वर मध्यमवर्गीय प्रतिबद्ध चेतना के प्रतिरोध का स्वर है जिस पर समकालीन कृषक संघर्षों का स्पष्ट प्रभाव है। वह शोषण और शोषक के सभी रूपों की परख में सक्षम हैं और अपनी कविताओं में बार-बार इसे उजागर करते हैं। उनकी कविताओं में शोषण की पहचान भर नहीं है, जनता का प्रशिक्षण भी है और किसी समाधान के लिए सशस्त्र संघर्ष की आवश्यकता से भी मुँह नहीं मोड़ा गया है।  

आलोकधन्वा की कविताओं का संवाद किसी ‘रोमांटिसिज़्म’ का अवसर नहीं छोड़ता। उनकी कविताओं में जहाँ सत्ता-व्यवस्था के शोषण के चित्र हैं, वहीं जनता द्वारा इसके प्रतिरोध और संघर्ष के भी चित्र हैं। वह प्रतिरोध की संस्कृति के कवि हैं। उनकी कविताओं में आती स्त्रियाँ तक आत्मीयता के रंग तो छोड़ती हैं लेकिन वृहत स्त्रीवर्गीय संवाद का भागीदार बनने से भी नहीं चूकतीं।
कविताओं के अतिरिक्त आलोकधन्वा की सांस्कृतिक-वैचारिक सक्रियता भी रही है जहाँ वह विविध लेखक संगठनों और सांस्कृतिक मंचों से संबद्ध रहे। 
आलोकधन्वा की रचना-यात्रा के लगभग पाँच दशक हो गए हैं, लेकिन लेखन व प्रकाशन के मामले में वह अत्यंत संकोची, आत्म-संशयी और संयमी रहे हैं। ‘दुनिया रोज़ बनती है’ (1998) उनका एकमात्र कविता-संग्रह है, जो 50 वर्ष की उम्र में उन्होंने दोस्तों/प्रशंसकों के बहुत इसरार पर, उनकी ही मदद से प्रकाशित करवाया। उनकी कविताओं की दूसरी किताब अब तक प्रतीक्षा की राह में है। उनकी कविताओं का अँग्रेज़ी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है। साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित हिंदी कविताओं के अँग्रेज़ी अनुवाद संकलन ‘सरवाइवल’ में उनकी कविताएँ शामिल हैं। प्रसिद्ध अमेरिकी साहित्यिक पत्रिका ‘क्रिटिकल इनक्वायरी’ ने उनकी कविताओं के अनुवाद प्रकाशित किए हैं। 

पतंग कविता का सार
कविता पतंग आलोक धन्वा के एकमात्र संग्रह का हिस्सा है। यह एक लंबी कविता है जिसके तीसरे भाग को आपको पाठ्यपुस्तक में शामिल किया गया है। पतंग के बहाने इस कविता में बालसुलभ इच्छाओं एवं उमंगों का सुंदर चित्रण किया गया है। कवि कहते हैं कि सावन के महीने में आने वाली तेज़ बारिशें भी चली गई हैं और भादो का महीना भी बीत गया है। सावन और भादो के महीनों में आसमान में बादल छाये रहते हैं। लेकिन शरद ऋतु के आते ही आसमान एकदम साफ, स्वच्छ व निर्मल हो जाता हैं। शरद ऋतु में सुबह के समय आकाश में छाई हुई लालिमा कवि को खरगोश की आँखों की भांति लाल दिखाई दे रही हैं। शरद ऋतु कई पुलों को पार करते हुए आई है अर्थात पिछले साल की शरद ऋतु के जाने से इस साल की शरद ऋतु के आने तक कई ऋतुएँ बीती हैं, इन्हीं ऋतुओं को कवि ने पुल का नाम दिया है। शरद ऋतु में मौसम एकदम सुहाना हो जाता है जिसे देखकर बच्चों के समूह पतंग उड़ाने के लिए अपने घरों से बाहर निकल आते हैं। कवि शरद ऋतु को बालक की संज्ञा देते हुए कहता है कि बालक शरद अपने चमकीले इशारों से बच्चों के समूह को पतंग उड़ाने के लिए बुलाता है। उसने आकाश को मुलायम बना दिया हैं ताकि बच्चों की पतंग आसमान में आसानी से बहुत ऊंची उड़ सके। शरद ऋतु में आसमान में पतंगों के साथ-साथ बच्चों की अपनी कल्पनाएं भी आसमान में उड़ती हैं। कवि बच्चों की तुलना कपास से करते हुए कहते हैं कि जिस तरह कपास मुलायम, शुद्ध और सफेद होती हैं। ठीक उसी प्रकार बच्चे भी जन्म से ही अपने साथ निर्मलता, कोमलता लेकर आते हैं अर्थात बच्चों का मन व भावनाएं भी स्वच्छ, कोमल और पवित्र होती हैं। जब बच्चे पतंग को आकाश में उड़ता हुआ देखकर उसके पीछे भागते हैं तो उन्हें उस वक्त कठोर जमीन भी नरम ही महसूस होती हैं। पतंग उड़ाते हुए बच्चे इतने उत्साहित होते हैं कि वे चारों दिशाओं ने ऐसे दौड़ते-भागते हैं जैसे कोई ढोल-नगाड़ों पर झूमकर नाचता हो। दौड़ते हुए बच्चे इधर-उधर ऐसे भागते हैं जैसे किसी पेड़ की लचीली डाल हो। बच्चे पतंग के पीछे दौड़ते-भागते ऊँचे छतों के जोखिमभरे किनारों तक पहुंच जाते हैं। दौड़ते हुए बच्चे उन छतों से गिर भी सकते हैं लेकिन पतंग उड़ाते समय उनके रोमांचित शरीर का लचीलापन ही उनको छतों से नीचे गिरने से बचाता हैं। बच्चे अपनी कल्पनाओं व् भावनाओं को पतंग के सहारे ऊंचाइयों तक पहुंचा देते हैं। पतंग उड़ाते हुए कभी – कभी ये बच्चे छतों के भयानक किनारों से नीचे गिर भी जाते हैं और लचीले शरीर के कारण ज्यादा चोट न लगने पर बच भी जाते हैं। इस तरह बच जाने से वे और भी ज्यादा भय-हीन हो जाते हैं अर्थात उनके अंदर आत्मविश्वास और अधिक बढ़ जाता है। उनके अंदर से गिरने का डर बिलकुल खत्म हो जाता हैं और वो अत्यधिक उत्साह, साहस व निडरता के साथ फिर से छत पर आकर पतंग उड़ाने लगते हैं। उनका यह दोगुना जोश देखकर फिर तो ऐसा लगने लगता है कि जैसे दौड़ते-भागते बच्चों के पैरों के चारों ओर पृथ्वी और अधिक तेजी से घूम रही हो।


1.सबसे तेज़ बौछारें गयीं  भादों गया
सवेरा हुआ
ख़रगोश की आँखों जैसा लाल सवेरा
शरद आया पुलों को पार करते हुए
अपनी नयी चमकीली साइकिल तेज़ चलाते हुए
घंटी बजाते हुए ज़ोर–ज़ोर से
चमकीले इशारों से बुलाते हुए
पतंग उड़ाने वाले बच्चों के झुंड को
चमकीले इशारों से बुलाते हुए और
आकाश को इतना मुलायम बनाते हुए

खरगोश की आँखों जैसा लाल सवेरा
शरद आया पुलों को पार करते हुए
कि पतंग ऊपर उठ सके-
दुनिया की सबसे हलकी और रंगीन चीज उड़ सके-
दुनिया का सबसे पतला कागज उड़ सके-
बाँस की सबसे पतली कमानी उड़ सके
कि शुरू हो सके सीटियों, किलकारियों और
तितलियों की इतनी नाजुक दुनिया।

प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकलित कविता ‘पतंग’ से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता आलोक धन्वा हैं। प्रस्तुत कविता में कवि ने मौसम के साथ प्रकृति में आने वाले परिवर्तनों व बालमन की सुलभ चेष्टाओं का सजीव चित्रण किया है।

व्याख्या-कवि कहता है कि बरसात के मौसम में जो तेज बौछारें पड़ती थीं, वे समाप्त हो गई। तेज बौछारों और भादों माह की विदाई के साथ-साथ ही शरद ऋतु का आगमन हुआ। अब शरद का प्रकाश फैल गया है। इस समय सवेरे उगने वाले सूरज में खरगोश की आँखों जैसी लालिमा होती है। कवि शरद का मानवीकरण करते हुए कहता है कि वह अपनी नयी चमकीली साइकिल को तेज गति से चलाते हुए और जोर-जोर से घंटी बजाते हुए पुलों को पार करते हुए आ रहा है। वह अपने चमकीले इशारों से पतंग उड़ाने वाले बच्चों के झुंड को बुला रहा है।
दूसरे शब्दों में, कवि कहना चाहता है कि शरद ऋतु के आगमन से उत्साह, उमंग का माहौल बन जाता है। कवि कहता है कि शरद ने आकाश को मुलायम कर दिया है ताकि पतंग ऊपर उड़ सके। वह ऐसा माहौल बनाता है कि दुनिया की सबसे हलकी और रंगीन चीज उड़ सके। यानी बच्चे दुनिया के सबसे पतले कागज व बाँस की सबसे पतली कमानी से बनी पतंग उड़ा सकें। इन पतंगों को उड़ता देखकर बच्चे सीटियाँ किलकारियाँ मारने लगते हैं। इस ऋतु में रंग-बिरंगी तितलियाँ भी दिखाई देने लगती हैं। बच्चे भी तितलियों की भाँति कोमल व नाजुक होते हैं।

2. जन्म से ही वे अपने साथ लाते हैं कपास
पृथ्वी घूमती हुई आती है उनके बेचन पैरों के पास
जब वे दौड़ते हैं बेसुध
छतों को भी नरम बनाते हुए
दिशाओं को मृदंग की तरह बजाते हुए
जब वे पेंग भरते हुए चले आते हैं
डाल की तरह लचीले वेग सो अकसर
छतों के खतरनाक किनारों तक-
उस समय गिरने से बचाता हैं उन्हें
सिर्फ उनके ही रोमांचित शरीर का संगीत
पतंगों की धड़कती ऊँचाइयाँ उन्हें थाम लेती हैं 
महज़ एक धागे के सहारे।

प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकलित कविता ‘पतंग’ से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता आलोक धन्वा हैं। प्रस्तुत कविता में कवि ने प्रकृति में आने वाले परिवर्तनों व बालमन की सुलभ चेष्टाओं का सजीव चित्रण किया है।

व्याख्या- कवि कहता है कि बच्चों का शरीर कोमल होता है। वे ऐसे लगते हैं मानो वे कपास की नरमी, लोच आदि लेकर ही पैदा हुए हों। उनकी कोमलता को स्पर्श करने के लिए धरती भी लालायित रहती है। वह उनके बेचैन पैरों के पास आती है-जब वे मस्त होकर दौड़ते हैं। दौड़ते समय उन्हें मकान की छतें भी कठोर नहीं लगतीं। उनके पैरों से छतें भी नरम हो जाती हैं। उनकी पदचापों से सारी दिशाओं में मृदंग जैसा मीठा स्वर उत्पन्न होता है। वे पतंग उड़ाते हुए इधर से उधर झूले की पेंग की तरह आगे-पीछे आते-जाते हैं। उनके शरीर में डाली की तरह लचीलापन होता है।
पतंग उड़ाते समय वे छतों के खतरनाक किनारों तक आ जाते हैं। यहाँ उन्हें कोई बचाने नहीं आता, अपितु उनके शरीर का रोमांच ही उन्हें बचाता है। वे खेल के रोमांच के सहारे खतरनाक जगहों पर भी पहुँच जाते हैं। इस समय उनका सारा ध्यान पतंग की डोर के सहारे, उसकी उड़ान व ऊँचाई पर ही केंद्रित रहता है। ऐसा लगता है मानो पतंग की ऊँचाइयों ने ही उन्हें केवल डोर के सहारे थाम लिया हो।

3. पतंगों के साथ-साथ वे भी उड़ रहे हैं
अपने रंध्रों के सहारे
अगर वे कभी गिरते हैं छतों के खतरनाक किनारों से
और बच जाते हैं तब तो
और भी निडर होकर सुनहले सूरज के सामने आते हैं
प्रुथ्वी और भी तेज घूमती हुई जाती है
उनके बचन पैरों के पास।

प्रसंग- प्रस्तुत काव्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘आरोह, भाग-2’ में संकलित कविता ‘पतंग’ से उद्धृत है। इस कविता के रचयिता आलोक धन्वा हैं। इस कविता में कवि ने प्रकृति में आने वाले परिवर्तनों व बालमन की सुलभ चेष्टाओं का सजीव चित्रण किया है।

व्याख्या- कवि कहता है कि आकाश में अपनी पतंगों को उड़ते देखकर बच्चों के मन भी आकाश में उड़ रहे हैं। उनके शरीर के रोएँ भी संगीत उत्पन्न कर रहे हैं तथा वे भी आकाश में उड़ रहे हैं।
कभी-कभार वे छतों के किनारों से गिर जाते हैं, परंतु अपने लचीलेपन के कारण वे बच जाते हैं। उस समय उनके मन का भय समाप्त हो जाता है। वे अधिक उत्साह के साथ सुनहरे सूरज के सामने फिर आते हैं। दूसरे शब्दों में, वे अगली सुबह फिर पतंग उड़ाते हैं। उनकी गति और अधिक तेज हो जाती है। पृथ्वी और तेज गति से उनके बेचैन पैरों के पास आती है।

Wednesday

हरिवंश राय बच्चन का जीवन परिचय और उनकी कविता आत्म परिचय और एक गीत की व्याख्या

 हरिवंश राय बच्चन का जीवन परिचय

हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 को गांव बाबू पट्टी, ज़िला प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम प्रताप नारायण श्रीवास्तव एवं उनकी माता का नाम सरस्वती देवी था। बचपन में उनके माता-पिता उन्हें बच्चन नाम से पुकारते थे, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘ बच्चा ‘ होता है। डॉक्टर हरिवंश राय बच्चन का शुरुआती जीवन के ग्राम बाबू पट्टी में ही बीता। हरिवंश राय बच्चन का सरनेम असल में श्रीवास्तव था, पर उनके बचपन से पुकारे जाने वाले नाम की वजह से उनका सरनेम बच्चन हो गया था।
हरिवंश राय बच्चन ने कायस्थ पाठशाला में पहले उर्दू और फिर हिन्दी की शिक्षा ली जो उस समय कानून की डिग्री के लिए पहला कदम माना जाता था। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में MA और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू.बी. यीट्स की कविताओं पर शोध कर PhD पूरी की थी ।
1926 में 19 वर्ष की उम्र में उनका विवाह श्यामा बच्चन से हुआ था, जो उस समय 14 वर्ष की थीं। 1936 में टीबी के कारण श्यामा की मृत्यु हो गई। 5 साल बाद 1941 में बच्चन ने एक पंजाबन तेजी सूरी से विवाह किया जो रंगमंच तथा गायन से जुड़ी हुई थी । इसी समय उन्होंने ‘ नीड़ का निर्माण फिर-फिर’ जैसी कविताओं की रचना की । तेजी बच्चन से अमिताभ तथा अजीताभ पुत्र हुए। अमिताभ बच्चन का प्रसिद्ध अभिनेता है । तेजी हरिवंश राय बच्चन ने शेक्सपियर के अनूदित कई नाटकों में अभिनय किया है।
1952 में हरिवंश राय बच्चन पढ़ने के लिए इंग्लैंड चले गए, जहां कैंब्रिज विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य/काव्य पर शोध किया ।1955 में कैम्ब्रिज से वापस आने के बाद भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिंदी विशेषण के रूप में नियुक्त हो गए। हरिवशं राय बच्चन राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रहे है। 1976 में हरिवंश राय बच्चन को पद्मभूषण की उपाधि मिली। इससे पहले उनको 2 चट्टाने के लिए 1968 में साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला था।


हरिवंश राय बच्चन की शिक्षा
इस महान साहित्यकार के शुरुआती शिक्षा अपने जिले के प्राथमिक स्कूल से हुई,  उसके बाद कायस्थ पाठशाला से उर्दू की शिक्षा ली जो उनके खानदान की परंपरा भी थी। इसके बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में MA की पढ़ाई पूरी की। आगे चलकर अंग्रेजी साहित्य में विख्यात कवि की कविताओं पर शोध करते हुए कैंब्रिज विश्वविद्यालय इंग्लैंड में अपनी PhD की शिक्षा पूरी की।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरी की पढ़ाई
प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद हरिवंश राय बच्चन ने सन् 1929 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से BA किया। इसके तुरंत बाद उन्होंने MA में एडमिशन ले लिया। गांधी जी का असहयोग आन्दोलन शुरू होने के कारण सन् 1930 में उन्होंने MA प्रथम वर्ष पास करने के बाद पढाई छोड़ दी, जिसे उन्होंने सन्1937-38 में पूरा किया। अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू बी यीट्स की कविताओं पर रिसर्च करने के लिए वह कैम्ब्रिज भी गए।

हरिवंश राय बच्चन के करियर की शुरुआत
हरिवंश राय बच्चन ने सन् 1941-1952 तक इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रवक्ता के रूप में काम किया। इसके साथ-साथ वह आकाशवाणी के इलाहाबाद केंद्र से भी जुड़े रहे। सिर्फ इतना ही नहीं, उन्होंने फिल्मों के लिए भी लिखने का काम किया। अमिताभ के द्वारा अभिनय किया गया एक मशहूर गीत ‘रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे’ उन्होंने ही लिखा जिसे खुद उनके बेटे अमिताभ बच्चन ने गाया। सन् 1955 में कैम्ब्रिज से लौटने के बाद उनको भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ के रूप में नियुक्त किया गया। कहा जाता है कि श्यामा की मौत और तेजी से शादी, यही दो उनकी जिंदगी के दो महत्तवपूर्ण अंश हैं, जिनको उन्होंने अपनी कविताओं में हमेशा जगह दी।
उनकी आत्मकथा ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’, ‘नीड़ का निर्माण फिर’, ‘बसेरे से दूर’ और ‘दशद्वार से सोपान’ तक उनके बहुमूल्य लेखन रहे। हरिवंश राय बच्चन को सबसे बड़ी प्रसिद्धि मिली सन् 1935 में जब उनकी कविता मधुशाला छपि। इसके अलावा सन् 1966 में वह राज्य सभा के सदस्य के रूप में भी चुने गए। हरिवंश राय बच्चन को सन् 1976 में पद्म भूषण के सम्मान से नवाजा गया ।
हरिवंश राय बच्चन का कार्य क्षेत्र
1955 में इंग्लैंड से वापस आने के बाद, हरिवंश राय बच्चन ने ऑल इंडिया रेडियो में काम शुरू कर दिया। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाना और हिंदी भाषा को बढ़ावा देने के लिए काम करते हुए कविता लिखना जारी किया। इसके बाद कुछ 10 साल तक वे विदेश मंत्रालय से जुड़े रहे ।
उनको लिखने का शौक बचपन से ही था। उन्होंने फारसी कवि उम्र शाम की कविताओं का हिंदी में अनुवाद किया था। इसी बात से प्रोत्साहित होकर उन्होंने कई क्रुतियाँ लिखि जिनमें मधुशाला,  मधुबाला, मधु कलश आदि शामिल है। उनके इस सरलता वाले काव्य को बहुत पसंद किया जाने लगा। मधुशाला ने हरिवंश राय बच्चन को सबसे ज्यादा प्रसिद्धि दिलाई। हरिवंश राय बच्चन को उमर खय्याम की ही तरह शेक्सपियर, मैकबेथ और आथेलो और भगवत गीता के हिंदू के अनुवाद के लिए हमेशा याद किया जाता है। इन्होंने नवंबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या पर आधारित अपने अंतिम कृति लिखी थी।

आत्मपरिचय कविता का सार
‘आत्मपरिचय’ कविता हरिवंश राय बच्चन जी द्वारा रचित उनके काव्य संग्रह ‘निशा निमंत्रण’ में संकलित है। इस कविता में कवि ने व्यक्ति और संसार का घनिष्ट सम्बन्ध दर्शाया है। इस सम्बन्ध के कारण संसार से निरपेक्ष रहना संभव नहीं है। कवि कहता है कि वह संसार में जीवन का भार अर्थात सांसारिक जिम्मेदारियों  के बाबजूद अपने जीवन से प्यार करता है। कवि अपने जीवन को सितार की तरह मानते हैं,  किसी प्रिय के द्वारा कवि के कोमल मन की भावनाओं को छू लेने से जो दिल में हलचल पैदा हुई है, उसी प्रेम से भरे हुए अपने जीवन को कवि जी रहा है। कवि प्रेम रूपी मदिरा को पीकर उसके नशे में मस्त रहते हैं। कवि के अनुसार यह पूरा संसार उन्हीं लोगों को अधिक महत्व देता है जो संसार के अनुसार चलते हैं तथा उनका गुणगान करते हैं। लेकिन कवि अपने मन की इच्छा के अनुसार चलता है, अर्थात वह कवि वही करता है जो उसका मन कहता है। फिर दुनिया उनके बारे में क्या कहेगी, इसकी उन्होंने कभी परवाह नहीं की। कवि के अनुसार यह संसार अधूरा है, जिस कारण उसको यह संसार पसंद नहीं आता। कवि को स्वार्थी व् चापलूसी से भरे संसार में रहने से अधिक, अपनी कल्पना के संसार में (जहाँ प्रेम ही प्रेम भरा है) रहना पसंद है। संसार के लोग संसार के आपदाओं रूपी सागर को पार करने के लिए कर्म रूपी नाव बनाते हैं, परंतु कवि संसार रूपी सागर की लहरों पर मस्त होकर बहता है। वह अपनी जवानी के पागलपन की मस्ती में घूमता रहता है। इस पागलपन के कारण कवि अनेक दुखों व् निराशा का भी सामना करता है और वह इन दुखों व् निराशा को साथ में लिए घूमता है। इस संसार में लोगों ने सत्य को जानने की कोशिश की, परंतु कोई भी सत्य को नहीं जान पाया और बिना सत्य जाने ही इस संसार को छोड़ कर चले गए। कवि बताते हैं कि नादान अर्थात मूर्ख भी वहीं होते हैं जहाँ समझदार एवं चतुर होते हैं। हर व्यक्ति अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए वैभव, समृद्ध, भोग-विलास की तरफ भाग रहा है। वे इतना सत्य भी नहीं सीख सके हैं कि सांसारिक वस्तुएँ सदैव के लिए नहीं रहती। यह सब जानते समझते हुए भी अगर यह संसार कुछ सीख नहीं पाता हैं तो, फिर इसे मूर्ख ही कहा जायेगा। कवि इस बात को जान चुका है। इसलिए जो भी सांसारिक बातें कवि ने सीखी हैं, अब वह उनको भूलना चाहता है। क्योंकि कवि अपनी मस्ती में रहते हुए, अपने मन के अनुसार जीना चाहता है। कवि जिस तरह का व्यक्ति है, संसार उससे बिलकुल अलग है। कवि हर रोज अपनी कल्पना के अनुसार संसार का निर्माण करता है, फिर उसे मिटा देता है। कवि अपने रोने को प्रेम में छिपाए फिरता है। कवि की वाणी भले ही ठंडी सी प्रतीत होती हो परन्तु वह उसमें पूरा जोश लेकर चलता है। प्रेम की पीड़ा के कारण उसके मन का रोना अर्थात मन की पीड़ा शब्द रूप में प्रकट हुई और उसके इस रोने को संसार ने गीत समझा। जब कवि की वेदना अधिक हो गई, तो उसने अपने दुख को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करना चाहा और संसार इस प्रक्रिया को मात्राओं का निश्चित मान अनुसार पद्य रचना मानने लगी। कवि को यह समझ नहीं आ रहा है कि यह संसार उसे कवि के रूप में क्यों अपनाना चाह रहा है? क्योंकि कवि तो स्वयं को नया दीवाना कहता है जो इस दुनिया में मिलने वाली हर परिस्थितियों में मस्त रहता है। कवि प्रेम रूपी मस्ती का सन्देश लिए फिरता है जिसको सुनकर सारा संसार झूम उठता है। कवि के प्रेम भरे गीतों की मस्ती सुनकर लोग प्रेम में झुक जाते हैं तथा प्रेम के आनंद से झूमने लगते हैं।


काव्यांश 1.

मैं जग – जीवन का मार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने प्रकृत जिनको छूकर
मैं साँसों के दो तार लिए फिरता हुँ !
मैं स्नेह-सुरा का पान किया कस्ता हूँ,
में कभी न जग का ध्यान किया करता हुँ,
जग पूछ रहा उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ !

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियाँ आत्म-परिचय नामक कविता से ली गई हैं और आत्म-परिचय कविता के कवि हरिवंश राय बच्चन जी हैं। उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि वह संसार में जीवन का भार अर्थात सांसारिक कठिनाइयों का बोझ उठाता घूमता है फिर भी इन सबके बावजूद कवि का जीवन प्यार से भरा रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी कठिनाइयों के बाबजूद कवि अपने जीवन से प्यार करता है। कवि अपने जीवन को सितार की तरह मानते हैं, जिसके तारों को उनके अनुसार किसी ने छूकर कम्पित कर दिया है अर्थात छेड़ दिया है। और वे मानते हैं कि उनका जीवन इन्हीं तार रूपी साँसों के कारण चल रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी प्रिय के द्वारा कवि के कोमल मन की भावनाओं को छू लेने से जो दिल में हलचल पैदा हुई है, उसी प्रेम से भरे हुए अपने जीवन को कवि जी रहा है।
आगे कवि कहते हैं कि उन्हें उनके जीवन में जो प्रेम मिला है। वे उसी प्रेम रूपी मदिरा अर्थात शराब को पीकर उसके नशे में मस्त रहते हैं। उन्होंने कभी संसार की परवाह नहीं की। क्योंकि कवि के अनुसार यह पूरा संसार उन्हीं लोगों को अधिक महत्व देता है या उन्ही को पूछता हैं जो संसार के अनुसार चलते हैं तथा उनका गुणगान करते हैं। लेकिन कवि अपने मन की इच्छा के अनुसार चलता है, अर्थात वह कवि वही करता है जो उसका मन कहता है। फिर दुनिया उनके बारे में क्या कहेगी, इसकी उन्होंने कभी परवाह नहीं की।

काव्यांश 2.

मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ!
है यह अपूर्ण संसार न मुझको भाता
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ!
मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ!
जग भव-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव मौजों पर मस्त बहा करता हूँ!

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियाँ आत्म-परिचय नामक कविता से ली गई हैं और आत्म-परिचय कविता के कवि हरिवंश राय बच्चन जी हैं। उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि वह हर समय अपने हृदय के भावों को संसार के समक्ष लाने की कोशिश करता रहता है। कवि को जो प्रेम रूपी भेंट मिली है वह उसको हमेशा अपने दिल में लिए फिरता है। कवि के अनुसार यह संसार अधूरा है, जिस कारण उसको यह संसार पसंद नहीं आता। यही वजह है कि कवि अपनी कल्पना के संसार में खुश रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कवि को स्वार्थी व् चापलूसी से भरे संसार में रहने से अधिक, अपनी कल्पना के संसार में (जहाँ प्रेम ही प्रेम भरा है) रहना पसंद है।
कवि आगे कहता है कि वह अपने हृदय में प्रेम रूपी आग जलाकर उसमें जलता रहता है। इस प्रेम रूपी अग्नि के कारण ही कवि अपने जीवन में आने वाले सुख-दुख दोनों में डूबा रहता है। अर्थात दोनों में एक सामान व्यवहार करता है। संसार के लोग संसार के आपदाओं रूपी सागर को पार करने के लिए कर्म रूपी नाव बनाते हैं, अर्थात बहुत से प्रयास करते हैं। परंतु कवि संसार रूपी सागर की लहरों पर मस्त होकर बहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कवि अपने जीवन में आने वाले सुख-दुख रूपी लहरों में भी मस्त रहता हूँ। क्योंकि कवि के अनुसार उसके पास तो प्रेम की नाव है।

काव्यांश 3.

मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,
उन्मादों में अवसाद लिए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!
कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादान वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भुलाना!

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियाँ आत्म-परिचय नामक कविता से ली गई हैं और आत्म-परिचय कविता के कवि हरिवंश राय बच्चन जी हैं। उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि वह अपनी जवानी के पागलपन की मस्ती में घूमता रहता है। इस पागलपन के कारण कवि अनेक दुखों व् निराशा का भी सामना करता है और वह इन दुखों व् निराशा को साथ में लिए घूमता है। अर्थात वह अपना जीवन दुखों व् निराश के साथ जी रहा है। कवि किसी प्रिय को याद करता रहता है जिसकी याद उसे बाहर से तो हँसा जाती है, परंतु उसका मन रो देता है अर्थात याद आने पर कवि का मन व्याकुल हो जाता है।
कवि आगे कहता है कि इस संसार में लोगों ने सत्य को जानने की कोशिश की, परंतु कोई भी सत्य को नहीं जान पाया और बिना सत्य जाने ही इस संसार को छोड़ कर चले गए। कवि बताते हैं कि नादान अर्थात मूर्ख भी वहीं होते हैं जहाँ समझदार एवं चतुर होते हैं। कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि हर व्यक्ति अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए वैभव, समृद्ध, भोग-विलास की तरफ भाग रहा है। वे इतना सत्य भी नहीं सीख सके हैं कि सांसारिक वस्तुएँ सदैव के लिए नहीं रहती। यह सब जानते समझते हुए भी अगर यह संसार कुछ सीख नहीं पाता हैं तो, फिर इसे मूर्ख ही कहा जायेगा। कवि कहते हैं कि वह इस बात को जान चुका है। उन्होंने इस दुनिया में रहते हुए जो भी सांसारिक बातें सीखी हैं, अब वह उनको भूलना चाहता है। क्योंकि कवि अपनी मस्ती में रहते हुए, अपने मन के अनुसार जीना चाहता है।

काव्यांश 4.

मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता!
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिस पर भूपों के प्रासाद निछावर,
मैं वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ।

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियाँ आत्म-परिचय नामक कविता से ली गई हैं और आत्म-परिचय कविता के कवि हरिवंश राय बच्चन जी हैं। उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि कवि का और संसार का कोई संबंध नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि कवि जिस तरह का व्यक्ति है, संसार उससे बिलकुल अलग है। अर्थात कवि और संसार में कोई समानता नहीं है। कवि हर रोज अपनी कल्पना के अनुसार संसार का निर्माण करता है, फिर उसे मिटा देता है। कवि कहता है कि यह संसार इस धरती पर सुख-समृद्धि के साधन इकट्ठे करता रहता है, उस धरती को कवि हर कदम पर ठुकराया करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कवि जिस धरती पर रहता है उसके अनुसार न चल कर उसके विपरीत व्यवहार करता है।
आगे कवि कहता है कि वह अपने रोने को प्रेम में छिपाए फिरता है। कवि की वाणी भले ही ठंडी सी प्रतीत होती हो परन्तु वह उसमें पूरा जोश लेकर चलता है। कवि मानता है कि उसका जीवन प्रेम में निराशा के कारण खंडहर-सा हो गया है, फिर भी वह ऐसे खंडहर का एक हिस्सा लिए घूमता है जिस पर किसी राजा का महल भी न्योछावर किया जा सकता है। कहने का आशय यह है कि कवि अपने मन में जो प्रेम लिए फिरता है उसे वह सबसे अनमोल मानता है।

काव्यांश 5.

मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना!
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!
मैं दीवानों का वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूँ!
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ!

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियाँ आत्म-परिचय नामक कविता से ली गई हैं और आत्म-परिचय कविता के कवि हरिवंश राय बच्चन जी हैं। उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि प्रेम की पीड़ा के कारण उसके मन का रोना अर्थात मन की पीड़ा शब्द रूप में प्रकट हुई और उसके इस रोने को संसार ने गीत समझा। जब कवि की वेदना अधिक हो गई, तो उसने अपने दुख को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करना चाहा और संसार इस प्रक्रिया को मात्राओं का निश्चित मान अनुसार पद्य रचना मानने लगी। कवि को यह समझ नहीं आ रहा है कि यह संसार उसे कवि के रूप में क्यों अपनाना चाह रहा है? क्योंकि कवि तो स्वयं को नया दीवाना कहता है जो इस दुनिया में मिलने वाली हर परिस्थितियों में मस्त रहता है।
कवि आगे कहते हैं कि न जाने क्यों समाज उसे दीवाना स्वीकार नहीं करता। जबकि वह दीवानों का रूप धारण करके संसार में घूमता रहता है। उसके जीवन में जो प्रेम रूपी मस्ती शेष रह गई है, वह उसे लिए घूमता फिरता है। कवि उसी प्रेम रूपी मस्ती का सन्देश लिए फिरता है जिसको सुनकर सारा संसार झूम उठता है। कवि के प्रेम भरे गीतों की मस्ती सुनकर लोग प्रेम में झुक जाते हैं तथा प्रेम के आनंद से झूमने लगते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि कवि अपने मन के भावों को शब्दों में व्यक्त करता है और संसार के लोग उन शब्दों को गीत समझकर झूम उठते हैं।

एक गीत’ कविता का सार
‘एक गीत’ कविता हरिवंश राय बच्चन जी द्वारा रचित उनके काव्य संग्रह ‘निशा निमंत्रण’ में संकलित है। अपने लक्ष्य की प्राप्ति की होड़ में समय जल्दी-जल्दी गुजरता हुआ प्रतीत होता है इसी को समझाते हुए इस कविता में कवि कहते हैं कि कहीं रास्ते में ही रात न हो जाए इस वजह से शाम होते देखकर यात्री तेजी से चलता है। लक्ष्य-प्राप्ति के लिए पथिक अपने थके हुए शरीर के बावजूद भी मन में भी उल्लास, तरंग और आशा भर कर अपने पैरों की गति कम नहीं होने देता।
कवि प्रकृति के माध्यम से उदाहरण देता हुआ कहता है कि चिड़ियाँ भी दिन ढलने पर अत्यधिक क्रियाशील हो उठती हैं। वे जितनी जल्दी हो सके अपने घोंसलों में पहुँचना चाहती हैं क्योंकि उन्हें ध्यान आता है कि उनके बच्चे भोजन की आशा में घोंसलों से बाहर झाँक रहे होंगे। यह ध्यान आते ही वे अपने पंखों को तेजी से चलती है क्योंकि दिन जल्दी जल्दी ढल रहा है और वे जल्दी-जल्दी अपने घोंसलों में पहुँच जाना चाहती हैं। कवि कहता है कि इस संसार में वह बिलकुल अकेला है। इस कारण कवि को लगता है कि कोई उसकी प्रतीक्षा नहीं करता, तो भला वह किसके लिए भागकर घर जाए। कवि के मन में जैसे ही यह प्रश्न आता है तो कवि अपने आप को थका हुआ महसूस करता है। उसका हृदय इस बेचैनी से भर जाता है कि रात में अकेलेपन और उसकी प्रिया की वियोग-पीड़ा कवि के मन को परेशान कर देगी। इस परेशानी से कवि का हृदय पीड़ा से बेचैन हो उठता है।

काव्यांश 1.

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
हो जाए न पथ में रात कहीं,
मंजिल भी तो है दूर नहीं-
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता हैं!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता हैं!

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियाँ आत्म-परिचय नामक कविता से ली गई हैं और आत्म-परिचय कविता के कवि हरिवंश राय बच्चन जी हैं। अपने लक्ष्य की प्राप्ति की होड़ में समय जल्दी-जल्दी गुजरता हुआ प्रतीत होता है इसी को समझाते हुए उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि कहीं रास्ते में ही रात न हो जाए इस वजह से शाम होते देखकर यात्री तेजी से चलता है। यात्री को पता है कि उसकी मंजिल दूर नहीं है, इस कारण वह दिन भर थका होने के बावजूद भी जल्दी-जल्दी चलता है। कहने का तातपर्य यह है कि लक्ष्य-प्राप्ति के लिए पथिक अपने थके हुए शरीर के बावजूद भी मन में भी उल्लास, तरंग और आशा भर कर अपने पैरों की गति कम नहीं होने देता।

काव्यांश 2.

बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे-
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !
मुझसे मिलने को कौन विकल?
मैं होऊँ किसके हित चंचला?
यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विहवलता हैं!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियाँ आत्म-परिचय नामक कविता से ली गई हैं और आत्म-परिचय कविता के कवि हरिवंश राय बच्चन जी हैं। उपरोक्त पंक्तियों में कवि  प्रकृति के माध्यम से उदाहरण देता हुआ कहता है कि चिड़ियाँ भी दिन ढलने पर चंचल अर्थात अत्यधिक क्रियाशील हो उठती हैं। वे जितनी जल्दी हो सके अपने घोंसलों में पहुँचना चाहती हैं क्योंकि उन्हें ध्यान आता है कि उनके बच्चे भोजन की आशा में घोंसलों से बाहर झाँक रहे होंगे। यह ध्यान आते ही वे अपने पंखों को तेजी से चलती है क्योंकि दिन जल्दी जल्दी ढल रहा है और वे जल्दी-जल्दी अपने घोंसलों में पहुँच जाना चाहती हैं।
आगे कवि कहता है कि इस संसार में वह बिलकुल अकेला है। इस कारण कवि को लगता है कि उससे मिलने के लिए कोई भी परेशान नहीं होता, अर्थात कोई  उसकी प्रतीक्षा नहीं करता, तो भला वह किसके लिए चंचल हो अर्थात किसके लिए भागकर घर जाए। कवि के मन में जैसे ही यह प्रश्न आता है तो उसे महसूस होता है कि उसके पैर ढीले हो गए हैं अर्थात कवि अपने आप को थका हुआ महसूस करता है। उसका हृदय इस बेचैनी से भर जाता है कि दिन जल्दी ढल रहा है और रात होने वाली है। कहने का तात्पर्य यह है कि रात में अकेलेपन और उसकी प्रिया की वियोग-पीड़ा कवि के मन को परेशान कर देगी। इस परेशानी से कवि का हृदय पीड़ा से बेचैन हो उठता है।

Thursday

सूरदास के पदों की व्याख्या

 सूरदास का जीवन परिचय 




सूरदास (Surdas) का जन्म 1540 (वि. स.) में रुनकता नामक गाँव में हुआ। यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म सीही नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था. वे बहुत विद्वान थे, उनकी लोग आज भी चर्चा करते है.

सूरदास (Surdas) के पिता, रामदास गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने के विषय में मतभेद है। प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे और वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई. वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में 1620 (वि. स.) में हुई।

‘चौरासी वैष्णव की वार्ता’ के वर्णन के अनुसार उनका जन्म रुनकता अथवा रेणु का क्षेत्र (वर्तमान जिला आगरा के अंतर्गत) में हुआ था। मथुरा और आगरा के बीच गऊघाट पर ये निवास करते थे। बल्लभाचार्य से इनकी भेंट वहीं पर हुई थी। “भावप्रकाश’ में सूर का जन्म स्थान सीही नामक ग्राम बताया गया है। वे सारस्वत ब्राह्मण थे और जन्म के अंधे थे।

“आइने अकबरी’ में (संवत् 1653 वि०) तथा “मुतखबुत-तवारीख’ के अनुसार सूरदास को अकबर के दरबारी संगीतज्ञों में माना है।

अधिकतर विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म सीही नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद में ये आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे।



सूरदास की कृतियॉं-
भक्‍त शिरोमणि सूरदास ने लगभग सवा-लाख पदों की रचना की थी। ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा‘ की खोज तथा पुस्‍तकालय में सुरक्षित नामावली के अनुसार सूरदास के ग्रन्‍थों की संख्‍या 25 मानी जाती है।
 
  • सूरसागर 
  • सूरसारावली 
  • साहित्‍य-लहरी 
  • नाग लीला
  • गोवर्धन लीला
  • पद संग्रह
  • सूर पच्‍चीसी
 सूरदास ने अपनी इन रचनाओं में श्रीकृष्‍ण की विविध लीलाओं का वर्णन किया है। इनकी कविता में भावपद और कलापक्ष दोनों समान रूप से प्रभावपूर्ण है। सभी पद गेय है, अत:उनमें माधुर्य गुूण की प्रधानता है। इनकी रचनाओं में व्‍यक्‍त सूक्ष्‍म दृष्टि का ही कमाल है कि आलोचक अब इनके अनघा होने में भी सन्‍देह करने लगे है।



सूरदास की काव्यगत विशेषताएँ (भाषा शैली)

सूरदास के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के अनुग्रह से मनुष्य को सद्गति मिल सकती है। अटल भक्ति, कर्मभेद, जातिभेद, ज्ञान, योग से श्रेष्ठ है। सूर ने वात्सल्य, श्रृंगार और शांत रसों को मुख्य रूप से अपनाया है। सूर ने अपनी कल्पना और प्रतिभा के सहारे कृष्ण के बाल्य-रूप का अति सुंदर, सरस, सजीव और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। बालकों की चपलता, स्पर्धा, अभिलाषा, आकांक्षा का वर्णन करने में विश्व व्यापी बाल-स्वरूप का चित्रण किया है। बाल-कृष्ण की एक-एक चेष्टा के चित्रण में कवि ने कमाल की होशियारी एवं सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय दिया है़-

मैया कबहिं बढैगी चौटी?

किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी।


 

सूर के कृष्ण प्रेम और माधुर्य प्रतिमूर्ति है। जिसकी अभिव्यक्ति बड़ी ही स्वाभाविक और सजीव रूप में हुई है।जो कोमलकांत पदावली, भावानुकूल शब्द-चयन, सार्थक अलंकार-योजना, धारावाही प्रवाह, संगीतात्मकता एवं सजीवता सूर की भाषा में है, उसे देखकर तो यही कहना पड़ता है कि सूर ने ही सर्व प्रथम ब्रजभाषा को साहित्यिक रूप दिया है।

सूर ने भक्ति के साथ श्रृंगार को जोड़कर उसके संयोग-वियोग पक्षों का जैसा वर्णन किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।सूर ने विनय के पद भी रचे हैं, जिसमें उनकी दास्य-भावना कहीं-कहीं तुलसीदास से भी आगे बढ़ जाती है-

हमारे प्रभु औगुन चित न धरौ।

समदरसी है मान तुम्हारौ, सोई पार करौ।


 

सूर ने स्थान-स्थान पर कूट पद भी लिखे हैं। इनके समान प्रेम का स्वच्छ और मार्जित रूप का चित्रण भारतीय साहित्य में किसी और कवि ने नहीं किया है यह सूरदास की अपनी विशेषता है। वियोग के समय राधिका का जो चित्र सूरदास ने चित्रित किया है, वह इस प्रेम के योग्य है

सूर ने यशोदा आदि के शील, गुण आदि का सुंदर चित्रण किया है।सूर का भ्रमरगीत वियोग-श्रृंगार का ही उत्कृष्ट ग्रंथ नहीं है अपितु उसमें सगुण और निर्गुण का भी विवेचन हुआ है। इसमें विशेषकर उद्धव-गोपी संवादों में हास्य-व्यंग्य के अच्छे छींटें भी मिलते हैं।

सूर काव्य में प्रकृति-सौंदर्य का सूक्ष्म और सजीव वर्णन मिलता है।

सूर की कविता में पुराने आख्यानों और कथनों का उल्लेख बहुत स्थानों में मिलता है।सूर के गेय पदों में ह्रृदयस्थ भावों की बड़ी सुंदर व्यजना हुई है। उनके कृष्ण-लीला संबंधी पदों में सूर के भक्त और कवि ह्रृदय की सुंदर झाँकी मिलती है।सूर का काव्य केवल भाव-पक्ष की दृष्टि से ही महान नहीं है अपितु कला-पक्ष की दृष्टि से भी वह उतना ही महत्वपूर्ण है। सूर की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा वाग्वैदिग्धपूर्ण है। अलंकार-योजना की दृष्टि से भी उनका कला-पक्ष सबल है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सूर की कवित्व-शक्ति के बारे में लिखा है  -

सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार-शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता है। उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है।


1. मैया, मैं तो चंद-खिलौना लैहौं।

जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहौं॥
सुरी कौ पय पान न करिहौं, बेनी सिर न गुहैहौं।
ह्वैहौं पूत नंद बाबा कौ, तेरौ सुत न कहैहौं॥
आगैं आउ, बात सुनि मेरी, बलदेवहि न जनैहौं।
हँसि समुझावति, कहति जसोमति, नई दुलहिया दैहौं॥
तेरी सौं, मेरी सुनि मैया, अबहिं बियाहन जैहौं।
सूरदास ह्वै कुटिल बराती, गीत सुमंगल गैहौं॥


व्याख्या- श्री कृष्ण कह रहे हैं, “मैया! मैं तो यह चंद्रमा-खिलौना लूँगा। यदि तू इसे नहीं देगी तो अभी ज़मीन पर लोट जाऊँगा, तेरी गोद में नहीं आऊँगा। न तो गैया का दूध पीऊँगा, न सिर में चुटियाँ गुँथवाऊँगा। मैं अपने नंद बाबा का पुत्र बनूँगा, तेरा बेटा नहीं कहलाऊँगा।” तब मैया यशोदा हँसती हुई समझाती हैं और कहती हैं “आगे आओ! मेरी बात सुनो, यह बात तुम्हारे दाऊ भैया को मैं नहीं बताऊँगी। तुम्हें मैं नई दुल्हनिया लाकर दूँगी।” यह सुनकर कृष्ण कहने लगे “तू मेरी मैया है, तेरी शपथ, सुन! मैं इसी समय ब्याह करने जाऊँगा।” सूरदास जी कहते हैं प्रभु! मैं आपका कुटिल बाराती बनूँगा और आपके विवाह में मंगल के सुंदर गीत गाऊँगा। 




2. मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो |
भोर भयो गैयन के पाछे, मधुवन मोहिं पठायो ।
चार पहर बंसीबट भटक्यो, साँझ परे घर आयो ॥
मैं बालक बहिंयन को छोटो, छींको किहि बिधि पायो ।
ग्वाल बाल सब बैर परे हैं, बरबस मुख लपटायो ॥
तू जननी मन की अति भोरी, इनके कहे पतिआयो ।
जिय तेरे कछु भेद उपजि है, जानि परायो जायो ॥
यह लै अपनी लकुटि कमरिया, बहुतहिं नाच नचायो ।
'सूरदास' तब बिहँसि जसोदा, लै उर कंठ लगायो ॥

व्याख्या- श्यामसुन्दर बोले- `मैया ! मैंने मक्खन नहीं खाया है । सुबह होते ही गायों के पीछे मुझे भेज देती हो।चार पहर भटकने के बाद साँझ होने पर वापस आता हूँ।मैं छोटा बालक हूँ मेरी बाहें छोटी हैं, मैं छींके तक कैसे पहुँच सकता हूँ? ये सब सखा मेरे से बैर रखते हैं, इन्होंने मक्खन जबऱन मेरे मुख में लिपटा दिया। माँ तू मन की बड़ी भोली है, इनकी बातों में आ गई। तेरे दिल में जरूर कोई भेद है,जो मुझे पराया समझ कर मुझ पर संदेह कर रही हो। ये ले, अपनी लाठी और कम्बल ले ले, तूने मुझे बहुत नाच नचा लिया है। सूरदास जी कहते हैं कि प्रभु ने अपनी बातों से माता के मन को मोहित कर लिया. माता यशोदा ने मुसकराकर श्यामसुन्दर को गले लगा लिया ।

परीक्षा के एक दिन पूर्व दो मित्रों की बातचीत का संवाद लेखन कीजिए-

संवाद लेखन किसे कहते हैं  संवाद लेखन -  वह लेखनी है जिसमें दो या अधिक व्यक्तियों के बीच होने वाली बातचीत को लिखित रूप में व्यक्त किया जाता ह...