Monday

"असाध्य वीणा"-अज्ञेय

                                                                                                "असाध्य वीणा"-अज्ञेय



 प्रयोगवाद और नयी कविता के प्रवर्तक "अज्ञेय" जी ने सभी विधाओं में अपनी अदभुत प्रयोगात्मक प्रगति का परिचय दिया है अज्ञेय स्वभाव से ही विद्रोही थे उनकी यह विद्रोही भावना उनके द्वारा रचे साहित्य में भी विविध रूपों में भी प्रतिफलित हुई। साहित्यिक-सृजन के क्षेत्र में अज्ञेय जी ने एक साथ कवि ,कथाकार , आलोचक, संपादक, आदि विविध रूपों में साहित्यिक प्रेमियों को लुभाया तो दूसरी ओर व्यवहारिक जगत में फोटोग्राफी, चर्म-शिल्प, पर्वतारोहण, सिलाई- कला आदि से लोगो को चौंकाया । लेकिन उनका कवि व आलोचक व्यक्तित्व ही अधिक लोकप्रिय हुआ। कवि क्षेत्र में उनका सबसे विशिष्ट अवदान यह है कि उन्होंने तत्कालीन परिवेश के अनुकूल कविता को जीवन की अनुरुपता में ढालकर नई काव्यात्मक चेतना के लिए एक नया वातावरण रचा। वैसे तो अज्ञेय प्रगीतात्मक अभिव्यक्ति वाली छोटी कविताओं के कवि माने जाते हैं किंतु उन्होंने एक लम्बी कविता भी लिखी है- "असाध्य वीणा "। यह उनकी एक मात्र लंबी कविता है जिसकी रचना 'रमेशचन्द्र शाह' के अनुसार 18-20 जून ,1961 के दौरान हुई थी। यह कविता अज्ञेय के काव्य-संग्रह "आंगन के पार द्वार " में संग्रहीत है।



"असाध्य वीणा" एक जापानी पुराकथा पर आधारित है यह कथा 'आकोकुरा' की पुस्तक "द बुक ऑफ टी" में 'टेमिंग ऑफ द हार्प' शीर्षक से संग्रहीत है। श्री नरेन्द्र शर्मा ने अपने एक लेख में वह कथा इस प्रकार दी है लुंगामिन खाल में एक विशाल कीरी वृक्ष था , जिससे इस वीणा का निर्माण किया गया था। अनेक वादक कलाकार प्रयत्न करके हार गए पर वीणा नहीं बजा सके इसीलिए इसका नाम "असाध्य वीणा" पड़ गया। अंत में बीनकारों का राजकुमार पीवो ही उस वीणा को साध सका। इस वीणा से उसने ऐसी तान छेडी कि उससे तरह तरह की स्वर लहरियां फूट पडी। कभी उसमे से प्रेम गीत निकलते, तो कभी युद्ध का राग सुनाई पडता है। लेकिन अज्ञेय जी द्वारा रचित 'असाध्य वीणा' कविता में कथा नितांत भारतीय संदर्भो में ही घटित होती है और इस तरह घटित होती है कि उसका अभारतीय रूप धुल जाता है। दूसरे शब्दों में अज्ञेय ने एक अभारतीय कथा के आख्यान को एक भारतीय कविता के आख्यान में अदभुत काव्य-कौशल के साथ घुलनशील बना दिया है। इस घुलनशील से जो काव्यानुभव प्राप्त होता है वह इस कविता में प्रस्तुत दो भिन्न संस्कृतियों के आख्यानों की सीमा रेखाओं का अतिक्रमण करता प्रतीत होता है। अज्ञेय जी ने इस कथा का भारतीयकरण करते हुए बताया है कि किरीटी नामक वृक्ष से यह वीणा वज्रकीर्ति ने बनाई थी। लेकिन राजदरबार के समस्त कलावंत इस वीणा को बजाने का प्रयास करते हुए हार गये किन्तु सबकी विद्या व्यर्थ हो गई क्योंकि यह वीणा तभी बजेगी जब कोई सच्चा साधक इसे साधेगा। अन्त में इस 'असाध्य वीणा' को केशकम्बली प्रियंवद ने साधकर दिखाया।जब केशकम्बली प्रियंवद ने असाध्य वीणा को बजाकर दिखाया तब उससे निकलने वाले स्वरों को राजा , रानी और प्रजाजनों ने अलग-अलग सुना। किसी को उसमें ईश्वरीय कृपा सुनाई पड़ रही थी तो किसी को उसकी खनक तिजोरी में रखे धन की खनक लग रही थी । किसी को उसमें से नववधू की पायल की रूनझुन सुनाई दे रही थी तो किसी को उसमें शिशु की किलकारी की ध्वनि सुनाई पड़ रही थी। वस्तुत : असाध्य वीणा जीवन का प्रतीक है, हर व्यक्ति को अपनी भावना के अनुरूप ही उसकी स्वर लहरी प्रतीत होती है । व्यक्ति को अपनी भावना के अनुरूप ही सत्य की उपलब्धि होती है तथा भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को कला की प्रतीति भिन्न-भिन्न रूप में इसलिए होती है, क्योकि उनकी आन्तरिक भावनाओं में भिन्नता होती है । इससे यह भी ध्वनित होता है कि कला की विशिष्टता उसके अलग-अलग सन्दर्भों में , अलग-अलग अर्थो में होती है। 'असाध्य वीणा' को वही साध पाता है जो सत्य को एवं स्वयं को शोधता है या वो जो परिवेश और अपने को भूलकर उसी के प्रति समर्पित हो जाता है । यह बाहर से भीतर मुडने की प्रक्रिया है जिसे अंतर्मुखी होना भी कहा जा सकता है। बौद्ध दर्शन में इसे 'तथता' कहा गया है जिसमे स्वयं को देकर ही सत्य को पाया जा सकता है, अज्ञेय जी यही कहना चाहते हैं इस कविता के माध्यम से।


Friday

महादेवी वर्मा और उनका साहित्य

                                                                             महादेवी वर्मा और उनका साहित्य

                                                                                विस्तृत नभ का कोई कोना
                                                                                मेरा न कभी अपना होना,
                                                                                परिचय इतना, इतिहास यही-
                                                                                उमड़ी कल थी, मिट आज चली।



भारतीय साहित्य जगत को अपनी लेखनी से समृद्ध करने वाली लेखिका महादेवी वर्मा (Mahadevi Verma) हिंदी साहित्य के छायावाद काल के प्रमुख 4 स्तम्भों में से एक के रूप में अमर हैं। हिंदी साहित्य में उनकी एक सशक्त हस्ताक्षार के रूप में पहचान है और छायावादी काव्य के विकास में इनका अविस्मरणीय योगदान रहा है। साहित्य और संगीत का अद्भुत संयोजन करके गीत विधा को विकास की चरम सीमा पर पहुंचा देने का श्रेय महादेवी को ही है।




कवि निराला, ने उन्हें ‘हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती‘ की उपमा से भी सम्मानित किया है। वह हिंदी साहित्य में वेदना की कवयित्री के नाम से जानी जाती हैं एवं आधुनिक हिंदी साहित्य में रहस्यवाद की प्रवर्तक भी मानी जाती हैं।
महादेवी वर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले में गोविंद प्रसाद वर्मा और हेम रानी देवी के घर हुआ था। जबकि उनके पिता, भागलपुर के एक कॉलेज में एक अंग्रेजी प्रोफेसर, ने उन्हें पश्चिमी शिक्षाओं और अंग्रेजी साहित्य से परिचित कराया, उनकी माँ ने उनके भीतर हिंदी और संस्कृत साहित्य में एक स्वाभाविक रुचि का आह्वान किया।
एक साहित्य से भरपूर, वातावरण में पली बढ़ी युवा महादेवी वर्मा ने बहुत ही कम उम्र में काव्य लेखन की ओर स्वाभाविक रूप से एक जुनून विकसित किया। हालाँकि महादेवी ने अपनी पहली कविता 7 साल की उम्र में लिखी थी, लेकिन वह अपनी कविता और अन्य लेखन को छिपा कर रखती थीं। जब उनकी सहेली और सुप्रसिद्ध कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान को उनके लेखन का पता चला, तब महादेवी की प्रतिभा सामने आई।

जैसा कि उस समय का चलन था, 9 साल की उम्र में महादेवी की शादी एक डॉक्टर स्वरूप नारायण वर्मा से कर दी गई थी, जिसकी स्मृति कुछ इन शब्दों में वह दर्ज़ करती हैं:‘बारात आई तो बाहर भागकर हम सबके बीच खड़े होकर बारात देखने लगे। व्रत रखने को कहा गया तो मिठाई कमरे में बैठकर खूब मिठाई खाई। रात को सोते समय नाउन ने गोद में लेकर फेरे दिलवाए होंगे, हमें कुछ ध्यान नहीं है। प्रातः आंख खुली तो कपड़े में गांठ लगी देखी तो उसे खोलकर भाग गए।
अब इसे महादेवी का विद्रोही मन कहा जाए या अति-संवेदनशील हृदय, महादेवी पिंजड़े की नहीं रेगिस्तान की चिड़िया थीं और सांसारिक जीवन से विरक्ति के कारण उन्होंने शादी के बंधन में बंधना मंज़ूर नहीं किया।
हिंदी के विशाल मंदिर की सरस्वती
महादेवी जी का गद्य और पद्य दोनों पर ही समानाधिकार था । नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत, यामा, दीपशिखा उनके प्रसिद्ध गीत सग्रह हैं । अतीत की स्मृतियां, शृंखला की कड़ियां, पथ के साथी आदि उनके रेखाचित्र संस्मरण निबन्ध से सम्बन्धित संग्रह हैं । वहीं महादेवीजी ने श्रेष्ठ कहानियां भी लिखीं । पशु-पक्षी जगत् पर उनकी मार्मिक कहानियां अत्यन्त जीवन्त हैं।


                                                                        कितनी करूणा कितने संदेश
                                                                        पथ में बिछ जाते बन पराग
                                                                        गाता प्राणों का तार तार
                                                                        अनुराग भरा उन्माद राग
                                                                        आँसू लेते वे पथ पखार
                                                                         जो तुम आ जाते एक बार।
वेदना के स्वरों की अमर गायिका महादेवी वर्मा ने हिंदी-साहित्य की जो अनवरत सेवा की है उसका समर्थन दूसरे लेखक भी करते हैं। कवितामय हृदय लेकर और कल्पना के सप्तरंगी आकाश में बैठकर जिस काव्य का उन्होंने सृजन किया, वह हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है।
जीवन के अंतिम समय तक साहित्य-साधना में लीन रहते हुए 80 वर्ष की अवस्था में 11 सितंबर, 1987 को प्रयाग में वेदना की महान कवयित्री महादेवी वर्मा ने अपनी आंखें सदा-सदा के लिए बंद कर ली।
महादेवी वर्मा का साहित्य
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने गीति-काव्य की विशिष्टता बताते हुए कहा है कि “गीति-काव्य उस नई कविता का नाम है, जिसमें प्रकृत्ति के साधारण-असाधारण सब रूपों पर प्रेम-दृष्टि डालकर, उसके रहस्य भरे सच्चे संकेतों को परखकर, भाषा को चित्रमय, सजीव और मार्मिक रूप देकर कविता का एक कृत्रिम, स्वच्छंद मार्ग निकाला गया है। यह सर्वाधिक अन्तर्भाव व्यंजक होता है।”
वेदना, प्रकृति के सुंदर दृश्य चित्र, दिव्य प्रेम, विरह, हर्ष, विषाद, सुख-दुख की अनुभूतियाँ, आत्मा-परमात्मा के मधुर संबंध के साथ ही उनकी कविताओं में संवेदना का प्रबल भाव देखने को मिलता है।


महादेवी जी की गद्य कृतियाँ इस प्रकार हैं :
रेखाचित्र : अतीत के चलचित्र और स्मृति की रेखाएँ
ललित निबंध : क्षणदा
संस्मरण : पथ के साथी और मेरा परिवार और संस्मरण
चुने हुए भाषणों का संकलन : संभाषण
निबंध : श्रृंखला की कड़ियाँ, विवेचनात्मक गद्य, साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध एवं संकल्पिता
संस्मरण, रेखाचित्र और निबंधों का संग्रह : हिमालय
संपादन : चाँद, आधुनिक कवि काव्यमाला आदि।
आलोचना : विभिन्न काव्य संग्रहों की भूमिकाएँ, हिंदी का विवेचनात्मक गद्य।
महादेवी जी ने कोई उपन्यास, कहानी या नाटक नहीं लिखा तो भी उन्होंने जो गद्य लिखा है, वह गद्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। उसमें जीवन का संपूर्ण वैविध्य समाया है। बिना कल्पना का सहारा लिए महादेवी जी ने जो सामाजिक जीवन को छूने वाले गद्य लिखे हैं वे उन्हें पढ़कर ही जाना जा सकता है।
महादेवी जी के जीवन पर महात्मा गाँधी का तथा कला-साहित्य साधना पर रविंद्रनाथ टैगोर का गहरा प्रभाव पड़ा और इसलिए उनके रचित साहित्य में करुणा और भावुकता का गहरा प्रभाव रहा। उनके पात्रों में कथात्मकता से अधिक संवेदनशीलता है और उनकी यही खूबी पाठक को रचना के साथ-साथ चलने पर मजबूर कर देती है।
महादेवी जी की गद्य शैली चित्रात्मक एवं प्रभावपूर्ण है। महादेवी वर्मा जी के गद्य साहित्य में समकालीन समाज का यथार्थ चित्रण देखने को मिलता है। समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं भेदभाव को आईना दिखाते हुए, उनका समाज से परिचय कराया है।
महादेवी वर्मा जी ने गद्य साहित्य में समाज के पिछड़े समाज के पात्रों का भी अत्यंत सजीव एवं मार्मिक चित्रण है। वह पशु पक्षियों से भी बहुत प्रेम करती थी और उनकी रचनाओं में उन्होंने बहुत ही सुंदरता से उन सभी का वर्णन किया है। उन्होंने अपने घर में भी कुत्ते, बिल्ली, गाय, गिलहरी, नेवला आदि को पाला हुआ था।
उन्होंने लिखा है, “मेरे शब्दचित्रों का आरम्भ बहुत गद्यात्मक और बचपन का है। मेरा पशु-पक्षियों का प्रेम तो जन्मजात था, अतः क्रॉस्थवेट गर्ल्स कॉलेज के छात्रावास में मुझे उन्हीं का अभाव कष्ट देता था। हमारे स्कूल के आम के बाग़ में रहने वाली खटकिन ने कुछ मुर्गि़यां पाल रखी थीं। जिनके छोटे बच्चों को मैं प्रतिदिन दाना देती और गिनती थी। एक दिन एक बच्चा कम निकला और पूछने पर ज्ञात हुआ कि हमारी नई अध्यापिका उसे मारकर खाने के लिए ले गई है। अन्त में मेरे रोने-धोने और कुछ न खाने के कारण वह मुझे वापस मिल गया। तब मेरे बालकपन ने सोचा कि सब मुर्गी के बच्चों की पहचान रखी जावे, अन्यथा कोई और उठा ले जाएगा। तब मैंने पंजों का, चोंच का और आंखों का रंग, पंखों की संख्या आदि एक पुस्तिका में लिखी। फिर सबके नाम रखे और प्रतिदिन सबको गिनना आरम्भ किया। इस प्रकार मेरे रेखाचित्रों का आरम्भ हुआ, जो मेरे पशु-पक्षियों के परिवार में पल्लवित हुआ है। फिर एक ऐसे नौकर को देखा जिसे उसकी स्वामिनी ने निकाल दिया था। पर वह बच्चों के प्रेम के कारण कभी बताशे, कभी फल लेकर बाहर बच्चों की प्रतीक्षा में बैठा रहता था। उसे देखकर मुझे अपना बचपन का सेवक रामा याद आ गया और उसका शब्दचित्र लिखा।”
कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि महादेवी वर्मा के बिना आधुनिक हिन्दी साहित्य का उल्लेख हमेशा अधूरा ही होगा और हिन्दी साहित्य जगत में महादेवी जी ध्रुव तारे की भाँति सदा ही चमकती रहेंगी।

 



Thursday

सुमित्रानंदन पंत और उनका साहित्य

                                                                      सुमित्रानंदन पंत और उनका साहित्य


सुमित्रानंदन पंत हिन्दी साहित्य में ‘छायावादी युग’ के चार स्तंभों में से एक माने जाते हैं। उन्हें सौंदर्य के अप्रतीम कवि और ‘प्रकृति के सुकुमार कवि’ के रूप में भी जाना जाता हैं। क्या आप जानते हैं कि सुमित्रानंदन पंत ने मात्र सात वर्ष की अल्प आयु में भी काव्य रचनाएँ करना शुरू कर दिया था। इसके साथ ही उन्होंने हिंदी काव्य धारा में अनुपम रचनाएँ की जिसमें ‘वीणा’, ‘पल्लव’, ‘चिदंबरा’, ‘युगांत’ और ‘स्वर्णधूलि’ प्रमुख मानी जाती हैं।
सुमित्रानंदन पंत ने अपना संपूर्ण जीवन लेखन कार्य को ही समर्पित कर दिया था। हिंदी साहित्य में उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हें ‘पद्म भूषण’, ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ और ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’ जैसे विशेष सम्मानों से नवाजा गया हैं। बता दें कि भारत में जब टेलीविजन प्रसारण शुरू हुआ तो उसका भारतीय नामकरण ‘दूरदर्शन’ सुमित्रानंदन पंत ने ही किया था।
                                                    सुमित्रानंदन पंत का आरंभिक जीवन
सौंदर्य के अप्रतीम कवि कहे जाने वाले ‘सुमित्रानंदन पंत’ का जन्म बागेश्वर ज़िले के कौसानी, उत्तराखंड में 20 मई 1900 को हुआ था। लेकिन जन्म के कुछ घंटो बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया जिसके बाद उनका लालन-पोषण उनकी दादी ने किया। बचपन में उनका नाम ‘गुसाईं दत्त’ था लेकिन हाई स्कूल के समय उन्होंने अपना नाम बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया। वह अपने सात भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। 
उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा कौसानी गांव से ही शुरू की फिर वह वाराणसी आ गए और ‘जयनारायण हाईस्कूल’ में शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद सुमित्रानंदन पंत वर्ष 1918 में इलाहबाद (वर्तमान प्रयागराज) चले गए और ‘म्योर कॉलेज’ में बाहवीं कक्षा में दाखिला लिया। बता दें कि ये वो समय था जब संपूर्ण भारत में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन चल रहे थे। 
वर्ष 1921 में महात्मा गाँधी के द्वारा शुरू किए गए ‘अहसयोग आंदोलन’ में हजारों लोगों ने सरकारी स्कूलों, विश्वविद्यालयों, कार्यालयों और विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया। इस आंदोलन में सुमित्रानंदन पंत ने भी अपना कॉलेज छोड़ दिया। जिसके बाद वह हिंदी, संस्कृत, बांग्ला और अँग्रेज़ी भाषा-साहित्य का अध्ययन करने लगे।     

                                                          सुमित्रानंदन पंत की रचनाएं
सुमित्रानंदन पंत जी के निम्नलिखित कृतियां हैं। वे बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न साहित्यकार थे। उन्होंने अपने सारे जीवन में विविध साहित्य की रचना की थी।लोकायतन (महाकाव्य) सुमित्रानंदन पंत जी का लोकायतन लोक जीवन का एक महाकाव्य है। इस महाकाव्य का प्रकाशन सन 1964 में हुआ था। इस महाकाव्य में पंत जी ने सांस्कृतिक और दार्शनिक विचारधारा को व्यक्त किया है। इस रचना में पंत जी ने गांव का जीवन और वंहा पे रहने वाले लोगो की भावनाओ को व्यक्त किया हैं।
कविता संग्रह – वीणा, पल्लव, ग्रंथि, गुंजन, युगान्त, युगवाणी आदि।
नाटक – रजतरश्मि, शिल्पी, ज्योत्सना, आदि।
उपन्यास – ग्राम या मानसी हार, युगवाणी, स्वर्ण किरण, युगांतर, कला और बूढ़ा चांद, लोकायतन आदि।
सुमित्रानंदन पंत की साहित्यिक यात्रा
सुमित्रानंदन पंत ने सात वर्ष की अल्प आयु में ही कविता लिखना शुरू कर दिया था। उनकी कविताओं में हमें प्रकृति का सौन्दर्य चित्रण के साथ-साथ नारी चेतना और ग्रामीण जीवन की विसंगतियों का मार्मिक चित्रण देखने को मिलता हैं। उनका लेखन इतना शशक्त और प्रभावशाली था जिसकी वजह से वर्ष 1918 में महज 18 वर्ष की आयु में ही उन्होंने हिंदी साहित्य में अपनी एक विशिष्ट पहचान बना ली थी।
बता दें कि उनका रचनाकाल वर्ष 1916 से 1977 तक लगभग 60 वर्षों तक रहा। जहाँ हमें उनकी काव्य यात्रा के तीन प्रमुख चरण देखने को मिलते हैं, इसमें प्रथम ‘छायावाद’, दूसरा ‘प्रगतिवाद’ और तीसरा श्री अरविंद दर्शन से प्रभावित ‘अध्यात्मवाद’ रहा हैं।

छायावाद के एक युग का अंत
सुमित्रानंदन पंत का संपूर्ण जीवन हिंदी साहित्य की साधना में ही बीता। उनका साहित्यिक जीवन लगभग 60 वर्षों तक रहा जिसमें उन्होंने कई विशिष्ट काव्य रचनाएँ की। बता दें कि 28 दिसंबर 1977 को 77 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया और इसी के साथ छायावाद के एक युग का अंत हो गया। इसके बाद उनके पैतृक गांव कौसानी में उनके घर को सरकारी तौर पर अधिग्रहीत कर ‘सुमित्रानंदन पंत साहित्यिक वीथिका’ नामक संग्रहालय में परिणत किया गया। इस संग्रहालय में महाकवि सुमित्रानंदन पंत जी की एक मूर्ति स्थापित है और यहाँ उनकी व्यक्तिगत चीजें, प्रशस्तिपत्र, विभिन्न संग्रहों की पांडुलिपियों को सुरक्षित रखा गया है।
                                                                सुमित्रानंदन पंत की भाषा शैली
सुमित्रा नंदन पंत जी की भाषा पदावली से युक्त खड़ी बोली है। सुमित्रा नंदन पंत जी की शैली संस्कृत, बंग्ला, अंग्रेजी, के कवियों से आत्मक मुक्तक शैली से प्रभावित है।
पंत जी की भाषा चित्रमयी है। इनकी खड़ीबोली मृदुलता पूर्ण है। ब्रजभाषा का प्रयोग,पंत जी को वर्णों की गहरी पकड़ है। इनकी भाषा स्मान्यतः संस्कृतनिष्ठ है।
सुमित्रा नंदन पंत जी की शैली में छायावादी काव्यशैली की समस्त विशेषताएं, प्रतिकात्मकता,चित्रात्मक, प्रचुर मात्रा में विद्यमान है। 




Friday

हिंदी साहित्य के युग प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद और उनका साहित्यिक परिचय

                                हिंदी साहित्य के युग प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद और उनका साहित्यिक परिचय


आधुनिक हिंदी साहित्य में छायावाद के प्रवर्तक महाकवि जयशंकर प्रसाद ने अपनी उत्कृष्ट रचनाओं के माध्यम से संपूर्ण राष्ट्र को नई चेतना दी। जयशंकर प्रसाद न केवल हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवियों में एक हैं, बल्कि हिंदी के श्रेष्ठ कथाकार, नाटककार और निबंधकार भी हैं। प्रसाद जी की कालजयी रचना ‘कामायनी’ संपूर्ण हिंदी काव्य की अनुपम कृति है, जिसमें मानव जीवन के अंतर्विरोधों, संघर्ष और व्याकुलता का उन्होंने बेहद गंभीर व भावपूर्ण चित्रण करने के साथ ही यथार्थ व मानवीय मूल्यों को नया आयाम भी दिया। ‘कामायनी’ काव्य खंड जहां उन्हें महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित करता है, वहीं कथा, नाटक व निबंध लेखन के क्षे़त्र में भी वे एक बेहद गंभीर साहित्यकार के रूप में स्थापित हैं। महज सैंतालीस साल के अपने अल्प जीवनकाल में जयशंकर प्रसाद ने कविता और कहानी के क्षेत्र में समान रूप से वृहद रचनाएं रचीं। उनके काव्य संग्रह ‘लहर’ में एक कविता की ये पंक्तियां हैं- ‘छोटे से जीवन की कैसे बड़ी कथाएं आज कहूं? क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूं? सुनकर क्या तुम भला करोगे मेरी भोली आत्मकथा? अभी समय भी नहीं थकी-सोई है मेरी मौन-व्यथा।’



प्रसाद जी की कविता के अलावा ‘छाया’, ‘प्रतिध्वनि’, ‘आकाशदीप’, ‘आंधी’ और ‘इंद्रजाल’ प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं। उनकी कहानियों में प्रेम व सामाजिक द्वंद्व के साथ ही सांस्कृतिक चेतना का समावेश है, जो मानव समाज को उत्प्रेरित करती है।


30 जनवरी, 1889 में बनारस में जन्म लेने वाले जयशंकर प्रसाद ने प्रतिकूल पारिवारिक और व्यवसायिक दबावों के बावजूद साहित्य रचना को अपना संसार चुना और जीवन के तमाम झंझावतों को झेलते हुए इसमें डूबते चले गए। जीवन, चिंतन और साहित्य की इस त्रिधारा का उन्होंने जिस ईमानदारी से निर्वाह किया, वह अद्वितीय है, अनूठा है। प्रसाद जी ने अपनी लेखनी से न केवल काव्य जगत को आलोकित किया, बल्कि गद्य साहित्य में भी श्रेष्ठ रचनाएं दीं। तत्कालीन साहित्यिक विधाओं में उन्होंने विशेष परचम लहराया। चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त एवं ध्रुवस्वामिनी उनके प्रसिद्ध नाटक है।
जयशंकर प्रसाद युग प्रवर्तक साहित्यकार थे। उनका रचनाकाल सन् 1909 से 1936 तक माना जाता है। यह वह समय था जब भारत अपनी गुलामी की जंजीरों को तोड़कर आजाद होने के लिए कसमसा रहा था। भारत की अध्यात्मवादी जीवन दृष्टि और पश्चिम की भौतिकवादी सोच के बीच जबरदस्त संघर्ष छिड़ा था। रूढ़ीवादी परंपराओं और सुधारवादी विचारधाराओं का टकराव चल रहा था। ऐसे समय में प्रसाद जी ने अपनी सशक्त लेखनी से संपूर्ण राष्ट्रीय चेतना को नई गति दी।
हिंदी साहित्य के इतिहास की इस महान विभूति ने बहुत ही कम उम्र में 15 नवंबर, 1937 ई. को इस संसार से विदा ले ली। जयशंकर प्रसाद का पुश्तैनी मकान बनारस के सराय गोवर्धन मोहल्ले में आज भी जर्जर अवस्था में मौजूद है। इस पुराने मकान के एक बड़े परिसर में प्रसाद जी का प्रिय शिव मंदिर हैं। यहां के पुजारी बताते हैं कि यहीं बैठकर उन्होंने ‘कामायनी’ लिखी थी। पहले इस अहाते के चारों कोणों में एक-एक कुआं था जो अब मिट्टी से पूरी तरह ढक गए है। सिर्फ मंदिर वाला कुआं बचा है। प्रसाद जी की एकमात्र संतान पुत्र र|शंकर प्रसाद भी अब नहीं रहें। उनके छह बेटे हैं, जिनकी ढेरो संतानें वंशज के रूप में हैं मगर वे सभी इस महान विभूति की विशिष्टता से अनभिज्ञ जैसे हैं। साहित्यकार प्रसाद जी के न कोई उत्तराधिकारी है और न ही उनकी विरासत को सहेजने-संवारने वाला। सच तो यह है कि महान विभूति के परिवार को पूछने वाला भी कोई नहीं है।

प्रमुख रचनाएं – प्रसाद जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार थे | उन्होंने कविता, उपन्यास, नाटक, कहानी आदि साहित्यिक विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई |
काव्य संग्रह – लहर, झरना, आँसू , कामायनी आदि |
उपन्यास – कंकाल, तितली, इरावती (अधूरा )
कहानी संग्रह – छाया, आकाशदीप, आंधी आदि|
नाटक – राज्यश्री, स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी , एक घूंट कल्याणी आदि |
साहित्यिक विशेषताएँ
1.राष्ट्रीय भावना – इनके साहित्य की प्रमुख विशेषता राष्ट्रीय भावना है | इनकी अधिकांश रचनाओं में देश के प्रति बलिदान, त्याग, समर्पण तथा देशवासियों के प्रति करुणा आदि भावों का वर्णन मिलता है | उनके नारी पात्र भी पुरुष पात्रों की तरह राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत दिखाई देते हैं |
2.प्रेम भावना – प्रसाद जी नारी एवं पुरुष के उदात्त प्रेम को अधिक महत्व देते हैं | इनकी रचनाओं में प्रेम के जिस रूप का वर्णन किया गया है वह केवल मांसल या दैहिक नहीं वरन् आत्मिक है | इनकी बहुत सी रचनाओं में पुरुष व नारी पात्र अपनी प्रिय के लिए सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं | इनकी दृष्टि में केवल प्रिय को पाना ही प्रेम नहीं है बल्कि प्रिय के लिये अपनी प्रेम का बलिदान कर देना भी प्रेम है | इनकी नाट्य रचनाओं में प्रेम के ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं | जबकि काव्य रचनाओं में वे जिस प्रेम का निरूपण करते हैं वह लौकिक प्रेम की अपेक्षा अलौकिक प्रेम अधिक लगता है |
3.प्रकृति वर्णन – प्रसाद जी के काव्य में अनेक स्थानों पर प्रकृति का स्वाभाविक चित्रण किया गया है | ‘लहर’ की अनेक कविताएं प्रकृति वर्णन से संबंधित हैं | प्राकृतिक पदार्थों पर मानवीय भावनाओं का आरोप करना उनके प्रकृति-चित्रण की अनूठी विशेषता रही है | इसके साथ-साथ प्रकृति-वर्णन के माध्यम से मानव-जीवन की अनेक अनसुलझी ग्रंथियों व भावनाओं की अभिव्यक्ति भी वे बड़ी सुंदरता से करते हैं |
4. नारी भावना – छायावादी कवि होने के कारण प्रसाद जी ने नारी को अशरीरी सौंदर्य प्रदान करके उसे लोक की मानवी न बनाकर परलोक की ऐसी काल्पनिक देवी बना दिया जिसमें प्रेम, सौंदर्य व उच्च मानवीय भावनाएं हैं |
5. कला पक्ष –प्रसाद जी की भाषा सरल, सहज, स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है | उनकी भाषा में तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशज आदि सभी प्रकार के शब्द मिलते हैं | मुहावरों एवं लोकोक्तियां के प्रयोग से उनकी भाषा सशक्त बन गई है | बिम्ब-योजना एवं प्रतीकों एवं का प्रयोग उनकी भाषा को प्रभावशाली बनाता है |
प्रसाद जी ने प्रबंध और गीतिकाव्य इन दो काव्य-रूपों को अधिक अपनाया है | ‘कामायनी’ इनका प्रसिद्ध महाकाव्य है | ‘लहर’, ‘झरना’, आँसू गीतिकाव्य हैं | प्रसाद जी की भाषा साहित्यिक हिंदी है जिसमें संस्कृतनिष्ठ शब्दावली की प्रधानता है | प्रसाद जी की भाषा में ओज, माधुर्य और प्रसाद ; तीनों काव्य गुण विद्यमान हैं | उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकार प्रसाद जी के प्रिय अलंकार हैं |

Thursday

हबीब तनवीर का जीवन और साहित्यिक परिचय

                                     हबीब तनवीर का जीवन और साहित्यिक परिचय

          

भारतीय रंगमंच के महानायक हबीब तनवीर का जन्म 1 सितंबर 1923 को छ्त्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के मुहल्ला बैजनाथपुरा में हुआ था। उनके पिता ‘हफीज अहमद खान’ पेशावर, पाकिस्तान से आकर यहां बसे थे। हबीब तनवीर ने अपनी स्कूली शिक्षा रायपुर के ‘लॉरी म्युनिसिपल हाईस्कूल’ से की। इसके बाद उन्होंने वर्ष 1944 में नागपुर में ‘मॉरीस कॉलेज’ में दाखिला लिया और स्नातक की डिग्री प्राप्त की और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एम.ए की डिग्री कंप्लीट की। हबीब तनवीर ने अपने कॉलेज के समय के दौरान कविताएँ लिखना आरंभ कर दिया था और उसी दौरान उपनाम ‘तनवीर’ उनके साथ जुडा। 1945 में वे मुंबई गए और ऑल इंडिया रेडियो से बतौर निर्माता जुड़ गए। उसी दौरान उन्होंने कुछ फ़िल्मों में गीत लिखने के साथ अभिनय भी किया।

भारतीय रंगमंच के महानायक ‘हबीब तनवीर’ एक ऐसा मशहूर नाम है जिन्होंने रंगमंच के मानचित्र पर अपनी एक खास जगह स्थापित की हैं। वह एक विख्यात नाटककार होने के साथ-साथ निर्देशक, पटकथा-लेखक, गीतकार और भी पत्रकार थे। हबीब तनवीर ने अपनी विशिष्ट शैली के माध्यम से ‘नाट्य’ प्रस्तुतियों में जनमानस की समस्याओं को बखूबी प्रदर्शित किया जो आमवर्ग को बहुत प्रभावित करती थी। वहीं हबीब तनवीर के नाटक ‘आगरा बाजार’, ‘चरणदास चोर’ और ‘देख रहे हैं नैन’ बहुत प्रसिद्ध माने जाते हैं।  क्या आप जानते हैं कि रंगमंच की दुनिया में के अलावा उन्होंने हिंदी सिनेमा में भी काम किया था। भारतीय रंगमंच में उनके विशिष्ट योगदान के लिए उन्हें ‘पद्मश्री’,‘पद्म भूषण’ और ‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’ समेत कई पुरस्कारों और सम्मान से नवाजा जा चुका हैं।

                                                     नया थियेटर की स्थापना


छठवें दशक की शुरुआत में नई दिल्ली में हबीब तनवीर की नाट्य संस्था ‘नया थियेटर’ और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्थापना लगभग एक समय ही हुई। यह उल्लेखनीय है कि देश के सर्वश्रेष्ठ नाट्य संस्था राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पास आज जितने अच्छे लोकप्रिय व मधुर गीतों का संकलन है उससे कहीं ज्यादा संकलन ‘नया थियेटर’ के पास मौजूद हैं।एच.एम.वी. जैसी बड़ी संगीत कंपनियों ने हबीब तनवीर के नाटकों के गीतों के कई आडियो कैसेट भी तैयार किये जो बहुत लोकप्रिय हुए।

                                 हिन्दी रंगमंच का विकास


आजादी से पहले हिन्दी रंगकर्म पर पारसी थियेटर की पारम्परिक शैली का गहरा प्रभाव था। साथ ही हिन्दुस्तान के नगरों और महानगरों में पाश्चात्य रंग विधान के अनुसार नाटक खेले जाते थे। आजादी के बाद भी अंग्रेज़ी और दूसरे यूरोपीय भाषाओं के अनुदित नाटक और पाश्चात्य शैली हिन्दी रंगकर्म को जकड़े हुए थी।उच्च और मध्य वर्ग के अभिजात्यपन ने पाश्चात्य प्रभावित रुढिय़ों से हिन्दी रंगमंच के स्वाभाविक विकास को अवरुद्ध कर रखा था और हिन्दी का समकालीन रंगमंच नाट्य प्रेमियों की इच्छाओं को संतुष्ट करने में अक्षम था। हबीब तनवीर ने इन्हीं रंग परिदृश्य को परिवर्तित करने एक नए और क्रांतिकारी रंग आंदोलन का विकास किया।

                        रंगमंच के माध्यम से किया चुनाव का प्रचार 


 रंगमंच पर अपने अभिनय का लोहा मनवाने वाले हबीब तनवीर (Habib Tanvir) वर्ष 1972 से 1978 तक संसद के उच्च सदन यानी राज्यसभा के मनोनीत सांसद भी रह चुके हैं। बता दें कि उन्होंने ‘इंदिरा गांधी’ के ‘गरीबी हटाओ’ नारे का समर्थन करते हुए अपने नाटकों के माध्यम से चुनाव का प्रचार किया था और लोगों को जनमानस की समस्याओं से जागरूक किया था। इसके साथ ही वह राज्यसभा चुन लिए गए थे। 

             बेहद कम खर्च में तैयार होते थे हबीब जी के नाटक


वह केवल नाटक करने के लिए ही नाटक नहीं करते थे, बल्कि उनके रंगकर्म का मकसद सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और आर्थिक चेतना जगाना भी था. उनके नाटक लोगों की जिंदगी, उनके संघर्ष, उनके सपने और उनकी आकांक्षाओं के अलावा सिस्टम की विद्रूपताओं का आईना भी होते थेउनके नाटक बेहद कम खर्च में किए जाने वाले होते थे, न कोई भव्य सेट, न महंगी पोशाकें, न महंगी रंगसामग्री. वह मानते थे कि आमआदमी तक ज्यादा से नाटक की पहुंच हो, इसके लिए जरूरी है कि ऐसी सामग्री का इस्तेमाल हो,जो आसानी से जुटाई जा सकें

          ब्रेख्त से प्रभावित, लेकिन प्रस्तुति का अनूठा अंदाज

देश के पहले जनवादी शायर नजीर अकबराबादी की नज्मों को पिरोकर ‘आगरा बाजार‘ जैसा महान नाटक तैयार करने वाले हबीब तनवीर जी के अन्य नाटक वह चाहे ‘मिट्टी की गाड़ी’ हो या ‘गांव का नाम ससुराल, मोर नाम दामाद’, ‘चरनदास चोर’ हो या ‘हिरमा की अमर कहानी’ जैसे नाटक मुझे हमेशा जर्मनी के नाटककार बर्तोल्त ब्रेख्त की थ्योरी ऑफ एलियनेशन यानी अलगाव का सिद्धांत से प्रभावित दिखे. जहां दर्शक नाटक के साथ बह जाने या एकात्म हुए बिना यह जानता है कि जो वह देख रहा है वह पहले हुई कोई घटना है, नाटक उसे विचार की प्रक्रिया का अवसर देता है, चेतना को विकसित करता है

                               हबीब तनवीर का निधन 

हबीब तनवीर ने नाट्य जगत में अपना विशेष योगदान देने के साथ-साथ छत्तीसगढ़ के ‘नाचा कलाकारों’ को देश विदेश में पहचान दिलाई। इसके साथ ही हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ की कला संस्कृति को देश विदेश तक अपने नाटकों के जरिए पहुंचाया। वहीं 8 जून 2009 को 86 वर्ष की आयु में रंगमंच के महानायक ने दुनिया को सदा के लिए अलविदा कह दिया। किंतु वह भारतीय नाट्य शैली के साक्ष्य के रूप में सदैव याद किए जाते रहेंगे और भावी रंगकर्मियों के लिए पथ-प्रदर्शन का काम करते रहेंगे। 







Friday

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की प्रमुख रचनाएँ

                                              सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जीवन परिचय

 


सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म सन् 1896 ई. में बसन्त पंचमी के दिन बंगाल के महिषादल नामक स्थान पर हुआ। निराला की जन्म तिथि के विषय में विद्वान में पर्याप्त मतभेद भी पाये जाते है। निराला के पिता पं. राम सहाय, गढ़ा कोला, जिला उन्नाव के रहने वाले थे आर्थिक परिस्थिति के कारण कलकत्ता में जाकर पुलिस के सिपाही बन गए। 

    सन 1920 ईस्वी में राज्य की नौकरी छोड़कर पूर्ण संकल्प से निराला ने साहित्यिक जीवन में प्रवेश किया और अन्त तक उसी को ही अपना जीवन मानकर चले। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की मृत्यु 15 अक्तूबर, 1961 को हुई ।

                    सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की प्रमुख रचनाएँ 


कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने गद्य व पद्य लगभग सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलाई है। उनके छायावादी काव्य संग्रह में ‘अनामिका’ (1922 ई.), ‘परिमल’ (1930 ई.), ‘गीतिका’ (1936 ई.), ‘तुलसीदास’ (1938 ई.) आदि रचनाएँ सम्मिलित है। अन्य काव्य संग्रहों में ‘कुकुरमुत्ता’ (1942 ई.), ‘अणिमा’ (1943 ई.), ‘बेला’ (1946 ई.), ‘नये पत्ते’ (1946 ई.), ‘अर्चना’ (1950 ई.), ‘आराधना’ (1950 ई.), ‘गीतगुंज’ (1954 ई), ‘अपरा’ (1969 ई.), ‘सांध्य काकली’ (1969 ई.) आदि प्रमुख है। इसके अलावा उन्होंने कहानी, उपन्यास, निबंध, जीवनी, रेखाचित्र व आलोचनात्मकपरक रचनाएँ भी लिखी है जिनका विवरण इस प्रकार है-
  1. अनामिका (1922 ई.)
  2. परिमल (1930 ई.)
  3. गीतिका (1936 ई.)
  4. तुलसीदास (1938 ई.) 
  5. ‘कुकुरमुत्ता (1942 ई.)
  6. अणिमा (1943 ई.)
  7. बेला (1946 ई.)
  8. नये पत्ते (1946 ई.)
  9. अर्चना (1950 ई.)
  10. आराधना (1950 ई.)
  11. गीतगुंज (1954 ई)
  12. अपरा (1969 ई.)
  13. सांध्य काकली (1969 ई.)   


  1. अनामिका -सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का प्रथम काव्य संग्रह ‘अनामिका’ सन् 1922 ई. में प्रकाशित हुआ था। जिसमें कुल सात कविताएँ थीं, जो बाद में अन्य संकलनों में सम्मिलित हो गयी। अनामिका की ‘प्रेयसी’, ‘प्रेम के प्रति’, ‘रेखा’, ‘प्याला’, ‘मरण दृष्य’, ‘अपराजिता’, ‘प्राप्ति’, ‘नारायण मिले हंस’ आदि रचनायें रहस्यात्मक कवितायें हैं। इसके अतिरिक्त ‘सेवा प्रारम्भ’, ‘तोड़ती पत्थर’ सामाजिक कविताएँ हैं। इस काव्य संग्रह में एक आख्यान काव्य ‘राम की शक्ति पूजा’ भी संग्रहित है। ‘सरोज स्मृति’ शोक गीत की परम्परा में एक नई कड़ी है। ‘जूही की कली’, ‘खुला आसमान’, ‘वन बेला’, ‘नरगिस’, ‘सम्राट अष्टम एडवर्ड के प्रति’, ‘दिल्ली’, ‘प्रिया से चुम्बन’, ‘आवेदन’, ‘हिन्दी के सुमनों के प्रति’ आदि कविताएँ इस संग्रह की मूल्यवान उपलब्धियाँ है।
  2. परिमल-‘परिमल’ (1930) में 1916 ई. से 1929 ई. तक की रचित कविताएँ संग्रहीत है। यह संग्रह तीन खण्डों में विभाजित है। ‘परिमल’ के प्रथम खण्ड में प्रकृति-चित्रण, जागरण-गीत, सम्बोधन गीत, दार्शनिक कविताओं आदि का अभूतपूर्व समावेश है। जैसे-’तुम और मैं’, ‘खेवा’, ‘षेश’, ‘पतनोन्मुख’, ‘वृित्त’, ‘प्रार्थना’, ‘अध्यात्म फल’, ‘मौन’, ‘प्रभाती’, ‘यमुना के प्रति’ आदि कविताएँ। ‘तुम और मैं’ कविता में ‘स्व’ एवं ‘पर’ का अनन्य सम्बन्ध की व्याख्या करते हुए अध्यात्म, पुराण, धर्म, दर्शन, इतिहास और जगत एवं माया आदि को एक सूत्र में बाँधा गया है। ‘मौन’ कविता में कवि ने अपने को अन्तर्जगत के सच्चे एवं असीम स्नेह को व्यक्त करने में असमर्थ पाते हैं। ‘प्रभाती’ कविता रात की कलियाँ को नष्ट करने वाले प्रभात के आगमन की सूचना देती है। ‘यमुना के प्रति’ कविता में कवि ने अतीत के गौरव का उल्लेख किया है। इस कविता में राधा-कृश्ण के माध्यम से नारी-पुरुष के संयोग-वियोग कल्पना द्वारा प्रकृति वर्णन के साथ ही श्रृंगार, माधुर्य और जीवन रहस्य की चर्चा करते हैं। 

    द्वितीय खण्ड में, कवि की भावना का निर्द्वन्द्व प्रसार मिलता है। इस खण्ड की रचनाएँ रहस्यवादी अधिक हैं। अधिकांश गीत जीवन की विभिन्न परिस्थितियों से सम्बन्धित हैं। इसमें ‘विधवा’, ‘सन्ध्या-सुंदरी’, ‘बादल राग’ (छ: खण्डों में )। ‘विधवा’ कविता में कवि भारत की विधवा स्त्री के दर्द भरे जीवन की झलक प्रस्तुत करते हैं। ‘सन्ध्या सुन्दरी’ कविता में कवि ‘सन्ध्या और रात्रि की नीरसता को अलग-अलग दृश्यों में व्यक्त करते हैं। ‘बादल राग’ कविता छ: भागों में विभाजित है। पहली कविता में बादल को किसान वर्ग एवं गरीब वर्ग में बरसने का निवेदन करते हैं। दूसरी कविता में तीव्र बरसने एवं उसका क्रांतिकारी रूप की झलक मिलती है। तीसरे खण्ड में अर्जुन के स्वर्ग और द्रौपदी को “यामा रूप में व्यक्त किया गया है। ‘बादल राग’ शीर्षक चौथी कविता में बादल को शिशु के समान मचलने वाला चंचल और क्रांतिकारी माना गया है। पाँचवीं कविता में दार्शनिक रूपक है। इसमें बादल को परिवर्तन चक्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है। 
    इस कविता में निर्गुण में सगुण रूप धारा करने और आकर्षक बन जाने की कथा है। छठी कविता में बादल के विप्लव रूप का विस्तार है। बादल अपनी इस रूप में नवजीवन का संचार करती है। तृतीय खण्ड की कविताएँ अधिकतर ‘अनामिका’ (प्रथम, 1922) की ही हैं। इसके अन्तर्गत ‘जुही की कली’, ‘जागृति में सुप्ति थी’, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’, ‘जागो फिर एक बार’, ‘जागरण’, ‘महाराज शिवाजी का पत्र‘ तथा ‘पंचवटी-प्रसंग’ आदि कविताएँ सम्मिलित है। ‘जुही की कली’ कवि की महत्त्वपूर्ण रचना है। इसमें ‘जूही की कली’ मानवीय सौन्दर्य के रूप में चित्रित है। ‘जागृति में सुप्त थी’ कविता ‘जुही की कली’ की भावना का अगला विकास है। कवि इस कविता द्वारा यह कहना चाहता है कि मनुष्य को किसी वस्तु परिस्थिति में आत्मलीन होते हुए भी अपने अस्तित्व का ज्ञान रखना चाहिए। ‘जागो फिर एक बार’ इस नाम से कवि ने दो कविताएँ लिखी। एक श्रृंगारपरक, जिसमें प्राकृतिक उपादानों से प्रेरित होकर जागरण गीत लिखे हैं। इसमें आकाश के तारे और तरुण किरण भी जागरण का गीत गाते हैं और दूसरी वीर भावना से ओत-प्रोत, इसके अन्र्तगत कवि ने भारतवासियों को अतीत की याद कराकर प्रोत्साहित करते हैं। ‘पंचवटी प्रसंग’ एक गीति नाट्य है। 
    इसमें पाँच खण्ड है। इसकी कथा पंचवटी में राम, सीता, लक्ष्मण को आकर्षित करने के प्रयास, राम की अनुमति से लक्ष्मण द्वारा सुपर्णनखा का नाक काटना और अंत में उसका विकराल रूप आदि पौराणिक कथा के माध्यम से निराला जी ने ज्ञान, भक्ति, कर्म का उपदेष राम के द्वारा प्रस्तुत करते हैं। ‘जागरण’ कविता में दर्षन की भावना है। इसमें कबीर आदि संतों के दर्षन में चैतन्य बोध झलकता है। ‘परिमल’ में कवि की प्रतिभा के विभिन्न पक्षों, “ौली के विभिन्न रूपों, भाशा के अनेक प्रयोगों के दर्षन हो जाते हैं।
  3. गीतिका-‘गीतिका’ निराला का दूसरा गीत संग्रह है। इसका प्रकाशन 1936 ई. में हुआ है। इसमें 101 गेय पदों की रचना संग्रहित है। ‘गीतिका’ के अधिकतर गीतों में प्रेम और सौन्दर्य की अभिव्यक्ति है। ‘गीतिका’ में ‘भारति जय विजय करे’, ‘कनक शस्य कमलधरे’, ‘बन्दू पद सुन्दर तव’ आदि राष्ट्रीय कविताएँ है। ‘भारति जय विजय करे’ कविता में कवि भारत की भौगोलिक वन्दना करते हुए स्वतंत्रता की माँग करते हैं। 

    इसमें भारत की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं भौगोलिक गरिमा की ओर संकेत करते हैं। इसके अलावा ‘मौन रही हार’, ‘प्रिय यामिनी जागो’, ‘कौन तम के पार’, ‘धन गर्जन से भर दो वन’, ‘सखी री डाल बसन बासन्ती लेगी’, ‘वर दे वीणा वादिनी वर दे’, ‘गुंजित जीवन झरना’, ‘जागा दिषा ज्ञान’ प्रमुख गीत है। ‘मौन रही हार’ कविता में कवि ने नायिका के मौन अभिसार का चित्रण किया है। मौन अभिसार करते हुए नायिका को अलंकरणों की ध्वनि सुनायी दे रही है। तब वह सोचती है कि मेरे प्रिय को भी मेरे आने का ज्ञान हो रहा होगा। अत: वह अपने समस्त लज्जा एवं असमंजस को त्यागकर प्रेमी के पास चली जा रही है। 

    यहाँ कवि सच्चे प्रेम के वैषिश्ट्य को दर्शाते हैं। ‘प्रिय यामिनी जागो’ कविता में कवि ऐसी नायिका का चित्रण करते हैं, जो प्रकृति के साथ सोई हुई है। ‘कौन तम के पार’ कविता में अनुभूति के स्तर पर दर्शन की व्याख्या है। इसमें कवि प्रत्येक वस्तु जड़ या चेतन में सूक्ष्म से स्थूल सभी में समरूपता का दर्शन देते हैं।
    उनका कहना है कि संसार में कुछ मंगल-अमंगल नहीं है। ‘घन गर्जन भर दो वन’ कविता में कवि बादलों के प्रति सम्भाव रखते हुए उसका आàान करते हैं। वह चाहते हैं कि बादल इतना तेज गरजे की पूरी पृथ्वी कम्पित हो जाए और बरस कर सारी पृथ्वी वन एवं खेत सभी को हरा भरा कर दे अर्थात सर्वत्र नवीन जीवन का संचार हो। ‘सखी री डाल बसन वासन्ती लेगी’ यह छोटी कविता है। इसमें कवि ने सूखे पेड़ और पार्वती की तपस्या में समरूपता स्थापित करने का प्रयास किया है। वसन्त के आगमन से जिस प्रकार सूखे पेड़ हरे-भरे एवं फल-फूलों से भरे जाते हैं, उसी प्रकार की स्थिति पार्वती की तपस्या से शिव के प्रसन्न होने पर भी होती है। इस कविता में प्रकृति एवं मानवीय वृित्त की एकरूपता लक्षित होती है। ‘वर दे वीणा वादिनी वर दे’ कविता में कवि माँ सरस्वती की वन्दना करते हुए प्रार्थना करते हैं कि माँ हमें आष्र्ाीवाद दीजिए कि हमारे अन्दर का अंधकार दूर हो जाये एवं मन की कलुशता समाप्त हो और हम स्वतंत्र हो। इस कविता में एक ओर स्वतंत्रता की कामना की गई है और दूसरी ओर सम्पूर्ण जीवन में नवीनता की इच्छा है। ‘गुंजित जीवन झरना’ में कवि ‘कुकुरमुत्ता’ (1942) एक कथा काव्य है। इसमें गुलाब और कुकुरमुत्ता का प्रतीकात्मक अर्थ ग्रहण कर एक सांकेतिक कथा लिखी गयी है। ‘कुकुरमुत्ता’ की कथा का आधार कवि की सामाजिक चेतना, यथार्थ दृष्टि तथा प्रगतिशील विचारधारा है। कवि समाज के उस ढाँचे पर अत्यधिक तीखे व्यंग्य करता है, जहाँ पूंजीपतियों का आधिपत्य है तथा दरिद्रों का शोषण एवं उपेक्षा होती है। ‘गुलाब’ उच्च वर्ग का तथा ‘कुकुरमुत्ता’ निम्न वर्ग का प्रतीक है। वास्तव में, कवि ने इसमें समाज की समस्याओं को सुलझाने एवं उसके लिए विकास-पथ खोजने की चेष्टा की है।

  4. झरना के माध्यम से मनुष्य को प्रेरणा लेने के लिए कहते हैं, जिस प्रकार झरना कठोर पत्थर की षिराओं से होते हुए, वह पृथ्वी की ओर आता है, लेकिन वह कभी अपने कश्टों के बारे में किसी से नहीं कहता, उसी प्रकार तुम भी अपने कश्टों को सहते हुए अपना कर्म करते रहो। ‘जागा दिषा ज्ञान’ कविता में कवि भारत के जागरण की बात करते हैं। इसे वह प्रकृति के माध्यम से रूपायित करते हैं।
  5. तुलसीदास-‘तुलसीदास’ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का सर्वश्रेष्ठ कथाकाव्य तथा हिन्दी का अत्यन्त उच्च कोटि का खण्ड काव्य है। प्रस्तुत काव्य तुलसीदास की प्राचीन लोक-विख्यात कथा पर आधारित है, जिसको कवि ने अपनी कल्पना के योग से नवीन रूप प्रदान किया है। प्रारम्भ में कवि ने आलंकारिक रूप में भारतीय संस्कृति के सांध्यकाल का चित्रण किया है। इस काव्य में तुलसी को एक सांस्कृतिक दायित्व के कवि रूप में स्थापित किया गया और रत्नावली के प्रसंग को मुख्य आधार बनाया गया। तुलसीदास की वस्तुयोजना नाटकीय गरिमा से पूर्ण है, इसकी कथावस्तु कई मोड़ों को पार करती हुई अन्तिम परिणति तक पहुँचती है। 

    वस्तुत: सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की इस रचना में छायावादी कला का विकसित और प्रौढ़ रूप दृष्टिगत होता है।
  6. कुकुरमुत्ता-‘कुकुरमुत्ता’ (1942) एक कथा काव्य है। इसमें गुलाब और कुकुरमुत्ता का प्रतीकात्मक अर्थ ग्रहण कर एक सांकेतिक कथा लिखी गयी है। ‘कुकुरमुत्ता’ की कथा का आधार कवि की सामाजिक चेतना, यथार्थ दृष्टि तथा प्रगतिशील विचारधारा है। कवि समाज के उस ढाँचे पर अत्यधिक तीखे व्यंग्य करता है, जहाँ पूंजीपतियों का आधिपत्य है तथा दरिद्रों का शोषण एवं उपेक्षा होती है। ‘गुलाब’ उच्च वर्ग का तथा ‘कुकुरमुत्ता’ निम्न वर्ग का प्रतीक है। वास्तव में, कवि ने इसमें समाज की समस्याओं को सुलझाने एवं उसके लिए विकास-पथ खोजने की चेष्टा की है।

  7. अणिमा-‘अणिमा’ (1943) कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला द्वारा रचित पद्य संग्रह है। यह कविता संग्रह ‘संधिकालीन कही जा सकती है, क्योंकि इसमें एक ओर छायावादयुगीन रहस्यमयता, अतीत का गौरवगान और प्रकृति का विराट एवं रहस्यपूर्ण वर्णन है। दूसरी ओर इसमें भक्ति, निवेदन, ग्राम आदि का व्यंग्य है। इसके विचार मुख्यत: सामाजिक हैं। द्वितीय महायुद्ध के प्रभावस्वरूप भारत में फैली निराशा और पराजय की भावना तथा सन् 1942 के अकाल से हुई देष की स्थिति ने कवि को प्रभावित किया है। ‘अणिमा’ में यथार्थवादी प्राकृतिक दृश्य भी प्राप्त हैं। 

    इसमें दार्षनिकता से पूर्ण कविताएँ भी हैं। ‘दलित जन पर’ कविता भक्तिपरक गीत है।
  8. बेला-‘बेला’ काव्य संग्रह (1946) में स्वतंत्र गीतों के अतिरिक्त अधिकतर गजल शैली की रचनायें हैं, जिन्हें निराला जी ने उर्दू के अनुकरण पर लिखा है। इस संग्रह में आध्यात्मिक, श्रृंगारिक, प्राकृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और देष प्रेम आदि से सम्बन्धित कविताएँ है। फिर भी प्रकृति सम्बन्धी गीतों की प्रधानता है।


  9. नये पत्ते-‘नये पत्ते’ (1946) सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की प्रगतिवादी तथा प्रयोगवादी रचनाओं का संग्रह है। इसमें व्यंग्य कविताओं की प्रधानता है। ‘गर्म पकौड़ी’, प्रेम संगीत’ कविताएँ में सामाजिक व्यंग्य है। इस संग्रह में ‘वर्षा’, ‘खजोहरा’, ‘स्फुटिक षिला’, ‘कैलाश में शरत’ आदि कविताएँ प्रकृति चित्रण प्रधान है।

    ‘अर्चना’, ‘आराधना’, गीतगुंज’ नामक काव्य संग्रह कवि की परवर्ती गीतों से आवृत है। इस काव्य संग्रहों में अनुभव और अभिव्यक्ति के सभी स्तर उपस्थित है। इसमें कवि ने सामान्य जन-जीवन एवं सूक्ष्म और सुकुमार संवेदना को उभारा है।
  10. अर्चना-‘अर्चना’ (1950) भक्तिपरक गीतों का संकलन है। गीतिका में जहाँ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी ने प्रेम तथा सौन्दर्य के गीत गाये, वहाँ ‘अर्चना’ में उन्होंने परमात्मा के चरणों में श्रद्धापूर्वक निवेदन किया। ‘दुरित दूर करो नाथ’ इस प्रार्थनापरक गीत में कवि मंगलमय विभु से जीवन से कष्टों एवं संकटों से मुक्ति की याचना एवं प्रार्थना करता है।

  11. आराधना-‘आराधना’ (1950) प्रार्थनापरक गीति-संग्रह है। किन्तु स्थान-स्थान पर जागरण और राष्ट्रीय भावना से युक्त गीत भी मिल जाते हैं। ‘आराधना’ तथा ‘अर्चना’ एक ही शैली की रचनाएँ हैं। यह काव्य संग्रह ‘अर्चना’ का ही अग्रिम रूप है। ‘आराधना’ में प्रथम गीत ‘सरस्वती-वन्दना’ का है, जिसमें कवि पंत माँ सरस्वती से वरदान स्वरूप समस्त विश्व के लिए नवीनता की इच्छा प्रकट करते हैं।

  12. गीतगुंज-‘गीतगुंज’ (1954) सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी के जीवनकाल का अन्तिम गीत संग्रह है। विषय की दृष्टि से ‘गीतगुंज’ में भक्ति, श्रृंगार, प्रकृति एवं व्यंग्य विषयक गीत है। कवि के मन का उल्लास और वेदना ‘गीतगुंज’ के गीतों में समाविष्ट हैं। ‘बुझी न दिल की लगी’ में कवि की निराशा तथा ‘फिर उपवन में खिली चमेली’ में मन के उल्लास का अंकन है। ‘षाम तुम्हारा गरज उठे सौ-सौ बादल’, ‘जिधर देखिए “याम विराजे’ इत्यादि रचनाओं में रहस्यवादी विचारधारा परिलक्षित होती है।

  13. अपरा-‘अनामिका’, ‘गीतिका’, ‘अर्चना’, ‘आराधना’, ‘तुलसीदास’ तथा ‘अणिमा’ के प्रौढ़तम अंषों को चुनकर ‘अपरा’ काव्य संग्रह पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया गया है। इस पुस्तक में कवि के सभी भावों तथा विचारों, अभिव्यंजना के सभी स्वरूपों, भाषा एवं छन्दों के सभी प्रकार के उदाहरणों को एकत्र करने का सुन्दर प्रयास किया गया है।

  14. सांध्य काकली-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का यह संग्रह उनकी मृत्यु के बाद 1969 ई. प्रकाशित किया गया है। यह कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का अंतिम काव्य संग्रह है। इसमें ‘पत्रोत्कंठित जीवन का विश बुझा हुआ है’ कविता सर्वाधिक विशाद की व्यंजना प्रकट करते हैं। कवि अपने बुढ़ापे के बारे में सोचते हैं। इस सांध्य बेला में भी असंतोष की छटपटाहट नहीं है, बल्कि संतोष की भ्रांति है। यह कवि की अंतिम कविता है।

    सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का काव्य संकलन प्रत्येक युग का दर्पण है, जिसमें छायावाद का रूप स्पष्ट दिखाई देता है। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने केवल कविताओं और गीतों की रचना नहीं की, बल्कि उन्होंने कहानी, उपन्यास, निबंध, रेखाचित्र, आलोचना आदि गद्य विधाओं में भी लेखनी चलाई है। वे सर्वप्रथम कहानी लेखन की ओर आकृष्ट हुए।उनका तीन कहानी संग्रह महत्त्वपूर्ण है। जिसमें कुल बीस कहानियाँ संग्रहित है। इनकी कहानियों का प्रथम संग्रह ‘लिली’ 1922 में प्रकाशित हुई। जिसमें आठ कहानियाँ संग्रहित है। ‘पद्मा और लिली’, ‘ष्यामा’, ‘ज्योर्तिमयी’ और ‘कमला’ प्रसिद्ध कहानियाँ है।
    सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का दूसरी कहानी संग्रह ‘चतुरी चमार’ है। इसमें कुल आठ कहानियाँ संकलित है। इसमें तीन कहानियाँ ‘चतुरी चमार’, ‘देवी’, ‘स्वामी सारदानन्द जी महाराज और मैं’ कहानी निराला जी के जीवन से सम्बन्धित है। इसके अलावा ‘सखी’, ‘सफलता’, ‘राजा साहब को ठेगा दिखाया’, ‘भक्त और भगवान’ प्रमुख कहानियाँ है। निराला जी की तीसरी कहानी संग्रह ‘सुकुल की बीवी’ है। इस संग्रह में निराला जी की पहली कहानी ‘क्या देखे और’, ‘श्रीमती गजानन्द शास्त्री जी’, ‘प्रेमिका परिचय’, ‘कला की रूप रेखा’ और ‘सुकुल की बीवी’ आदि कहानी संग्रहित है। इस संग्रह में सुकुल की बीवी कहानी सबसे प्रिय है।सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी ने छ: उपन्यासों की रचना की है। जिसमें चार पूर्ण है और दो अपूर्ण है। जिसमें ‘अप्सरा’ (1931), ‘अलका’ (1933), 3. निरूपमा (1936), 4. प्रभावती (1936) पूर्ण उपन्यास है। ‘चोटी की पकड़’ (1943), ‘काले कारनामे’ (1950) अपूर्ण उपन्यास है। ‘काले कारनामे’ निराला जी का अंतिम उपन्यास है। निराला जी के उपन्यासों में देष सेवा, समाज सुधार, स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न, प्रेम, रोमांस एवं नारी शक्ति का परिचय मिलता है।
    ‘कुल्लीभाट’ निराला जी का संस्मरणात्मक रेखाचित्र है। इसमें निराला के स्वयं के जीवन की झलक दिखती है।‘बिल्लेसुर बकरिहा’ निराला जी का हास्य-व्यंग्य से सम्बन्धित है। इसमें सामाजिक रूढ़ियों, धार्मिक ढोंग एवं आर्थिक दीनता का यथार्थ चित्रण है।सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी के निबंधों में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, साहित्यिक व धार्मिक सभी तरह के निबन्धों की रचना की। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी के सभी निबंध ‘प्रतिभा’, ‘प्रबन्ध पद्य’, ‘चाबुक चयन संग्रह’ एवं भावुक आदि संग्रहों में उपलब्ध है। इनका सर्वश्रेष्ठ निबंध ‘पंत जी और पल्लव’ है।

परीक्षा के एक दिन पूर्व दो मित्रों की बातचीत का संवाद लेखन कीजिए-

संवाद लेखन किसे कहते हैं  संवाद लेखन -  वह लेखनी है जिसमें दो या अधिक व्यक्तियों के बीच होने वाली बातचीत को लिखित रूप में व्यक्त किया जाता ह...