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हरिवंश राय बच्चन का जीवन परिचय और उनकी कविता आत्म परिचय और एक गीत की व्याख्या

 हरिवंश राय बच्चन का जीवन परिचय

हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 को गांव बाबू पट्टी, ज़िला प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश के एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम प्रताप नारायण श्रीवास्तव एवं उनकी माता का नाम सरस्वती देवी था। बचपन में उनके माता-पिता उन्हें बच्चन नाम से पुकारते थे, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘ बच्चा ‘ होता है। डॉक्टर हरिवंश राय बच्चन का शुरुआती जीवन के ग्राम बाबू पट्टी में ही बीता। हरिवंश राय बच्चन का सरनेम असल में श्रीवास्तव था, पर उनके बचपन से पुकारे जाने वाले नाम की वजह से उनका सरनेम बच्चन हो गया था।
हरिवंश राय बच्चन ने कायस्थ पाठशाला में पहले उर्दू और फिर हिन्दी की शिक्षा ली जो उस समय कानून की डिग्री के लिए पहला कदम माना जाता था। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में MA और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू.बी. यीट्स की कविताओं पर शोध कर PhD पूरी की थी ।
1926 में 19 वर्ष की उम्र में उनका विवाह श्यामा बच्चन से हुआ था, जो उस समय 14 वर्ष की थीं। 1936 में टीबी के कारण श्यामा की मृत्यु हो गई। 5 साल बाद 1941 में बच्चन ने एक पंजाबन तेजी सूरी से विवाह किया जो रंगमंच तथा गायन से जुड़ी हुई थी । इसी समय उन्होंने ‘ नीड़ का निर्माण फिर-फिर’ जैसी कविताओं की रचना की । तेजी बच्चन से अमिताभ तथा अजीताभ पुत्र हुए। अमिताभ बच्चन का प्रसिद्ध अभिनेता है । तेजी हरिवंश राय बच्चन ने शेक्सपियर के अनूदित कई नाटकों में अभिनय किया है।
1952 में हरिवंश राय बच्चन पढ़ने के लिए इंग्लैंड चले गए, जहां कैंब्रिज विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य/काव्य पर शोध किया ।1955 में कैम्ब्रिज से वापस आने के बाद भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिंदी विशेषण के रूप में नियुक्त हो गए। हरिवशं राय बच्चन राज्यसभा के मनोनीत सदस्य भी रहे है। 1976 में हरिवंश राय बच्चन को पद्मभूषण की उपाधि मिली। इससे पहले उनको 2 चट्टाने के लिए 1968 में साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला था।


हरिवंश राय बच्चन की शिक्षा
इस महान साहित्यकार के शुरुआती शिक्षा अपने जिले के प्राथमिक स्कूल से हुई,  उसके बाद कायस्थ पाठशाला से उर्दू की शिक्षा ली जो उनके खानदान की परंपरा भी थी। इसके बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में MA की पढ़ाई पूरी की। आगे चलकर अंग्रेजी साहित्य में विख्यात कवि की कविताओं पर शोध करते हुए कैंब्रिज विश्वविद्यालय इंग्लैंड में अपनी PhD की शिक्षा पूरी की।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पूरी की पढ़ाई
प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद हरिवंश राय बच्चन ने सन् 1929 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से BA किया। इसके तुरंत बाद उन्होंने MA में एडमिशन ले लिया। गांधी जी का असहयोग आन्दोलन शुरू होने के कारण सन् 1930 में उन्होंने MA प्रथम वर्ष पास करने के बाद पढाई छोड़ दी, जिसे उन्होंने सन्1937-38 में पूरा किया। अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू बी यीट्स की कविताओं पर रिसर्च करने के लिए वह कैम्ब्रिज भी गए।

हरिवंश राय बच्चन के करियर की शुरुआत
हरिवंश राय बच्चन ने सन् 1941-1952 तक इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रवक्ता के रूप में काम किया। इसके साथ-साथ वह आकाशवाणी के इलाहाबाद केंद्र से भी जुड़े रहे। सिर्फ इतना ही नहीं, उन्होंने फिल्मों के लिए भी लिखने का काम किया। अमिताभ के द्वारा अभिनय किया गया एक मशहूर गीत ‘रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे’ उन्होंने ही लिखा जिसे खुद उनके बेटे अमिताभ बच्चन ने गाया। सन् 1955 में कैम्ब्रिज से लौटने के बाद उनको भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ के रूप में नियुक्त किया गया। कहा जाता है कि श्यामा की मौत और तेजी से शादी, यही दो उनकी जिंदगी के दो महत्तवपूर्ण अंश हैं, जिनको उन्होंने अपनी कविताओं में हमेशा जगह दी।
उनकी आत्मकथा ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’, ‘नीड़ का निर्माण फिर’, ‘बसेरे से दूर’ और ‘दशद्वार से सोपान’ तक उनके बहुमूल्य लेखन रहे। हरिवंश राय बच्चन को सबसे बड़ी प्रसिद्धि मिली सन् 1935 में जब उनकी कविता मधुशाला छपि। इसके अलावा सन् 1966 में वह राज्य सभा के सदस्य के रूप में भी चुने गए। हरिवंश राय बच्चन को सन् 1976 में पद्म भूषण के सम्मान से नवाजा गया ।
हरिवंश राय बच्चन का कार्य क्षेत्र
1955 में इंग्लैंड से वापस आने के बाद, हरिवंश राय बच्चन ने ऑल इंडिया रेडियो में काम शुरू कर दिया। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाना और हिंदी भाषा को बढ़ावा देने के लिए काम करते हुए कविता लिखना जारी किया। इसके बाद कुछ 10 साल तक वे विदेश मंत्रालय से जुड़े रहे ।
उनको लिखने का शौक बचपन से ही था। उन्होंने फारसी कवि उम्र शाम की कविताओं का हिंदी में अनुवाद किया था। इसी बात से प्रोत्साहित होकर उन्होंने कई क्रुतियाँ लिखि जिनमें मधुशाला,  मधुबाला, मधु कलश आदि शामिल है। उनके इस सरलता वाले काव्य को बहुत पसंद किया जाने लगा। मधुशाला ने हरिवंश राय बच्चन को सबसे ज्यादा प्रसिद्धि दिलाई। हरिवंश राय बच्चन को उमर खय्याम की ही तरह शेक्सपियर, मैकबेथ और आथेलो और भगवत गीता के हिंदू के अनुवाद के लिए हमेशा याद किया जाता है। इन्होंने नवंबर 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या पर आधारित अपने अंतिम कृति लिखी थी।

आत्मपरिचय कविता का सार
‘आत्मपरिचय’ कविता हरिवंश राय बच्चन जी द्वारा रचित उनके काव्य संग्रह ‘निशा निमंत्रण’ में संकलित है। इस कविता में कवि ने व्यक्ति और संसार का घनिष्ट सम्बन्ध दर्शाया है। इस सम्बन्ध के कारण संसार से निरपेक्ष रहना संभव नहीं है। कवि कहता है कि वह संसार में जीवन का भार अर्थात सांसारिक जिम्मेदारियों  के बाबजूद अपने जीवन से प्यार करता है। कवि अपने जीवन को सितार की तरह मानते हैं,  किसी प्रिय के द्वारा कवि के कोमल मन की भावनाओं को छू लेने से जो दिल में हलचल पैदा हुई है, उसी प्रेम से भरे हुए अपने जीवन को कवि जी रहा है। कवि प्रेम रूपी मदिरा को पीकर उसके नशे में मस्त रहते हैं। कवि के अनुसार यह पूरा संसार उन्हीं लोगों को अधिक महत्व देता है जो संसार के अनुसार चलते हैं तथा उनका गुणगान करते हैं। लेकिन कवि अपने मन की इच्छा के अनुसार चलता है, अर्थात वह कवि वही करता है जो उसका मन कहता है। फिर दुनिया उनके बारे में क्या कहेगी, इसकी उन्होंने कभी परवाह नहीं की। कवि के अनुसार यह संसार अधूरा है, जिस कारण उसको यह संसार पसंद नहीं आता। कवि को स्वार्थी व् चापलूसी से भरे संसार में रहने से अधिक, अपनी कल्पना के संसार में (जहाँ प्रेम ही प्रेम भरा है) रहना पसंद है। संसार के लोग संसार के आपदाओं रूपी सागर को पार करने के लिए कर्म रूपी नाव बनाते हैं, परंतु कवि संसार रूपी सागर की लहरों पर मस्त होकर बहता है। वह अपनी जवानी के पागलपन की मस्ती में घूमता रहता है। इस पागलपन के कारण कवि अनेक दुखों व् निराशा का भी सामना करता है और वह इन दुखों व् निराशा को साथ में लिए घूमता है। इस संसार में लोगों ने सत्य को जानने की कोशिश की, परंतु कोई भी सत्य को नहीं जान पाया और बिना सत्य जाने ही इस संसार को छोड़ कर चले गए। कवि बताते हैं कि नादान अर्थात मूर्ख भी वहीं होते हैं जहाँ समझदार एवं चतुर होते हैं। हर व्यक्ति अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए वैभव, समृद्ध, भोग-विलास की तरफ भाग रहा है। वे इतना सत्य भी नहीं सीख सके हैं कि सांसारिक वस्तुएँ सदैव के लिए नहीं रहती। यह सब जानते समझते हुए भी अगर यह संसार कुछ सीख नहीं पाता हैं तो, फिर इसे मूर्ख ही कहा जायेगा। कवि इस बात को जान चुका है। इसलिए जो भी सांसारिक बातें कवि ने सीखी हैं, अब वह उनको भूलना चाहता है। क्योंकि कवि अपनी मस्ती में रहते हुए, अपने मन के अनुसार जीना चाहता है। कवि जिस तरह का व्यक्ति है, संसार उससे बिलकुल अलग है। कवि हर रोज अपनी कल्पना के अनुसार संसार का निर्माण करता है, फिर उसे मिटा देता है। कवि अपने रोने को प्रेम में छिपाए फिरता है। कवि की वाणी भले ही ठंडी सी प्रतीत होती हो परन्तु वह उसमें पूरा जोश लेकर चलता है। प्रेम की पीड़ा के कारण उसके मन का रोना अर्थात मन की पीड़ा शब्द रूप में प्रकट हुई और उसके इस रोने को संसार ने गीत समझा। जब कवि की वेदना अधिक हो गई, तो उसने अपने दुख को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करना चाहा और संसार इस प्रक्रिया को मात्राओं का निश्चित मान अनुसार पद्य रचना मानने लगी। कवि को यह समझ नहीं आ रहा है कि यह संसार उसे कवि के रूप में क्यों अपनाना चाह रहा है? क्योंकि कवि तो स्वयं को नया दीवाना कहता है जो इस दुनिया में मिलने वाली हर परिस्थितियों में मस्त रहता है। कवि प्रेम रूपी मस्ती का सन्देश लिए फिरता है जिसको सुनकर सारा संसार झूम उठता है। कवि के प्रेम भरे गीतों की मस्ती सुनकर लोग प्रेम में झुक जाते हैं तथा प्रेम के आनंद से झूमने लगते हैं।


काव्यांश 1.

मैं जग – जीवन का मार लिए फिरता हूँ,
फिर भी जीवन में प्यार लिए फिरता हूँ;
कर दिया किसी ने प्रकृत जिनको छूकर
मैं साँसों के दो तार लिए फिरता हुँ !
मैं स्नेह-सुरा का पान किया कस्ता हूँ,
में कभी न जग का ध्यान किया करता हुँ,
जग पूछ रहा उनको, जो जग की गाते,
मैं अपने मन का गान किया करता हूँ !

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियाँ आत्म-परिचय नामक कविता से ली गई हैं और आत्म-परिचय कविता के कवि हरिवंश राय बच्चन जी हैं। उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि वह संसार में जीवन का भार अर्थात सांसारिक कठिनाइयों का बोझ उठाता घूमता है फिर भी इन सबके बावजूद कवि का जीवन प्यार से भरा रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी कठिनाइयों के बाबजूद कवि अपने जीवन से प्यार करता है। कवि अपने जीवन को सितार की तरह मानते हैं, जिसके तारों को उनके अनुसार किसी ने छूकर कम्पित कर दिया है अर्थात छेड़ दिया है। और वे मानते हैं कि उनका जीवन इन्हीं तार रूपी साँसों के कारण चल रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी प्रिय के द्वारा कवि के कोमल मन की भावनाओं को छू लेने से जो दिल में हलचल पैदा हुई है, उसी प्रेम से भरे हुए अपने जीवन को कवि जी रहा है।
आगे कवि कहते हैं कि उन्हें उनके जीवन में जो प्रेम मिला है। वे उसी प्रेम रूपी मदिरा अर्थात शराब को पीकर उसके नशे में मस्त रहते हैं। उन्होंने कभी संसार की परवाह नहीं की। क्योंकि कवि के अनुसार यह पूरा संसार उन्हीं लोगों को अधिक महत्व देता है या उन्ही को पूछता हैं जो संसार के अनुसार चलते हैं तथा उनका गुणगान करते हैं। लेकिन कवि अपने मन की इच्छा के अनुसार चलता है, अर्थात वह कवि वही करता है जो उसका मन कहता है। फिर दुनिया उनके बारे में क्या कहेगी, इसकी उन्होंने कभी परवाह नहीं की।

काव्यांश 2.

मैं निज उर के उद्गार लिए फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिए फिरता हूँ!
है यह अपूर्ण संसार न मुझको भाता
मैं स्वप्नों का संसार लिए फिरता हूँ!
मैं जला हृदय में अग्नि, दहा करता हूँ,
सुख-दुख दोनों में मग्न रहा करता हूँ!
जग भव-सागर तरने को नाव बनाए,
मैं भव मौजों पर मस्त बहा करता हूँ!

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियाँ आत्म-परिचय नामक कविता से ली गई हैं और आत्म-परिचय कविता के कवि हरिवंश राय बच्चन जी हैं। उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि वह हर समय अपने हृदय के भावों को संसार के समक्ष लाने की कोशिश करता रहता है। कवि को जो प्रेम रूपी भेंट मिली है वह उसको हमेशा अपने दिल में लिए फिरता है। कवि के अनुसार यह संसार अधूरा है, जिस कारण उसको यह संसार पसंद नहीं आता। यही वजह है कि कवि अपनी कल्पना के संसार में खुश रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कवि को स्वार्थी व् चापलूसी से भरे संसार में रहने से अधिक, अपनी कल्पना के संसार में (जहाँ प्रेम ही प्रेम भरा है) रहना पसंद है।
कवि आगे कहता है कि वह अपने हृदय में प्रेम रूपी आग जलाकर उसमें जलता रहता है। इस प्रेम रूपी अग्नि के कारण ही कवि अपने जीवन में आने वाले सुख-दुख दोनों में डूबा रहता है। अर्थात दोनों में एक सामान व्यवहार करता है। संसार के लोग संसार के आपदाओं रूपी सागर को पार करने के लिए कर्म रूपी नाव बनाते हैं, अर्थात बहुत से प्रयास करते हैं। परंतु कवि संसार रूपी सागर की लहरों पर मस्त होकर बहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कवि अपने जीवन में आने वाले सुख-दुख रूपी लहरों में भी मस्त रहता हूँ। क्योंकि कवि के अनुसार उसके पास तो प्रेम की नाव है।

काव्यांश 3.

मैं यौवन का उन्माद लिए फिरता हूँ,
उन्मादों में अवसाद लिए फिरता हूँ,
जो मुझको बाहर हँसा, रुलाती भीतर,
मैं, हाय, किसी की याद लिए फिरता हूँ!
कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना?
नादान वहीं है, हाय, जहाँ पर दाना!
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे?
मैं सीख रहा हूँ, सीखा ज्ञान भुलाना!

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियाँ आत्म-परिचय नामक कविता से ली गई हैं और आत्म-परिचय कविता के कवि हरिवंश राय बच्चन जी हैं। उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि वह अपनी जवानी के पागलपन की मस्ती में घूमता रहता है। इस पागलपन के कारण कवि अनेक दुखों व् निराशा का भी सामना करता है और वह इन दुखों व् निराशा को साथ में लिए घूमता है। अर्थात वह अपना जीवन दुखों व् निराश के साथ जी रहा है। कवि किसी प्रिय को याद करता रहता है जिसकी याद उसे बाहर से तो हँसा जाती है, परंतु उसका मन रो देता है अर्थात याद आने पर कवि का मन व्याकुल हो जाता है।
कवि आगे कहता है कि इस संसार में लोगों ने सत्य को जानने की कोशिश की, परंतु कोई भी सत्य को नहीं जान पाया और बिना सत्य जाने ही इस संसार को छोड़ कर चले गए। कवि बताते हैं कि नादान अर्थात मूर्ख भी वहीं होते हैं जहाँ समझदार एवं चतुर होते हैं। कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि हर व्यक्ति अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए वैभव, समृद्ध, भोग-विलास की तरफ भाग रहा है। वे इतना सत्य भी नहीं सीख सके हैं कि सांसारिक वस्तुएँ सदैव के लिए नहीं रहती। यह सब जानते समझते हुए भी अगर यह संसार कुछ सीख नहीं पाता हैं तो, फिर इसे मूर्ख ही कहा जायेगा। कवि कहते हैं कि वह इस बात को जान चुका है। उन्होंने इस दुनिया में रहते हुए जो भी सांसारिक बातें सीखी हैं, अब वह उनको भूलना चाहता है। क्योंकि कवि अपनी मस्ती में रहते हुए, अपने मन के अनुसार जीना चाहता है।

काव्यांश 4.

मैं और, और जग और, कहाँ का नाता,
मैं बना-बना कितने जग रोज़ मिटाता!
जग जिस पृथ्वी पर जोड़ा करता वैभव,
मैं प्रति पग से उस पृथ्वी को ठुकराता!
मैं निज रोदन में राग लिए फिरता हूँ,
शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ,
हों जिस पर भूपों के प्रासाद निछावर,
मैं वह खंडहर का भाग लिए फिरता हूँ।

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियाँ आत्म-परिचय नामक कविता से ली गई हैं और आत्म-परिचय कविता के कवि हरिवंश राय बच्चन जी हैं। उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि कवि का और संसार का कोई संबंध नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि कवि जिस तरह का व्यक्ति है, संसार उससे बिलकुल अलग है। अर्थात कवि और संसार में कोई समानता नहीं है। कवि हर रोज अपनी कल्पना के अनुसार संसार का निर्माण करता है, फिर उसे मिटा देता है। कवि कहता है कि यह संसार इस धरती पर सुख-समृद्धि के साधन इकट्ठे करता रहता है, उस धरती को कवि हर कदम पर ठुकराया करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कवि जिस धरती पर रहता है उसके अनुसार न चल कर उसके विपरीत व्यवहार करता है।
आगे कवि कहता है कि वह अपने रोने को प्रेम में छिपाए फिरता है। कवि की वाणी भले ही ठंडी सी प्रतीत होती हो परन्तु वह उसमें पूरा जोश लेकर चलता है। कवि मानता है कि उसका जीवन प्रेम में निराशा के कारण खंडहर-सा हो गया है, फिर भी वह ऐसे खंडहर का एक हिस्सा लिए घूमता है जिस पर किसी राजा का महल भी न्योछावर किया जा सकता है। कहने का आशय यह है कि कवि अपने मन में जो प्रेम लिए फिरता है उसे वह सबसे अनमोल मानता है।

काव्यांश 5.

मैं रोया, इसको तुम कहते हो गाना,
मैं फूट पड़ा, तुम कहते, छंद बनाना!
क्यों कवि कहकर संसार मुझे अपनाए,
मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना!
मैं दीवानों का वेश लिए फिरता हूँ,
मैं मादकता निःशेष लिए फिरता हूँ!
जिसको सुनकर जग झूम, झुके, लहराए,
मैं मस्ती का संदेश लिए फिरता हूँ!

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियाँ आत्म-परिचय नामक कविता से ली गई हैं और आत्म-परिचय कविता के कवि हरिवंश राय बच्चन जी हैं। उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि प्रेम की पीड़ा के कारण उसके मन का रोना अर्थात मन की पीड़ा शब्द रूप में प्रकट हुई और उसके इस रोने को संसार ने गीत समझा। जब कवि की वेदना अधिक हो गई, तो उसने अपने दुख को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करना चाहा और संसार इस प्रक्रिया को मात्राओं का निश्चित मान अनुसार पद्य रचना मानने लगी। कवि को यह समझ नहीं आ रहा है कि यह संसार उसे कवि के रूप में क्यों अपनाना चाह रहा है? क्योंकि कवि तो स्वयं को नया दीवाना कहता है जो इस दुनिया में मिलने वाली हर परिस्थितियों में मस्त रहता है।
कवि आगे कहते हैं कि न जाने क्यों समाज उसे दीवाना स्वीकार नहीं करता। जबकि वह दीवानों का रूप धारण करके संसार में घूमता रहता है। उसके जीवन में जो प्रेम रूपी मस्ती शेष रह गई है, वह उसे लिए घूमता फिरता है। कवि उसी प्रेम रूपी मस्ती का सन्देश लिए फिरता है जिसको सुनकर सारा संसार झूम उठता है। कवि के प्रेम भरे गीतों की मस्ती सुनकर लोग प्रेम में झुक जाते हैं तथा प्रेम के आनंद से झूमने लगते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि कवि अपने मन के भावों को शब्दों में व्यक्त करता है और संसार के लोग उन शब्दों को गीत समझकर झूम उठते हैं।

एक गीत’ कविता का सार
‘एक गीत’ कविता हरिवंश राय बच्चन जी द्वारा रचित उनके काव्य संग्रह ‘निशा निमंत्रण’ में संकलित है। अपने लक्ष्य की प्राप्ति की होड़ में समय जल्दी-जल्दी गुजरता हुआ प्रतीत होता है इसी को समझाते हुए इस कविता में कवि कहते हैं कि कहीं रास्ते में ही रात न हो जाए इस वजह से शाम होते देखकर यात्री तेजी से चलता है। लक्ष्य-प्राप्ति के लिए पथिक अपने थके हुए शरीर के बावजूद भी मन में भी उल्लास, तरंग और आशा भर कर अपने पैरों की गति कम नहीं होने देता।
कवि प्रकृति के माध्यम से उदाहरण देता हुआ कहता है कि चिड़ियाँ भी दिन ढलने पर अत्यधिक क्रियाशील हो उठती हैं। वे जितनी जल्दी हो सके अपने घोंसलों में पहुँचना चाहती हैं क्योंकि उन्हें ध्यान आता है कि उनके बच्चे भोजन की आशा में घोंसलों से बाहर झाँक रहे होंगे। यह ध्यान आते ही वे अपने पंखों को तेजी से चलती है क्योंकि दिन जल्दी जल्दी ढल रहा है और वे जल्दी-जल्दी अपने घोंसलों में पहुँच जाना चाहती हैं। कवि कहता है कि इस संसार में वह बिलकुल अकेला है। इस कारण कवि को लगता है कि कोई उसकी प्रतीक्षा नहीं करता, तो भला वह किसके लिए भागकर घर जाए। कवि के मन में जैसे ही यह प्रश्न आता है तो कवि अपने आप को थका हुआ महसूस करता है। उसका हृदय इस बेचैनी से भर जाता है कि रात में अकेलेपन और उसकी प्रिया की वियोग-पीड़ा कवि के मन को परेशान कर देगी। इस परेशानी से कवि का हृदय पीड़ा से बेचैन हो उठता है।

काव्यांश 1.

दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!
हो जाए न पथ में रात कहीं,
मंजिल भी तो है दूर नहीं-
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता हैं!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता हैं!

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियाँ आत्म-परिचय नामक कविता से ली गई हैं और आत्म-परिचय कविता के कवि हरिवंश राय बच्चन जी हैं। अपने लक्ष्य की प्राप्ति की होड़ में समय जल्दी-जल्दी गुजरता हुआ प्रतीत होता है इसी को समझाते हुए उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि कहीं रास्ते में ही रात न हो जाए इस वजह से शाम होते देखकर यात्री तेजी से चलता है। यात्री को पता है कि उसकी मंजिल दूर नहीं है, इस कारण वह दिन भर थका होने के बावजूद भी जल्दी-जल्दी चलता है। कहने का तातपर्य यह है कि लक्ष्य-प्राप्ति के लिए पथिक अपने थके हुए शरीर के बावजूद भी मन में भी उल्लास, तरंग और आशा भर कर अपने पैरों की गति कम नहीं होने देता।

काव्यांश 2.

बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे-
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है !
मुझसे मिलने को कौन विकल?
मैं होऊँ किसके हित चंचला?
यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विहवलता हैं!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियाँ आत्म-परिचय नामक कविता से ली गई हैं और आत्म-परिचय कविता के कवि हरिवंश राय बच्चन जी हैं। उपरोक्त पंक्तियों में कवि  प्रकृति के माध्यम से उदाहरण देता हुआ कहता है कि चिड़ियाँ भी दिन ढलने पर चंचल अर्थात अत्यधिक क्रियाशील हो उठती हैं। वे जितनी जल्दी हो सके अपने घोंसलों में पहुँचना चाहती हैं क्योंकि उन्हें ध्यान आता है कि उनके बच्चे भोजन की आशा में घोंसलों से बाहर झाँक रहे होंगे। यह ध्यान आते ही वे अपने पंखों को तेजी से चलती है क्योंकि दिन जल्दी जल्दी ढल रहा है और वे जल्दी-जल्दी अपने घोंसलों में पहुँच जाना चाहती हैं।
आगे कवि कहता है कि इस संसार में वह बिलकुल अकेला है। इस कारण कवि को लगता है कि उससे मिलने के लिए कोई भी परेशान नहीं होता, अर्थात कोई  उसकी प्रतीक्षा नहीं करता, तो भला वह किसके लिए चंचल हो अर्थात किसके लिए भागकर घर जाए। कवि के मन में जैसे ही यह प्रश्न आता है तो उसे महसूस होता है कि उसके पैर ढीले हो गए हैं अर्थात कवि अपने आप को थका हुआ महसूस करता है। उसका हृदय इस बेचैनी से भर जाता है कि दिन जल्दी ढल रहा है और रात होने वाली है। कहने का तात्पर्य यह है कि रात में अकेलेपन और उसकी प्रिया की वियोग-पीड़ा कवि के मन को परेशान कर देगी। इस परेशानी से कवि का हृदय पीड़ा से बेचैन हो उठता है।

Thursday

सूरदास के पदों की व्याख्या

 सूरदास का जीवन परिचय 




सूरदास (Surdas) का जन्म 1540 (वि. स.) में रुनकता नामक गाँव में हुआ। यह गाँव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। कुछ विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म सीही नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था. वे बहुत विद्वान थे, उनकी लोग आज भी चर्चा करते है.

सूरदास (Surdas) के पिता, रामदास गायक थे। सूरदास के जन्मांध होने के विषय में मतभेद है। प्रारंभ में सूरदास आगरा के समीप गऊघाट पर रहते थे और वहीं उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई. वे उनके शिष्य बन गए। वल्लभाचार्य ने उनको पुष्टिमार्ग में दीक्षित कर के कृष्णलीला के पद गाने का आदेश दिया। सूरदास की मृत्यु गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में 1620 (वि. स.) में हुई।

‘चौरासी वैष्णव की वार्ता’ के वर्णन के अनुसार उनका जन्म रुनकता अथवा रेणु का क्षेत्र (वर्तमान जिला आगरा के अंतर्गत) में हुआ था। मथुरा और आगरा के बीच गऊघाट पर ये निवास करते थे। बल्लभाचार्य से इनकी भेंट वहीं पर हुई थी। “भावप्रकाश’ में सूर का जन्म स्थान सीही नामक ग्राम बताया गया है। वे सारस्वत ब्राह्मण थे और जन्म के अंधे थे।

“आइने अकबरी’ में (संवत् 1653 वि०) तथा “मुतखबुत-तवारीख’ के अनुसार सूरदास को अकबर के दरबारी संगीतज्ञों में माना है।

अधिकतर विद्वानों का मत है कि सूर का जन्म सीही नामक ग्राम में एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बाद में ये आगरा और मथुरा के बीच गऊघाट पर आकर रहने लगे थे।



सूरदास की कृतियॉं-
भक्‍त शिरोमणि सूरदास ने लगभग सवा-लाख पदों की रचना की थी। ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा‘ की खोज तथा पुस्‍तकालय में सुरक्षित नामावली के अनुसार सूरदास के ग्रन्‍थों की संख्‍या 25 मानी जाती है।
 
  • सूरसागर 
  • सूरसारावली 
  • साहित्‍य-लहरी 
  • नाग लीला
  • गोवर्धन लीला
  • पद संग्रह
  • सूर पच्‍चीसी
 सूरदास ने अपनी इन रचनाओं में श्रीकृष्‍ण की विविध लीलाओं का वर्णन किया है। इनकी कविता में भावपद और कलापक्ष दोनों समान रूप से प्रभावपूर्ण है। सभी पद गेय है, अत:उनमें माधुर्य गुूण की प्रधानता है। इनकी रचनाओं में व्‍यक्‍त सूक्ष्‍म दृष्टि का ही कमाल है कि आलोचक अब इनके अनघा होने में भी सन्‍देह करने लगे है।



सूरदास की काव्यगत विशेषताएँ (भाषा शैली)

सूरदास के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के अनुग्रह से मनुष्य को सद्गति मिल सकती है। अटल भक्ति, कर्मभेद, जातिभेद, ज्ञान, योग से श्रेष्ठ है। सूर ने वात्सल्य, श्रृंगार और शांत रसों को मुख्य रूप से अपनाया है। सूर ने अपनी कल्पना और प्रतिभा के सहारे कृष्ण के बाल्य-रूप का अति सुंदर, सरस, सजीव और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। बालकों की चपलता, स्पर्धा, अभिलाषा, आकांक्षा का वर्णन करने में विश्व व्यापी बाल-स्वरूप का चित्रण किया है। बाल-कृष्ण की एक-एक चेष्टा के चित्रण में कवि ने कमाल की होशियारी एवं सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय दिया है़-

मैया कबहिं बढैगी चौटी?

किती बार मोहिं दूध पियत भई, यह अजहूँ है छोटी।


 

सूर के कृष्ण प्रेम और माधुर्य प्रतिमूर्ति है। जिसकी अभिव्यक्ति बड़ी ही स्वाभाविक और सजीव रूप में हुई है।जो कोमलकांत पदावली, भावानुकूल शब्द-चयन, सार्थक अलंकार-योजना, धारावाही प्रवाह, संगीतात्मकता एवं सजीवता सूर की भाषा में है, उसे देखकर तो यही कहना पड़ता है कि सूर ने ही सर्व प्रथम ब्रजभाषा को साहित्यिक रूप दिया है।

सूर ने भक्ति के साथ श्रृंगार को जोड़कर उसके संयोग-वियोग पक्षों का जैसा वर्णन किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।सूर ने विनय के पद भी रचे हैं, जिसमें उनकी दास्य-भावना कहीं-कहीं तुलसीदास से भी आगे बढ़ जाती है-

हमारे प्रभु औगुन चित न धरौ।

समदरसी है मान तुम्हारौ, सोई पार करौ।


 

सूर ने स्थान-स्थान पर कूट पद भी लिखे हैं। इनके समान प्रेम का स्वच्छ और मार्जित रूप का चित्रण भारतीय साहित्य में किसी और कवि ने नहीं किया है यह सूरदास की अपनी विशेषता है। वियोग के समय राधिका का जो चित्र सूरदास ने चित्रित किया है, वह इस प्रेम के योग्य है

सूर ने यशोदा आदि के शील, गुण आदि का सुंदर चित्रण किया है।सूर का भ्रमरगीत वियोग-श्रृंगार का ही उत्कृष्ट ग्रंथ नहीं है अपितु उसमें सगुण और निर्गुण का भी विवेचन हुआ है। इसमें विशेषकर उद्धव-गोपी संवादों में हास्य-व्यंग्य के अच्छे छींटें भी मिलते हैं।

सूर काव्य में प्रकृति-सौंदर्य का सूक्ष्म और सजीव वर्णन मिलता है।

सूर की कविता में पुराने आख्यानों और कथनों का उल्लेख बहुत स्थानों में मिलता है।सूर के गेय पदों में ह्रृदयस्थ भावों की बड़ी सुंदर व्यजना हुई है। उनके कृष्ण-लीला संबंधी पदों में सूर के भक्त और कवि ह्रृदय की सुंदर झाँकी मिलती है।सूर का काव्य केवल भाव-पक्ष की दृष्टि से ही महान नहीं है अपितु कला-पक्ष की दृष्टि से भी वह उतना ही महत्वपूर्ण है। सूर की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा वाग्वैदिग्धपूर्ण है। अलंकार-योजना की दृष्टि से भी उनका कला-पक्ष सबल है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सूर की कवित्व-शक्ति के बारे में लिखा है  -

सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार-शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ा करता है। उपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है।


1. मैया, मैं तो चंद-खिलौना लैहौं।

जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहौं॥
सुरी कौ पय पान न करिहौं, बेनी सिर न गुहैहौं।
ह्वैहौं पूत नंद बाबा कौ, तेरौ सुत न कहैहौं॥
आगैं आउ, बात सुनि मेरी, बलदेवहि न जनैहौं।
हँसि समुझावति, कहति जसोमति, नई दुलहिया दैहौं॥
तेरी सौं, मेरी सुनि मैया, अबहिं बियाहन जैहौं।
सूरदास ह्वै कुटिल बराती, गीत सुमंगल गैहौं॥


व्याख्या- श्री कृष्ण कह रहे हैं, “मैया! मैं तो यह चंद्रमा-खिलौना लूँगा। यदि तू इसे नहीं देगी तो अभी ज़मीन पर लोट जाऊँगा, तेरी गोद में नहीं आऊँगा। न तो गैया का दूध पीऊँगा, न सिर में चुटियाँ गुँथवाऊँगा। मैं अपने नंद बाबा का पुत्र बनूँगा, तेरा बेटा नहीं कहलाऊँगा।” तब मैया यशोदा हँसती हुई समझाती हैं और कहती हैं “आगे आओ! मेरी बात सुनो, यह बात तुम्हारे दाऊ भैया को मैं नहीं बताऊँगी। तुम्हें मैं नई दुल्हनिया लाकर दूँगी।” यह सुनकर कृष्ण कहने लगे “तू मेरी मैया है, तेरी शपथ, सुन! मैं इसी समय ब्याह करने जाऊँगा।” सूरदास जी कहते हैं प्रभु! मैं आपका कुटिल बाराती बनूँगा और आपके विवाह में मंगल के सुंदर गीत गाऊँगा। 




2. मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो |
भोर भयो गैयन के पाछे, मधुवन मोहिं पठायो ।
चार पहर बंसीबट भटक्यो, साँझ परे घर आयो ॥
मैं बालक बहिंयन को छोटो, छींको किहि बिधि पायो ।
ग्वाल बाल सब बैर परे हैं, बरबस मुख लपटायो ॥
तू जननी मन की अति भोरी, इनके कहे पतिआयो ।
जिय तेरे कछु भेद उपजि है, जानि परायो जायो ॥
यह लै अपनी लकुटि कमरिया, बहुतहिं नाच नचायो ।
'सूरदास' तब बिहँसि जसोदा, लै उर कंठ लगायो ॥

व्याख्या- श्यामसुन्दर बोले- `मैया ! मैंने मक्खन नहीं खाया है । सुबह होते ही गायों के पीछे मुझे भेज देती हो।चार पहर भटकने के बाद साँझ होने पर वापस आता हूँ।मैं छोटा बालक हूँ मेरी बाहें छोटी हैं, मैं छींके तक कैसे पहुँच सकता हूँ? ये सब सखा मेरे से बैर रखते हैं, इन्होंने मक्खन जबऱन मेरे मुख में लिपटा दिया। माँ तू मन की बड़ी भोली है, इनकी बातों में आ गई। तेरे दिल में जरूर कोई भेद है,जो मुझे पराया समझ कर मुझ पर संदेह कर रही हो। ये ले, अपनी लाठी और कम्बल ले ले, तूने मुझे बहुत नाच नचा लिया है। सूरदास जी कहते हैं कि प्रभु ने अपनी बातों से माता के मन को मोहित कर लिया. माता यशोदा ने मुसकराकर श्यामसुन्दर को गले लगा लिया ।

Monday

तोप पाठ की सप्रसंग व्याख्या

 वीरेन डंगवाल का जीवन और साहित्यिक परिचय

समकालीन कवि वीरेन डंगवाल का जन्म 5 अगस्त 1947 को कीर्तिनगर, टेहरी गढ़वाल, उत्तराखंड में हुआ। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा के बाद उन्होंने प्राध्यापन का कार्य किया और शौक़िया पत्रकारिता भी की।
वीरेन डंगवाल की कविता-यात्रा की शुरुआत 1991 में आए ‘इसी दुनिया में’ संग्रह से हुई हालाँकि तब तक ‘रामसिंह’, ‘पीटी उषा’, ‘मेरा बच्चा’, ‘गाय’, ‘भूगोल-रहित’, ‘दुख’, ‘समय’ और ‘इतने भले नहीं बन जाना साथी’ जैसी कविताओं ने उन्हें मार्क्सवाद की ज्ञानात्मक संवेदना से अनुप्रेरित ऐसे प्रतिबद्ध और जन-पक्षधर कवि की पहचान दे दी थी, जिसकी आवाज़ अपने समकालीनों से कुछ अलहदा और अनोखी थी और अपने पूर्ववर्ती कवियों से गहरा संवाद करती थी।




बक़ौल विष्णु खरे ‘‘वीरेन डंगवाल हिंदी कवियों की उस पीढ़ी के अद्वितीय, शीर्षस्थ हस्ताक्षर माने जाएँगे जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जन्मी और सुमित्रानंदन पंत के बाद ‘पहाड़’ या उत्तरांचल के सबसे बड़े आधुनिक कवि। वीरेन की कई कविताएँ इसकी गवाह हैं कि समसामयिक भाषा और शैली का कवि होते हुए छंद और प्रास पर भी उनका असाधारण, अनायास अधिकार था और वह जब चाहते तब उम्दा, मंचीय गीत लिख सकते थे। इसमें वह अपने प्रशंसकों को नागार्जुन की याद दिलाते थे, जिनसे उन्होंने दोनों तरह की कविताओं में बहुत कुछ सीखा। वह स्वयं अपने को निराला, मुक्तिबोध, त्रिलोचन, शमशेर बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल, नाज़िम हिकमत, मार्क्स, ब्रेख्त, वान गोग, चंद्रकांत देवताले, ग़ालिब, जयशंकर प्रसाद, मंगलेश डबराल, शंकर शैलेंद्र, सुकांत भट्टाचार्य, भगवत रावत, मनोहर नायक, आलोकधन्वा, भीमसेन जोशी, मोहन थपलियाल, अजय सिंह, गिरधर राठी, नीलाभ, रामेंद्र त्रिपाठी, केदारनाथ सिंह, पंकज चतुर्वेदी, डॉ नीरज, लीलाधर जगूड़ी, सुंदरचंद ठाकुर तथा हरिवंशराय बच्चन आदि की काव्य, संगीत तथा मैत्री की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय परंपरा से सचेतन, निस्संकोच रूप से जोड़ते थे। इन सब के नाम बाक़ायदा उनकी रचनाओं में किसी-न-किसी तरह आते हैं। वीरेन की कविता का वैविध्य तरद्दुद में डालता है। लेकिन इससे बड़ी ग़लती कोई नहीं हो सकती कि हम वीरेन डंगवाल को सिर्फ़ कवियों, कलाकारों और मित्रों का अंतरंग कवि मान लें। उनके तीन संग्रहों ‘‘इसी दुनिया में’’ (1991),‘‘दुश्चक्र में स्रष्टा’’ (2002) तथा ‘‘स्याही ताल’’ (2009) की 188 कविताएँ, जिनमें से दस को भी कमज़ोर कहना कठिन है, संपूर्ण भारतीय जीवन से भरी हुई हैं जिसके केंद्र में बेशक संघर्षरत, वंचित, उत्पीड़ित हिंदुस्तानी मर्द-औरत-बच्चे तो हैं ही, एक लघु-विश्वकोष की तरह अंडज-पिंडज-स्वेदज-जरायुज, स्थावर-जंगम भी हैं। हाथी, मल्लाह, गाय, गौरैया, मक्खी, मकड़ी, ऊँट, पपीता, समोसे, इमली, पेड़, चूना, रातरानी, कुए, सूअर का बच्चा, नींबू, जलेबी, तोता, आम, पिद्दी, पोदीना, घोड़े, बिल्ली, चप्पल, भात, रद्दीवाला, फ्यूँली का फूल, पान, आलू, कद्दू, बुरुंस, केले—यह शब्द सिर्फ़ उनकी रचनाओं में नहीं आए हैं बल्कि उनकी कविताओं के विषय हैं। निराला, नागार्जुन और त्रिलोचन से सीखते हुए वीरेन अपने इन तीनों गुरुओं से आगे जाते प्रतीत होते हैं।’’



वीरेन डंगवाल ने पाब्लो नेरूदा, बर्टोल्ट ब्रेख्त, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊश रोजेविच और नाज़िम हिकमत आदि विश्व कवियों की कविताओं का अपनी विशिष्ट शैली में अनुवाद का दुर्लभ कार्य भी किया है। 
उन्हें ‘इसी दुनिया में’ कविता-संग्रह के लिए रघुवीर सहाय समृति पुरस्कार और श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ‘दुष्चक्र में स्रष्टा’ संग्रह के लिए उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार (2004) और शमशेर सम्मान प्राप्त हुआ। मंगलेश डबराल के संपादन में ‘कविता वीरेन’ शीर्षक से वीरेन डंगवाल की नई-पुरानी 227 कविताओं का संकलन किया गया है।



तोप पाठ का सार

प्रस्तुत पाठ हमें याद दिलाता है कि कभी ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में व्यापार करने के इरादे से आई थी। भारत में उसका स्वागत किया गया था परन्तु धीरे – धीरे वो हमारी शासक बन गई। अगर उन्होंने कुछ बाग़ – बगीचे बनाये तो उन्होंने तोपें भी तैयार की। कवि कहते हैं कि यह जो 1857 की तोप आज कंपनी बाग़ के प्रवेश द्वार पर रखी गई है इसकी बहुत देखभाल की जाती है। जिस तरह यह कंपनी बाग़ हमें विरासत में अंग्रेजों से मिला है उसी तरह यह तोप भी हमें अंग्रेजों से ही विरासत में मिली है। सुबह और शाम को बहुत सारे व्यक्ति कंपनी के बाग़ में घूमने के लिए आते हैं। तब यह तोप उन्हें अपने बारे में बताती है कि मैं अपने ज़माने में बहुत ताकतवर थी। अब तोप की स्थिति बहुत बुरी है- छोटे बच्चे इस पर बैठ कर घुड़सवारी का खेल खेलते हैं। चिड़ियाँ इस पर बैठ कर आपस में बातचीत करने लग जाती हैं। कभी – कभी शरारती चिड़ियाँ खासकर गौरैयें तोप के अंदर घुस जाती हैं। वह हमें बताना चाहती है कि ताकत पर कभी घमंड नहीं करना चाहिए क्योंकि ताकत हमेशा नहीं रहती।



तोप पाठ की सप्रसंग व्याख्या

काव्यांश 1

कंपनी बाग़ के मुहाने पर
धर रखी गई है यह 1857 की तोप
इसकी होती है बड़ी सम्हाल, विरासत में मिले
कंपनी बाग़ की तरह
साल में चमकाई जाती है दो बार।

प्रसंग -: प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘ स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई हैं। इसके कवि वीरेन डंगवाल  हैं। इन पंक्तियों में कवि ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में इस्तेमाल की गई तोप का वर्णन किया है।

व्याख्या -: कवि कहते हैं कि यह जो 1857 की तोप आज कंपनी बाग़ के प्रवेश द्वार पर रखी गई है इसकी बहुत देखभाल की जाती है। जिस तरह यह कंपनी बाग़ हमें विरासत में अंग्रेजों से मिला है, उसी तरह यह तोप भी हमें अंग्रेजों से ही विरासत में मिली है। जिस तरह कंपनी बाग़ की साल में दो बार अच्छे से देखरेख की जाती है उसी तरह इस तोप को भी साल में दो बार चमकाया जाता है।



काव्यांश 2

सुबह शाम आते हैं कंपनी बाग़ में बहुत से सैलानी
उन्हें बताती है यह तोप
कि मैं बड़ी जबर
उड़ा दिए थे मैंने
अच्छे – अच्छे सूरमाओं के धज्जें
अपने ज़माने में

प्रसंग -: प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘ स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई हैं। इसके कवि वीरेन डंगवाल  हैं। इन पंक्तियों में कवि बताना चाहता है कि तोप का प्रयोग कहाँ हुआ था !

व्याख्या -: कवि कहते हैं कि सुबह और शाम को बहुत सारे व्यक्ति कंपनी के बाग़ में घूमने के लिए आते हैं। तब यह तोप उन्हें अपने बारे में बताती है कि मैं अपने ज़माने में बहुत ताकतवर थी। मैंने अच्छे अच्छे वीरों के चिथड़े उड़ा दिए थे। अर्थात उस समय तोप का डर हर इंसान को था।



काव्यांश 3

अब तो बहरहाल
छोटे बच्चों की सवारी से अगर यह फारिग हो
तो उसके ऊपर बैठकर
चिड़ियाँ ही अकसर करती है गपशप
कभी -कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं
खासकर गौरैयें
वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप
एक दिन तो होना ही है उसका मुँह बंद।

प्रसंग -: प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘ स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई हैं। इसके कवि वीरेन डंगवाल  हैं। इन पंक्तियों में कवि कहना चाहता है कि किसी भी बुराई को हिम्मत और होंसलों के सहारे खत्म किया जा सकता है।

व्याख्या -: कवि कहते हैं कि अब तोप की स्थिति बहुत बुरी है। छोटे बच्चे इस पर बैठ कर घुड़सवारी का खेल खेलते हैं। जब बच्चे इस पर नहीं खेल रहे होते तब चिड़ियाँ इस पर बैठ कर आपस में बातचीत करने लग जाती हैं। कभी – कभी शरारती चिड़ियाँ खासकर गौरैयें तोप के अंदर घुस जाती हैं। वो छोटी सी चिड़िया ऐसा करके हमें बताना चाहती हैं कि  कोई कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो एक ना एक दिन उसका भी अंत निश्चित होता है।

Thursday

माखनलाल चतुर्वेदी का जीवन परिचय और कैदी और कोकिला कविता की व्याख्या


                                                माखनलाल चतुर्वेदी का जीवन परिचय

राष्ट्रीय भावना और ओज के कवि माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल 1889 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद ज़िले के बावई में हुआ। आरंभिक शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई, जिसके उपरांत अध्यापन और साहित्य-सृजन से संलग्न हुए। 1913 में उन्होंने ‘प्रभा’ पत्रिका का संपादन शुरू किया और इसी क्रम में गणेश शंकर विद्यार्थी के संपर्क में आए, जिनके देश-प्रेम और सेवाव्रत का उनपर गहन प्रभाव पड़ा। 1921 के असहयोग आंदोलन के दौरान राजद्रोह के आरोप में सरकार ने कारागार में डाल दिया जहाँ से एक वर्ष बाद मुक्ति मिली। 1924 में गणेश शंकर विद्यार्थी की गिरफ़्तारी पर ‘प्रताप’ का संपादन सँभाला। कालांतर में ‘संपादक सम्मेलन’ और ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ के अध्यक्ष भी रहे। उनकी सृजनात्मक यात्रा के तीन आयाम रहे—एक, पत्रकारिता और संपादन जहाँ उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का जागरण किया; दूसरा, साहित्य-सृजन, जहाँ काव्य, निबंध, नाटक, कहानी आदि विधाओं में मौलिक लेखन के साथ युगीन संवाद और सर्जनात्मकता का विस्तार किया; और तीसरा, उनके व्याख्यान, जहाँ प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक-साहित्यिक-राजनीतिक प्रश्नों से दो-चार हुए।

‘पुष्प की अभिलाषा’ कविता से भारतीय जन-मन में हमेशा के लिए बस गए माखनलाल चतुर्वेदी को ‘एक भारतीय आत्मा’ के नाम से भी याद किया जाता है जिन्होंने देशप्रेम की अपनी कविताओं के माध्यम से न केवल अपने समय में बल्कि बाद की पीढ़ी-दर-पीढ़ी में भी राष्ट्रप्रेमी भावनाओं का संचार किया।
‘हिमकिरीटिनी’, ‘हिमतरंगिनी’, ‘युग चरण’, ‘समर्पण’, ‘मरण ज्वार’, ‘माता’, ‘वेणु लो गूँजे धरा’, ‘बीजुरी काजल आँज रही’ आदि इनकी प्रसिद्ध काव्य-कृतियाँ हैं। ‘कृष्णार्जुन युद्ध’, ‘साहित्य के देवता’, ‘समय के पाँव’, ‘अमीर इरादे :ग़रीब इरादे’ आदि उनकी प्रसिद्ध गद्यात्मक कृतियाँ हैं। ‘माखनलाल चतुर्वेदी रचनावली’ में उनकी रचनात्मक कृतियों का संकलन किया गया है।
1943 में उन्हें 'देव पुरस्कार' से सम्मानित किया गया जो उस समय साहित्य का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार था। 1953 में साहित्य अकादेमी की स्थापना के बाद इसका पहला साहित्य अकादेमी पुरस्कार 1955 में उन्हें ही प्रदान किया गया। भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ से अलंकृत किया और उन पर डाक-टिकट जारी किया।



कैदी और कोकिला कविता का सार

कैदी और कोकिला कविता के कवि माखनलाल चतुर्वेदी जी हैं। माखनलाल चतुर्वेदी जी एक स्वतंत्रता सेनानी थे और स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते-लड़ते उन्होंने कई बार जेल यात्राएं की। यह कविता भी उन्होंने अपनी एक जेल यात्रा के दौरान लिखी।
उस वक्त कवि जेल में अकेले थे , निराश थे , दुखी थे। आधी रात में अचानक एक कोयल आकर उनकी जेल की दीवार पर बैठकर बोलने लगी , उस कोयल को देखकर कवि के मन में जो भाव या विचार आये , उनको ही उन्होंने इस शानदार कविता के रूप में पिरोया है।
इस कविता में कवि ने अंग्रेज सरकार द्वारा राजनीतिक कैदियों को दी जाने वाली तरह-तरह की यातनाओं के बारे में लिखा है। स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाले लोगों को अंग्रेज सरकार पकड़ कर जेल में डाल देतेी थी और फिर उन पर तरह-तरह के अत्याचार , अन्याय किये जाते थे। उनसे कोल्हू (तेल निकालने वाला यंत्र) चलाया जाता था , पत्थर तुड़वाये जाते थे और मोट डालकर कुएं से पानी निकलवाया जाता था।
उन्हें पेट भर खाना भी नहीं दिया जाता था और अंधेरी कोठरी में बंद कर दिया जाता था। स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजों के अन्याय , अत्याचार को सहन किया लेकिन अपने मन में देशभक्ति की भावना को कम नहीं होने दिया और भारत माता की आजादी के लिए लगातार संघर्ष किया जिसका नतीजा सन 1947 में भारत आजाद हुआ।
इस कविता में कवि कोयल को अपनी “सखी/दोस्त” मानकर अपने मन की पीड़ा को उससे व्यक्त कर रहे हैं। वो कोयल से कहते हैं कि यह समय देश भक्ति के गीत गाने का है। तुम देशभक्ति के गीत गाकर इस देश के सोए हुए लोगों को जागृत करो और उनको अंग्रेजो के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने को प्रेरित करो।
इस काव्य में खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है और साथ में तत्सम , तद्भव एवं उर्दू शब्दों का भी अच्छा प्रयोग किया गया है। इस काव्य की भाषा चित्रात्मक व लयात्मक है और इसमें संबोधन शैली का प्रयोग किया गया है।


काव्यांश 1.

क्या गाती हो ?
क्यों रह जाती हो
कोकिल बोलो तो !
क्या लाती हो ?
सन्देश किसका है ?
कोकिल बोलो तो !

व्याख्या –
कवि कहते हैं कि कोयल !! तुम आधी रात में क्या गा रही हो। यह आजादी का तराना हैं या पराधीनता का दुःख व्यक्त कर रही हो और फिर गाते – गाते अचानक बीच में चुप क्यों हो जाती हो ? कोयल आखिर कुछ तो बोलो। क्या तुम किसी का संदेश लेकर आई हो। कोयल बोलो तो ।




काव्यांश 2 .

ऊँची काली दीवारों के घेरे में
डाकू, चोरों, बटमारों के डेरे में
जीने को देते नहीं पेट भर खाना
जीवन पर अब दिन रात कड़ा पहरा है
शासन है , या तम का प्रभाव गहरा है ?
हिमकर निराश कर चला रात भी काली
इस समय कालिमामयी क्यूँ आली ?


व्याख्या – इन पंक्तियों में कवि माखनलाल चतुर्वेदी जी अपने मन की व्यथा को बता रहे हैं। ब्रिटिश शासन द्वारा स्वतन्त्रता सैनानियों पर किये गए अत्याचारों के बारे में बात करते हुए कवि कहते हैं कि अंग्रजों ने जेल की इन ऊंची-ऊंची दीवारों के अंदर इस अंधकारमय जगह पर हमें डाकू , चोर और लुटेरों के साथ रखा हैं।
यहां पर हमें पेट भर खाने को भी नहीं मिलता है और हर समय हमारे ऊपर अंग्रेजी सरकार की कड़ी निगरानी रहती है । कवि ने अंग्रेजों के शासन की तुलना अंधकार से की है क्योंकि वो भारतीयों पर अन्याय , अत्याचार करते थे और उनका शोषण करते थे। इसीलिए उन्होंने अंग्रेजी शासन की तुलना अंधकार से की हैं जिसमें सिर्फ बुराइयों ही बुराइयों पनपती हैं।
कवि आगे कहते हैं कि अब तो चाँद (हिमकर) भी हमें छोड़कर चला गया हैं यानि जो थोड़ी बहुत रोशनी चाँद से आ रही थी , अब वो भी खत्म हो गयी हैं जिससे रात और ज्यादा काली अंधेरी हो गई हैं लेकिन हे कालिमामयी (पूरी काली कोयल) सखी , तुम इस समय क्यों जाग रही हो ?  कवि बहुत अधिक निराश और हताश है।




काव्यांश 3.
क्यों हूक पड़ी ?
वेदना बोझ वाली सी
कोकिल बोलो तो
क्या लुटा ?
मृदुल वैभव की रखवाली सी
कोकिल बोलो तो !


व्याख्या – इन पंक्तियों में कवि कोयल से पूछते हैं कि तुम्हारी चीख दर्द भरी क्यों हैं। ऐसा लगता हैं जैसे  तुम्हारे दिल में कोई गहरा दर्द या बेदना हैं। कोयल बताओ तुम्हें क्या दुःख हैं।
कवि आगे कहते हैं कि कोयल तुमसे किसने क्या लूट लिया या तुम्हारा क्या लुट गया हैं। बहुत मीठे स्वर में गाने वाली कोयल , तुम्हारे स्वर में इतना दर्द क्यों हैं ? कोयल को बेहद सुरीला गाने वाली चिड़िया माना जाता हैं।




काव्यांश 4.

क्या हुई बावली ?
अर्ध रात्रि को चीखी कोकिल बोलो तो !
किस दावानल की ज्वालायें हैं दीखी ?
कोकिल बोलो तो !


व्याख्या –इन पंक्तियों में कवि फिर कोयल से पूछते हैं कि हे कोयल !! तुम तो आधी रात में कभी भी नही बोलती थी। क्या तुम पागल हो गई हो , जो आधी रात में यहां आकर चिल्ला रही हो ?
या फिर तुमने क्या किसी जंगल में लगी हुई भयानक आग को देख लिया है जो डर कर तुम इतना चिल्ला रही हो। कोयल बोलो तो !




काव्यांश 5.

क्या ? देख न सकती जंजीरों का गहना ?
हथकड़ियाँ क्यों ? ये ब्रिटिश राज का गहना।
कोल्हू का चर्रक चूं जीवन की तान।
गिट्टी पर अंगुलियों ने लिखे गान !
हूँ मोट खींचता लगा पेट पर जूआ
खाली करता हूँ ब्रिटिश अकड़ का कूआ
दिन में करुणा क्यों जगे, रुलानेवाली
इसलिए रात में गजब ढ़ा रही आली ?


व्याख्या – इन पंक्तियों में कवि कोयल से कहते हैं कि हे कोयल !! क्या तुम मेरे हाथों में पड़ी इन लोहे की जंजीरे को नहीं देख पा रही हो। ये मेरे हाथों में बंधी जो जंजीरें है। ये वास्तव में कोई जंजीर नहीं हैं। ये तो ब्रिटिश राज के द्वारा मुझे पहनाये गए गहने हैं अर्थात स्वतंत्रता सेनानियों के लिए लोहे की जंजीरें किसी अमूल्य गहने से कम नही थी।
यहां पर माखनलाल चतुर्वेदी जी जेल में अपनी दिनचर्या के बारे में बात कर रहे हैं। वो कहते हैं कि कोल्हू के चलने से जो आवाज आती है। अब वही हमारी जिंदगी का गीत बन गया है।
बड़े – बड़े पत्थरों को तोड़ कर छोटी-छोटी गिट्टियों बनाती हैं। कवि कहते हैं कि उन गिट्टियों पर हमारे अँगुलियों के निशान कुछ इस तरह से पड गए हैं मानों जैसे हमने इन गिट्टियों पर स्वतन्त्रता के गीत उकेर दिये हो।
कवि आगे कहते हैं कि हम अपने पेट पर जुआ बांधकर मोट (चमड़े का एक थैला , जिससे कुँए में डाल कर पानी निकाला जाता हैं) से पानी निकाल कर ब्रिटिश राज की अकड़ का कुआं धीरे-धीरे खाली कर रहे हैं। यानि वो भले ही हम पर कितना अत्याचार क्यों न कर लें लेकिन हमें तोड़ नहीं सकते हैं और न ही हमारे अंदर की देशभक्ति की भावना को कम कर सकते हैं । धीरे-धीरे ही सही लेकिन एक दिन हम , इस अंग्रेजी शाशन को उखाड़ फेंकेंगे।
कवि कोयल को अपना दोस्त मानते हुए कह रहे हैं कि हे सखी !! शायद तुम दिन में इसलिए नहीं गाती हो क्योंकि तुम्हें लगता हैं कि , कही तुम्हारी बेदना भरी चीख सुनकर हमारा दिल करुणा से न भर जाएँ या हम कमजोर न पड़ जाँय। इसीलिए तुम आधी रात में हमें ढांढस बधांने आयी हो ।




काव्यांश 6.

इस शांत समय में ,
अंधकार को बेध , रो रही हो क्यों ?
कोकिल बोलो तो !
चुप चाप मधुर विद्रोह बीज ,
इस भाँति बो रही हो क्यों ?
कोकिल बोलो तो !


व्याख्या – कवि कोयल से पूछते हैं कि हे सखी !! इस सन्नाटे वाली काली अंधेरी रात के अंधकार को भेदकर (चीरना) तुम क्यों रो रही हो ? यानि तुम्हारा इस समय बोलना इस शांत अंधेरी रात के सन्नाटे को भेद रहा हैं। कोयल कहीं तुम , इन सोए हुए लोगों को जगा कर , उनके मन में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह के बीज़ तो नहीं बो रही हो है। कोयल कुछ तो बोलो।




काव्यांश 7.

काली तू रजनी भी काली ,
शासन की करनी भी काली ,
काली लहर कल्पना काली ,
मेरी काल कोठरी काली ,
टोपी काली, कमली काली ,
मेरी लौह श्रृंखला काली ,
पहरे की हुंकृति की व्याली ,
तिस पर है गाली ए आली !


व्याख्या – यहां पर कवि कोयल के कालेपन की तुलना जेल की अन्य चीजों से करते हुए कह रहे हैं कि हे कोयल !! जिस तरह तुम काली हो उसी तरह ये रात , अंग्रेजी शासन के कामकाज , उनकी सोच व कल्पना भी काली हैं और मैं जिस काल कोठरी में बंद हूं। वह कालकोठरी भी काली हैं। यहां पर जो टोपी और कंबल मुझे पहनने को मिला है , वह भी काला हैं और मेरे हाथों पर पड़ी लोहे की जंजीर भी काली ही है।
कवि आगे कोयल से कहते हैं कि हे सखी !! इस अँधेरी काली रात में , काली सर्पनी (काला सांप) की फुंकार जैसी जेल के पहरेदार की जो हुंकार (आवाज) हैं , वो भी मुझे गाली जैसी ही लग रही हैं। यानि बार-बार पहरेदार की आवाज ( जागते रहो) सुनकर उन्हें याद आता हैं कि वो कैद में हैं। काले रंग को यहाँ पर अपमान , निराशा व दुःख का प्रतीक माना गया हैं।




काव्यांश 8.

इस काले संकट सागर पर
मरने की , मदमाती !
कोकिल बोलो तो !
अपने चमकीले गीतों को
क्योंकर हो तैराती !
कोकिल बोलो तो !


व्याख्या – इन पंक्तियों में कवि कोयल से कहते हैं कि हे सखी !! तुम मदहोशी में , इस काले संकट रूपी सागर में (जहाँ की हर चीज काली हैं) मरने क्यों आयी हो यानि इस काले संकट रूपी सागर (जेल) में मरने को क्यों उतावली हो ? कोयल तुम तो बहुत सुरीला गाती हो लेकिन तुम अपने उन चमकीले , सुरीले गीतों को इस संकट रूपी सागर में क्यों तैरा रही हो यानि तुम यहाँ क्यों अपने सुरीले गीत गा रही हो।




काव्यांश 9.

तुझे मिली हरियाली डाली
मुझे मिली कोठरी काली !
तेरा नभ भर में संचार
मेरा दस फुट का संसार !
तेरे गीत कहावें वाह
रोना भी है मुझे गुनाह !
देख विषमता तेरी मेरी
बजा रही तिस पर रणभेरी !


व्याख्या – इन पंक्तियों में कवि कोयल से कहते हैं कि हे सखी !!  तेरी और मेरी परिस्थितियां बिल्कुल अलग अलग हैं। मैं गुलाम हूँ और तू आजादी हैं। तुम हरे भरे पेड़ों की एक डाली से दूसरी डाली घूम फिर सकती हो और मैं इस काल कोठरी में बंद हूं।
तुम्हारे लिए तो पूरा आकाश खुला है। तुम पूरे आकाश में कहीं भी उड़ सकती हो और मेरे पास तो सिर्फ एक 10 X 10 फीट की छोटी सी एक अंधेरी कालकोठरी है जिसके अंदर में अपना जीवन बिता रहा हूं।
कोयल जब तू गीत गाती है तो लोग वाह-वाह करते हैं लेकिन यहां पर मेरा रोना भी गुनाह माना जाता है। तेरे-मेरे जीवन में इतनी विषमताएं होने के बावजूद भी , तू यहां आकर रणभेरी (युद्ध की ललकार) का विगुल क्यों बजा रही हो।




काव्यांश 10.

इस हुंकृति पर ,
अपनी कृति से और कहो क्या कर दूँ ?
कोकिल बोलो तो !
मोहन के व्रत पर ,
प्राणों का आसव किसमें भर दूँ ?
कोकिल बोलो तो !


व्याख्या – इन पंक्तियों में कवि कोयल से कहते हैं कि हे सखी !! तुम्हारी इस पुकार पर , मैं अपनी इस रचना (कविता) में और क्या-क्या लिखूँ कि लोगों में अंदर स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए जोश व देशभक्ति की भावना पैदा हो सके और वो इस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लें।
कवि आगे कहते हैं कि मोहन (मोहनदास करमचंद्र गांधी जी) ने जो भारत माता को स्वतंत्र करने का व्रत लिया हैं , उसके लिये मैं अपनी कविताओं से किसके प्राणों में अमृत भर दूँ  यानि मैं अपनी कविताओं के माध्यम से लोगों के अंदर ऐसा जोश भर सकूं कि वो , इस आंदोलन में अपने प्राणों की आहुति देने को भी तैयार हो जाये। जैसे अमृत पीकर लोग अमर हो जाते हैं उसी प्रकार शहीद होकर भी लोग अमर हो जाते हैं।

परीक्षा के एक दिन पूर्व दो मित्रों की बातचीत का संवाद लेखन कीजिए-

संवाद लेखन किसे कहते हैं  संवाद लेखन -  वह लेखनी है जिसमें दो या अधिक व्यक्तियों के बीच होने वाली बातचीत को लिखित रूप में व्यक्त किया जाता ह...