Saturday

अक्कमहादेवी कविता की व्याख्या

                                                               अक्कमहादेवी कविता की व्याख्या


                                                              वचन का पाठ सारांश

अक्क महादेवी जी कर्नाटक के प्रसिद्ध कवयित्री के रूप में जानी जाती है। यहाँ इनके दो वचन पाठ्यक्रम में लिए गए हैं। दोनों वचनों का अंग्रेजी से अनुवाद केदारनाथ सिंह ने किया है। प्रथम वचन में इंद्रियों पर नियंत्रण का संदेश दिया गया है। यह उपदेशात्मक न होकर प्रेम-भरा मनुहार है। वे चाहती हैं कि मनुष्य को अपनी भूख, प्यास, नींद आदि वृत्तियों व क्रोध, मोह, लोभ, अह, ईष्र्या आदि भावों पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। वह लोगों को समझाती हैं कि इंद्रियों को वश में करने से ही शिव की प्राप्ति संभव है। अक्क महादेवी की कविता हे! भूख मत मचल बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता है। इस कविता में कवयित्री भूख से कहती हैं कि तू ज्यादा मत मचल इससे उनकी भक्ति में अवरोध उत्पन्न होता है।
दूसरा वचन एक भक्त का ईश्वर के प्रति समर्पण है। कवयित्री ने कविता के माध्यम से ईश्वर के प्रति अपनी संपूर्ण भक्ति को व्यक्त करती है। प्रस्तुत कविता में अहंकार को नष्ट कर ईश्वर की भक्ति में खुद को समाहित करने की बात की गई है। चन्नमल्लिकार्जुन की अनन्य भक्त अक्क महादेवी उनकी अनुकंपा के लिए हर भौतिक वस्तु से अपनी झोली खाली रखना चाहती हैं। वे ऐसी निस्पृह स्थिति की कामना करती हैं जिससे उनका स्व या अहंकार पूरी तरह से नष्ट हो जाए। वह ईश्वर को जूही के फूल के समान बताती हैं, वह कामना करती हैं कि ईश्वर उससे ऐसे काम करवाए जिनसे उसका अहंकार समाप्त हो जाए। वह उससे भीख मँगवाए, भले ही उसे भीख न मिले। वह उससे घर की मोह-माया छुड़वा दे। जब कोई उसे कुछ देना चाहे तो वह गिर जाए और उसे कोई कुत्ता छीनकर ले जाए। कवयित्री का एकमात्र लक्ष्य अपने परमात्मा की प्राप्ति है।

वचन (कविता) पाठ व्याख्या

1.हे भूख! मत मचल
प्यास, तड़प मत
हे नींद! मत सता
क्रोध, मचा मत उथल-पुथल
हे मोह! पाश अपने ढील
लोभ, मत ललचा
हे मद ! मत कर मदहोश
ईर्ष्या, जला मत
ओ चराचर ! मत चूक अवसर
आई हूँ सदेश लेकर चन्नमल्लिकार्जुन का
प्रसंग:-- प्रस्तुत पंक्तियाँ शैव आंदोलन से जुड़ी कवयित्री अक्क महादेवी द्वारा रचित हैं। उनके इस वचन का अनुवाद केदारनाथ सिंह ने किया है। अक्क महादेवी चन्नमल्लिकार्जुन (शिव) की भक्त है। यहाँ उन्होंने मनुष्य को इंद्रियों पर नियंत्रण रखने का संदेश दिया है।
व्याख्या – प्रस्तुत पद में कवयित्री अक्क महादेवी इंद्रियों पर नियंत्रण का संदेश देती है। इसमें कवयित्री इंद्रियों से आग्रह करती हुई भूख से कहती हैं कि तू मचलकर मुझे मत सता। सांसारिक प्यास से वे कहती हैं कि तू मन में और कुछ पाने की इच्छा मत जगा। नींद से कहती हैं कि हे नींद ! तू मानव को सताना छोड़ दे, क्योंकि नींद से उत्पन्न आलस्य के कारण वह प्रभु-भक्ति को भूल जाता है। क्रोध से कहती हैं कि हे क्रोध! तू उथल-पुथल मत मचा, क्योंकि तेरे कारण मनुष्य का विवेक व् बुद्धि नष्ट हो जाती है। वह मोह को कहती हैं कि वह अपने बंधन ढीले कर दे। क्योंकि उसके कारण मनुष्य दूसरे का अहित करने की सोचता है। लोभ से कहती हैं कि हे लोभ! तू मानव को ललचाना छोड़ दे। अहंकार से कहती हैं कि हे अहंकार! तू मनुष्य को अधिक पागल न बना। ईर्ष्या को मनुष्य को जलाना छोड़ देने का आग्रह करती हैं। वे सृष्टि के जड़-चेतन जगत् को संबोधित करते हुए कहती हैं कि तुम्हारे पास शिव-भक्ति का जो अवसर है, उससे चूकना मत, क्योंकि मैं शिव का संदेश लेकर तुम्हारे पास आई हैं। चराचर को इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए।

2.हे मेरे जूही के फूल जैसे ईश्वर
मँगवाओ मुझसे भीख
और कुछ ऐसा करो
कि भूल जाऊँ अपना घर पूरी तरह
झोली फैलाऊँ और न मिले भीख
कोई हाथ बढ़ाए कुछ देने को
तो वह गिर जाए नीचे
और यदि मैं झुकूँ उसे उठाने
तो कोई कुत्ता आ जाए
और उसे झपटकर छीन ले मुझसे।

प्रसंग:-- प्रस्तुत पंक्तियाँ अक्क महादेवी द्वारा रचित हैं। अक्क महादेवी शैव आंदोलन से जुड़ी हैं। उनके इस वचन का अनुवाद केदारनाथ सिंह ने किया है। अक्क महादेवी चन्नमल्लिकार्जुन की भक्त हैं। यहाँ उनका अपने आराध्य के प्रति अनन्य समर्पण भाव अभिव्यक्त हुआ है। अपने आराध्य के लिए वे भौतिक वस्तुओं से अपनी झोली को खाली रखना चाहती हैं। वे अहंकार विहीन होकर ईश्वर की प्राप्ति करना चाहती हैं।

व्याख्या – इस पद में कवयित्री ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव व्यक्त करती है। वह अपने अहंकार को नष्ट करके ईश्वर में समा जाना चाहती है। कवयित्री ईश्वर से प्रार्थना करती है कि हे जूही के फूल को समान कोमल व परोपकारी ईश्वर! आप मुझसे ऐसे-ऐसे कार्य करवाइए जिससे मेरा अहम् भाव नष्ट हो जाए। आप ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न कीजिए जिससे मुझे भीख माँगनी पड़े। मेरे पास कोई साधन न रहे। आप ऐसा कुछ कीजिए कि मैं पारिवारिक मोह से दूर हो जाऊँ। क्योंकि घर का मोह सांसारिक चक्र में उलझने का सबसे बड़ा कारण है और घर के भूलने पर ईश्वर का घर ही लक्ष्य बन जाता है। वह आगे कहती है कि जब वह भीख माँगने के लिए झोली फैलाए तो उसे कोई भीख न दे। यदि कोई उसे कुछ देने के लिए हाथ बढ़ाए तो जो वह दे रहा हो वह वस्तु नीचे गिर जाए। इस प्रकार वह सहायता भी व्यर्थ हो जाए। उस गिरे हुए पदार्थ को वह उठाने के लिए झुके तो कोई कुत्ता उससे झपटकर छीनकर ले जाए। यहाँ कवयित्री त्याग की पराकाष्ठा को प्राप्त करना चाहती है। वह मान-अपमान के दायरे से बाहर निकलकर ईश्वर में विलीन होना चाहती है। सारे मोह-बंधनों से मुक्त होना चाहती हैं।



Friday

बच्चे काम पर जा रहे हैं कविता की व्याख्या

                                                                         बच्चे काम पर जा रहे हैं कविता की व्याख्या

    

          
राजेश जोशी का जीवन परिचय
समकालीन कविता के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर राजेश जोशी का जन्म 18 जुलाई 1946 को नरसिंहगढ़, मध्य प्रदेश में हुआ। शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने कुछ समय पत्रकारिता की और फिर कुछ वर्षों तक अध्यापन भी किया।
उनकी राजनीतिक कविताएँ बारीकी और नफ़ासत का नमूना पेश करती हैं। वे समय, स्थान और गतियों के अछूते संदर्भो से भरी हैं। इनमें काल का बोध गहरा और आत्मीय है। वे अपने मनुष्य होने के अहसास और उसे बचाए रखने का जद्दोजहद करती हैं। उनकी कविताओं में सामाजिक यथार्थ गहरे उतरता है। वे जीवन के संकट में भी गहरी आस्था को बनाए रखती हैं। उनकी कविताओं में बचपन की स्मृतियों, स्थितियों व प्रसंगों की बहुलता है। स्थानीयता उनकी कविता की एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है। उनकी कविताओं में स्थानीय बोली-बानी, मिज़ाज और मौसम सबसे परिचय हो जाता है। अपनी प्रतिबद्धता को वे अब एक ज़िद की तरह सामने लेकर आए हैं। वह स्वयं कहते हैं कि ‘‘...इस समय के अंतर्विरोधों और विडंबनाओं को व्यक्त करने और प्रतिरोध के नए उपकरण तलाश करने की बेचैनी हमारी पूरी कविता की मुख्य चिंता है! उसमें कई बार निराशा भी हाथ लगती है और उदासी भी लेकिन साधारण जन के पास जो सबसे बड़ी ताक़त है और जिसे कोई बड़ी से बड़ी वर्चस्वशाली शक्ति और बड़ी से बड़ी असफलता भी उससे छीन नहीं सकती, वह है उसकी ज़िद।’’

‘एक दिन बोलेंगे पेड़’, ‘मिट्टी का चेहरा’, ‘नेपथ्य में हँसी’, ‘दो पंक्तियों के बीच’ और ‘ज़िद’ उनके काव्य-संग्रह हैं। 'गेंद निराली मिट्ठू की' नाम से बाल कविताओं का भी एक संग्रह प्रकाशित हुआ है। उन्होंने गद्य रचनाएँ भी की हैं। उनके दो कहानी-संग्रह ‘सोमवार और अन्य कहानियाँ’ और ‘कपिल का पेड़’ छप चुके हैं। ‘जादू जंगल’, ‘अच्छे आदमी’, ‘कहन कबीर’, ‘टंकारा का गाना’, ‘तुक्के पर तुक्का’ उनकी नाट्य-कृतियाँ हैं। ‘एक कवि की नोटबुक’ और ‘एक कवि की दूसरी नोटबुक’ के रूप में आलोचनात्मक टिप्पणियों की दो किताबें प्रकाशित हुई हैं। इसके अतिरिक्त, उन्होंने भर्तृहरि की कविताओं की अनुरचना ‘भूमि का कल्पतरु यह भी’ शीर्षक से और मायकोव्स्की की कविताओं का अनुवाद ‘पतलून पहिना बादल’ शीर्षक से किया है। उन्होंने कुछ लघु फ़िल्मों के लिए पटकथाएँ भी लिखी हैं।
‘दो पंक्तियों के बीच’ कविता-संग्रह के लिए उन्हें वर्ष 2002 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।


                                                                         बच्चे काम पर जा रहे हैं कविता की व्याख्या

बच्चे काम पर जा रहे हैं' कविता में कवि राजेश जोशी ने बाल मजदूरी के विषय को आधार बनाकर बच्चों के बचपन को छीन जाने की व्यथा को अभिव्यक्ति दी है। इस कविता में उस सामाजिक - आर्थिक विडम्बना की ओर समाज का ध्यान आकर्षित किया गया है , जिसमें अनेक बच्चे शिक्षा, खेल और जीवन की खुशियों से वंचित रह जाते हैं।


कोहरे से ढ़ँकी सड़क पर बच्चे काम पर जा रहे हैं
सुबह सुबह बच्चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह
काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे?

व्याख्या-यह कविता राजेश जोशी ने लिखी है। इस कविता में बाल श्रम की समस्या को उजागर किया गया है। कवि का कहना है कि बच्चे मजदूरों की तरह काम करते हैं और सुबह से ही काम पर लगा दिए जाते हैं। बच्चों का काम करना हमारे समय की एक भयानक और शर्मनाक बात हैं। कवि का कहना है कि उससे भी भयानक है इस बात को किसी विवरण या समाचार या खबर की तरह लिखा जाना। कवि का कहना है कि इस बात को एक सवाल की तरह लिखा जाना चाहिए कि बच्चों को काम पर जाने की नौबत क्यों आई।


क्या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
क्या दीमकों ने खा लिया है
सारी रंग बिरंगी किताबों को
क्या काले पहाड़े के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने
क्या किसी भूकंप में ढ़ह गई हैं
सारे मदरसों की इमारतें
क्या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन
खत्म हो गए हैं एकाएक
तो फिर बचा ही क्या है इस दुनिया में?


व्याख्या-बच्चों की उम्र काम करने की नहीं होती है। यह उम्र खेलने कूदने, पढ़ने लिखने की होती है ताकि बच्चों का समुचित शारीरिक और मानसिक विकास हो सके। कवि सवाल पूछता है कि क्या सारी गेंदें अंतरिक्ष में गिर गई हैं, या फिर सारे खिलौने किसी काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं कि बच्चों के लिए खेलने की कोई चीज ही नहीं बची है। कवि सवाल पूछता है कि क्या सभी स्कूलों की इमारतें किसी भूकंप में तबाह हो गई हैं कि बच्चे पढ़ने नहीं जा रहे हैं। कवि सवाल करता है कि क्या सभी मैदान, बगीचे और आँगन समाप्त हो गए हैं कि बच्चे अपने घरों या आस पड़ोस में अपने बचपन का जश्न नहीं मना पा रहे हैं।जिस बच्चे को काम पर जाने के लिए मजबूर होना पड़ता  है उसे खेल खिलौनों और पढ़ाई लिखाई से कोसों दूर होना पड़ता है। ऐसे बच्चों का बचपन बहुत त्रासदी में बीतता है।


कितना भयानक होता अगर ऐसा होता
भयानक है लेकिन इससे भी ज्यादा यह
कि हैं सारी चीजें हस्बमामूल
पर दुनिया की हजारों सड़कों से गुजरते हुए
बच्चे, बहुत छोटे बच्चे
काम पर जा रहे हैं।


व्याख्या-कवि का कहना है अगर वाकई में सारे खिलौने, किताबें, स्कूल और घर आँगन तबाह हो जाए तो बड़ी ही भयानक स्थिति बन जाए। लेकिन ऐसा नहीं है। इससे भी ज्यादा बुरी बात यह है कि पूरा समाज बच्चों द्वारा मजदूरी करने की बात को हमारे रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा मान लेता है। समाज को लगता है कि यह सब सामान्य बात है। बहुत कम ही लोग होते हैं जो इस गंभीर मुद्दे पर गंभीरता से सोचते हैं। इसी का नतीजा है कि आज जब इंसान चाँद पर जाने के काबिल हो चुका है, कई गंभीर बीमारियों का इलाज संभव हो चुका है, उसके बावजूद हजारों लाखों बच्चों को बाल मजदूरी करने को विवश होना पड़ता है।



काव्यात्मक विशेषताएं

राजेश जोशी की कविताएँ गहरी हैं। उनके कार्यों में जीवन की स्थिति के बारे में गहरे विचार सामने आते हैं। वे जब भी मानवता को खतरे में देखते हैं तो जीवन की संभावनाओं को खोजने के लिए बेचैन नजर आते हैं। और उनकी बेचैनी की यह स्पष्ट छाप उनकी कविता में दिखाई देती है। उनके जीवन के सभी छोटे-बड़े अनुभव उनकी कविता के दायरे में आते हैं। राजेश जोशी जी एक ऐसे कवि हैं जिनकी कविता में नाटक, गीतकार, संगीत, गद्य है और ये सभी मानव जीवन के एक सूत्र, मानव जीवन की सच्चाई से जुड़े हुए हैं। राजेश जोशी की कविताओं का जितना महत्वपूर्ण पहलू है, वह मानवीय चेतना है, उतना ही महत्वपूर्ण पहलू सामाजिक चेतना और स्वाभाविक प्रेम है। वह अपनी सामग्री की विविधता को व्यक्त करने के कई तरीके ढूंढता है। यानी वे अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए नए विषय और रास्ते खोजते हैं। राजेश जोशी की रचनाएँ निराशा के बादलों से उभरती आशा की किरण की तरह हैं।




भाषा शैली

राजेश जोशी जी अपनी भाषा, कहानी कहने की शैली और स्पष्ट और सपाट कथन के लिए जाने जाते हैं। गद्य शैली में काव्य को प्रस्तुत करने की कला में वे दक्ष हैं। वे एक अद्वितीय गद्य कलाकार भी हैं। उनके पास गद्य का एक नया स्वर है। जिसमें सामाजिक सातत्य अपनी लय के साथ हर जगह अभिव्यक्ति पाता है। राजेश जोशी जी एक संवेदनशील लेखक, संवेदनशील आलोचक और भाषा के अद्वितीय आविष्कारक हैं। भाषा उनके लिए एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इनकी भाषा में गीतकारिता, गीतकारिता, संगीतमयता है। जोशी जी की भाषा सरल, बोधगम्य और बनावट से बिल्कुल दूर है। उनकी कविता में वाक्य-विन्यास आत्मीयता से भरा है। और भावनाओं को व्यक्त करने में सक्षम है। उनकी कविता छवियों से भरी है। और चंद्रमा उनकी पसंदीदा छवि है। इनकी भाषा में अद्भुत सम्मोहन देखने को मिलता है। राजेश जोशी की भाषा स्थानीय बोली, मिजाज और मौसम का अनूठा मेल है। 



Monday

"असाध्य वीणा"-अज्ञेय

                                                                                                "असाध्य वीणा"-अज्ञेय



 प्रयोगवाद और नयी कविता के प्रवर्तक "अज्ञेय" जी ने सभी विधाओं में अपनी अदभुत प्रयोगात्मक प्रगति का परिचय दिया है अज्ञेय स्वभाव से ही विद्रोही थे उनकी यह विद्रोही भावना उनके द्वारा रचे साहित्य में भी विविध रूपों में भी प्रतिफलित हुई। साहित्यिक-सृजन के क्षेत्र में अज्ञेय जी ने एक साथ कवि ,कथाकार , आलोचक, संपादक, आदि विविध रूपों में साहित्यिक प्रेमियों को लुभाया तो दूसरी ओर व्यवहारिक जगत में फोटोग्राफी, चर्म-शिल्प, पर्वतारोहण, सिलाई- कला आदि से लोगो को चौंकाया । लेकिन उनका कवि व आलोचक व्यक्तित्व ही अधिक लोकप्रिय हुआ। कवि क्षेत्र में उनका सबसे विशिष्ट अवदान यह है कि उन्होंने तत्कालीन परिवेश के अनुकूल कविता को जीवन की अनुरुपता में ढालकर नई काव्यात्मक चेतना के लिए एक नया वातावरण रचा। वैसे तो अज्ञेय प्रगीतात्मक अभिव्यक्ति वाली छोटी कविताओं के कवि माने जाते हैं किंतु उन्होंने एक लम्बी कविता भी लिखी है- "असाध्य वीणा "। यह उनकी एक मात्र लंबी कविता है जिसकी रचना 'रमेशचन्द्र शाह' के अनुसार 18-20 जून ,1961 के दौरान हुई थी। यह कविता अज्ञेय के काव्य-संग्रह "आंगन के पार द्वार " में संग्रहीत है।



"असाध्य वीणा" एक जापानी पुराकथा पर आधारित है यह कथा 'आकोकुरा' की पुस्तक "द बुक ऑफ टी" में 'टेमिंग ऑफ द हार्प' शीर्षक से संग्रहीत है। श्री नरेन्द्र शर्मा ने अपने एक लेख में वह कथा इस प्रकार दी है लुंगामिन खाल में एक विशाल कीरी वृक्ष था , जिससे इस वीणा का निर्माण किया गया था। अनेक वादक कलाकार प्रयत्न करके हार गए पर वीणा नहीं बजा सके इसीलिए इसका नाम "असाध्य वीणा" पड़ गया। अंत में बीनकारों का राजकुमार पीवो ही उस वीणा को साध सका। इस वीणा से उसने ऐसी तान छेडी कि उससे तरह तरह की स्वर लहरियां फूट पडी। कभी उसमे से प्रेम गीत निकलते, तो कभी युद्ध का राग सुनाई पडता है। लेकिन अज्ञेय जी द्वारा रचित 'असाध्य वीणा' कविता में कथा नितांत भारतीय संदर्भो में ही घटित होती है और इस तरह घटित होती है कि उसका अभारतीय रूप धुल जाता है। दूसरे शब्दों में अज्ञेय ने एक अभारतीय कथा के आख्यान को एक भारतीय कविता के आख्यान में अदभुत काव्य-कौशल के साथ घुलनशील बना दिया है। इस घुलनशील से जो काव्यानुभव प्राप्त होता है वह इस कविता में प्रस्तुत दो भिन्न संस्कृतियों के आख्यानों की सीमा रेखाओं का अतिक्रमण करता प्रतीत होता है। अज्ञेय जी ने इस कथा का भारतीयकरण करते हुए बताया है कि किरीटी नामक वृक्ष से यह वीणा वज्रकीर्ति ने बनाई थी। लेकिन राजदरबार के समस्त कलावंत इस वीणा को बजाने का प्रयास करते हुए हार गये किन्तु सबकी विद्या व्यर्थ हो गई क्योंकि यह वीणा तभी बजेगी जब कोई सच्चा साधक इसे साधेगा। अन्त में इस 'असाध्य वीणा' को केशकम्बली प्रियंवद ने साधकर दिखाया।जब केशकम्बली प्रियंवद ने असाध्य वीणा को बजाकर दिखाया तब उससे निकलने वाले स्वरों को राजा , रानी और प्रजाजनों ने अलग-अलग सुना। किसी को उसमें ईश्वरीय कृपा सुनाई पड़ रही थी तो किसी को उसकी खनक तिजोरी में रखे धन की खनक लग रही थी । किसी को उसमें से नववधू की पायल की रूनझुन सुनाई दे रही थी तो किसी को उसमें शिशु की किलकारी की ध्वनि सुनाई पड़ रही थी। वस्तुत : असाध्य वीणा जीवन का प्रतीक है, हर व्यक्ति को अपनी भावना के अनुरूप ही उसकी स्वर लहरी प्रतीत होती है । व्यक्ति को अपनी भावना के अनुरूप ही सत्य की उपलब्धि होती है तथा भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को कला की प्रतीति भिन्न-भिन्न रूप में इसलिए होती है, क्योकि उनकी आन्तरिक भावनाओं में भिन्नता होती है । इससे यह भी ध्वनित होता है कि कला की विशिष्टता उसके अलग-अलग सन्दर्भों में , अलग-अलग अर्थो में होती है। 'असाध्य वीणा' को वही साध पाता है जो सत्य को एवं स्वयं को शोधता है या वो जो परिवेश और अपने को भूलकर उसी के प्रति समर्पित हो जाता है । यह बाहर से भीतर मुडने की प्रक्रिया है जिसे अंतर्मुखी होना भी कहा जा सकता है। बौद्ध दर्शन में इसे 'तथता' कहा गया है जिसमे स्वयं को देकर ही सत्य को पाया जा सकता है, अज्ञेय जी यही कहना चाहते हैं इस कविता के माध्यम से।


Friday

महादेवी वर्मा और उनका साहित्य

                                                                             महादेवी वर्मा और उनका साहित्य

                                                                                विस्तृत नभ का कोई कोना
                                                                                मेरा न कभी अपना होना,
                                                                                परिचय इतना, इतिहास यही-
                                                                                उमड़ी कल थी, मिट आज चली।



भारतीय साहित्य जगत को अपनी लेखनी से समृद्ध करने वाली लेखिका महादेवी वर्मा (Mahadevi Verma) हिंदी साहित्य के छायावाद काल के प्रमुख 4 स्तम्भों में से एक के रूप में अमर हैं। हिंदी साहित्य में उनकी एक सशक्त हस्ताक्षार के रूप में पहचान है और छायावादी काव्य के विकास में इनका अविस्मरणीय योगदान रहा है। साहित्य और संगीत का अद्भुत संयोजन करके गीत विधा को विकास की चरम सीमा पर पहुंचा देने का श्रेय महादेवी को ही है।




कवि निराला, ने उन्हें ‘हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती‘ की उपमा से भी सम्मानित किया है। वह हिंदी साहित्य में वेदना की कवयित्री के नाम से जानी जाती हैं एवं आधुनिक हिंदी साहित्य में रहस्यवाद की प्रवर्तक भी मानी जाती हैं।
महादेवी वर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले में गोविंद प्रसाद वर्मा और हेम रानी देवी के घर हुआ था। जबकि उनके पिता, भागलपुर के एक कॉलेज में एक अंग्रेजी प्रोफेसर, ने उन्हें पश्चिमी शिक्षाओं और अंग्रेजी साहित्य से परिचित कराया, उनकी माँ ने उनके भीतर हिंदी और संस्कृत साहित्य में एक स्वाभाविक रुचि का आह्वान किया।
एक साहित्य से भरपूर, वातावरण में पली बढ़ी युवा महादेवी वर्मा ने बहुत ही कम उम्र में काव्य लेखन की ओर स्वाभाविक रूप से एक जुनून विकसित किया। हालाँकि महादेवी ने अपनी पहली कविता 7 साल की उम्र में लिखी थी, लेकिन वह अपनी कविता और अन्य लेखन को छिपा कर रखती थीं। जब उनकी सहेली और सुप्रसिद्ध कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान को उनके लेखन का पता चला, तब महादेवी की प्रतिभा सामने आई।

जैसा कि उस समय का चलन था, 9 साल की उम्र में महादेवी की शादी एक डॉक्टर स्वरूप नारायण वर्मा से कर दी गई थी, जिसकी स्मृति कुछ इन शब्दों में वह दर्ज़ करती हैं:‘बारात आई तो बाहर भागकर हम सबके बीच खड़े होकर बारात देखने लगे। व्रत रखने को कहा गया तो मिठाई कमरे में बैठकर खूब मिठाई खाई। रात को सोते समय नाउन ने गोद में लेकर फेरे दिलवाए होंगे, हमें कुछ ध्यान नहीं है। प्रातः आंख खुली तो कपड़े में गांठ लगी देखी तो उसे खोलकर भाग गए।
अब इसे महादेवी का विद्रोही मन कहा जाए या अति-संवेदनशील हृदय, महादेवी पिंजड़े की नहीं रेगिस्तान की चिड़िया थीं और सांसारिक जीवन से विरक्ति के कारण उन्होंने शादी के बंधन में बंधना मंज़ूर नहीं किया।
हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती
महादेवी जी का गद्य और पद्य दोनों पर ही समानाधिकार था । नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत, यामा, दीपशिखा उनके प्रसिद्ध गीत सग्रह हैं । अतीत की स्मृतियां, शृंखला की कड़ियां, पथ के साथी आदि उनके रेखाचित्र संस्मरण निबन्ध से सम्बन्धित संग्रह हैं । वहीं महादेवीजी ने श्रेष्ठ कहानियां भी लिखीं । पशु-पक्षी जगत् पर उनकी मार्मिक कहानियां अत्यन्त जीवन्त हैं।


                                                                        कितनी करूणा कितने संदेश
                                                                        पथ में बिछ जाते बन पराग
                                                                        गाता प्राणों का तार तार
                                                                        अनुराग भरा उन्माद राग
                                                                        आँसू लेते वे पथ पखार
                                                                         जो तुम आ जाते एक बार।
वेदना के स्वरों की अमर गायिका महादेवी वर्मा ने हिंदी-साहित्य की जो अनवरत सेवा की है उसका समर्थन दूसरे लेखक भी करते हैं। कवितामय हृदय लेकर और कल्पना के सप्तरंगी आकाश में बैठकर जिस काव्य का उन्होंने सृजन किया, वह हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है।
जीवन के अंतिम समय तक साहित्य-साधना में लीन रहते हुए 80 वर्ष की अवस्था में 11 सितंबर, 1987 को प्रयाग में वेदना की महान कवयित्री महादेवी वर्मा ने अपनी आंखें सदा-सदा के लिए बंद कर ली।
महादेवी वर्मा का साहित्य
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने गीति-काव्य की विशिष्टता बताते हुए कहा है कि “गीति-काव्य उस नई कविता का नाम है, जिसमें प्रकृत्ति के साधारण-असाधारण सब रूपों पर प्रेम-दृष्टि डालकर, उसके रहस्य भरे सच्चे संकेतों को परखकर, भाषा को चित्रमय, सजीव और मार्मिक रूप देकर कविता का एक कृत्रिम, स्वच्छंद मार्ग निकाला गया है। यह सर्वाधिक अन्तर्भाव व्यंजक होता है।”
वेदना, प्रकृति के सुंदर दृश्य चित्र, दिव्य प्रेम, विरह, हर्ष, विषाद, सुख-दुख की अनुभूतियाँ, आत्मा-परमात्मा के मधुर संबंध के साथ ही उनकी कविताओं में संवेदना का प्रबल भाव देखने को मिलता है।


महादेवी जी की गद्य कृतियाँ इस प्रकार हैं :
रेखाचित्र : अतीत के चलचित्र और स्मृति की रेखाएँ
ललित निबंध : क्षणदा
संस्मरण : पथ के साथी और मेरा परिवार और संस्मरण
चुने हुए भाषणों का संकलन : संभाषण
निबंध : श्रृंखला की कड़ियाँ, विवेचनात्मक गद्य, साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध एवं संकल्पिता
संस्मरण, रेखाचित्र और निबंधों का संग्रह : हिमालय
संपादन : चाँद, आधुनिक कवि काव्यमाला आदि।
आलोचना : विभिन्न काव्य संग्रहों की भूमिकाएँ, हिंदी का विवेचनात्मक गद्य।
महादेवी जी ने कोई उपन्यास, कहानी या नाटक नहीं लिखा तो भी उन्होंने जो गद्य लिखा है, वह गद्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। उसमें जीवन का संपूर्ण वैविध्य समाया है। बिना कल्पना का सहारा लिए महादेवी जी ने जो सामाजिक जीवन को छूने वाले गद्य लिखे हैं वे उन्हें पढ़कर ही जाना जा सकता है।
महादेवी जी के जीवन पर महात्मा गाँधी का तथा कला-साहित्य साधना पर रविंद्रनाथ टैगोर का गहरा प्रभाव पड़ा और इसलिए उनके रचित साहित्य में करुणा और भावुकता का गहरा प्रभाव रहा। उनके पात्रों में कथात्मकता से अधिक संवेदनशीलता है और उनकी यही खूबी पाठक को रचना के साथ-साथ चलने पर मजबूर कर देती है।
महादेवी जी की गद्य शैली चित्रात्मक एवं प्रभावपूर्ण है। महादेवी वर्मा जी के गद्य साहित्य में समकालीन समाज का यथार्थ चित्रण देखने को मिलता है। समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं भेदभाव को आईना दिखाते हुए, उनका समाज से परिचय कराया है।
महादेवी वर्मा जी ने गद्य साहित्य में समाज के पिछड़े समाज के पात्रों का भी अत्यंत सजीव एवं मार्मिक चित्रण है। वह पशु पक्षियों से भी बहुत प्रेम करती थी और उनकी रचनाओं में उन्होंने बहुत ही सुंदरता से उन सभी का वर्णन किया है। उन्होंने अपने घर में भी कुत्ते, बिल्ली, गाय, गिलहरी, नेवला आदि को पाला हुआ था।
उन्होंने लिखा है, “मेरे शब्दचित्रों का आरम्भ बहुत गद्यात्मक और बचपन का है। मेरा पशु-पक्षियों का प्रेम तो जन्मजात था, अतः क्रॉस्थवेट गर्ल्स कॉलेज के छात्रावास में मुझे उन्हीं का अभाव कष्ट देता था। हमारे स्कूल के आम के बाग़ में रहने वाली खटकिन ने कुछ मुर्गि़यां पाल रखी थीं। जिनके छोटे बच्चों को मैं प्रतिदिन दाना देती और गिनती थी। एक दिन एक बच्चा कम निकला और पूछने पर ज्ञात हुआ कि हमारी नई अध्यापिका उसे मारकर खाने के लिए ले गई है। अन्त में मेरे रोने-धोने और कुछ न खाने के कारण वह मुझे वापस मिल गया। तब मेरे बालकपन ने सोचा कि सब मुर्गी के बच्चों की पहचान रखी जावे, अन्यथा कोई और उठा ले जाएगा। तब मैंने पंजों का, चोंच का और आंखों का रंग, पंखों की संख्या आदि एक पुस्तिका में लिखी। फिर सबके नाम रखे और प्रतिदिन सबको गिनना आरम्भ किया। इस प्रकार मेरे रेखाचित्रों का आरम्भ हुआ, जो मेरे पशु-पक्षियों के परिवार में पल्लवित हुआ है। फिर एक ऐसे नौकर को देखा जिसे उसकी स्वामिनी ने निकाल दिया था। पर वह बच्चों के प्रेम के कारण कभी बताशे, कभी फल लेकर बाहर बच्चों की प्रतीक्षा में बैठा रहता था। उसे देखकर मुझे अपना बचपन का सेवक रामा याद आ गया और उसका शब्दचित्र लिखा।”
कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि महादेवी वर्मा के बिना आधुनिक हिन्दी साहित्य का उल्लेख हमेशा अधूरा ही होगा और हिन्दी साहित्य जगत में महादेवी जी ध्रुव तारे की भाँति सदा ही चमकती रहेंगी।

 



Thursday

सुमित्रानंदन पंत और उनका साहित्य

                                                                      सुमित्रानंदन पंत और उनका साहित्य


सुमित्रानंदन पंत हिन्दी साहित्य में ‘छायावादी युग’ के चार स्तंभों में से एक माने जाते हैं। उन्हें सौंदर्य के अप्रतीम कवि और ‘प्रकृति के सुकुमार कवि’ के रूप में भी जाना जाता हैं। क्या आप जानते हैं कि सुमित्रानंदन पंत ने मात्र सात वर्ष की अल्प आयु में भी काव्य रचनाएँ करना शुरू कर दिया था। इसके साथ ही उन्होंने हिंदी काव्य धारा में अनुपम रचनाएँ की जिसमें ‘वीणा’, ‘पल्लव’, ‘चिदंबरा’, ‘युगांत’ और ‘स्वर्णधूलि’ प्रमुख मानी जाती हैं।
सुमित्रानंदन पंत ने अपना संपूर्ण जीवन लेखन कार्य को ही समर्पित कर दिया था। हिंदी साहित्य में उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हें ‘पद्म भूषण’, ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ और ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’ जैसे विशेष सम्मानों से नवाजा गया हैं। बता दें कि भारत में जब टेलीविजन प्रसारण शुरू हुआ तो उसका भारतीय नामकरण ‘दूरदर्शन’ सुमित्रानंदन पंत ने ही किया था।
                                                    सुमित्रानंदन पंत का आरंभिक जीवन
सौंदर्य के अप्रतीम कवि कहे जाने वाले ‘सुमित्रानंदन पंत’ का जन्म बागेश्वर ज़िले के कौसानी, उत्तराखंड में 20 मई 1900 को हुआ था। लेकिन जन्म के कुछ घंटो बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया जिसके बाद उनका लालन-पोषण उनकी दादी ने किया। बचपन में उनका नाम ‘गुसाईं दत्त’ था लेकिन हाई स्कूल के समय उन्होंने अपना नाम बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया। वह अपने सात भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। 
उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा कौसानी गांव से ही शुरू की फिर वह वाराणसी आ गए और ‘जयनारायण हाईस्कूल’ में शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद सुमित्रानंदन पंत वर्ष 1918 में इलाहबाद (वर्तमान प्रयागराज) चले गए और ‘म्योर कॉलेज’ में बाहवीं कक्षा में दाखिला लिया। बता दें कि ये वो समय था जब संपूर्ण भारत में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन चल रहे थे। 
वर्ष 1921 में महात्मा गाँधी के द्वारा शुरू किए गए ‘अहसयोग आंदोलन’ में हजारों लोगों ने सरकारी स्कूलों, विश्वविद्यालयों, कार्यालयों और विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया। इस आंदोलन में सुमित्रानंदन पंत ने भी अपना कॉलेज छोड़ दिया। जिसके बाद वह हिंदी, संस्कृत, बांग्ला और अँग्रेज़ी भाषा-साहित्य का अध्ययन करने लगे।     

                                                          सुमित्रानंदन पंत की रचनाएं
सुमित्रानंदन पंत जी के निम्नलिखित कृतियां हैं। वे बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न साहित्यकार थे। उन्होंने अपने सारे जीवन में विविध साहित्य की रचना की थी।लोकायतन (महाकाव्य) सुमित्रानंदन पंत जी का लोकायतन लोक जीवन का एक महाकाव्य है। इस महाकाव्य का प्रकाशन सन 1964 में हुआ था। इस महाकाव्य में पंत जी ने सांस्कृतिक और दार्शनिक विचारधारा को व्यक्त किया है। इस रचना में पंत जी ने गांव का जीवन और वंहा पे रहने वाले लोगो की भावनाओ को व्यक्त किया हैं।
कविता संग्रह – वीणा, पल्लव, ग्रंथि, गुंजन, युगान्त, युगवाणी आदि।
नाटक – रजतरश्मि, शिल्पी, ज्योत्सना, आदि।
उपन्यास – ग्राम या मानसी हार, युगवाणी, स्वर्ण किरण, युगांतर, कला और बूढ़ा चांद, लोकायतन आदि।
सुमित्रानंदन पंत की साहित्यिक यात्रा
सुमित्रानंदन पंत ने सात वर्ष की अल्प आयु में ही कविता लिखना शुरू कर दिया था। उनकी कविताओं में हमें प्रकृति का सौन्दर्य चित्रण के साथ-साथ नारी चेतना और ग्रामीण जीवन की विसंगतियों का मार्मिक चित्रण देखने को मिलता हैं। उनका लेखन इतना शशक्त और प्रभावशाली था जिसकी वजह से वर्ष 1918 में महज 18 वर्ष की आयु में ही उन्होंने हिंदी साहित्य में अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली थी।
बता दें कि उनका रचनाकाल वर्ष 1916 से 1977 तक लगभग 60 वर्षों तक रहा। जहाँ हमें उनकी काव्य यात्रा के तीन प्रमुख चरण देखने को मिलते हैं, इसमें प्रथम ‘छायावाद’, दूसरा ‘प्रगतिवाद’ और तीसरा श्री अरविंद दर्शन से प्रभावित ‘अध्यात्मवाद’ रहा हैं।

छायावाद के एक युग का अंत
सुमित्रानंदन पंत का संपूर्ण जीवन हिंदी साहित्य की साधना में ही बीता। उनका साहित्यिक जीवन लगभग 60 वर्षों तक रहा जिसमें उन्होंने कई विशिष्ट काव्य रचनाएँ की। बता दें कि 28 दिसंबर 1977 को 77 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया और इसी के साथ छायावाद के एक युग का अंत हो गया। इसके बाद उनके पैतृक गांव कौसानी में उनके घर को सरकारी तौर पर अधिग्रहीत कर ‘सुमित्रानंदन पंत साहित्यिक वीथिका’ नामक संग्रहालय में परिणत किया गया। इस संग्रहालय में महाकवि सुमित्रानंदन पंत जी की एक मूर्ति स्थापित है और यहाँ उनकी व्यक्तिगत चीजें, प्रशस्तिपत्र, विभिन्न संग्रहों की पांडुलिपियों को सुरक्षित रखा गया है।
                                                                सुमित्रानंदन पंत की भाषा शैली
सुमित्रा नंदन पंत जी की भाषा पदावली से युक्त खड़ी बोली है। सुमित्रा नंदन पंत जी की शैली संस्कृत, बंग्ला, अंग्रेजी, के कवियों से आत्मक मुक्तक शैली से प्रभावित है।
पंत जी की भाषा चित्रमयी है। इनकी खड़ीबोली मृदुलता पूर्ण है। ब्रजभाषा का प्रयोग,पंत जी को वर्णों की गहरी पकड़ है। इनकी भाषा स्मान्यतः संस्कृतनिष्ठ है।
सुमित्रा नंदन पंत जी की शैली में छायावादी काव्यशैली की समस्त विशेषताएं, प्रतिकात्मकता,चित्रात्मक, प्रचुर मात्रा में विद्यमान है। 




Friday

हिंदी साहित्य के युग प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद और उनका साहित्यिक परिचय

                                हिंदी साहित्य के युग प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद और उनका साहित्यिक परिचय


आधुनिक हिंदी साहित्य में छायावाद के प्रवर्तक महाकवि जयशंकर प्रसाद ने अपनी उत्कृष्ट रचनाओं के माध्यम से संपूर्ण राष्ट्र को नई चेतना दी। जयशंकर प्रसाद न केवल हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवियों में एक हैं, बल्कि हिंदी के श्रेष्ठ कथाकार, नाटककार और निबंधकार भी हैं। प्रसाद जी की कालजयी रचना ‘कामायनी’ संपूर्ण हिंदी काव्य की अनुपम कृति है, जिसमें मानव जीवन के अंतर्विरोधों, संघर्ष और व्याकुलता का उन्होंने बेहद गंभीर व भावपूर्ण चित्रण करने के साथ ही यथार्थ व मानवीय मूल्यों को नया आयाम भी दिया। ‘कामायनी’ काव्य खंड जहां उन्हें महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित करता है, वहीं कथा, नाटक व निबंध लेखन के क्षे़त्र में भी वे एक बेहद गंभीर साहित्यकार के रूप में स्थापित हैं। महज सैंतालीस साल के अपने अल्प जीवनकाल में जयशंकर प्रसाद ने कविता और कहानी के क्षेत्र में समान रूप से वृहद रचनाएं रचीं। उनके काव्य संग्रह ‘लहर’ में एक कविता की ये पंक्तियां हैं- ‘छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएं आज कहूं? क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूं? सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा? अभी समय भी नहीं थकी-सोई है मेरी मौन-व्यथा।’



प्रसाद जी की कविता के अलावा ‘छाया’, ‘प्रतिध्वनि’, ‘आकाशदीप’, ‘आंधी’ और ‘इंद्रजाल’ प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं। उनकी कहानियों में प्रेम व सामाजिक द्वंद्व के साथ ही सांस्कृतिक चेतना का समावेश है, जो मानव समाज को उत्प्रेरित करती है।


30 जनवरी, 1889 में बनारस में जन्म लेने वाले जयशंकर प्रसाद ने प्रतिकूल पारिवारिक और व्यवसायिक दबावों के बावजूद साहित्य रचना को अपना संसार चुना और जीवन के तमाम झंझावतों को झेलते हुए इसमें डूबते चले गए। जीवन, चिंतन और साहित्य की इस त्रिधारा का उन्होंने जिस ईमानदारी से निर्वाह किया, वह अद्वितीय है, अनूठा है। प्रसाद जी ने अपनी लेखनी से न केवल काव्य जगत को आलोकित किया, बल्कि गद्य साहित्य में भी श्रेष्ठ रचनाएं दीं। तत्कालीन साहित्यिक विधाओं में उन्होंने विशेष परचम लहराया। चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त एवं ध्रुवस्वामिनी उनके प्रसिद्ध नाटक है।
जयशंकर प्रसाद युग प्रवर्तक साहित्यकार थे। उनका रचनाकाल सन् 1909 से 1936 तक माना जाता है। यह वह समय था जब भारत अपनी गुलामी की जंजीरों को तोड़कर आजाद होने के लिए कसमसा रहा था। भारत की अध्यात्मवादी जीवन दृष्टि और पश्चिम की भौतिकवादी सोच के बीच जबरदस्त संघर्ष छिड़ा था। रूढ़ीवादी परंपराओं और सुधारवादी विचारधाराओं का टकराव चल रहा था। ऐसे समय में प्रसाद जी ने अपनी सशक्त लेखनी से संपूर्ण राष्ट्रीय चेतना को नई गति दी।
हिंदी साहित्य के इतिहास की इस महान विभूति ने बहुत ही कम उम्र में 15 नवंबर, 1937 ई. को इस संसार से विदा ले ली। जयशंकर प्रसाद का पुश्तैनी मकान बनारस के सराय गोवर्धन मोहल्ले में आज भी जर्जर अवस्था में मौजूद है। इस पुराने मकान के एक बड़े परिसर में प्रसाद जी का प्रिय शिव मंदिर हैं। यहां के पुजारी बताते हैं कि यहीं बैठकर उन्होंने ‘कामायनी’ लिखी थी। पहले इस अहाते के चारों कोणों में एक-एक कुआं था जो अब मिट्टी से पूरी तरह ढक गए है। सिर्फ मंदिर वाला कुआं बचा है। प्रसाद जी की एकमात्र संतान पुत्र र|शंकर प्रसाद भी अब नहीं रहें। उनके छह बेटे हैं, जिनकी ढेरो संतानें वंशज के रूप में हैं मगर वे सभी इस महान विभूति की विशिष्टता से अनभिज्ञ जैसे हैं। साहित्यकार प्रसाद जी के न कोई उत्तराधिकारी है और न ही उनकी विरासत को सहेजने-संवारने वाला। सच तो यह है कि महान विभूति के परिवार को पूछने वाला भी कोई नहीं है।

प्रमुख रचनाएं – प्रसाद जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे | उन्होंने कविता, उपन्यास, नाटक, कहानी आदि साहित्यिक विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई |
काव्य संग्रह – लहर, झरना, आँसू , कामायनी आदि |
उपन्यास – कंकाल, तितली, इरावती (अधूरा )
कहानी संग्रह – छाया, आकाशदीप, आंधी आदि|
नाटक – राज्यश्री, स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी , एक घूंट कल्याणी आदि |
साहित्यिक विशेषताएँ
1.राष्ट्रीय भावना – इनके साहित्य की प्रमुख विशेषता राष्ट्रीय भावना है | इनकी अधिकांश रचनाओं में देश के प्रति बलिदान, त्याग, समर्पण तथा देशवासियों के प्रति करुणा आदि भावों का वर्णन मिलता है | उनके नारी पात्र भी पुरुष पात्रों की तरह राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत दिखाई देते हैं |
2.प्रेम भावना – प्रसाद जी नारी एवं पुरुष के उदात्त प्रेम को अधिक महत्व देते हैं | इनकी रचनाओं में प्रेम के जिस रूप का वर्णन किया गया है वह केवल मांसल या दैहिक नहीं वरन् आत्मिक है | इनकी बहुत सी रचनाओं में पुरुष व नारी पात्र अपनी प्रिय के लिए सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं | इनकी दृष्टि में केवल प्रिय को पाना ही प्रेम नहीं है बल्कि प्रिय के लिये अपनी प्रेम का बलिदान कर देना भी प्रेम है | इनकी नाट्य रचनाओं में प्रेम के ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं | जबकि काव्य रचनाओं में वे जिस प्रेम का निरूपण करते हैं वह लौकिक प्रेम की अपेक्षा अलौकिक प्रेम अधिक लगता है |
3.प्रकृति वर्णन – प्रसाद जी के काव्य में अनेक स्थानों पर प्रकृति का स्वाभाविक चित्रण किया गया है | ‘लहर’ की अनेक कविताएं प्रकृति वर्णन से संबंधित हैं | प्राकृतिक पदार्थों पर मानवीय भावनाओं का आरोप करना उनके प्रकृति-चित्रण की अनूठी विशेषता रही है | इसके साथ-साथ प्रकृति-वर्णन के माध्यम से मानव-जीवन की अनेक अनसुलझी ग्रंथियों व भावनाओं की अभिव्यक्ति भी वे बड़ी सुंदरता से करते हैं |
4. नारी भावना – छायावादी कवि होने के कारण प्रसाद जी ने नारी को अशरीरी सौंदर्य प्रदान करके उसे लोक की मानवी न बनाकर परलोक की ऐसी काल्पनिक देवी बना दिया जिसमें प्रेम, सौंदर्य व उच्च मानवीय भावनाएं हैं |
5. कला पक्ष –प्रसाद जी की भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है | उनकी भाषा में तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशज आदि सभी प्रकार के शब्द मिलते हैं | मुहावरों एवं लोकोक्तियां के प्रयोग से उनकी भाषा सशक्त बन गई है | बिम्ब-योजना एवं प्रतीकों एवं का प्रयोग उनकी भाषा को प्रभावशाली बनाता है |
प्रसाद जी ने प्रबंध और गीतिकाव्य इन दो काव्य-रूपों को अधिक अपनाया है | ‘कामायनी’ इनका प्रसिद्ध महाकाव्य है | ‘लहर’, ‘झरना’, आँसू गीतिकाव्य हैं | प्रसाद जी की भाषा साहित्यिक हिंदी है जिसमें संस्कृतनिष्ठ शब्दावली की प्रधानता है | प्रसाद जी की भाषा में ओज, माधुर्य और प्रसाद ; तीनों काव्य गुण विद्यमान हैं | उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकार प्रसाद जी के प्रिय अलंकार हैं |

Thursday

हबीब तनवीर का जीवन और साहित्यिक परिचय

                                     हबीब तनवीर का जीवन और साहित्यिक परिचय

          

भारतीय रंगमंच के महानायक हबीब तनवीर का जन्म 1 सितंबर 1923 को छ्त्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के मुहल्ला बैजनाथपुरा में हुआ था। उनके पिता ‘हफीज अहमद खान’ पेशावर, पाकिस्तान से आकर यहां बसे थे। हबीब तनवीर ने अपनी स्कूली शिक्षा रायपुर के ‘लॉरी म्युनिसिपल हाईस्कूल’ से की। इसके बाद उन्होंने वर्ष 1944 में नागपुर में ‘मॉरीस कॉलेज’ में दाखिला लिया और स्नातक की डिग्री प्राप्त की और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एम.ए की डिग्री कंप्लीट की। हबीब तनवीर ने अपने कॉलेज के समय के दौरान कविताएँ लिखना आरंभ कर दिया था और उसी दौरान उपनाम ‘तनवीर’ उनके साथ जुडा। 1945 में वे मुंबई गए और ऑल इंडिया रेडियो से बतौर निर्माता जुड़ गए। उसी दौरान उन्होंने कुछ फ़िल्मों में गीत लिखने के साथ अभिनय भी किया।

भारतीय रंगमंच के महानायक ‘हबीब तनवीर’ एक ऐसा मशहूर नाम है जिन्होंने रंगमंच के मानचित्र पर अपनी एक खास जगह स्थापित की हैं। वह एक विख्यात नाटककार होने के साथ-साथ निर्देशक, पटकथा-लेखक, गीतकार और भी पत्रकार थे। हबीब तनवीर ने अपनी विशिष्ट शैली के माध्यम से ‘नाट्य’ प्रस्तुतियों में जनमानस की समस्याओं को बखूबी प्रदर्शित किया जो आमवर्ग को बहुत प्रभावित करती थी। वहीं हबीब तनवीर के नाटक ‘आगरा बाजार’, ‘चरणदास चोर’ और ‘देख रहे हैं नैन’ बहुत प्रसिद्ध माने जाते हैं।  क्या आप जानते हैं कि रंगमंच की दुनिया में के अलावा उन्होंने हिंदी सिनेमा में भी काम किया था। भारतीय रंगमंच में उनके विशिष्ट योगदान के लिए उन्हें ‘पद्मश्री’,‘पद्म भूषण’ और ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ समेत कई पुरस्कारों और सम्मान से नवाजा जा चुका हैं।

                                                     नया थियेटर की स्थापना


छठवें दशक की शुरुआत में नई दिल्ली में हबीब तनवीर की नाट्य संस्था ‘नया थियेटर’ और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना लगभग एक समय ही हुई। यह उल्लेखनीय है कि देश के सर्वश्रेष्ठ नाट्य संस्था राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पास आज जितने अच्छे लोकप्रिय व मधुर गीतों का संकलन है उससे कहीं ज्यादा संकलन ‘नया थियेटर’ के पास मौजूद हैं।एच.एम.वी. जैसी बड़ी संगीत कंपनियों ने हबीब तनवीर के नाटकों के गीतों के कई आडियो कैसेट भी तैयार किये जो बहुत लोकप्रिय हुए।

                                 हिन्दी रंगमंच का विकास


आजादी से पहले हिन्दी रंगकर्म पर पारसी थियेटर की पारम्परिक शैली का गहरा प्रभाव था। साथ ही हिन्दुस्तान के नगरों और महानगरों में पाश्चात्य रंग विधान के अनुसार नाटक खेले जाते थे। आजादी के बाद भी अंग्रेज़ी और दूसरे यूरोपीय भाषाओं के अनुदित नाटक और पाश्चात्य शैली हिन्दी रंगकर्म को जकड़े हुए थी।उच्च और मध्य वर्ग के अभिजात्यपन ने पाश्चात्य प्रभावित रुढिय़ों से हिन्दी रंगमंच के स्वाभाविक विकास को अवरुद्ध कर रखा था और हिन्दी का समकालीन रंगमंच नाट्य प्रेमियों की इच्छाओं को संतुष्ट करने में अक्षम था। हबीब तनवीर ने इन्हीं रंग परिदृश्य को परिवर्तित करने एक नए और क्रांतिकारी रंग आंदोलन का विकास किया।

                        रंगमंच के माध्यम से किया चुनाव का प्रचार 


 रंगमंच पर अपने अभिनय का लोहा मनवाने वाले हबीब तनवीर (Habib Tanvir) वर्ष 1972 से 1978 तक संसद के उच्च सदन यानी राज्यसभा के मनोनीत सांसद भी रह चुके हैं। बता दें कि उन्होंने ‘इंदिरा गांधी’ के ‘गरीबी हटाओ’ नारे का समर्थन करते हुए अपने नाटकों के माध्यम से चुनाव का प्रचार किया था और लोगों को जनमानस की समस्याओं से जागरूक किया था। इसके साथ ही वह राज्यसभा चुन लिए गए थे। 

             बेहद कम खर्च में तैयार होते थे हबीब जी के नाटक


वह केवल नाटक करने के लिए ही नाटक नहीं करते थे, बल्कि उनके रंगकर्म का मकसद सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और आर्थिक चेतना जगाना भी था. उनके नाटक लोगों की जिंदगी, उनके संघर्ष, उनके सपने और उनकी आकांक्षाओं के अलावा सिस्टम की विद्रूपताओं का आईना भी होते थेउनके नाटक बेहद कम खर्च में किए जाने वाले होते थे, न कोई भव्य सेट, न महंगी पोशाकें, न महंगी रंगसामग्री. वह मानते थे कि आमआदमी तक ज्यादा से नाटक की पहुंच हो, इसके लिए जरूरी है कि ऐसी सामग्री का इस्तेमाल हो,जो आसानी से जुटाई जा सकें

          ब्रेख्त से प्रभावित, लेकिन प्रस्तुति का अनूठा अंदाज

देश के पहले जनवादी शायर नजीर अकबराबादी की नज्मों को पिरोकर ‘आगरा बाजार‘ जैसा महान नाटक तैयार करने वाले हबीब तनवीर जी के अन्य नाटक वह चाहे ‘मिट्टी की गाड़ी’ हो या ‘गांव का नाम ससुराल, मोर नाम दामाद’, ‘चरनदास चोर’ हो या ‘हिरमा की अमर कहानी’ जैसे नाटक मुझे हमेशा जर्मनी के नाटककार बर्तोल्त ब्रेख्त की थ्योरी ऑफ एलियनेशन यानी अलगाव का सिद्धांत से प्रभावित दिखे. जहां दर्शक नाटक के साथ बह जाने या एकात्म हुए बिना यह जानता है कि जो वह देख रहा है वह पहले हुई कोई घटना है, नाटक उसे विचार की प्रक्रिया का अवसर देता है, चेतना को विकसित करता है

                               हबीब तनवीर का निधन 

हबीब तनवीर ने नाट्य जगत में अपना विशेष योगदान देने के साथ-साथ छत्तीसगढ़ के ‘नाचा कलाकारों’ को देश विदेश में पहचान दिलाई। इसके साथ ही हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ की कला संस्कृति को देश विदेश तक अपने नाटकों के जरिए पहुंचाया। वहीं 8 जून 2009 को 86 वर्ष की आयु में रंगमंच के महानायक ने दुनिया को सदा के लिए अलविदा कह दिया। किंतु वह भारतीय नाट्य शैली के साक्ष्य के रूप में सदैव याद किए जाते रहेंगे और भावी रंगकर्मियों के लिए पथ-प्रदर्शन का काम करते रहेंगे। 







परीक्षा के एक दिन पूर्व दो मित्रों की बातचीत का संवाद लेखन कीजिए-

संवाद लेखन किसे कहते हैं  संवाद लेखन -  वह लेखनी है जिसमें दो या अधिक व्यक्तियों के बीच होने वाली बातचीत को लिखित रूप में व्यक्त किया जाता ह...