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माखनलाल चतुर्वेदी का जीवन परिचय और कैदी और कोकिला कविता की व्याख्या


                                                माखनलाल चतुर्वेदी का जीवन परिचय

राष्ट्रीय भावना और ओज के कवि माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल 1889 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद ज़िले के बावई में हुआ। आरंभिक शिक्षा-दीक्षा घर पर ही हुई, जिसके उपरांत अध्यापन और साहित्य-सृजन से संलग्न हुए। 1913 में उन्होंने ‘प्रभा’ पत्रिका का संपादन शुरू किया और इसी क्रम में गणेश शंकर विद्यार्थी के संपर्क में आए, जिनके देश-प्रेम और सेवाव्रत का उनपर गहन प्रभाव पड़ा। 1921 के असहयोग आंदोलन के दौरान राजद्रोह के आरोप में सरकार ने कारागार में डाल दिया जहाँ से एक वर्ष बाद मुक्ति मिली। 1924 में गणेश शंकर विद्यार्थी की गिरफ़्तारी पर ‘प्रताप’ का संपादन सँभाला। कालांतर में ‘संपादक सम्मेलन’ और ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ के अध्यक्ष भी रहे। उनकी सृजनात्मक यात्रा के तीन आयाम रहे—एक, पत्रकारिता और संपादन जहाँ उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का जागरण किया; दूसरा, साहित्य-सृजन, जहाँ काव्य, निबंध, नाटक, कहानी आदि विधाओं में मौलिक लेखन के साथ युगीन संवाद और सर्जनात्मकता का विस्तार किया; और तीसरा, उनके व्याख्यान, जहाँ प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक-साहित्यिक-राजनीतिक प्रश्नों से दो-चार हुए।

‘पुष्प की अभिलाषा’ कविता से भारतीय जन-मन में हमेशा के लिए बस गए माखनलाल चतुर्वेदी को ‘एक भारतीय आत्मा’ के नाम से भी याद किया जाता है जिन्होंने देशप्रेम की अपनी कविताओं के माध्यम से न केवल अपने समय में बल्कि बाद की पीढ़ी-दर-पीढ़ी में भी राष्ट्रप्रेमी भावनाओं का संचार किया।
‘हिमकिरीटिनी’, ‘हिमतरंगिनी’, ‘युग चरण’, ‘समर्पण’, ‘मरण ज्वार’, ‘माता’, ‘वेणु लो गूँजे धरा’, ‘बीजुरी काजल आँज रही’ आदि इनकी प्रसिद्ध काव्य-कृतियाँ हैं। ‘कृष्णार्जुन युद्ध’, ‘साहित्य के देवता’, ‘समय के पाँव’, ‘अमीर इरादे :ग़रीब इरादे’ आदि उनकी प्रसिद्ध गद्यात्मक कृतियाँ हैं। ‘माखनलाल चतुर्वेदी रचनावली’ में उनकी रचनात्मक कृतियों का संकलन किया गया है।
1943 में उन्हें 'देव पुरस्कार' से सम्मानित किया गया जो उस समय साहित्य का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार था। 1953 में साहित्य अकादेमी की स्थापना के बाद इसका पहला साहित्य अकादेमी पुरस्कार 1955 में उन्हें ही प्रदान किया गया। भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ से अलंकृत किया और उन पर डाक-टिकट जारी किया।



कैदी और कोकिला कविता का सार

कैदी और कोकिला कविता के कवि माखनलाल चतुर्वेदी जी हैं। माखनलाल चतुर्वेदी जी एक स्वतंत्रता सेनानी थे और स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते-लड़ते उन्होंने कई बार जेल यात्राएं की। यह कविता भी उन्होंने अपनी एक जेल यात्रा के दौरान लिखी।
उस वक्त कवि जेल में अकेले थे , निराश थे , दुखी थे। आधी रात में अचानक एक कोयल आकर उनकी जेल की दीवार पर बैठकर बोलने लगी , उस कोयल को देखकर कवि के मन में जो भाव या विचार आये , उनको ही उन्होंने इस शानदार कविता के रूप में पिरोया है।
इस कविता में कवि ने अंग्रेज सरकार द्वारा राजनीतिक कैदियों को दी जाने वाली तरह-तरह की यातनाओं के बारे में लिखा है। स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने वाले लोगों को अंग्रेज सरकार पकड़ कर जेल में डाल देतेी थी और फिर उन पर तरह-तरह के अत्याचार , अन्याय किये जाते थे। उनसे कोल्हू (तेल निकालने वाला यंत्र) चलाया जाता था , पत्थर तुड़वाये जाते थे और मोट डालकर कुएं से पानी निकलवाया जाता था।
उन्हें पेट भर खाना भी नहीं दिया जाता था और अंधेरी कोठरी में बंद कर दिया जाता था। स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजों के अन्याय , अत्याचार को सहन किया लेकिन अपने मन में देशभक्ति की भावना को कम नहीं होने दिया और भारत माता की आजादी के लिए लगातार संघर्ष किया जिसका नतीजा सन 1947 में भारत आजाद हुआ।
इस कविता में कवि कोयल को अपनी “सखी/दोस्त” मानकर अपने मन की पीड़ा को उससे व्यक्त कर रहे हैं। वो कोयल से कहते हैं कि यह समय देश भक्ति के गीत गाने का है। तुम देशभक्ति के गीत गाकर इस देश के सोए हुए लोगों को जागृत करो और उनको अंग्रेजो के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने को प्रेरित करो।
इस काव्य में खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है और साथ में तत्सम , तद्भव एवं उर्दू शब्दों का भी अच्छा प्रयोग किया गया है। इस काव्य की भाषा चित्रात्मक व लयात्मक है और इसमें संबोधन शैली का प्रयोग किया गया है।


काव्यांश 1.

क्या गाती हो ?
क्यों रह जाती हो
कोकिल बोलो तो !
क्या लाती हो ?
सन्देश किसका है ?
कोकिल बोलो तो !

व्याख्या –
कवि कहते हैं कि कोयल !! तुम आधी रात में क्या गा रही हो। यह आजादी का तराना हैं या पराधीनता का दुःख व्यक्त कर रही हो और फिर गाते – गाते अचानक बीच में चुप क्यों हो जाती हो ? कोयल आखिर कुछ तो बोलो। क्या तुम किसी का संदेश लेकर आई हो। कोयल बोलो तो ।




काव्यांश 2 .

ऊँची काली दीवारों के घेरे में
डाकू, चोरों, बटमारों के डेरे में
जीने को देते नहीं पेट भर खाना
जीवन पर अब दिन रात कड़ा पहरा है
शासन है , या तम का प्रभाव गहरा है ?
हिमकर निराश कर चला रात भी काली
इस समय कालिमामयी क्यूँ आली ?


व्याख्या – इन पंक्तियों में कवि माखनलाल चतुर्वेदी जी अपने मन की व्यथा को बता रहे हैं। ब्रिटिश शासन द्वारा स्वतन्त्रता सैनानियों पर किये गए अत्याचारों के बारे में बात करते हुए कवि कहते हैं कि अंग्रजों ने जेल की इन ऊंची-ऊंची दीवारों के अंदर इस अंधकारमय जगह पर हमें डाकू , चोर और लुटेरों के साथ रखा हैं।
यहां पर हमें पेट भर खाने को भी नहीं मिलता है और हर समय हमारे ऊपर अंग्रेजी सरकार की कड़ी निगरानी रहती है । कवि ने अंग्रेजों के शासन की तुलना अंधकार से की है क्योंकि वो भारतीयों पर अन्याय , अत्याचार करते थे और उनका शोषण करते थे। इसीलिए उन्होंने अंग्रेजी शासन की तुलना अंधकार से की हैं जिसमें सिर्फ बुराइयों ही बुराइयों पनपती हैं।
कवि आगे कहते हैं कि अब तो चाँद (हिमकर) भी हमें छोड़कर चला गया हैं यानि जो थोड़ी बहुत रोशनी चाँद से आ रही थी , अब वो भी खत्म हो गयी हैं जिससे रात और ज्यादा काली अंधेरी हो गई हैं लेकिन हे कालिमामयी (पूरी काली कोयल) सखी , तुम इस समय क्यों जाग रही हो ?  कवि बहुत अधिक निराश और हताश है।




काव्यांश 3.
क्यों हूक पड़ी ?
वेदना बोझ वाली सी
कोकिल बोलो तो
क्या लुटा ?
मृदुल वैभव की रखवाली सी
कोकिल बोलो तो !


व्याख्या – इन पंक्तियों में कवि कोयल से पूछते हैं कि तुम्हारी चीख दर्द भरी क्यों हैं। ऐसा लगता हैं जैसे  तुम्हारे दिल में कोई गहरा दर्द या बेदना हैं। कोयल बताओ तुम्हें क्या दुःख हैं।
कवि आगे कहते हैं कि कोयल तुमसे किसने क्या लूट लिया या तुम्हारा क्या लुट गया हैं। बहुत मीठे स्वर में गाने वाली कोयल , तुम्हारे स्वर में इतना दर्द क्यों हैं ? कोयल को बेहद सुरीला गाने वाली चिड़िया माना जाता हैं।




काव्यांश 4.

क्या हुई बावली ?
अर्ध रात्रि को चीखी कोकिल बोलो तो !
किस दावानल की ज्वालायें हैं दीखी ?
कोकिल बोलो तो !


व्याख्या –इन पंक्तियों में कवि फिर कोयल से पूछते हैं कि हे कोयल !! तुम तो आधी रात में कभी भी नही बोलती थी। क्या तुम पागल हो गई हो , जो आधी रात में यहां आकर चिल्ला रही हो ?
या फिर तुमने क्या किसी जंगल में लगी हुई भयानक आग को देख लिया है जो डर कर तुम इतना चिल्ला रही हो। कोयल बोलो तो !




काव्यांश 5.

क्या ? देख न सकती जंजीरों का गहना ?
हथकड़ियाँ क्यों ? ये ब्रिटिश राज का गहना।
कोल्हू का चर्रक चूं जीवन की तान।
गिट्टी पर अंगुलियों ने लिखे गान !
हूँ मोट खींचता लगा पेट पर जूआ
खाली करता हूँ ब्रिटिश अकड़ का कूआ
दिन में करुणा क्यों जगे, रुलानेवाली
इसलिए रात में गजब ढ़ा रही आली ?


व्याख्या – इन पंक्तियों में कवि कोयल से कहते हैं कि हे कोयल !! क्या तुम मेरे हाथों में पड़ी इन लोहे की जंजीरे को नहीं देख पा रही हो। ये मेरे हाथों में बंधी जो जंजीरें है। ये वास्तव में कोई जंजीर नहीं हैं। ये तो ब्रिटिश राज के द्वारा मुझे पहनाये गए गहने हैं अर्थात स्वतंत्रता सेनानियों के लिए लोहे की जंजीरें किसी अमूल्य गहने से कम नही थी।
यहां पर माखनलाल चतुर्वेदी जी जेल में अपनी दिनचर्या के बारे में बात कर रहे हैं। वो कहते हैं कि कोल्हू के चलने से जो आवाज आती है। अब वही हमारी जिंदगी का गीत बन गया है।
बड़े – बड़े पत्थरों को तोड़ कर छोटी-छोटी गिट्टियों बनाती हैं। कवि कहते हैं कि उन गिट्टियों पर हमारे अँगुलियों के निशान कुछ इस तरह से पड गए हैं मानों जैसे हमने इन गिट्टियों पर स्वतन्त्रता के गीत उकेर दिये हो।
कवि आगे कहते हैं कि हम अपने पेट पर जुआ बांधकर मोट (चमड़े का एक थैला , जिससे कुँए में डाल कर पानी निकाला जाता हैं) से पानी निकाल कर ब्रिटिश राज की अकड़ का कुआं धीरे-धीरे खाली कर रहे हैं। यानि वो भले ही हम पर कितना अत्याचार क्यों न कर लें लेकिन हमें तोड़ नहीं सकते हैं और न ही हमारे अंदर की देशभक्ति की भावना को कम कर सकते हैं । धीरे-धीरे ही सही लेकिन एक दिन हम , इस अंग्रेजी शाशन को उखाड़ फेंकेंगे।
कवि कोयल को अपना दोस्त मानते हुए कह रहे हैं कि हे सखी !! शायद तुम दिन में इसलिए नहीं गाती हो क्योंकि तुम्हें लगता हैं कि , कही तुम्हारी बेदना भरी चीख सुनकर हमारा दिल करुणा से न भर जाएँ या हम कमजोर न पड़ जाँय। इसीलिए तुम आधी रात में हमें ढांढस बधांने आयी हो ।




काव्यांश 6.

इस शांत समय में ,
अंधकार को बेध , रो रही हो क्यों ?
कोकिल बोलो तो !
चुप चाप मधुर विद्रोह बीज ,
इस भाँति बो रही हो क्यों ?
कोकिल बोलो तो !


व्याख्या – कवि कोयल से पूछते हैं कि हे सखी !! इस सन्नाटे वाली काली अंधेरी रात के अंधकार को भेदकर (चीरना) तुम क्यों रो रही हो ? यानि तुम्हारा इस समय बोलना इस शांत अंधेरी रात के सन्नाटे को भेद रहा हैं। कोयल कहीं तुम , इन सोए हुए लोगों को जगा कर , उनके मन में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह के बीज़ तो नहीं बो रही हो है। कोयल कुछ तो बोलो।




काव्यांश 7.

काली तू रजनी भी काली ,
शासन की करनी भी काली ,
काली लहर कल्पना काली ,
मेरी काल कोठरी काली ,
टोपी काली, कमली काली ,
मेरी लौह श्रृंखला काली ,
पहरे की हुंकृति की व्याली ,
तिस पर है गाली ए आली !


व्याख्या – यहां पर कवि कोयल के कालेपन की तुलना जेल की अन्य चीजों से करते हुए कह रहे हैं कि हे कोयल !! जिस तरह तुम काली हो उसी तरह ये रात , अंग्रेजी शासन के कामकाज , उनकी सोच व कल्पना भी काली हैं और मैं जिस काल कोठरी में बंद हूं। वह कालकोठरी भी काली हैं। यहां पर जो टोपी और कंबल मुझे पहनने को मिला है , वह भी काला हैं और मेरे हाथों पर पड़ी लोहे की जंजीर भी काली ही है।
कवि आगे कोयल से कहते हैं कि हे सखी !! इस अँधेरी काली रात में , काली सर्पनी (काला सांप) की फुंकार जैसी जेल के पहरेदार की जो हुंकार (आवाज) हैं , वो भी मुझे गाली जैसी ही लग रही हैं। यानि बार-बार पहरेदार की आवाज ( जागते रहो) सुनकर उन्हें याद आता हैं कि वो कैद में हैं। काले रंग को यहाँ पर अपमान , निराशा व दुःख का प्रतीक माना गया हैं।




काव्यांश 8.

इस काले संकट सागर पर
मरने की , मदमाती !
कोकिल बोलो तो !
अपने चमकीले गीतों को
क्योंकर हो तैराती !
कोकिल बोलो तो !


व्याख्या – इन पंक्तियों में कवि कोयल से कहते हैं कि हे सखी !! तुम मदहोशी में , इस काले संकट रूपी सागर में (जहाँ की हर चीज काली हैं) मरने क्यों आयी हो यानि इस काले संकट रूपी सागर (जेल) में मरने को क्यों उतावली हो ? कोयल तुम तो बहुत सुरीला गाती हो लेकिन तुम अपने उन चमकीले , सुरीले गीतों को इस संकट रूपी सागर में क्यों तैरा रही हो यानि तुम यहाँ क्यों अपने सुरीले गीत गा रही हो।




काव्यांश 9.

तुझे मिली हरियाली डाली
मुझे मिली कोठरी काली !
तेरा नभ भर में संचार
मेरा दस फुट का संसार !
तेरे गीत कहावें वाह
रोना भी है मुझे गुनाह !
देख विषमता तेरी मेरी
बजा रही तिस पर रणभेरी !


व्याख्या – इन पंक्तियों में कवि कोयल से कहते हैं कि हे सखी !!  तेरी और मेरी परिस्थितियां बिल्कुल अलग अलग हैं। मैं गुलाम हूँ और तू आजादी हैं। तुम हरे भरे पेड़ों की एक डाली से दूसरी डाली घूम फिर सकती हो और मैं इस काल कोठरी में बंद हूं।
तुम्हारे लिए तो पूरा आकाश खुला है। तुम पूरे आकाश में कहीं भी उड़ सकती हो और मेरे पास तो सिर्फ एक 10 X 10 फीट की छोटी सी एक अंधेरी कालकोठरी है जिसके अंदर में अपना जीवन बिता रहा हूं।
कोयल जब तू गीत गाती है तो लोग वाह-वाह करते हैं लेकिन यहां पर मेरा रोना भी गुनाह माना जाता है। तेरे-मेरे जीवन में इतनी विषमताएं होने के बावजूद भी , तू यहां आकर रणभेरी (युद्ध की ललकार) का विगुल क्यों बजा रही हो।




काव्यांश 10.

इस हुंकृति पर ,
अपनी कृति से और कहो क्या कर दूँ ?
कोकिल बोलो तो !
मोहन के व्रत पर ,
प्राणों का आसव किसमें भर दूँ ?
कोकिल बोलो तो !


व्याख्या – इन पंक्तियों में कवि कोयल से कहते हैं कि हे सखी !! तुम्हारी इस पुकार पर , मैं अपनी इस रचना (कविता) में और क्या-क्या लिखूँ कि लोगों में अंदर स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए जोश व देशभक्ति की भावना पैदा हो सके और वो इस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लें।
कवि आगे कहते हैं कि मोहन (मोहनदास करमचंद्र गांधी जी) ने जो भारत माता को स्वतंत्र करने का व्रत लिया हैं , उसके लिये मैं अपनी कविताओं से किसके प्राणों में अमृत भर दूँ  यानि मैं अपनी कविताओं के माध्यम से लोगों के अंदर ऐसा जोश भर सकूं कि वो , इस आंदोलन में अपने प्राणों की आहुति देने को भी तैयार हो जाये। जैसे अमृत पीकर लोग अमर हो जाते हैं उसी प्रकार शहीद होकर भी लोग अमर हो जाते हैं।

Tuesday

मीरा का जीवन परिचय और उनके पदों की सप्रसंग व्याख्या

                                                        मीराबाई का जीवन परिचय 

मीराबाई राणा कुम्भा की महारानी थी। मीराबाई का जन्म राजस्थान में मेवाड़ के निकट चौकड़ी ग्राम में सन् 1498 ई. के आसपास हुआ था। मेड़ता के नरेश राव दूदा मीरांबाई के दादा थे। वे राव दूदा के छोटे पुत्र रतनसिंह की पुत्री थीं। 



मीराबाई का बाल्यकाल उनके वैष्णव भक्त राव दूदाजी के संरक्षण में व्यतीत हुआ। अपने दादा जी के घर में ही मीरां को श्री गिरधरलाल का इष्ट हो गया था और इसका कारण उनके अपने संस्कार तो थे ही, उनके साथ-साथ राव दूदाजी की वैष्णव-भक्ति का भी भरपूर प्रभाव पड़ा था। तथापि यह अत्यन्त आश्चर्यजनक लगता है कि इतना होने पर भी मीरां ने अपने किसी पद में भी राव दूदा जी के नाम का उल्लेख नहीं किया। तथापि इतना तो निर्विवाद है कि दो वर्ष की आयु में ही माता के स्वर्गवास हो जाने के का लालन-पालन राव दूदा के हाथ में हुआ और इसलिए ‘मीराबाई’ में भक्ति के संस्कारों का उत्पन्न हो जाना अत्यन्त स्वाभाविक था। भक्ति के संस्कारों के उदित हो जाने के कारण ‘मीरां’ अपने वैष्णवभक्त दादा जी का ही अनुकरण करती, ठाकुर जी के तिलक लगाती, भोग लगाती, आरती उतारती और नाम स्मरण में खोई रहती।

मीराबाई के पदों में सिसौदिया वंश का उल्लेख मिलता है। उन्होंने अपनी ननद का नाम भी ऊदाबाई बताया है
किन्तु इस सम्बन्ध में अपेक्षित ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। मीराबाई के पिता का नाम रत्न सिंह था और मीराबाई का विवाह महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र कुवर भोजराज के साथ हुआ था। इस प्रकार ‘मीरा’ अपने ससुराल मेवाड़ में आ गई। मीरां का वैवाहिक जीवन सुखमय बीता किन्तु दुर्भाग्यवश वे जल्दी ही विधवा हो गई। मीराबाई के पति कुवर भोजराज की मृत्यु हो गई और इस प्रकार मीरा का सुखमय दाम्पत्य जीवन सदा-सदा के लिए समाप्त हो गया। भोजराज की मृत्यु अचानक हो जाने से मीरा का जीवन अस्तव्यस्त हो गया। 

यही नहीं, इसके चार वर्ष पश्चात ही इनके पिता रत्न सिंह भी स्वर्ग सिधार गए और कुछ ही समय में मीरां को अपने जीवन का सर्वाधिक दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण समय देखना पड़ा। विपत्तियों के इन टूटते हुए पहाड़ों ने मीरां की जीवन-धारा में ही भारी मोड़ ला दिया। 
मीराबाई की बालपन की भक्ति और धर्म के संस्कार अब श्रीकृष्ण प्रेमामृत में एकतान हो गए। अब उनकी एकमात्र रुचि भगवद् भक्ति और साधु-संगति में हो गई।अब मीरां का अधिकांश समय भगवद् दर्शन और साधुओं से धार्मिक परिचर्चाएँ करने में बीतता था। मीरां ने लोकलाज और कुल की मर्यादा को त्याग कर अपने आराध्य की भक्ति आरम्भ कर दी। कभी-कभी वे श्री गिरधरलाल के प्रेमामृत का पान कर इतनी प्रेमोन्मत्त हो जाती थीं कि पैरों में घूँघरू बांध कर, ताली दे-दे कर श्रीकृष्ण की मूर्ति के सामने नाचने लगतीं। मीरां के श्वसुर राणा सांगा भी बाबर के  साथ युद्ध करते हुए खेत हो चुके थे, अतः अब मीरां के ससुराल में कोई भी अपना नहीं रहा। राणा सांगा की मृत्यु के पश्चात मीराबाई के देवर विक्रमजीत सिहासन पर बैठे। कहते हैं कि विक्रमजीत ने मीराबाई को अनेक यातनाएं दी जिसका उल्लेख मीरां के पदों में भी सहज सुलभ है।

मीराबाई के देवर को यह पसंद नहीं था कि राणा परिवार की बहू मीरां संतों की मण्डली में घूमे-फायर और गिरधारलाल के मन्दिर में ताली दे-देकर नृत्य करे। उन्हें मीराबाई को मार डालने तक की नई-नई युक्तियाँ सूझीं।
मीरा को मार डालने के लिए विक्रमजीत  ने विष का प्याला भेजा, जिसे मीरां चरणमृत समझ कर पी गई।
मीरा को मारने के लिए पिटारी में सांप भी भेजा गया किन्तु जिसके अनुकूल स्वयं प्रभु हों, उस मीरां के लिए
कुछ भी प्रतिकूल नहीं हो सका। मीरा ने जब उस सांप की पिटारी को खोल देखा तो उसे वहाँ सांप के स्थान
पर शालिग्राम की मूर्ति दिखाई पड़ी। मीरां ने शालिग्राम की उस मूर्ति को प्रेमाश्रुओं से नहला ही दिया। इसी प्रकार
की अनेक यातनाएँ मीरां को दी गई। मीरां के जीवन पर इन यातनाओं का अधिक प्रभाव पड़ा था। मीरा को
भेजे गये विष-प्याले की घटना का उल्लेख तो अन्य कई कवियों ने भी किया है। मीराबाई की मृत्यु सन् 1546 ई. के आसपास मानी जाती है। 

मीरा के पद का पाठ प्रवेश



लोक कथाओं के अनुसार अपने जीवन में आए कठिन दुखों से मुक्ति पाने के लिए मीरा घर – परिवार छोड़ कर वृन्दावन में जा बसी थी और कृष्ण प्रेम में लीन हो गई थी।  इनकी रचनाओं में इनके आराध्य ( कृष्ण ) कहीं निर्गुण निराकार ब्रह्मा अर्थात  जिसका कोई रूप आकर न हो ऐसे प्रभु , कहीं सगुण  साकार गोपीवल्लभ श्रीकृष्ण और कहीं निर्मोही परदेसी जोगी अर्थात जिसे किसी की परवाह नहीं ऐसे  संत के रूप में दिखाई देते हैं।
प्रस्तुत पाठ में संकलित दोंनो पद मीरा के इन्ही आराध्य अर्थात श्रीकृष्ण को समर्पित हैं। मीरा अपने प्रभु की झूठी प्रशंसा भी करती है ,प्यार भी करती हैं और अवसर आने पर डांटने से भी नहीं डरती। श्रीकृष्ण की शक्तिओं व सामर्थ्य का गुणगान भी करती हैं और उनको उनके कर्तव्य भी याद दिलाती हैं।

मीरा के पद पाठ सार

इन पदों में मीराबाई श्री कृष्ण का भक्तों के प्रति प्रेम और अपना श्री कृष्ण के प्रति भक्ति – भाव का वर्णन करती है। पहले पद में मीरा श्री कृष्ण से कहती हैं कि  जिस प्रकार आपने द्रोपदी ,प्रह्लाद और ऐरावत के दुखों को दूर किया था उसी तरह मेरे भी सारे दुखों का नाश कर दो।
दूसरे पद में मीरा श्री कृष्ण के दर्शन का एक भी मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहती , वह श्री कृष्ण की दासी बनाने को तैयार है ,बाग़ – बगीचे लगाने को भी तैयार है ,गली गली में श्री कृष्ण की लीलाओं का बखान भी करना चाहती है ,ऊँचे ऊँचे महल भी बनाना चाहती है , ताकि दर्शन का एक भी  मौका न  चुके।
श्री कृष्ण के मन मोहक रूप का वर्णन भी किया है और मीरा कृष्ण के दर्शन के लिए इतनी व्याकुल है की आधी रात को ही कृष्ण को दर्शन देने के लिए बुला रही है।



मीरा के पद पाठ की व्याख्या

1.हरि आप हरो जन री भीर।
द्रोपदी री लाज राखी , आप बढ़ायो चीर।
भगत कारण रूप नरहरि , धरयो आप सरीर।
बूढ़तो गजराज राख्यो , काटी कुञ्जर पीर।
दासी मीराँ लाल गिरधर , हरो म्हारी भीर।।

प्रसंग :- प्रस्तुत पाठ हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श ‘ से लिया गया है। इस पद की कवयित्री मीरा है। इसमें कवयित्री भगवान श्री कृष्ण के भक्त – प्रेम को दर्शा रही हैं और स्वयं की रक्षा की गुहार लगा रही है ।

व्याख्या -: इस पद में कवयित्री मीरा भगवान श्री कृष्ण के भक्त – प्रेम का वर्णन करते हुए कहती हैं कि आप अपने भक्तों के सभी प्रकार के दुखों को हरने वाले हैं अर्थात दुखों का नाश करने वाले हैं। मीरा उदाहरण देते हुए कहती हैं कि जिस तरह आपने द्रोपदी की इज्जत को बचाया और साडी के कपडे को बढ़ाते चले गए ,जिस तरह आपने अपने भक्त प्रह्लाद को बचाने के लिए नरसिंह का शरीर धारण कर लिया और जिस तरह आपने हाथियों के राजा भगवान इंद्र के वाहन ऐरावत हाथी को मगरमच्छ के चंगुल से बचाया था ,हे ! श्री कृष्ण उसी तरह अपनी इस दासी अर्थात भक्त के भी सारे दुःख हर लो अर्थात सभी दुखों का नाश कर दो।



2.स्याम म्हाने चाकर राखो जी,
गिरधारी लाला म्हाँने चाकर राखोजी।
चाकर रहस्यूँ बाग लगास्यूँ नित उठ दरसण पास्यूँ।
बिन्दरावन री कुंज गली में , गोविन्द लीला गास्यूँ।
चाकरी में दरसन पास्यूँ, सुमरन पास्यूँ खरची।
भाव भगती जागीरी पास्यूँ , तीनूं बाताँ सरसी।
मोर मुगट पीताम्बर सौहे , गल वैजन्ती माला।
बिन्दरावन में धेनु चरावे , मोहन मुरली वाला।
ऊँचा ऊँचा महल बनावँ बिच बिच राखूँ बारी।
साँवरिया रा दरसण पास्यूँ ,पहर कुसुम्बी साड़ी।
आधी रात प्रभु दरसण ,दीज्यो जमनाजी रे तीरा।
मीराँ रा प्रभु गिरधर नागर , हिवड़ो घणो अधीरा।

प्रसंग -: प्रस्तुत पद हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श ‘ से लिया गया है। इस पद की कवयित्री मीरा है। इस पद में कवयित्री मीरा श्री कृष्ण के प्रति अपने प्रेम का वर्णन कर रही है और श्री कृष्ण के दर्शन के लिए वह कितनी व्याकुल है यह दर्शा रही है।

व्याख्या -: इस पद में कवयित्री मीरा श्री कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति भावना को उजागर करते हुए कहती हैं कि हे !श्री कृष्ण मुझे अपना नौकर बना कर रखो अर्थात मीरा किसी भी तरह श्री कृष्ण के नजदीक रहना चाहती है फिर चाहे नौकर बन कर ही क्यों न रहना पड़े।  मीरा कहती हैं कि नौकर बनकर मैं बागीचा लगाउंगी ताकि सुबह उठ कर रोज आपके दर्शन पा सकूँ। मीरा कहती हैं कि वृन्दावन की संकरी गलियों में मैं अपने स्वामी की लीलाओं का बखान करुँगी।  मीरा का मानना है कि नौकर बनकर उन्हें तीन फायदे होंगे पहला – उन्हें हमेशा कृष्ण के दर्शन प्राप्त होंगे , दूसरा- उन्हें अपने प्रिय की याद नहीं सताएगी और तीसरा- उनकी भाव भक्ति का साम्राज्य बढ़ता ही जायेगा।
मीरा श्री कृष्ण के रूप का बखान करते हुए कहती हैं कि उन्होंने पीले वस्त्र धारण किये हुए हैं ,सर पर मोर के पंखों का मुकुट विराजमान है और गले में वैजन्ती फूल की माला को धारण किया हुआ है।
वृन्दावन में गाय चराते हुए जब वह मोहन मुरली बजाता है तो सबका मन मोह लेता है।
मीरा कहती है कि मैं बगीचों के बिच ही ऊँचे ऊँचे महल बनाउंगी और कुसुम्बी साड़ी पहन कर अपने प्रिय के दर्शन करुँगी अर्थात श्री कृष्ण के दर्शन के लिए साज श्रृंगार करुँगी। मीरा कहती हैं कि हे !मेरे प्रभु गिरधर स्वामी मेरा मन आपके दर्शन के लिए इतना बेचैन है कि वह सुबह का इन्तजार नहीं कर सकता। मीरा चाहती है की श्री कृष्ण आधी रात को ही जमुना नदी के किनारे उसे दर्शन दे दें।

Saturday

कबीरदास के पदों की सप्रसंग व्याख्या कक्षा 10 सीबीएसई

                                                                    कबीरदास के पदों की सप्रसंग व्याख्या 

साखी पाठ प्रवेश

‘साखी ‘ शब्द ‘ साक्षी ‘ शब्द का ही (तद्भव ) बदला हुआ रूप है। साक्षी शब्द साक्ष्य से बना है। जिसका अर्थ होता है -प्रत्यक्ष ज्ञान अर्थात जो ज्ञान सबको स्पष्ट दिखाई दे। यह प्रत्यक्ष ज्ञान गुरु द्वारा शिष्य को प्रदान किया जाता है। संत ( सज्जन ) सम्प्रदाय (समाज ) मैं अनुभव ज्ञान (व्यवाहरिक ज्ञान ) का ही महत्व है -शास्त्रीय ज्ञान अर्थात वेद , पुराण इत्यादि का नहीं। कबीर का अनुभव क्षेत्र बहुत अधिक फैला हुआ था अर्थात कबीर जगह -जगह घूम कर प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते थे। इसलिए उनके द्वारा रचित साखियों मे अवधि , राजस्थानी , भोजपुरी और  पंजाबी भाषाओँ के शब्दों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। इसी कारण उनकी भाषा को ‘पचमेल खिंचड़ी ‘ अर्थात अनेक भाषाओँ का मिश्रण कहा जाता है। कबीर की भाषा को सधुक्क्ड़ी भी कहा जाता है।
साखी पाठ सार

इन साखियों में कबीर ईश्वर प्रेम के महत्त्व को प्रस्तुत कर रहे हैं। पहली साखी में कबीर मीठी भाषा का प्रयोग करने की सलाह देते हैं ताकि दूसरों को सुख और और अपने तन को शीतलता प्राप्त हो। दूसरी साखी में कबीर ईश्वर को मंदिरों और तीर्थों में ढूंढ़ने के बजाये अपने मन में ढूंढ़ने की सलाह देते हैं। तीसरी साखी में कबीर ने अहंकार और ईश्वर को एक दूसरे से विपरीत (उल्टा ) बताया है। चौथी साखी में कबीर कहते हैं कि प्रभु को पाने की आशा उनको संसार के लोगो से अलग करती है। पांचवी साखी में कबीर कहते हैं कि ईश्वर के वियोग में कोई व्यक्ति जीवित नहीं रह सकता, अगर रहता भी है तो उसकी स्थिति पागलों जैसी हो जाती है। छठी साखी में कबीर निंदा करने वालों को हमारे स्वभाव परिवर्तन में मुख्य मानते हैं। सातवीं साखी में कबीर ईश्वर प्रेम के अक्षर को पढने वाले व्यक्ति को पंडित बताते हैं और अंतिम साखी में कबीर कहते हैं कि यदि ज्ञान प्राप्त करना है तो मोह – माया का त्याग करना पड़ेगा।
‘ साखी ‘ वस्तुतः (एक तरह का ) दोहा छंद ही है जिसका लक्षण है 13 और 11 के विश्राम से 24 मात्रा अर्थात पहले व तीसरे चरण में 13 वर्ण व दूसरे व चौथे चरण में 11 वर्ण के मेल से 24 मात्राएँ। प्रस्तुत पाठ की साखियाँ प्रमाण हैं की सत्य को सामने रख कर ही गुरु शिष्य  को जीवन के व्यावहारिक ज्ञान की शिक्षा देता है। यह शिक्षा जितनी अधिक प्रभावशाली होगी, उतनी ही अधिक याद  रहेगी।


साखी की पाठ व्याख्या

काव्यांश 1.
ऐसी बाँणी बोलिये ,मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै ,औरन कौ सुख होइ।।

प्रसंग -:
प्रस्तुत साखी हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श ‘ से ली गई है। इस साखी के कवी ‘कबीरदास ‘जी है। इसमें कबीर ने मीठी बोली बोलने और दूसरों को दुःख न देने की बात कही है
व्याख्या -: इसमें कबीरदास जी कहते है कि हमें अपने मन का अहंकार त्याग कर ऐसी भाषा का प्रयोग करना चाहिए जिसमे हमारा अपना तन मन भी सवस्थ रहे और दूसरों को भी कोई कष्ट न हो अर्थात दूसरों को भी सुख प्राप्त हो।

काव्यांश 2.
कस्तूरी कुंडली बसै ,मृग ढूँढै बन माँहि।
ऐसैं घटि- घटि राँम है , दुनियां देखै नाँहिं।।

प्रसंग -: 
प्रस्तुत साखी हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श ‘ से ली गई है। इसके कवी कबीरदास जी है इसमें कबीर कहते है कि संसार के लोग कस्तूरी हिरण की तरह  हो गए है जिस तरह हिरण कस्तूरी प्राप्ति के लिए इधर उधर भटकता रहता है उसी तरह लोग भी ईश्वर प्राप्ति के लिए भटक रहे है।
व्याख्या -: कबीरदास जी कहते है कि जिस प्रकार एक हिरण कस्तूरी की खुशबु को जंगल में ढूंढ़ता फिरता है जबकि वह सुगंध उसी की नाभि में विद्यमान होती है परन्तु  वह इस बात से बेखबर होता है, उसी प्रकार संसार के कण कण में ईश्वर विद्यमान है और मनुष्य इस बात से बेखबर ईश्वर को देवालयों और तीर्थों में ढूंढ़ता है। कबीर जी कहते है कि अगर ईश्वर को ढूंढ़ना ही है तो अपने मन में ढूंढो।

काव्यांश 3.
जब मैं था तब हरि नहीं ,अब हरि हैं मैं नांहि।
सब अँधियारा मिटी गया , जब दीपक देख्या माँहि।।

प्रसंग -:
प्रस्तुत साखी हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श ‘ से ली गई है।  इस साखी के कवि कबीरदास जी हैं। इसमें कबीर जी मन में अहम् या अहंकार के मिट जाने के बाद मन में परमेश्वर के वास की बात कहते है।
व्याख्या -: कबीर जी कहते हैं कि जब इस हृदय में ‘मैं ‘ अर्थात मेरा अहंकार था तब इसमें परमेश्वर का वास नहीं था परन्तु अब हृदय में अहंकार नहीं है तो इसमें प्रभु का वास है।  जब परमेश्वर नमक दीपक के दर्शन हुए तो अज्ञान रूपी अहंकार का विनाश हो गया।

काव्यांश 4.
सुखिया सब संसार है , खायै अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है , जागै अरु रोवै।।

प्रसंग -: प्रस्तुत साखी हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श ‘ से ली गई है।  इस साखी के कवि कबीरदास जी है। इसमें कबीर जी अज्ञान रूपी अंधकार में सोये हुए मनुष्यों को देखकर दुःखी हैं और रो रहे है हैं।
व्याख्या -: कबीर जी कहते हैं कि संसार के लोग अज्ञान रूपी अंधकार में डूबे हुए हैं अपनी मृत्यु आदि से भी अनजान सोये हुये हैं। ये सब देख कर कबीर दुखी हैं और वे रो रहे हैं। वे प्रभु को पाने की आशा में हमेशा चिंता में जागते रहते हैं।

काव्यांश 5.
बिरह भुवंगम तन बसै , मंत्र न लागै कोइ।
राम बियोगी ना जिवै ,जिवै तो बौरा होइ।।

प्रसंग -:
प्रस्तुत साखी हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श ‘ से ली गयी है। इस साखी के कवि कबीरदास जी हैं। इसमें कबीर कहते हैं कि ईश्वर के वियोग में मनुष्य जीवित नहीं रह सकता और अगर रह भी जाता है तो वह पागल हो जाता है।
व्याख्या -: कबीरदास जी कहते हैं कि जब मनुष्य के मन में अपनों के बिछड़ने का गम सांप बन कर लोटने  लगता है तो उस पर न कोई मन्त्र असर करता है और न ही कोई दवा असर करती है। उसी तरह राम अर्थात ईश्वर के वियोग में मनुष्य जीवित नहीं रह सकता और यदि वह जीवित रहता भी है तो उसकी स्थिति पागलों  जैसी हो जाती है।

काव्यांश 6.
निंदक नेड़ा राखिये , आँगणि कुटी बँधाइ।
बिन साबण पाँणीं बिना , निरमल करै सुभाइ।।

प्रसंग-:
प्रस्तुत साखी हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श ‘ से ली गई है। इस साखी के कवी कबीदास जी हैं। इसमें कबीरदास जी निंदा करने वाले व्यक्तियों को अपने पास रखने की सलाह देते हैं ताकि आपके स्वभाव में सकारात्मक परिवर्तन आ सके।
व्याख्या -: इसमें कबीरदास जी कहते हैं कि हमें हमेशा निंदा करने वाले व्यक्तिओं को अपने निकट रखना चाहिए। हो सके तो अपने आँगन में ही उनके लिए घर बनवा लेना चाहिए अर्थात हमेशा अपने आस पास ही रखना चाहिए।  ताकि हम उनके द्वारा बताई गई हमारी गलतिओं को सुधर सकें। इससे हमारा स्वभाव बिना साबुन और पानी की मदद के ही साफ़ हो जायेगा।

काव्यांश 7.
पोथी पढ़ि – पढ़ि जग मुवा , पंडित भया न कोइ।
ऐकै अषिर पीव का , पढ़ै सु पंडित होइ।

प्रसंग -:
प्रस्तुत साखी हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श ‘ से ली गई है।  इस साखी के कवि कबीरदास जी हैं। इसमें कबीर जी पुस्तक ज्ञान को महत्त्व न देकर ईश्वर – प्रेम को  महत्त्व देते हैं।
व्याख्या -: कबीर जी कहते है कि इस संसार में मोटी – मोटी पुस्तकें (किताबें ) पढ़ कर कई मनुष्य मर गए परन्तु कोई भी मनुष्य पंडित (ज्ञानी ) नहीं बन सका।  यदि किसी व्यक्ति ने ईश्वर प्रेम का एक भी अक्षर पढ़ लिया होता तो वह पंडित बन जाता अर्थात ईश्वर प्रेम ही एक सच है इसे जानने वाला ही वास्तविक ज्ञानी है।

काव्यांश 8.
हम घर जाल्या आपणाँ , लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि।।

प्रसंग -:
प्रस्तुत साखी हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श ‘ से ली गई है।  इस साखी के कवि कबीरदास जी हैं। इसमें कबीर मोह – माया रूपी घर को जला कर  अर्थात त्याग कर ज्ञान को प्राप्त करने की बात करते हैं।
व्याख्या -: कबीर जी कहते हैं कि उन्होंने अपने हाथों से अपना घर जला दिया है अर्थात उन्होंने मोह -माया रूपी घर को जला कर ज्ञान प्राप्त कर लिया है।  अब उनके हाथों में जलती हुई मशाल ( लकड़ी ) है यानि ज्ञान है। अब वे उसका घर जलाएंगे जो उनके साथ चलना चाहता है अर्थात उसे भी मोह – माया से मुक्त होना होगा जो ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। 

Wednesday

कैफ़ी आज़मी का जीवन परिचय और कर चले हम फिदा पाठ की व्याख्या

                                                                             कैफ़ी आज़मी का जीवन परिचय


अतहर हुसैन रिज़वी का जन्म 19 जनव 1919 को उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले में मजमा गाँव में हुआ। अदब की दुनिया में आगे चलकर वे कैफ़ी आज़मी नाम से मशहूर हुए। कैफ़ी आज़मी की गणना प्रगतिशील उर्दू कवियों की पहली पंक्ति में की जाती है। कैफ़ी की कविताओं में एक ओर सामाजिक और राजनैतिक जागरूकता का समावेश है तो दूसरी ओर हृदय की कोमलता भी है। अपनी युवावस्था में मुशायरों में वाह-वाही पाने वाले कैफ़ी आज़मी ने फ़िल्मों के लिए सैकड़ों बेहतरीन गीत भी लिखे हैं।
10 मई 2002 को इस दुनिया से रुखसत हुए कैफ़ी के पाँच कविता संग्रह झंकार, आखिर-ए-शब, आवारा सज़दे, सरमाया और फ़िल्मी गीतों का संग्रह मेरी आवाज़ सुनो प्रकाशित हुए। अपने रचनाकर्म के लिए कैफ़ी को साहित्य अकादेमी पुरस्कार सहित कई पुरस्कारों से नवाजा गया। कैफ़ी कलाकारों के परिवार से थे। इनके तीनों बड़े भाई भी शायर थे। पत्नी शौकत आज़मी, बेटी शबाना आज़मी मशहूर अभिनेत्रियाँ हैं।


फिल्मों में प्रवेश

कैफ़ी आज़मी की बीवी शौकत आजमी को बच्चा होने वाला था। कम्युनिस्ट पार्टी की हमदर्द और 'प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन' की मेंबर थीं इस्मत चुगतई। उन्होंने अपने शौहर शाहिर लतीफ से कहा कि तुम अपनीफ़िल्म के लिए कैफ़ी से क्यों नहीं गाने लिखवाते हो? कैफ़ी साहब ने उस वक्त तक कोई गाना नहीं लिखा था। उन्होंने लतीफ साहब से कहा कि मुझे गाना लिखना नहीं आता है। उन्होंने कहा कि तुम फ़िक्र मत करो। तुम इस बात की फ़िक्र करो कि तुम्हारी बीवी बच्चे से है और उस बच्चे की सेहत ठीक होनी चाहिए। उस वक्त शौकत आजमी के पेट में जो बच्चा था, वह बड़ा होकर शबाना आजमी बना। कैफ़ी आज़मी ने 1951 में पहला गीत 'बुझदिल फ़िल्म' के लिए लिखा- 'रोते-रोते बदल गई रात'। कैफ़ी आज़मी ट्रेडीशनल बिल्कुल नहीं थे। शिया घराने में एक जमींदार के घर में उनकी पैदाइश हुई थी। मर्सिहा शिया के रग-रग में बसा हुआ है। मुहर्रम में मातम के दौरान हजरत अली को जिन अल्फाजों में याद करते हैं, वह शायरी में है। वे जिस माहौल में पले-बढ़े, वहां शायरी का बोल-बाला था। गयारह साल की उम्र में उन्होंने लिखा था, ‘‘इतना तो जिंदगी में किसी की खलल पड़े, हंसने से हो सुकूं, न रोने से कल पड़े.’ भारत-पाकिस्तान के बंटवारे को लेकर जितनी फ़िल्में आज तक बनी हैं, उनमें ‘गरम हवा’ को आज भी सर्वोत्कृष्ट फ़िल्म का दर्जा हासिल है। ‘गरम हवा’ फ़िल्म की कहानी, पटकथा, संवाद कैफ़ी आजमी ने लिखे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि ‘गरम हवा’ पर कैफ़ी आजमी को तीन-तीन फ़िल्म फेयर अवार्ड दिए गए।  पटकथा, संवाद पर बेस्ट फ़िल्म फेयर अवार्ड के साथ ही कैफ़ी को ‘गरम हवा’ पर राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।

कर चले हम फिदा पाठ का सार
प्रस्तुत कविता में देश के सैनिकों की भावनाओं का वर्णन है। सैनिक कभी भी देश के मानसम्मान को बचाने  से पीछे नहीं हटेगा। फिर चाहे उसे अपनी जान से ही हाथ क्यों ना गवाना पड़े। भारत – चीन युद्ध के दौरान सैनिकों को गोलियाँ लगने के कारण उनकी साँसें रुकने वाली थी ,ठण्ड के कारण उनकी नाड़ियों में खून जम रहा था परन्तु उन्होंने किसी चीज़ की परवाह न करते हुए दुश्मनों का बहदुरी से मुकाबला किया और दुश्मनों को आगे नहीं बढ़ने दिया। सैनिक गर्व से कहते है कि हमें अपने सर भी कटवाने पड़े तो हम ख़ुशी ख़ुशी कटवा देंगे पर हमारे गौरव के प्रतिक हिमालय को नहीं झुकने देंगे अर्थात हिमालय पर दुश्मनों के कदम नहीं पड़ने देंगे। लेकिन देश के लिए प्राण न्योछावर करने की ख़ुशी कभी कभी किसी किसी को ही मिल पाती है अर्थात सैनिक देश पर मर मिटने का एक भी मौका नई खोना चाहते। जिस तरह से दुल्हन को लाल जोड़े में सजाया जाता है उसी तरह सैनिकों ने भी अपने प्राणों का बलिदान दे कर धरती को खून से लाल कर दिया है सैनिक कहते हैं कि हम तो देश के लिए बलिदान दे रहे हैं परन्तु हमारे बाद भी ये सिलसिला चलते रहना चाहिए। जब भी जरुरत हो तो इसी तरह देश की रक्षा के लिए एकजुट होकर आगे आना चाहिए। सैनिक अपने देश की धरती को सीता के आँचल की तरह मानते हैं और कहते हैं कि अगर कोई हाथ आँचल को छूने के लिए आगे बड़े तो उसे तोड़ दो।अपने वतन की रक्षा के लिए तुम ही राम हो और तुम ही लक्ष्मण हो अब इस देश की रक्षा का दायित्व तुम पर है।

कर चले हम फ़िदा पाठ की व्याख्या
काव्यांश 1
कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो
साँस थमती गई, नब्ज़ जमती गई
फिर भी बढ़ते कदम को न रुकने दिया
कट गए सर हमारे तो कुछ गम नहीं
सर हिमालय का हमने न झुकने दिया
मरते-मरते रहा बाँकपन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

प्रसंग -:
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘ स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई हैं। इसके कवि कैफ़ी आज़मी हैं। इन पंक्तियों में कवि एक वीर सैनिक का अपने देशवासियों को दिए आखरी सन्देश का वर्णन कर रहा है।

व्याख्या – कवि कहते हैं कि सैनिक अपने आखिरी सन्देश में कह रहें है कि वो अपने प्राणों को देश हित के लिए न्योछावर कर रहें है ,अब यह देश हम जाते जाते आप देशवासियों को सौंप रहें हैं। सैनिक उस दृश्य का वर्णन कर रहें है जब दुश्मनों ने देश पर हमला किया था। सैनिक कहते है कि जब हमारी साँसे हमारा साथ नहीं दे रही थी और हमारी नाड़ियों में खून जमता जा रहा ,फिर भी हमने अपने बढ़ते क़दमों को जारी रखा अर्थात दुश्मनों को पीछे धकेलते गए। सैनिक गर्व से कहते है कि हमें अपने सर भी कटवाने पड़े तो हम ख़ुशी ख़ुशी कटवा देंगे पर हमारे गौरव के प्रतिक हिमालय को नहीं झुकने देंगे अर्थात हिमालय पर दुश्मनों के कदम नहीं पड़ने देंगे। हम मरते दम तक वीरता के साथ दुश्मनों का मुकाबला करते रहे अब इस देश की रक्षा का भार आप देशवासियों को सौंप रहे हैं।

काव्यांश 2

जिंदा रहने के मौसम बहुत हैं मगर
जान देने की रुत रोज आती नहीं
हुस्न और इश्क दोनों को रुस्वा करे
वो जवानी जो खूँ में नहाती नहीं
आज धरती बनी है दुलहन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

प्रसंग –
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘ स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई हैं। इसके कवि कैफ़ी आज़मी हैं। इन पंक्तियों में कवि सैनिक के बलिदान का भावनात्मक रूप से वर्णन कर रहा।

व्याख्या – सैनिक कहते हैं कि हमारे पूरे जीवन में हमें जिन्दा रहने के कई अवसर मिलते हैं लेकिन देश के लिए प्राण न्योछावर करने की ख़ुशी कभी कभी किसी किसी को ही मिल पाती है अर्थात सैनिक देश पर मर मिटने का एक भी मौका नई खोना चाहते। सैनिक देश के नौजवानों को प्रेरित करते हुए कहते हैं कि सुंदरता और प्रेम का त्याग करना सीखो क्योंकि वो सुंदरता और प्रेम ही क्या ,जवानी ही क्या जो देश के लिए अपना खून न बहा सके। सैनिक देश की धरती को दुल्हन की तरह मानते है और कहते है कि जिस तरह दुल्हन को स्वयंवर में हासिल करने के लिए राजा किसी भी मुश्किल को पार कर जाते थे उसी तरह तुम भी अपनी इस दुल्हन को दुश्मनों से बचा कर रखना। क्योंकि अब हम देश की रक्षा का दायित्व आप देशवासियों पर छोड़ कर जा रहे हैं।

काव्यांश 3
राह कुर्बानियों की न वीरान हो
तुम सजाते ही रहना नए काफ़िले
फतह का जश्न इस जश्न के बाद है
जिंदगी मौत से मिल रही है गले
बाँध लो अपने सर से कफन साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

प्रसंग –  प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘ स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई हैं। इसके कवि कैफ़ी आज़मी हैं। इन पंक्तियों में सैनिक देशवासियों को देश के लिए बलिदान करने के लिए तैयार रहने को कहते हैं।

व्याख्या – सैनिक कहते हैं कि हम तो देश के लिए बलिदान दे रहे हैं परन्तु हमारे बाद भी ये सिलसिला चलते रहना चाहिए। जब भी जरुरत हो तो इसी तरह देश की रक्षा के लिए एकजुट होकर आगे आना चाहिए। जीत की ख़ुशी तो देश पर प्राण न्योछावर करने की ख़ुशी के बाद दोगुनी  हो जाती है। उस स्थिति में ऐसा लगता है मनो जिंदगी मौत से गले मिल रही हो। अब ये देश आप देशवासियों को सौंप रहे हैं अब आप अपने सर पर मौत की चुनरी बांध लो अर्थात अब आप देश की रक्षा के लिए तैयार हो जाओ।

काव्यांश 4
खींच दो अपने खूँ से जमीं पर लकीर
इस तरफ आने पाए न रावन कोई
तोड़ दो हाथ अगर हाथ उठने लगे
छू न पाए सीता का दामन कोई
राम भी तुम, तुम्हीं लक्ष्मण साथियो
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो

प्रसंग –
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी पाठ्य पुस्तक ‘ स्पर्श भाग -2 ‘ से ली गई हैं। इसके कवि कैफ़ी आज़मी हैं। इन पंक्तियों में सैनिक देशवासियों को प्रेरित कर रहे हैं।

व्याख्या – सैनिक कहते हैं कि अपने खून से लक्ष्मण रेखा के समान एक रेखा तुम भी खींच लो और ये तय कर लो कि उस रेखा को पार करके कोई रावण रूपी दुश्मन इस पार ना आ पाय। सैनिक अपने देश की धरती को सीता के आँचल की तरह मानते हैं और कहते हैं कि अगर कोई हाथ आँचल को छूने के लिए आगे बड़े तो उसे तोड़ दो। अपने वतन की रक्षा के लिए तुम ही राम हो और तुम ही लक्ष्मण हो ।अब इस देश की रक्षा का दायित्व तुम पर है। 

Tuesday

श्रीलाल शुक्ल का जीवन परिचय, प्रमुख रचनाएँ, भाषा शैली

 

                                                          श्रीलाल शुक्ल का जीवन परिचय



श्रीलाल शुक्ल (जन्म-31 दिसम्बर 1925 - निधन- 28 अक्टूबर 2011) को लखनऊ जनपद के समकालीन कथा-साहित्य में उद्देश्यपूर्ण व्यंग्य लेखन के लिये विख्यात साहित्यकार माने जाते थे। उन्होंने 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की। 1949 में राज्य सिविल सेवासे नौकरी शुरू की। 1983 में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त हुए। उनका विधिवत लेखन 1954 से शुरू होता है और इसी के साथ हिंदी गद्य का एक गौरवशाली अध्याय आकार लेने लगता है। उनका पहला प्रकाशित उपन्यास 'सूनी घाटी का सूरज' (1957) तथा पहला प्रकाशित व्यंग 'अंगद का पाँव' (1958) है। स्वतंत्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की मूल्यहीनता को परत दर परत उघाड़ने वाले उपन्यास 'राग दरबारी' (1968) के लिये उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनके इस उपन्यास पर एक दूरदर्शन-धारावाहिक का निर्माण भी हुआ। श्री शुक्ल को भारत सरकार ने 2008 में पद्मभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया है।

श्रीलाल शुक्ल का व्यक्तित्व अपनी मिसाल आप था। सहज लेकिन सतर्क, विनोदी लेकिन विद्वान, अनुशासनप्रिय लेकिन अराजक। श्रीलाल शुक्ल अंग्रेज़ी, उर्दू, संस्कृत और हिन्दी भाषा के विद्वान थे। श्रीलाल शुक्ल संगीत के शास्त्रीय और सुगम दोनों पक्षों के रसिक-मर्मज्ञ थे। 'कथाक्रम' समारोह समिति के वह अध्यक्ष रहे। श्रीलाल शुक्ल जी ने गरीबी झेली, संघर्ष किया, मगर उसके विलाप से लेखन को नहीं भरा। उन्हें नई पीढ़ी भी सबसे ज़्यादा पढ़ती है। वे नई पीढ़ी को सबसे अधिक समझने और पढ़ने वाले वरिष्ठ रचनाकारों में से एक रहे। न पढ़ने और लिखने के लिए लोग सैद्धांतिकी बनाते हैं। श्रीलाल जी का लिखना और पढ़ना रुका तो स्वास्थ्य के गंभीर कारणों के चलते। श्रीलाल शुक्ल का व्यक्तित्व बड़ा सहज था। वह हमेशा मुस्कुराकर सबका स्वागत करते थे। लेकिन अपनी बात बिना लाग-लपेट कहते थे। व्यक्तित्व की इसी ख़ूबी के चलते उन्होंने सरकारी सेवा में रहते हुए भी व्यवस्था पर करारी चोट करने वाली राग दरबारी जैसी रचना हिंदी साहित्य को दी।



श्री लाल शुक्ल की रचनाएँ

उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं-
  1. सूनी घाटी का सूरज (1957)
  2. अज्ञातवास (1962)
  3. राग दरबारी (1968)
  4. आदमी का जहर (1972)
  5.  सीमाएँ टूटती हैं (1973)
  6. मकान (1976)
  7. पहला पड़ाव (1987)
  8. विश्रामपुर का संत (1998)
  9. बब्बरसिंह और उसकेसाथी (1999)
  10. राग विराग (2001)
  11. यह घर मेरा नहीं (1979)
  12. सुरक्षा और अन्य कहानियाँ (1991)
  13. इस उम्र में (2003)
  14. दस प्रतिनिधि कहानियाँ (2003

उनकी प्रसिद्ध व्यंग्य रचनाएँ हैं-
  1. अंगद का पाँव (1958)
  2.  यहाँ से वहाँ (1970)
  3. मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ (1979)
  4. उमरावनगर में कुछ दिन (1986)
  5. कुछ जमींन में कुछ हवा में (1990)
  6. आओ बैठ ले कुछ देर (1995)
  7. अगली शताब्दी का शहर (1996)
  8. जहालत के पचास साल (2003)
  9. खबरों की जुगाली (2005)
आलोचना
  1. अज्ञेय कुछ रंग और कुछ राग (1999)
निबन्ध
  1. भगवती वर्मा (1989)
  2. अमृतलाल नागर (1994)
उपन्यास
  1. सूनी घाटी का सूरज (1957)
  2. अज्ञातवास
  3. रागदरबारी
  4. आदमी का जहर
  5. सीमाएँ टूटती हैं
  6. मकान
  7. पहला पड़ाव
  8. विश्रामपुर का संत
  9. अंगद का पाँव
  10. यहाँ से वहाँ
  11. उमरावनगर में कुछ दिन

कहानी संग्रह
  1. यह घर मेरा नहीं है
  2. सुरक्षा तथा अन्य कहानियाँ
  3. इस उम्र में

श्री लाल शुक्ल की भाषा शैली

श्री लाल शुक्ल जी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से भाषा में अद्भूत व्यंग्य पेश किया है। उन्होंने शिवपालगंज के रूप में अपनी अद्भुत भाषा शैली, मिथकीय शिल्प और देशज मुहावरों से गढ़ा है। त्रासदियों और विडम्बनाओं के इसी साम्य ने ‘रागदरबारी’ को महान कृति बनाया, तो इस कृति ने श्रीलाल शुक्ल को महान लेखक। ‘रागदरबारी’ व्यंग्य है या उपन्यास यह एक श्रेष्ठ रचना है, जिसकी तसदीक करोड़ों पाठकों ने की है और कर रहे हैं। विश्रामपुर का संत, ‘सूनी घाटी का सूरज’ और ‘वह मेरा घर नहीं’ जैसी कृतियाँ साहित्यिक कसौटी में खरी साबित हुई हैं। बल्कि ‘‘विश्रामपुर का संत’’ को स्वतन्त्र भारत में सत्ता के खेल की सशक्त अभिव्यक्ति तक कहा गया था। 

रागदरबारी को इतने वर्षों बाद भी पढ़ते हुए उसके पात्र हमारे आसपास नजर आते हैं। शुक्ल जी ने जब इसे लिखा था, तब एक तरह की हताशा चारों तरफ नजर आ रही थी। यह मोहभंग का दौर था। ऐसे निराशा भरे माहौल में उन्होंने समाज की विसंगतियों को चुटीली शैली में सामने लाया था। वह श्रेष्ठ रचनाकार के साथ ही एक संवेदनशील और विनम्र इंसान भी थे।श्री लाल शुक्ल की रचनाओं का बड़ा हिस्सा गाँव के जीवन से सम्बन्ध रखता है। ग्रामीण जीवन के व्यापक अनुभव और निरंतर परिवर्तित होते परिदृष्य को उन्होंने बहुत गहराई से विश्लेषित किया है। यह भी कहा जा सकता है कि श्री लाल शुक्ल ने जड़ों तक जाकर व्यापक रूप से समाज की छानबीन कर उसकी नब्ज को पकड़ा है। इसीलिए यह ग्रामीण संसार उनके साहित्य में देखने को मिला है। उनके साहित्य की मूल पृष्ठभूमि ग्राम समाज है, परन्तु नगरीय जीवन की भी सभी छवियां उसमें देखने को मिलती हैं। 
श्रीलाल शुक्ल ने साहित्य और जीवन के प्रति अपनी एक सहज धारणा का उल्लेख करते हुए कहा है कि- ‘‘कथा लेखन में, मैं जीवन के कुछ मूलभूत नैतिक मूल्यों से प्रतिबद्ध होते हुए भी यथार्थ के प्रति बहुत आकृष्ट हूँ पर यथार्थ की यह धारणा इकहरी नहीं है- वह बहुस्तरीय है और उसके सभी स्तर आध्यात्मिक, आभ्यांतरिक, भौतिक और जटिल रूप में अंतर्गुम्फित है। उनकी समग्र रूप में पहचान और अनुभूति कहीं-कहीं रचना को जटिल भले ही बनाएँ, पर उस समग्रता की पकड़ ही रचना को श्रेष्ठता देती है, जैसे- मनुष्य एक साथ कई स्तरों पर जीता है वैसे ही इस समग्रता की पहचान रचना को भी बहुस्तरीयता देती है।’’

श्री लाल शुक्ल की सूक्ष्म और पैनी दृष्टि व्यवस्था की छोटी-से-छोटी विकृति को भी सहज ही देख लेती है, परख लेती है। उन्होंने अपने लेखन को सिर्फ राजनीति पर ही केन्द्रित नहीं होने दिया, शिक्षा के क्षेत्र की दुर्दशा पर भी उन्होंने व्यंग्य कसा। 1963 में प्रकाशित उनकी पहली रचना ‘धर्मयुग’ शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त विसंगतियों पर आधारित है। व्यंग्य संग्रह ‘अंगद का पॉव’ और उपन्यास रागदरबारी में श्रीलाल शुक्ल ने इसे विस्तार दिया है। 

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रविंद्रनाथ टैगोर का जीवन परिचय और आत्मत्रण कविता की सप्रसंग व्याख्या

                                                                                 रवींद्रनाथ टैगोर का जीवन परिचय:



 रवींद्रनाथ टैगोर का जन्म 1861 में बंगाल में हुआ था। इनकी शिक्षा घर पर ही पूरी हुई। उन्होंने 8 साल की उम्र से कविता लिखना शुरू कर दिया। 16 वर्ष की उम्र में उन्होंने अपना पहला कविता-संग्रह प्रकाशित किया। इन्हें गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है। रवींद्रनाथ टैगोर हमेशा से ही समाज को शिक्षित और जागरूक बनाने के लिए कुछ करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने सन 1901 में शांतिनिकेतन नामक संस्था की स्थापना की। कला के इस महान संस्थान को कुछ समय बाद सरकार ने विश्वविद्यालय का दर्ज़ा दे दिया।

उनके उपन्यास, कहानियाँ और गीत मुख्य रूप से राजनीतिक और व्यक्तिगत विषयों से संबंधित हैं। गीतांजलि, गोरा और घरे-बाइरे उनकी सबसे प्रसिद्ध रचनाएं हैं। उनकी रचनाओं को दो राष्ट्रों ने अपने राष्ट्र गानों के रूप में चुना था: भारत का राष्ट्रगान “जन गण मन” और बांग्लादेश का राष्ट्रगान “आमार सोनार बांगला” दोनों गुरुदेव की कलम की ही देन हैं। श्रीलंका के राष्ट्रीय गान का मूल गीत भी श्री रवींद्रनाथ टैगोर ने ही लिखा था। गुरुदेव अपने जीवन में तीन बार महान वैज्ञानिक एल्बर्ट आइंस्टाइन से भी मिले।
रवींद्रनाथ टैगोर 1913 में साहित्य में नोबेल पुरस्कार जीतने वाले पहले भारतीय बने। उन्हें उनकी उत्कृष्ट रचना गीतांजलि के लिए यह पुरस्कार दिया गया। टैगोर ने गद्य और कविता के नए रूपों की शुरुआत की और बंगाली साहित्य में बोलचाल की भाषा के उपयोग को भी लोकप्रिय बनाया। उन्हें आधुनिक भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे उत्कृष्ट व रचनात्मक कलाकार माना जाता है।


आत्मत्राण कविता का सार-: प्रस्तुत कविता महाकवि रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा बांग्ला में लिखी गई थी। इसका हिन्दी में अनुवाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने किया। प्रस्तुत कविता में कवि ने इस बात का वर्णन किया है कि ईश्वर केवल उनकी सहायता करते हैं, जो खुद अपनी सहायता करने की कोशिश करते हैं। जो मुसीबतों का सामना करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, उन्हें ही जीवन के संघर्ष में जीत मिलती है।
अर्थात अगर आप बिना कुछ किये ये चाहें कि भगवान आपकी मुसीबतों को ख़त्म कर दें और आपको कभी कोई दुःख ना मिले, तो स्वयं भगवान भी आपके लिए कुछ नहीं करेंगे। आपको ईश्वर पर भरोसा रखते हुए, हमेशा अपनी मुसीबतों का सामना खुद से ही करना पड़ेगा, तभी ईश्वर आपको आत्मबल एवं शक्ति प्रदान करेंगे। जिससे आप तमाम मुसीबतों व कष्टों के बावजूद भी अंत में विजयी हो जाओगे और मुश्किलों के आगे कभी घुटने नहीं टेकोगे।


आत्मत्राण कविता की सप्रसंग व्याख्या

विपदाओं से मुझे बचाओ, यह मेरी प्रार्थना नहीं
केवल इतना हो (करुणामय)
कभी न विपदा में पाऊँ भय।
दुख ताप से व्यथित चित्त को न दो सांत्वना नहीं सही
पर इतना होवे (करुणामय)
दुख को मैं कर सकूँ सदा जय।

प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श’ पाठ-9 कविता ‘आत्मत्राण’ से ली गयी हैं। इस कविता के रचयिता रविन्द्रनाथ टैगोर जी हैं। कवि ईश्वर से यह प्रार्थना कर रहे हैं कि ईश्वर उन्हें इतनी शक्ति दें कि उनके जीवन में आने वाली हर मुसीबतों का वह डटकर सामना कर सकें।

व्याख्या-आत्मत्राण कविता की प्रस्तुत पंक्तियों में कवि रवींद्रनाथ टैगोर ईश्वर से कहते हैं कि हे ईश्वर! मैं आपसे यह प्रार्थना नहीं करता कि आप मुझे मुसीबतों से बचाएँ। मैं तो आपसे यह विनती कर रहा हूँ, मुझे आप इतनी शक्ति दें कि मैं इन मुसीबतों को देखकर घबराऊँ ना और इनका डटकर सामना करूँ। जब मुझे दुःख झेलना पड़े, तो भले ही आप मेरे विचलित मन को सांत्वना ना दो। परन्तु, मुझे इतनी शक्ति अवश्य देना कि मैं उस दुःख पर विजय प्राप्त कर सकूँ।

2.कोई कहीं सहायक न मिले
तो अपना बल पौरुष न हिले;
हानि उठानी पड़े जगत में लाभ अगर वंचना रही
तो भी मन में ना मानूँ क्षय।
मेरा त्राण करो अनुदिन तुम यह मेरी प्रार्थना नहीं
बस इतना होवे (करुणामय)
तरने की हो शक्ति अनामय

प्रसंग :- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श’ पाठ-9 कविता ‘आत्मत्राण’ से ली गयी हैं। इस कविता के रचयिता रविन्द्रनाथ टैगोर जी हैं। कवि ईश्वर से कहते हैं कि मेरा आत्मबल हमेशा ऐसे ही बना रहे।

व्याख्या: आत्मत्राण कविता की प्रस्तुत पंक्तियों में कवि कहते हैं, अगर मुसीबत के समय कोई मेरी सहायता करने वाला ना हो, तो मुझे कोई परवाह नहीं। प्रभु! सिर्फ़ मेरा आत्मबल कभी कमजोर नहीं पड़ना चाहिए। अगर मुझे इस संसार में केवल धोखा व दुःख प्राप्त हो और मुझे हानि उठानी पड़े, तो भी मेरे मन में कोई अफसोस या मलाल नहीं होना चाहिए। आगे कवि कहते हैं कि वे ईश्वर से यह नहीं चाहते हैं कि उनकी नाव ईश्वर पार लगा दें। वे तो बस ईश्वर से इतनी शक्ति पाना चाहते हैं कि वे अपनी नाव को स्वयं ही जीवन के तमाम तूफानों से निकाल कर किनारे तक पहुँचा सकें।

3.मेरा भार अगर लघु करके न दो सांत्वना नहीं सही।
केवल इतना रखना अनुनय
वहन कर सकूँ इसको निर्भय।
नव शिर होकर सुख के दिन में
तव मुह पहचानूँ छिन-छिन में।
दुख रात्रि में करे वंचना मेरी जिस दिन निखिल मही
उस दिन ऐसा हो करुणामय
तुम पर करूँ नहीं कुछ संशय।

प्रसंग:- प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘स्पर्श’ पाठ-9 कविता ‘आत्मत्राण’ से ली गयी हैं। इस कविता के रचयिता रविन्द्रनाथ टैगोर जी हैं। कवि ईश्वर से कहते हैं कि मेरी मुसीबतों का भार कम भले ही मत करें लेकिन मेरी शक्ति को बढ़ा दें।

व्याख्या: यहां कवि कह रहे हैं – हे प्रभु! आप भले ही मेरी मुसीबतों का भार कम कर के मेरी सहायता ना करो, लेकिन मुझे इतनी शक्ति ज़रूर देना कि मैं निर्भय होकर सभी मुसीबतों का सामना कर सकूँ। भगवान! आप मुझे ऐसी शक्ति दें कि अपने सुख के दिनों में भी मैं आपको एक क्षण के लिए भी ना भूल पाऊँ। दुःख से भरी काल-रात्रि में जब सभी मुझे धोखा दे दें और मेरी निंदा करें, तो ऐसी कठिन परिस्थितियों में भी कभी मेरे मन में आपके लिए तिनका-भर भी संदेह नहीं आए। हे भगवान! मैं सच्चे दिल से आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरे रोम-रोम में ये सारी शक्तियाँ भर दें।

परीक्षा के एक दिन पूर्व दो मित्रों की बातचीत का संवाद लेखन कीजिए-

संवाद लेखन किसे कहते हैं  संवाद लेखन -  वह लेखनी है जिसमें दो या अधिक व्यक्तियों के बीच होने वाली बातचीत को लिखित रूप में व्यक्त किया जाता ह...