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सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की प्रमुख रचनाएँ

                                              सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जीवन परिचय

 


सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म सन् 1896 ई. में बसन्त पंचमी के दिन बंगाल के महिषादल नामक स्थान पर हुआ। निराला की जन्म तिथि के विषय में विद्वान में पर्याप्त मतभेद भी पाये जाते है। निराला के पिता पं. राम सहाय, गढ़ा कोला, जिला उन्नाव के रहने वाले थे आर्थिक परिस्थिति के कारण कलकत्ता में जाकर पुलिस के सिपाही बन गए। 

    सन 1920 ईस्वी में राज्य की नौकरी छोड़कर पूर्ण संकल्प से निराला ने साहित्यिक जीवन में प्रवेश किया और अन्त तक उसी को ही अपना जीवन मानकर चले। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की मृत्यु 15 अक्तूबर, 1961 को हुई ।

                    सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की प्रमुख रचनाएँ 


कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने गद्य व पद्य लगभग सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलाई है। उनके छायावादी काव्य संग्रह में ‘अनामिका’ (1922 ई.), ‘परिमल’ (1930 ई.), ‘गीतिका’ (1936 ई.), ‘तुलसीदास’ (1938 ई.) आदि रचनाएँ सम्मिलित है। अन्य काव्य संग्रहों में ‘कुकुरमुत्ता’ (1942 ई.), ‘अणिमा’ (1943 ई.), ‘बेला’ (1946 ई.), ‘नये पत्ते’ (1946 ई.), ‘अर्चना’ (1950 ई.), ‘आराधना’ (1950 ई.), ‘गीतगुंज’ (1954 ई), ‘अपरा’ (1969 ई.), ‘सांध्य काकली’ (1969 ई.) आदि प्रमुख है। इसके अलावा उन्होंने कहानी, उपन्यास, निबंध, जीवनी, रेखाचित्र व आलोचनात्मकपरक रचनाएँ भी लिखी है जिनका विवरण इस प्रकार है-
  1. अनामिका (1922 ई.)
  2. परिमल (1930 ई.)
  3. गीतिका (1936 ई.)
  4. तुलसीदास (1938 ई.) 
  5. ‘कुकुरमुत्ता (1942 ई.)
  6. अणिमा (1943 ई.)
  7. बेला (1946 ई.)
  8. नये पत्ते (1946 ई.)
  9. अर्चना (1950 ई.)
  10. आराधना (1950 ई.)
  11. गीतगुंज (1954 ई)
  12. अपरा (1969 ई.)
  13. सांध्य काकली (1969 ई.)   


  1. अनामिका -सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का प्रथम काव्य संग्रह ‘अनामिका’ सन् 1922 ई. में प्रकाशित हुआ था। जिसमें कुल सात कविताएँ थीं, जो बाद में अन्य संकलनों में सम्मिलित हो गयी। अनामिका की ‘प्रेयसी’, ‘प्रेम के प्रति’, ‘रेखा’, ‘प्याला’, ‘मरण दृष्य’, ‘अपराजिता’, ‘प्राप्ति’, ‘नारायण मिले हंस’ आदि रचनायें रहस्यात्मक कवितायें हैं। इसके अतिरिक्त ‘सेवा प्रारम्भ’, ‘तोड़ती पत्थर’ सामाजिक कविताएँ हैं। इस काव्य संग्रह में एक आख्यान काव्य ‘राम की शक्ति पूजा’ भी संग्रहित है। ‘सरोज स्मृति’ शोक गीत की परम्परा में एक नई कड़ी है। ‘जूही की कली’, ‘खुला आसमान’, ‘वन बेला’, ‘नरगिस’, ‘सम्राट अष्टम एडवर्ड के प्रति’, ‘दिल्ली’, ‘प्रिया से चुम्बन’, ‘आवेदन’, ‘हिन्दी के सुमनों के प्रति’ आदि कविताएँ इस संग्रह की मूल्यवान उपलब्धियाँ है।
  2. परिमल-‘परिमल’ (1930) में 1916 ई. से 1929 ई. तक की रचित कविताएँ संग्रहीत है। यह संग्रह तीन खण्डों में विभाजित है। ‘परिमल’ के प्रथम खण्ड में प्रकृति-चित्रण, जागरण-गीत, सम्बोधन गीत, दार्शनिक कविताओं आदि का अभूतपूर्व समावेश है। जैसे-’तुम और मैं’, ‘खेवा’, ‘षेश’, ‘पतनोन्मुख’, ‘वृित्त’, ‘प्रार्थना’, ‘अध्यात्म फल’, ‘मौन’, ‘प्रभाती’, ‘यमुना के प्रति’ आदि कविताएँ। ‘तुम और मैं’ कविता में ‘स्व’ एवं ‘पर’ का अनन्य सम्बन्ध की व्याख्या करते हुए अध्यात्म, पुराण, धर्म, दर्शन, इतिहास और जगत एवं माया आदि को एक सूत्र में बाँधा गया है। ‘मौन’ कविता में कवि ने अपने को अन्तर्जगत के सच्चे एवं असीम स्नेह को व्यक्त करने में असमर्थ पाते हैं। ‘प्रभाती’ कविता रात की कलियाँ को नष्ट करने वाले प्रभात के आगमन की सूचना देती है। ‘यमुना के प्रति’ कविता में कवि ने अतीत के गौरव का उल्लेख किया है। इस कविता में राधा-कृश्ण के माध्यम से नारी-पुरुष के संयोग-वियोग कल्पना द्वारा प्रकृति वर्णन के साथ ही श्रृंगार, माधुर्य और जीवन रहस्य की चर्चा करते हैं। 

    द्वितीय खण्ड में, कवि की भावना का निर्द्वन्द्व प्रसार मिलता है। इस खण्ड की रचनाएँ रहस्यवादी अधिक हैं। अधिकांश गीत जीवन की विभिन्न परिस्थितियों से सम्बन्धित हैं। इसमें ‘विधवा’, ‘सन्ध्या-सुंदरी’, ‘बादल राग’ (छ: खण्डों में )। ‘विधवा’ कविता में कवि भारत की विधवा स्त्री के दर्द भरे जीवन की झलक प्रस्तुत करते हैं। ‘सन्ध्या सुन्दरी’ कविता में कवि ‘सन्ध्या और रात्रि की नीरसता को अलग-अलग दृश्यों में व्यक्त करते हैं। ‘बादल राग’ कविता छ: भागों में विभाजित है। पहली कविता में बादल को किसान वर्ग एवं गरीब वर्ग में बरसने का निवेदन करते हैं। दूसरी कविता में तीव्र बरसने एवं उसका क्रांतिकारी रूप की झलक मिलती है। तीसरे खण्ड में अर्जुन के स्वर्ग और द्रौपदी को “यामा रूप में व्यक्त किया गया है। ‘बादल राग’ शीर्षक चौथी कविता में बादल को शिशु के समान मचलने वाला चंचल और क्रांतिकारी माना गया है। पाँचवीं कविता में दार्शनिक रूपक है। इसमें बादल को परिवर्तन चक्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है। 
    इस कविता में निर्गुण में सगुण रूप धारा करने और आकर्षक बन जाने की कथा है। छठी कविता में बादल के विप्लव रूप का विस्तार है। बादल अपनी इस रूप में नवजीवन का संचार करती है। तृतीय खण्ड की कविताएँ अधिकतर ‘अनामिका’ (प्रथम, 1922) की ही हैं। इसके अन्तर्गत ‘जुही की कली’, ‘जागृति में सुप्ति थी’, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’, ‘जागो फिर एक बार’, ‘जागरण’, ‘महाराज शिवाजी का पत्र‘ तथा ‘पंचवटी-प्रसंग’ आदि कविताएँ सम्मिलित है। ‘जुही की कली’ कवि की महत्त्वपूर्ण रचना है। इसमें ‘जूही की कली’ मानवीय सौन्दर्य के रूप में चित्रित है। ‘जागृति में सुप्त थी’ कविता ‘जुही की कली’ की भावना का अगला विकास है। कवि इस कविता द्वारा यह कहना चाहता है कि मनुष्य को किसी वस्तु परिस्थिति में आत्मलीन होते हुए भी अपने अस्तित्व का ज्ञान रखना चाहिए। ‘जागो फिर एक बार’ इस नाम से कवि ने दो कविताएँ लिखी। एक श्रृंगारपरक, जिसमें प्राकृतिक उपादानों से प्रेरित होकर जागरण गीत लिखे हैं। इसमें आकाश के तारे और तरुण किरण भी जागरण का गीत गाते हैं और दूसरी वीर भावना से ओत-प्रोत, इसके अन्र्तगत कवि ने भारतवासियों को अतीत की याद कराकर प्रोत्साहित करते हैं। ‘पंचवटी प्रसंग’ एक गीति नाट्य है। 
    इसमें पाँच खण्ड है। इसकी कथा पंचवटी में राम, सीता, लक्ष्मण को आकर्षित करने के प्रयास, राम की अनुमति से लक्ष्मण द्वारा सुपर्णनखा का नाक काटना और अंत में उसका विकराल रूप आदि पौराणिक कथा के माध्यम से निराला जी ने ज्ञान, भक्ति, कर्म का उपदेष राम के द्वारा प्रस्तुत करते हैं। ‘जागरण’ कविता में दर्षन की भावना है। इसमें कबीर आदि संतों के दर्षन में चैतन्य बोध झलकता है। ‘परिमल’ में कवि की प्रतिभा के विभिन्न पक्षों, “ौली के विभिन्न रूपों, भाशा के अनेक प्रयोगों के दर्षन हो जाते हैं।
  3. गीतिका-‘गीतिका’ निराला का दूसरा गीत संग्रह है। इसका प्रकाशन 1936 ई. में हुआ है। इसमें 101 गेय पदों की रचना संग्रहित है। ‘गीतिका’ के अधिकतर गीतों में प्रेम और सौन्दर्य की अभिव्यक्ति है। ‘गीतिका’ में ‘भारति जय विजय करे’, ‘कनक शस्य कमलधरे’, ‘बन्दू पद सुन्दर तव’ आदि राष्ट्रीय कविताएँ है। ‘भारति जय विजय करे’ कविता में कवि भारत की भौगोलिक वन्दना करते हुए स्वतंत्रता की माँग करते हैं। 

    इसमें भारत की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं भौगोलिक गरिमा की ओर संकेत करते हैं। इसके अलावा ‘मौन रही हार’, ‘प्रिय यामिनी जागो’, ‘कौन तम के पार’, ‘धन गर्जन से भर दो वन’, ‘सखी री डाल बसन बासन्ती लेगी’, ‘वर दे वीणा वादिनी वर दे’, ‘गुंजित जीवन झरना’, ‘जागा दिषा ज्ञान’ प्रमुख गीत है। ‘मौन रही हार’ कविता में कवि ने नायिका के मौन अभिसार का चित्रण किया है। मौन अभिसार करते हुए नायिका को अलंकरणों की ध्वनि सुनायी दे रही है। तब वह सोचती है कि मेरे प्रिय को भी मेरे आने का ज्ञान हो रहा होगा। अत: वह अपने समस्त लज्जा एवं असमंजस को त्यागकर प्रेमी के पास चली जा रही है। 

    यहाँ कवि सच्चे प्रेम के वैषिश्ट्य को दर्शाते हैं। ‘प्रिय यामिनी जागो’ कविता में कवि ऐसी नायिका का चित्रण करते हैं, जो प्रकृति के साथ सोई हुई है। ‘कौन तम के पार’ कविता में अनुभूति के स्तर पर दर्शन की व्याख्या है। इसमें कवि प्रत्येक वस्तु जड़ या चेतन में सूक्ष्म से स्थूल सभी में समरूपता का दर्शन देते हैं।
    उनका कहना है कि संसार में कुछ मंगल-अमंगल नहीं है। ‘घन गर्जन भर दो वन’ कविता में कवि बादलों के प्रति सम्भाव रखते हुए उसका आàान करते हैं। वह चाहते हैं कि बादल इतना तेज गरजे की पूरी पृथ्वी कम्पित हो जाए और बरस कर सारी पृथ्वी वन एवं खेत सभी को हरा भरा कर दे अर्थात सर्वत्र नवीन जीवन का संचार हो। ‘सखी री डाल बसन वासन्ती लेगी’ यह छोटी कविता है। इसमें कवि ने सूखे पेड़ और पार्वती की तपस्या में समरूपता स्थापित करने का प्रयास किया है। वसन्त के आगमन से जिस प्रकार सूखे पेड़ हरे-भरे एवं फल-फूलों से भरे जाते हैं, उसी प्रकार की स्थिति पार्वती की तपस्या से शिव के प्रसन्न होने पर भी होती है। इस कविता में प्रकृति एवं मानवीय वृित्त की एकरूपता लक्षित होती है। ‘वर दे वीणा वादिनी वर दे’ कविता में कवि माँ सरस्वती की वन्दना करते हुए प्रार्थना करते हैं कि माँ हमें आष्र्ाीवाद दीजिए कि हमारे अन्दर का अंधकार दूर हो जाये एवं मन की कलुशता समाप्त हो और हम स्वतंत्र हो। इस कविता में एक ओर स्वतंत्रता की कामना की गई है और दूसरी ओर सम्पूर्ण जीवन में नवीनता की इच्छा है। ‘गुंजित जीवन झरना’ में कवि ‘कुकुरमुत्ता’ (1942) एक कथा काव्य है। इसमें गुलाब और कुकुरमुत्ता का प्रतीकात्मक अर्थ ग्रहण कर एक सांकेतिक कथा लिखी गयी है। ‘कुकुरमुत्ता’ की कथा का आधार कवि की सामाजिक चेतना, यथार्थ दृष्टि तथा प्रगतिशील विचारधारा है। कवि समाज के उस ढाँचे पर अत्यधिक तीखे व्यंग्य करता है, जहाँ पूंजीपतियों का आधिपत्य है तथा दरिद्रों का शोषण एवं उपेक्षा होती है। ‘गुलाब’ उच्च वर्ग का तथा ‘कुकुरमुत्ता’ निम्न वर्ग का प्रतीक है। वास्तव में, कवि ने इसमें समाज की समस्याओं को सुलझाने एवं उसके लिए विकास-पथ खोजने की चेष्टा की है।

  4. झरना के माध्यम से मनुष्य को प्रेरणा लेने के लिए कहते हैं, जिस प्रकार झरना कठोर पत्थर की षिराओं से होते हुए, वह पृथ्वी की ओर आता है, लेकिन वह कभी अपने कश्टों के बारे में किसी से नहीं कहता, उसी प्रकार तुम भी अपने कश्टों को सहते हुए अपना कर्म करते रहो। ‘जागा दिषा ज्ञान’ कविता में कवि भारत के जागरण की बात करते हैं। इसे वह प्रकृति के माध्यम से रूपायित करते हैं।
  5. तुलसीदास-‘तुलसीदास’ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का सर्वश्रेष्ठ कथाकाव्य तथा हिन्दी का अत्यन्त उच्च कोटि का खण्ड काव्य है। प्रस्तुत काव्य तुलसीदास की प्राचीन लोक-विख्यात कथा पर आधारित है, जिसको कवि ने अपनी कल्पना के योग से नवीन रूप प्रदान किया है। प्रारम्भ में कवि ने आलंकारिक रूप में भारतीय संस्कृति के सांध्यकाल का चित्रण किया है। इस काव्य में तुलसी को एक सांस्कृतिक दायित्व के कवि रूप में स्थापित किया गया और रत्नावली के प्रसंग को मुख्य आधार बनाया गया। तुलसीदास की वस्तुयोजना नाटकीय गरिमा से पूर्ण है, इसकी कथावस्तु कई मोड़ों को पार करती हुई अन्तिम परिणति तक पहुँचती है। 

    वस्तुत: सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की इस रचना में छायावादी कला का विकसित और प्रौढ़ रूप दृष्टिगत होता है।
  6. कुकुरमुत्ता-‘कुकुरमुत्ता’ (1942) एक कथा काव्य है। इसमें गुलाब और कुकुरमुत्ता का प्रतीकात्मक अर्थ ग्रहण कर एक सांकेतिक कथा लिखी गयी है। ‘कुकुरमुत्ता’ की कथा का आधार कवि की सामाजिक चेतना, यथार्थ दृष्टि तथा प्रगतिशील विचारधारा है। कवि समाज के उस ढाँचे पर अत्यधिक तीखे व्यंग्य करता है, जहाँ पूंजीपतियों का आधिपत्य है तथा दरिद्रों का शोषण एवं उपेक्षा होती है। ‘गुलाब’ उच्च वर्ग का तथा ‘कुकुरमुत्ता’ निम्न वर्ग का प्रतीक है। वास्तव में, कवि ने इसमें समाज की समस्याओं को सुलझाने एवं उसके लिए विकास-पथ खोजने की चेष्टा की है।

  7. अणिमा-‘अणिमा’ (1943) कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला द्वारा रचित पद्य संग्रह है। यह कविता संग्रह ‘संधिकालीन कही जा सकती है, क्योंकि इसमें एक ओर छायावादयुगीन रहस्यमयता, अतीत का गौरवगान और प्रकृति का विराट एवं रहस्यपूर्ण वर्णन है। दूसरी ओर इसमें भक्ति, निवेदन, ग्राम आदि का व्यंग्य है। इसके विचार मुख्यत: सामाजिक हैं। द्वितीय महायुद्ध के प्रभावस्वरूप भारत में फैली निराशा और पराजय की भावना तथा सन् 1942 के अकाल से हुई देष की स्थिति ने कवि को प्रभावित किया है। ‘अणिमा’ में यथार्थवादी प्राकृतिक दृश्य भी प्राप्त हैं। 

    इसमें दार्षनिकता से पूर्ण कविताएँ भी हैं। ‘दलित जन पर’ कविता भक्तिपरक गीत है।
  8. बेला-‘बेला’ काव्य संग्रह (1946) में स्वतंत्र गीतों के अतिरिक्त अधिकतर गजल शैली की रचनायें हैं, जिन्हें निराला जी ने उर्दू के अनुकरण पर लिखा है। इस संग्रह में आध्यात्मिक, श्रृंगारिक, प्राकृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और देष प्रेम आदि से सम्बन्धित कविताएँ है। फिर भी प्रकृति सम्बन्धी गीतों की प्रधानता है।


  9. नये पत्ते-‘नये पत्ते’ (1946) सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की प्रगतिवादी तथा प्रयोगवादी रचनाओं का संग्रह है। इसमें व्यंग्य कविताओं की प्रधानता है। ‘गर्म पकौड़ी’, प्रेम संगीत’ कविताएँ में सामाजिक व्यंग्य है। इस संग्रह में ‘वर्षा’, ‘खजोहरा’, ‘स्फुटिक षिला’, ‘कैलाश में शरत’ आदि कविताएँ प्रकृति चित्रण प्रधान है।

    ‘अर्चना’, ‘आराधना’, गीतगुंज’ नामक काव्य संग्रह कवि की परवर्ती गीतों से आवृत है। इस काव्य संग्रहों में अनुभव और अभिव्यक्ति के सभी स्तर उपस्थित है। इसमें कवि ने सामान्य जन-जीवन एवं सूक्ष्म और सुकुमार संवेदना को उभारा है।
  10. अर्चना-‘अर्चना’ (1950) भक्तिपरक गीतों का संकलन है। गीतिका में जहाँ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी ने प्रेम तथा सौन्दर्य के गीत गाये, वहाँ ‘अर्चना’ में उन्होंने परमात्मा के चरणों में श्रद्धापूर्वक निवेदन किया। ‘दुरित दूर करो नाथ’ इस प्रार्थनापरक गीत में कवि मंगलमय विभु से जीवन से कष्टों एवं संकटों से मुक्ति की याचना एवं प्रार्थना करता है।

  11. आराधना-‘आराधना’ (1950) प्रार्थनापरक गीति-संग्रह है। किन्तु स्थान-स्थान पर जागरण और राष्ट्रीय भावना से युक्त गीत भी मिल जाते हैं। ‘आराधना’ तथा ‘अर्चना’ एक ही शैली की रचनाएँ हैं। यह काव्य संग्रह ‘अर्चना’ का ही अग्रिम रूप है। ‘आराधना’ में प्रथम गीत ‘सरस्वती-वन्दना’ का है, जिसमें कवि पंत माँ सरस्वती से वरदान स्वरूप समस्त विश्व के लिए नवीनता की इच्छा प्रकट करते हैं।

  12. गीतगुंज-‘गीतगुंज’ (1954) सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी के जीवनकाल का अन्तिम गीत संग्रह है। विषय की दृष्टि से ‘गीतगुंज’ में भक्ति, श्रृंगार, प्रकृति एवं व्यंग्य विषयक गीत है। कवि के मन का उल्लास और वेदना ‘गीतगुंज’ के गीतों में समाविष्ट हैं। ‘बुझी न दिल की लगी’ में कवि की निराशा तथा ‘फिर उपवन में खिली चमेली’ में मन के उल्लास का अंकन है। ‘षाम तुम्हारा गरज उठे सौ-सौ बादल’, ‘जिधर देखिए “याम विराजे’ इत्यादि रचनाओं में रहस्यवादी विचारधारा परिलक्षित होती है।

  13. अपरा-‘अनामिका’, ‘गीतिका’, ‘अर्चना’, ‘आराधना’, ‘तुलसीदास’ तथा ‘अणिमा’ के प्रौढ़तम अंषों को चुनकर ‘अपरा’ काव्य संग्रह पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया गया है। इस पुस्तक में कवि के सभी भावों तथा विचारों, अभिव्यंजना के सभी स्वरूपों, भाषा एवं छन्दों के सभी प्रकार के उदाहरणों को एकत्र करने का सुन्दर प्रयास किया गया है।

  14. सांध्य काकली-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का यह संग्रह उनकी मृत्यु के बाद 1969 ई. प्रकाशित किया गया है। यह कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का अंतिम काव्य संग्रह है। इसमें ‘पत्रोत्कंठित जीवन का विश बुझा हुआ है’ कविता सर्वाधिक विशाद की व्यंजना प्रकट करते हैं। कवि अपने बुढ़ापे के बारे में सोचते हैं। इस सांध्य बेला में भी असंतोष की छटपटाहट नहीं है, बल्कि संतोष की भ्रांति है। यह कवि की अंतिम कविता है।

    सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का काव्य संकलन प्रत्येक युग का दर्पण है, जिसमें छायावाद का रूप स्पष्ट दिखाई देता है। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने केवल कविताओं और गीतों की रचना नहीं की, बल्कि उन्होंने कहानी, उपन्यास, निबंध, रेखाचित्र, आलोचना आदि गद्य विधाओं में भी लेखनी चलाई है। वे सर्वप्रथम कहानी लेखन की ओर आकृष्ट हुए।उनका तीन कहानी संग्रह महत्त्वपूर्ण है। जिसमें कुल बीस कहानियाँ संग्रहित है। इनकी कहानियों का प्रथम संग्रह ‘लिली’ 1922 में प्रकाशित हुई। जिसमें आठ कहानियाँ संग्रहित है। ‘पद्मा और लिली’, ‘ष्यामा’, ‘ज्योर्तिमयी’ और ‘कमला’ प्रसिद्ध कहानियाँ है।
    सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी का दूसरी कहानी संग्रह ‘चतुरी चमार’ है। इसमें कुल आठ कहानियाँ संकलित है। इसमें तीन कहानियाँ ‘चतुरी चमार’, ‘देवी’, ‘स्वामी सारदानन्द जी महाराज और मैं’ कहानी निराला जी के जीवन से सम्बन्धित है। इसके अलावा ‘सखी’, ‘सफलता’, ‘राजा साहब को ठेगा दिखाया’, ‘भक्त और भगवान’ प्रमुख कहानियाँ है। निराला जी की तीसरी कहानी संग्रह ‘सुकुल की बीवी’ है। इस संग्रह में निराला जी की पहली कहानी ‘क्या देखे और’, ‘श्रीमती गजानन्द शास्त्री जी’, ‘प्रेमिका परिचय’, ‘कला की रूप रेखा’ और ‘सुकुल की बीवी’ आदि कहानी संग्रहित है। इस संग्रह में सुकुल की बीवी कहानी सबसे प्रिय है।सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी ने छ: उपन्यासों की रचना की है। जिसमें चार पूर्ण है और दो अपूर्ण है। जिसमें ‘अप्सरा’ (1931), ‘अलका’ (1933), 3. निरूपमा (1936), 4. प्रभावती (1936) पूर्ण उपन्यास है। ‘चोटी की पकड़’ (1943), ‘काले कारनामे’ (1950) अपूर्ण उपन्यास है। ‘काले कारनामे’ निराला जी का अंतिम उपन्यास है। निराला जी के उपन्यासों में देष सेवा, समाज सुधार, स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न, प्रेम, रोमांस एवं नारी शक्ति का परिचय मिलता है।
    ‘कुल्लीभाट’ निराला जी का संस्मरणात्मक रेखाचित्र है। इसमें निराला के स्वयं के जीवन की झलक दिखती है।‘बिल्लेसुर बकरिहा’ निराला जी का हास्य-व्यंग्य से सम्बन्धित है। इसमें सामाजिक रूढ़ियों, धार्मिक ढोंग एवं आर्थिक दीनता का यथार्थ चित्रण है।सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी के निबंधों में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, साहित्यिक व धार्मिक सभी तरह के निबन्धों की रचना की। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी के सभी निबंध ‘प्रतिभा’, ‘प्रबन्ध पद्य’, ‘चाबुक चयन संग्रह’ एवं भावुक आदि संग्रहों में उपलब्ध है। इनका सर्वश्रेष्ठ निबंध ‘पंत जी और पल्लव’ है।

मेघ आए कविता की व्याख्या

                                                        सर्वेश्वर दयाल सक्सेना 



  सर्वेश्वरदयाल सक्सेना का जीवन परिचय- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना मूलतः कवि एवं साहित्यकार थे। उनका जन्म 15 सितंबर, 1927 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में हुआ था। उन्होंने इलाहाबाद में वाराणसी विश्वविद्यालय से हिंदी में एम.ए की पढ़ाई पूरी की। वे अपने जीवनकाल में कवि, लेखक, पत्रकार एवं नाटककार भी रहे। उनके अनुसार जिस देश के पास समृद्ध बाल-साहित्य नहीं है, उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं हो सकता। अपनी इस अग्रगामी सोच के साथ ही उन्होंने एक बाल-पत्रिका का सम्पादन भी किया। ‘दिनमान’ का कार्यभार संभालने के बाद उन्होंने समकालीन पत्रकारिता के सामने उपस्थित चुनौतियों को समझा और सामाजिक चेतना जगाने में अपना अतुलनीय योगदान दिया।



उनकी प्रमुख रचनाओं में ‘खूँटियों पर टंगे लोग’ (काव्य संग्रह), ‘पागल कुत्तों का मसीहा’ (लघु उपन्यास), ‘बकरी’ (नाटक), ‘बतूता का जूता’ (बाल साहित्य) आदि शामिल है। साहित्य में उनके योगदान के लिए उन्हें सन् 1983 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनकी रचनाओं में गाँव तथा शहर दोनों जगहों के जीवन का वर्णन मिलता है और उनकी भाषा हिंदी होने के कारण आम लोगों के लिए काफी सरल भी हैं।



                                            मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।

                                            आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली,

                                        दरवाजे-खिड़कियाँ खुलने लगीं गली-गली,

                                            पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के।

                                            मेघ आए बड़े बन-ठन के संवर के।

व्याख्या-प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने वर्षा-ऋतु के आने पर गांव में दिखाई देने वाले उत्साह का चित्रण किया है। कवि ने यहाँ बादल का मानवीकरण करके उसे एक दामाद (शहर से आये अतिथि) के रूप में दिखाया है। जिस प्रकार, कोई दामाद बड़ा ही सज-धज कर एवं बन-ठन कर अपने ससुराल जाता है, ठीक उसी प्रकार, मेघ भी बड़े बन-ठन कर और सुन्दर वेशभूषा धारण करके आये हैं। जैसे, किसी मेहमान (दामाद) के आने का संदेश, गांव के बच्चे एवं उनकी सालियाँ आगे-आगे दौड़कर पूरे गांव में फैला देते हैं, ठीक उसी तरह, हवा उनके आगे-आगे नाचती हुई पूरे गांव को यह सूचना देने लगी है कि गाँव में मेघ यानि बादल रूपी मेहमान आये हैं। यह सूचना पाकर गांव के सभी लोग अपने खिड़की-दरवाजे खोलकर उसे देखने एवं उसे निहारने के लिए घरों से बड़ी बेताबी से झांक रहे हैं।

इसका अर्थ यह है कि हर वर्ष हम वर्षा ऋतु का बहुत ही बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं। इसके आने पर सारा आकाश बादलों से ढक जाता है और सौंधी-सौंधी हवाएं चलने लगती हैं और सभी लोग घर से निकल कर वर्षा ऋतु का आनंद लेने लगते हैं।

                                            पेड़ झुक झाँकने लगे गरदन उचकाए,

                                            आंधी चली, धूल भागी घाघरा उठाये,

                                            बाँकी चितवन उठा, नदी ठिठकी, घूंघट सरके।

                                            मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।

व्याख्या-प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने वर्षा ऋतु के आने पर प्रकृति में आने वाले बदलावों का वर्णन किया है और उसका बहुत ही सुंदर ढंग से मानवीकरण किया है। कवि कहते हैं कि आसमान में बादल छाने के साथ आंधी आने पर धूल ऐसे उड़ने लगती है, मानो गांव की औरतें घाघरा उठाए दौड़ रही हों। साथ ही, हवा के चलने के कारण पेड़ ऐसे झुके हुए प्रतीत होते हैं, मानो वे अपनी गर्दन उचकाकर मेहमान को देखने की कोशिश कर रहे हैं। वहीँ दूसरी तरफ, नदी रूपी औरतें ठिठककर, अपने घूँघट सरकाए हुए तिरछी नज़रों से मेहमान को देख रही हैं।

इसका अर्थ यह है कि जब वर्षा होने वाली होती है, तो पहले थोड़ी तेज़ हवा या आंधी चलने लगती है। जिसके कारण रास्ते में पड़ी धूल उड़ने लगती है एवं हवा के वेग से वृक्ष झुक जाते हैं। इस अवस्था में नदी का पानी मानो ठहर-सा जाता है, जिसकी सुंदरता देखते ही बनती है।

                                            बूढ़े पीपल ने आगे बढ़कर जुहार की,

                                            ‘बरस बाद सुधि लीन्हीं’ –

                                            बोली अकुलाई लता ओट हो किवार की,

                                              हरसाया ताल लाया पानी परात भर के।

                                            मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।    

व्याख्या -प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने वर्षा ऋतु के आगमन एवं घर में दामाद के आगमन का बड़ा ही मनोरम चित्रण किया है। जब कोई दामाद बहुत दिनों के बाद घर आते हैं, तो घर के बड़े-बुजुर्ग उन्हें झुककर सम्मानपूर्वक प्रणाम करते हैं। इस दौरान उनकी जीवन संगिनी हठपूर्वक गुस्सा होकर दरवाजे के पीछे छुपकर कहती हैं – “आपने इतने दिनों से मेरे बारे में कोई सुध (खोज-खबर) क्यों नहीं ली? क्या इतने दिनों के बाद आपको मेरी याद आई?” साथ ही, जब हमारे घर में कोई अतिथि आता है, तो हम उसके पांव धुलाते हैं, इसीलिए कवि ने यहाँ पानी “परात भर के” का उपयोग किया है।

इसका अर्थ यह है कि वर्षों बाद घर आने पर बड़े-बुजुर्ग जिस तरह अपने दामाद का स्वागत करते हैं, ठीक उसी प्रकार पीपल का वृक्ष भी झुककर वर्षा ऋतु का स्वागत करता है। जल की बूंदों के लिए व्याकुल लताएं गुस्से से दरवाज़े के पीछे छिपकर मेघ से शिकायत कर रही हैं कि वो कब से प्यासी मेघ का इंतज़ार कर रही हैं और उन्हें अब आने का समय मिला है। बादलों के आने की ख़ुशी में तालाब उमड़ आया है और उसके पास जितना भी पानी है, वो उससे थके हुए मेघ के चरणों को धोना चाहता है।

                                            क्षितिज अटारी गहराई दामिनी दमकी,

                                            ‘क्षमा करो गाँठ खुल गई अब भरम की’,

                                            बाँध टूटा झर-झर मिलन के अश्रु ढरके।

                                            मेघ आए बड़े बन-ठन के सँवर के।

व्याख्या- :- उक्त पंक्तियों का अर्थ है कि अभी तक प्रेमिका को अपने प्रियतम के आने की ख़बर भ्रम लग रही थी, लेकिन जब वो आकर घर की छत पर चले जाते हैं, तो मानो प्रेमिका के अंदर बिजली-सी दौड़ उठती है। उन्हें देखकर प्रेमिका का भ्रम टूट जाता है और वह मन ही मन प्रेमी से क्षमा-याचना करने लगती है। फिर आपसी मिलन की अपार ख़ुशी के चलते दोनों प्रेमियों की आँखों से प्रेम के अश्रु बहने लगते हैं।

प्रस्तुत पंक्तियों में कवि कहता है कि पूरा आसमान बादलों से ढक चुका है और बिजली चमकने लगी है। इससे हमारे मन की ये आशंका दूर हो गयी है कि वर्षा नहीं होगी। इस विचार के साथ ही बादलों से बरसात होने लगती है और इस तरह जल बरसाते हुए बादल आकाश में बहुत ही सुन्दर लग रहे हैं। 

               

              

Monday

चंपा काले काले अक्षर नहीं चीन्हती कविता का सारांश

                      त्रिलोचन का जीवन परिचय                  

प्रगतिशील काव्य-धारा के प्रमुख कवि त्रिलोचन का जन्म 20 अगस्त 1917 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर के चिरानी पट्टी में हुआ। उनका मूल नाम वासुदेव सिंह था। उपाधि से वह त्रिलोचन ‘शास्त्री’ कहलाए। काशी से अँग्रेज़ी और लाहौर से संस्कृत की शिक्षा के बाद वह पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हुए। उन्हें अरबी और फ़ारसी भाषाओं का भी ज्ञान था। प्रभाकर, वानर, हंस, आज, समाज आदि पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। 

केदारनाथ सिंह उनका कवि-परिचय इन शब्दों में कराते हुए कहते हैं कि ‘‘त्रिलोचन एक विषम धरातल वाले कवि हैं। साथ ही उनके रचनात्मक व्यक्तित्व में एक विचित्र विरोधाभास भी दिखाई पड़ता है। एक ओर यदि उनके यहाँ गाँव की धरती का-सा ऊबड़खाबड़पन दिखाई पड़ेगा तो दूसरी ओर कला की दृष्टि से एक अद्भुत क्लासिकी कसाव या अनुशासन भी। त्रिलोचन की सहज-सरल-सी प्रतीत होने वाली कविताओं को भी यदि ध्यान से देखा जाए तो उनकी तह में अनुभव की कई परते खुलती दिखाई पड़ेंगी। त्रिलोचन के यहाँ आत्मपरक कविताओं की संख्या बहुत अधिक है। अपने बारे में हिंदी के शायद ही किसी कवि ने इतने रंगों में और इतनी कविताएँ लिखी हों। पर त्रिलोचन की आत्मपरक कविताएँ किसी भी स्तर पर आत्मग्रस्त कविताएँ नहीं हैं और यह उनकी गहरी यथार्थ-दृष्टि और कलात्मक क्षमता का सबसे बड़ा प्रमाण है। भाषा के प्रति त्रिलोचन एक बेहद सजग कवि हैं। त्रिलोचन की कविता में बोली के अपरिचित शब्द जितनी सहजता से आते हैं, कई बार संस्कृत के कठिन और लगभग प्रवाहच्युत शब्द भी उतनी ही सहजता से कविता में प्रवेश करते हैं और चुपचाप अपनी जगह बना लेते हैं।’’ 

त्रिलोचन को हिंदी में सॉनेट (अँग्रेज़ी छंद) को स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है। सॉनेट के अतिरिक्त उन्होंने गीत, बरवै, ग़ज़ल, चतुष्पदियाँ और कुछ कुंडलियाँ भी लिखी हैं। मुक्त छंद की छोटी और लंबी कविताएँ भी उनके पास है। काव्य रूपों के अलावे उन्होंने कहानी और आलोचना में भी योगदान किया। ‘धरती’ (1945), ‘दिगंत’ (1957), ‘ताप के ताए हुए दिन’ (1980), ‘शब्द’ (1980), ‘उस जनपद का कवि हूँ’ (1981), ‘अरधान’ (1983), ‘गुलाब और बुलबुल’ (1985), ‘अनकहनी भी कुछ कहनी है’ (1985), ‘तुम्हें सौंपता हूँ’ (1985), ‘फूल नाम है एक’ (1985), ‘चैती’ (1987), ‘सबका अपना आकाश’ (1987), ‘अमोला’ (1990) उनके काव्य-संग्रह हैं। उन्होंने ‘मुक्तिबोध की कविताएँ’ का संपादन किया है। उनकी एक डायरी भी प्रकाशित है। 

वह मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रीय सम्मान से विभूषित हैं। ‘ताप के ताए हुए दिन’ संग्रह के लिए उन्हें 1981 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 
                                 

चंपा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती’ कविता धरती संग्रह में संकलित है। यह पलायन के लोक अनुभवों को मार्मिकता से अभिव्यक्त करती है। इसमें ‘अक्षरों’ के लिए ‘काले-काले’ विशेषण का प्रयोग किया गया है जो एक ओर शिक्षा-व्यवस्था के अंतर्विरोधों को उजागर करता है तो दूसरी ओर उस दारुण यथार्थ से भी हमारा परिचय कराता है जहाँ आर्थिक मजबूरियों के चलते घर टूटते हैं। काव्य नायिका चंपा अनजाने ही उस शोषक व्यवस्था के प्रतिपक्ष में खड़ी हो जाती है जहाँ भविष्य को लेकर उसके मन में अनजान खतरा है। वह कहती है ‘कलकत्ते पर बजर गिरे।” कलकत्ते पर वज्र गिरने की कामना, जीवन के खुरदरे यथार्थ के प्रति चंपा के संघर्ष और जीवन को प्रकट चंपा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती का सारांश करती है।
काव्य की नायिका चंपा अक्षरों को नहीं पहचानती। जब कवि पढ़ता है तो चुपचाप पास खड़ी होकर आश्चर्य से सुनती है। वह एक सुंदर नामक ग्वाले की लड़की है तथा गाएँ-भैसें चराने का काम करती है। वह अच्छी व चंचल है। कभी वह कवि की कलम चुरा लेती है तो कभी कागज। इससे कवि परेशान हो जाता है। चंपा कहती है कि दिन भर कागज लिखते रहते हो। क्या यह काम अच्छा है? कवि हँस देता है। एक दिन कवि ने चंपा से पढ़ने-लिखने के लिए कहा। उन्होंने इसे गाँधी बाबा की इच्छा बताया। चंपा ने कहा कि वह नहीं पढ़ेगी।गाँधी जी को बहुत अच्छे बताते हो, फिर वे पढ़ाई की बात कैसे कहेंगे? कवि ने कहा कि पढ़ना अच्छा है। शादी के बाद तुम ससुराल जाओगी। तुम्हारा पति कलकत्ता काम के लिए जाएगा। अगर तुम नहीं पढ़ी तो उसके पत्र कैसे पढ़ोगी या अपना संदेशा कैसे दोगी? इस पर चंपा ने कहा कि तुम पढ़े-लिखे झूठे हो। वह शादी नहीं करेगी। यदि शादी करेगी तो अपने पति को कभी कलकत्ता नहीं जाने देगी। कलकत्ता पर भारी विपत्ति आ जाए, ऐसी कामना वह करती है।



चंपा काल-काल काले-काले अच्छर नहीं चिन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता हैं:
इन काले चीन्हों से कैसे ये सब स्वर
निकला करते हैं।

व्याख्या – कवि चंपा नामक लड़की, जो की अनपढ़ है, उसकी निरक्षरता के बारे में बताते हुए कहता है कि चंपा काले-काले अक्षरों को नहीं पहचानती। अर्थात उसे अक्षर ज्ञान नहीं है, उसे पढ़ना नहीं आता। जब कवि पढ़ने लगता है तो वह वहाँ आ जाती है। वह उसके द्वारा बोले गए अक्षरों को चुपचाप खड़ी-खड़ी सुना करती है। उसे इस बात की बड़ी हैरानी होती है कि इन काले अक्षरों से ये सभी ध्वनियाँ कैसे निकलती हैं? कहने का तात्पर्य यह है कि वह अक्षरों की ध्वनि व् अर्थ से हैरान होती है।

चंपा सुंदर की लड़की है
सुंदर ग्वाला है: गाएँ-भैंसे रखता है
चंपा चौपायों को लकर
चरवाही करने जाती है
चंपा अच्छी हैं
चंचल हैं
नटखट भी है
कभी-कभी ऊधम करती हैं
कभी-कभी वह कलम चुरा देती है
जैसे तैसे उसे ढूँढ़ कर जब लाता हूँ
पाता हूँ-अब कागज गायब
परेशान फिर हो जाता हूँ

व्याख्या – कवि चंपा के विषय में बताता है कि वह सुंदर नामक एक ग्वाले की लड़की है। वह गाएँ-भैंसें रखता है। चंपा उन सभी पशुओं को प्रतिदिन चराने के लिए लेकर जाती है। वह बहुत अच्छी है और थोड़ी चंचल भी है। वह शरारतें भी करती है। कभी वह कवि की कलम चुरा लेती है। कवि किसी तरह उस कलम को ढूँढ़कर लाता है तो उसे पता चलता है कि अब कागज गायब हो गया है। कवि चंपा की इन शरारतों से कभी-कभी परेशान भी हो जाता है।

चंपा कहती है:
तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर
क्या यह काम बहुत अच्छा है
यह सुनकर मैं हँस देता हूँ
फिर चंपा चुप हो जाती है
चंपा ने यह कहा कि
मैं तो नहीं पढूँगी
तुम तो कहते थे गाँधी बाबा अच्छे हैं
उस दिन चंपा आई, मैंने कहा कि
चंपा, तुम भी पढ़ लो
हारे गाढ़े काम सरेगा
गाँधी बाबा की इच्छा है
सब जन पढ़ना-लिखना सीखें
वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे
मैं तो नहीं पढूँगी

व्याख्या – कवि कहता है कि चंपा को काले अक्षरों से कोई संबंध नहीं है। वह कवि से पूछती है कि तुम दिन-भर कागज पर लिखते रहते हो। क्या यह काम तुम्हें बहुत अच्छा लगता है। उसकी नजर में लिखने के काम की कोई महत्ता नहीं है। उसकी बात सुनकर कवि हँसने लगता है और चंपा चुप हो जाती है। एक दिन चंपा आई तो कवि ने उससे कहा कि तुम्हें भी पढ़ना सीखना चाहिए। मुसीबत के समय तुम्हारे काम आएगा। वह महात्मा गाँधी की इच्छा को भी बताता है कि गाँधी जी की इच्छा थी कि सभी आदमी पढ़ना-लिखना सीखें। चंपा कवि की बात का उत्तर देती है कि वह नहीं पढ़ेगी। आगे कहती है कि तुम तो कहते थे कि गाँधी जी बहुत अच्छे हैं। फिर वे पढ़ाई की बात क्यों करते हैं? चंपा महात्मा गाँधी की अच्छाई या बुराई का मापदंड पढ़ने की सीख से लेती है। वह न 

पढ़ने का निश्चय दोहराती है।
मैंने कहा कि चंपा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा, तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम सग साथ रह चंपा जाएगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर हैं वह कलकत्ता
कैसे उसे सँदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी।
चंपा पढ़ लेना अच्छा है।

व्याख्या – कवि चंपा को पढ़ने की सलाह देता है तो वह स्पष्ट तौर पर मना कर देती है। फिर कवि चंपा को शिक्षा के लाभ गिनाता है। वह उसे कहता है कि तुम्हारे लिए पढ़ाई-लिखाई जरूरी है। एक दिन तुम्हारी शादी भी होगी और तुम अपने पति के साथ ससुराल जाओगी। वहाँ तुम्हारा पति कुछ दिन साथ रहकर नौकरी के लिए कलकत्ता चला जाएगा। कलकत्ता यहाँ से बहुत दूर है। ऐसे में तुम उसे अपने विषय में कैसे बताओगी? तुम उसके पत्रों को किस प्रकार पढ़ पाओगी? इसलिए तुम्हें पढ़ना चाहिए।
चंपा बोली; तुम कितने झूठे हो, देखा,
हाय राम, तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करूंगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को सँग साथ रखूँगी
कलकत्ता मैं कभी न जाने दूँगी
कलकत्ते पर बजर गिरे।
व्याख्या – कवि द्वारा चंपा को पढ़ने की सलाह पर वह उखड़ जाती है। वह कहती है कि तुम बहुत झूठ बोलते हो। तुम पढ़-लिखकर भी झूठ बोलते हो। जहाँ तक शादी की बात है, तो मैं शादी ही कभी नहीं करूंगी। और यदि कहीं शादी भी हो गई तो मैं अपने पति को अपने साथ रखेंगी। उसे कभी कलकत्ता नहीं जाने दूँगी। दूसरे शब्दों में, वह अपने पति का शोषण नहीं होने देगी। चंपा यहाँ तक कह देती है कि परिवारों को दूर करने वाले शहर कलकत्ते पर वज्र गिरे। वह अपने पति को कलकत्ता से दूर रखेगी।


                                

Sunday

घर की याद

                   घर की याद पाठ का सार और व्याख्या

                     

जीवन परिचय-भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म 1913 ई. में मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में हुआ। इन्होंने जबलपुर से उच्च शिक्षा प्राप्त की। इनका हिंदी, अंग्रेजी व संस्कृत भाषाओं पर अधिकार था। इन्होंने शिक्षक के रूप में कार्य किया। फिर वे कल्पना पत्रिका, आकाशवाणी व गाँधी जी की कई संस्थाओं से जुड़े रहे। इनकी कविताओं में सतपुड़ा-अंचल, मालवा आदि क्षेत्रों का प्राकृतिक वैभव मिलता है। इन्हें साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान, दिल्ली प्रशासन का गालिब पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इनकी साहित्य व समाज सेवा के मद्देनजर भारत सरकार ने इन्हें पद्मश्री से अलंकृत किया। इनका देहावसान 1985 ई. में हुआ।


रचनाएँ-इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं

सतपुड़ा के जंगल, सन्नाटा, गीतफ़रोश, चकित है दुख, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, अनाम तुम आते हो, इदं न मम् आदि। गीतफ़रोश इनका पहला काव्य संकलन है। गाँधी पंचशती की कविताओं में कवि ने गाँधी जी को श्रद्धांजलि अर्पित की है।

काव्यगत विशेषताएँ-सहज लेखन और सहज व्यक्तित्व का नाम है-भवानी प्रसाद मिश्र। ये कविता, साहित्य और राष्ट्रीय आंदोलन के प्रमुख कवियों में से एक हैं। गाँधीवाद में इनका अखंड विश्वास था। इन्होंने गाँधी वाडमय के हिंदी खंडों का संपादन कर कविता और गाँधी जी के बीच सेतु का काम किया। इनकी कविता हिंदी की सहज लय की कविता है। इस सहजता का संबंध गाँधी के चरखे की लय से भी जुड़ता है, इसलिए उन्हें कविता का गाँधी भी कहा गया है। इनकी कविताओं में बोलचाल के गद्यात्मक से लगते वाक्य-विन्यास को ही कविता में बदल देने की अद्भुत क्षमता है। इसी कारण इनकी कविता सहज और लोक के करीब है

कविता का सारांश

इस कविता में घर के मर्म का उद्घघाटन है। कवि को जेल-प्रवास के दौरान घर से विस्थापन की पीड़ा सालती है। कवि के स्मृति-संसार में उसके परिजन एक-एक कर शामिल होते चले जाते हैं। घर की अवधारणा की सार्थक और मार्मिक याद कविता की केंद्रीय संवेदना है। सावन के बादलों को देखकर कवि को घर की याद आती है। वह घर के सभी सदस्यों को याद करता है। उसे अपने भाइयों व बहनों की याद आती है। उसकी बहन भी मायके आई होगी। कवि को अपनी अनपढ़, पुत्र के दुख से व्याकुल, परंतु स्नेहमयी माँ की याद आती है। वह पत्र भी नहीं लिख सकती।

कवि को अपने पिता की याद आती है जो बुढ़ापे से दूर हैं। वे दौड़ सकते हैं, खिलखिलाते हैं। वो मौत या शेर से नहीं डरते। उनकी वाणी में जोश है। आज वे गीता का पाठ करके, दंड लगाकर जब नीचे परिवार के बीच आए होंगे, तो अपने पाँचवें बेटे को न पाकर रो पड़े होंगे। माँ ने उन्हें समझाया होगा। कवि सावन से निवेदन करता है कि तुम खूब बरसो, किंतु मेरे माता-पिता को मेरे लिए दुखी न होने देना। उन्हें मेरा संदेश देना कि मैं जेल में खुश हूँ। मुझे खाने-पीने की दिक्कत नहीं है। मैं स्वस्थ हूँ। उन्हें मेरी सच्चाई मत बताना कि मैं निराश, दुखी व असमंजस में हूँ। हे सावन! तुम मेरा संदेश उन्हें देकर धैर्य बँधाना। इस प्रकार कवि ने घर की अवधारणा का चित्र प्रस्तुत किया है

                             


आज पानी गिर रहा है, 

बहुत पानी गिर रहा है, 

रात भर गिरता रहा है, 

प्राण-मन धिरता रहा है, 

बहुत पानी गिर रहा हैं,

घर नजर में तिर रहा है, 

घर कि मुझसे दूर है जो,

घर खुशी का पूर हैं जो,

व्याख्या-:उपरोक्त पंक्तियों में कवि अपने घर से दूर जेल की एक कालकोठरी में बंद है। सावन के महीने में खूब बारिश हो रही है जिसे देखकर कवि को अपने घर , परिजनों व उनके साथ बिताए सुखद क्षणों की याद आ रही है।

कवि कहते हैं कि आज बरसात हो रही है। और बहुत पानी बरस रहा हैं अर्थात बहुत बारिश हो रही हैं और यह बारिश रात से ही हो रही हैं। और ऐसे मौसम में मेरे मन व प्राण, दोनों ही अपने घर की यादों से घिर गये हैं। अर्थात बारिश के इस पानी को देखकर कवि को अपने घर व् परिजनों की याद आ जाती है। और कवि कहते हैं कि उन्हें अपनी आंखों के सामने अपना वह घर दिखाई दे रहा हैं जो घर इस समय उनसे दूर है। जो खुशियों का भंडार है। कहने का तात्पर्य यह है कि कवि के घर में खुशियों भरा माहौल था जहाँ सभी लोग मिलजुल कर हंसी-खुशी रहते थे। कैद में होने के कारण कवि इस समय अपने घर से दूर हैं। मगर घर की सुखद स्मृतियां कवि को बेचैन कर रही हैं।

घर कि घर में चार भाई,

मायके में बहिन आई,

बहिन आई बाप के घर,

हाय रे परिताप के घर।

घर कि घर में सब जुड़े हैं,

सब कि इतने कब जुड़े हैं,

चार भाई चार बहिन,

भुजा भाई प्यार बहिने,

व्याख्या:-उपरोक्त पंक्तियों में कवि अपने भाई-बहनों व उनके आपसी संबंधों के बारे में वर्णन कर रहे हैं। कवि कहते हैं कि उनके घर में चार भाई व चार बहनें हैं और उन सभी के बीच अथाह प्रेम है। बहिनें शादीशुदा हैं। और कवि अंदाजा लगाते हैं कि आज वे अपने माता-पिता के घर अर्थात अपने मायके आयी होंगी। (यहाँ पर कवि अपनी बहनों के मायके आने का अंदाजा इसलिए लगा रहे हैं क्योंकि सावन के महीने में रक्षाबंधन का त्यौहार आता है और इस दिन विवाहित बहनें अपने भाई को राखी बांधने अपने मायके आती हैं।) कवि कहते हैं कि लेकिन मायके आकर जब कवि की बहनों को कवि के माता-पिता से कवि के बारे में पता चला होगा तो उन्हें अत्यधिक दुःख पहुंचा होगा। कवि कहते हैं कि मेरे जेल में होने की वजह से घर के सभी लोग दुखी होंगे और मेरा खुशियों से भरा वह घर अब “परिताप का घर अर्थात कष्टों का घर” बन गया होगा। संकट की इस घड़ी में सब एक दूसरे का सहारा बने हुए होंगे। मेरे चार भाई व चार बहनें, सभी में आपस में बहुत गहरा प्रेम संबंध हैं। मेरे चारों भाई भुजाओं के समान एक दूसरे को सहयोग करने वाले अत्यंत बलिष्ठ व कर्मशील हैं अर्थात जिस प्रकार इंसान की भुजाएं उसे हर काम करने में सहयोग करती हैं ठीक उसी प्रकार उनके भाई भी उनके सुख दुःख में उनको सहयोग करते हैं। जबकि मेरी बहनें प्रेम का प्रतीक हैं। यानि वो हम पर अपना अथाह स्नेह व ममता लुटाती रहती हैं।

और माँ‍ बिन-पढ़ी मेरी ,

दुःख में वह गढ़ी मेरी ,

माँ कि जिसकी गोद में सिर ,

रख लिया तो दुख नहीं फिर ,

माँ कि जिसकी स्नेह – धारा ,

का यहाँ तक भी पसारा ,

उसे लिखना नहीं आता ,

जो कि उसका पत्र पाता।

व्याख्याःउपरोक्त पंक्तियों में कवि अपनी माँ के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि मेरी मां अनपढ़ हैं और मेरे जेल में होने की वजह से वह इस वक्त बहुत दुखी होगी। फिर कवि को अपनी मां की ममता भी याद आने लगती है। वो कहते हैं कि अगर मैं अपनी माँ की गोद में सिर भी रख लूँ, तो भी मेरी सारी परेशानियाँ स्वत: ही समाप्त हो जाती हैं। और मेरी मां की स्नेह की धारा अर्थात कवि को उनकी माँ की ममता व प्रेम, जेल की कालकोठरी में भी महसूस हो रहा हैं। कवि कहते हैं कि उनकी मां को लिखना नहीं आता। इसीलिए कवि को उनका कोई भी पत्र हासिल नहीं हुआ।

पिताजी जिनको बुढ़ापा ,

एक क्षण भी नहीं व्यापा ,

जो अभी भी दौड़ जाएँ ,

जो अभी भी खिलखिलाएँ ,

मौत के आगे न हिचकें ,

शेर के आगे न बिचकें ,

बोल में बादल गरजता ,

काम में झंझा लरजता ,

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियों में कवि अपने पिता की शाररिक विशेषताओं के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि भले ही उनके पिता की उम्र हो गई हो मगर अभी भी उनके पिता पर बुढ़ापे का कोई असर नहीं दिखाई देता है। अभी भी वो किसी नौजवान की तरह दौड़ सकते हैं, खिलखिला कर हंस सकते हैं। उन्हें मौत से भय नहीं लगता है और अगर उनके सामने शेर भी आ जाय तो वो उसके सामने बिना डरे खड़े रह सकते है। अर्थात वें बहुत ही निर्भीक व साहसी व्यक्ति हैं। उनकी वाणी में बादलों की सी गर्जना है और वो इस उम्र में भी इतनी तेजी से काम करते हैं कि आंधी तूफान भी उनको देख शरमा जाय। अर्थात वें बहुत फुर्तीले (तेज) हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि कवि के पिता बहुत ही कर्मठ व ऊर्जावान व्यक्ति हैं जिनमें आज भी नवयुवकों के जैसा जोश व उत्साह भरा है।

आज गीता पाठ करके ,

दंड दो सौ साठ करके ,

खूब मुगदर हिला लेकर ,

मूठ उनकी मिला लेकर,

जब कि नीचे आए होंगे ,

नैन जल से छाए होंगे ,

हाय, पानी गिर रहा है ,

घर नज़र में तिर रहा है ,

चार भाई चार बहिनें,

भुजा भाई प्यार बहिनें ,

खेलते या खड़े होंगे ,

नज़र उनकी पड़े होंगे।

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियों में कवि अपने पिता की दिनचर्या के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि हर रोज की तरह आज भी उन्होंने गीता पाठ किया होगा और दो सौ साठ दंड किये होंगे। अर्थात व्यायाम किया होगा। और फिर मुगदर को पकड़कर खूब हिला-हिलाकर व्यायाम किया होगा।और अंत में व्यायाम समाप्त कर मुगदरों की मूठों अर्थात हत्थों को मिलकर एक जगह रखकर , जब वो घर के ऊपरी हिस्से से नीचे आए होंगे तो , घर में अपने लाडले पुत्र को ना पाकर दुख से उनकी आंखों में आंसू भर आये होंगे। अर्थात उनके पिता ने अपनी रोज की दिनचर्या , व्यायाम व पूजापाठ आदि निपटाने के बाद जब घर में अन्य बच्चों के साथ कवि को नहीं देखा होगा तो वो भाव विभोर होकर रोने लगे होंगे। कवि आगे कहते हैं कि अभी भी वर्षा हो रही हैं और बरसते हुए पानी को देखकर मुझे घर की याद आ रही है। उनके चारों भाई और चारों बहनें अभी घर पर होंगे और शायद इस वक्त वो या तो खेल रहे होंगे या यूं ही खड़े होंगे। और पिता जी की नजरें अपने पाँचवें पुत्र अर्थात कवि को खोज रही होंगी।

पिताजी जिनको बुढ़ापा ,

एक क्षण भी नहीं व्यापा ,

रो पड़े होंगे बराबर ,

पाँचवे का नाम लेकर ,

पाँचवाँ हूँ मैं अभागा ,

जिसे सोने पर सुहागा,

पिता जी कहते रहे है ,

प्यार में बहते रहे हैं ,

आज उनके स्वर्ण बेटे ,

लगे होंगे उन्हें हेटे ,

क्योंकि मैं उन पर सुहागा

बँधा बैठा हूँ अभागा ,

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियों में कवि अपने पिता के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि हालाँकि मेरे पिताजी अभी भी पूर्ण रूप से स्वस्थ हैं। बुढ़ापे का उन पर अभी कोई असर दिखाई नहीं देता हैं। मगर जब खेलते हुए मेरे भाई-बहिनों पर उनकी नजर पड़ी होगी । तो वो अपने पाँचवें बेटे यानी कवि को उनके बीच न पाकर दुखी हुए होंगे और उनका नाम लेकर रो पड़े होंगे। कवि कहते हैं कि मैं अपने माता-पिता का पांचवा पुत्र हूँ। वैसे तो मेरे पिताजी अपने सभी बेटों को प्रेम करते थे पर मुझे अपने अन्य बेटों की तुलना में श्रेष्ठ मानते थे। इसीलिए वो मुझे बहुत अधिक प्रेम करते थे। अर्थात अगर वो अपने चारों बेटों को सोने के समान मानते थे तो मुझे सुहागा अर्थात उन सब में भी सबसे बेहतर मानते थे। कवि कहते हैं कि मैं आज उनसे दूर इस जेल में कैद हूँ। इसीलिए आज उनके पिता को अपने स्वर्ण बेटे अर्थात अन्य चारों बेटे भी अच्छे नहीं लग रहे होंगे। क्योंकि उनका सबसे प्यारा बेटा यानि कवि आज उनकी आँखों के सामने नही है। कवि यहाँ पर अपने आप को भाग्यहीन बता रहे हैं क्योंकि वो जेल में हैं। जिस कारण उनके माता-पिता को कष्ट पहुंच रहा है।

और माँ ने कहा होगा ,

दुःख कितना बहा होगा ,

आँख में किसलिए पानी ,

वहाँ अच्छा है भवानी ,

वह तुम्हारा मन समझकर ,

और अपनापन समझकर ,

गया है सो ठीक ही है ,

यह तुम्हारी लीक ही है ,

पाँव जो पीछे हटाता ,

कोख को मेरी लजाता ,

इस तरह होओ न कच्चे ,

रो पड़ेंगे और बच्चे ,

पिताजी ने कहा होगा ,

हाय , कितना सहा होगा ,

कहाँ , मैं रोता कहाँ हूँ ,

धीर मैं खोता , कहाँ हूँ ,

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि पिता जी को दुखी देखकर माँ अपने मन के दुःख को छिपा कर पिताजी को समझाते हुए कह रही होंगी कि क्यों दुखी हो रहे हो , क्यों आंसू बहा रहे हो। हमारा बेटा भवानी वहां अच्छे से होगा यानि सकुशल होगा। माँ पिताजी को समझाते हुए आगे कहती होंगी कि वह आपके मन की बात को समझकर और आपके बताये मार्ग पर ही तो चल रहा हैं। वह देशसेवा करते हुए ही तो जेल गया हैं। यह तुम्हारी ही परंपरा हैं जिसका उसने पालन किया है। इसीलिए उसने जो किया वो ठीक हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि देशभक्ति का रास्ता पिता ने अपने पुत्र को दिखाया। और बेटा आज उसी राह पर चल पड़ा हैं। आज देश हित ही उसके लिए सर्वोपरि है। माता को अपने पुत्र की देशभक्ति पर नाज है। कवि कहते हैं कि माँ पिताजी को समझाते हुए कह रही होंगी कि उनके बेटा ने देश हित को सर्वोपरि मानकर अपने कर्तव्य का पालन किया हैं। अगर वह ऐसा नही करता और देश सेवा से पीछे हट जाता तो आज मेरी कोख लज्जित होती। मुझे शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता। लेकिन वह अपने देश की आजादी के खातिर जेल गया जिस पर मुझे गर्व है।

कवि आगे कहते हैं कि माँ पिताजी को समझाते हुए कह रही होंगी कि आप अपने मन को इतना कच्चा मत करो। अपने मन व भावनाओं पर काबू रखो। अपने आपको मजबूत करो नहीं तो घर के अन्य बच्चे भी आपको रोता देख रो पड़ेंगे। और फिर पिताजी ने अपने आप को संभालते हुए कहा होगा कि अरे नही , मैं कहां रोता हूँ और कहाँ मैं अपना धैर्य धीरज खोता हूँ अर्थात ना तो मैं रो रहा हूँ और ना ही परेशान हूँ।

हे सजीले हरे सावन ,

हे कि मेरे पुण्य पावन ,

तुम बरस लो वे न बरसें ,

पाँचवे को वे न तरसें ,

मैं मज़े में हूँ सही है ,

घर नहीं हूँ बस यही है ,

किन्तु यह बस बड़ा बस है ,

इसी बस से सब विरस है ,

किन्तु उनसे यह न कहना ,

उन्हें देते धीर रहना ,

उन्हें कहना लिख रहा हूँ ,

उन्हें कहना पढ़ रहा हूँ ,

काम करता हूँ कि कहना ,

नाम करता हूँ कि कहना ,

चाहते है लोग , कहना,

मत करो कुछ शोक कहना ,

और कहना मस्त हूँ मैं ,

कातने में व्यस्‍त हूँ मैं ,

वज़न सत्तर सेर मेरा ,

और भोजन ढेर मेरा ,

कूदता हूँ , खेलता हूँ ,

दुख डट कर ठेलता हूँ ,

और कहना मस्त हूँ मैं,

यों न कहना अस्त हूँ मैं ,

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियों में कवि ने सावन को संबोधित करते हुए कहा है कि हे ! सुंदर, आकर्षक व सबको खुशियां प्रदान करने वाले सावन, तुम्हें जितना बरसना हैं तुम बरस लो लेकिन मेरे पिताजी की आंखों को मत बरसने देना। और इस बात का भी ध्यान रखना कि वो अपने पाँचवे पुत्र को याद कर दुखी न हों।कवि सावन से कहते हैं कि तुम जाकर मेरा यह संदेश मेरे पिता को देना कि मैं यहां पर बहुत मजे में हूँ और बहुत खुश भी हूं। बस इतना ही है कि मैं घर पर नहीं हूं। यानि मुझे यहां पर किसी प्रकार का कोई कष्ट नही है। लेकिन इसके बाद कवि स्वयं से कहते हैं कि मैंने उन्हें कह तो दिया कि मैं घर पर नहीं हूँ। बस यही एक दुख है परंतु अपने माता-पिता व घर से दूर होकर जीना कितना कठिन है। यह केवल मैं ही जानता हूँ। अपनों से दूर होने के दुख ने मेरे जीवन के सारे सुखों को छीन कर उसे नीरस बना दिया है। कवि अपनी भावनाओं पर संयम रखते हुए कहते हैं कि हे ! सावन तुम उनसे यह सब मत कहना कि मैं दुखी हूँ, अकेला हूँ। तुम उन्हें धैर्य बंधाते रहना और कहना कि मैं यहाँ लिखता हूँ, पढ़ता हूँ, खूब काम करता हूँ और देश सेवा करके अपना नाम रोशन कर रहा हूँ। कवि आगे कहते कि मेरे माता पिता से कहना कि जेल के सभी लोग मुझे चाहते हैं। और मुझे यहाँ कोई कष्ट भी नही है। इसीलिए वो दुखी ना हो। कवि कहते हैं कि सावन तुम मेरे माता पिता से जाकर कहना कि मैं यहाँ पर मस्त हूँ और सूत कातने में व्यस्त हूँ। मैं यहां खूब खाता-पीता हूँ। इसीलिए मेरा मेरा वजन 70 सेर अर्थात 63 किलो हो गया है। मैं यहां पर खूब खेलता-कूदता हूँ। हर विपरीत परिस्थति का सामना आराम से करता हूँ और मस्त रहता हूँ। अर्थात मैं पूर्ण रूप से स्वस्थ हूँ। कवि सावन से कहते हैं कि उनको यह बिलकुल भी नही बताना कि मैं यहाँ पर दुखी हूँ, निराश हूँ , उदास हूँ नही तो वो दुखी हो जायेंगे।

हाय रे , ऐसा न कहना ,

है कि जो वैसा न कहना ,

कह न देना जागता हूँ ,

आदमी से भागता हूँ ,

कह न देना मौन हूँ मैं ,

ख़ुद न समझूँ कौन हूँ मैं ,

देखना कुछ बक न देना ,

उन्हें कोई शक न देना ,

हे सजीले हरे सावन ,

हे कि मेरे पुण्य पावन ,

तुम बरस लो वे न बरसे ,

पाँचवें को वे न तरसें ।

व्याख्या:उपरोक्त पंक्तियों में कवि सावन से कहते हैं कि मेरी मन स्थिति व मेरे दुखों के बारे में तुम मेरे माता-पिता को गलती से भी मत बताना। तुम उनको यह मत बताना कि मैं रात भर जागता हूँ यानि मैं रात को सो नहीं पाता। आदमियों को देखकर घबरा जाता हूँ। मैं मौन रहने लगा हूँ यानि अब मुझे किसी से बात करना अच्छा नहीं लगता है। और मुझे खुद नहीं पता कि मैं कौन हूँ। हे ! मेरे सजीले सावन, तुम मेरे पिताजी के आगे कुछ भी ऐसा उल्टा-सीधा मत बोल देना जिससे उनको शक हो जाए कि कहीं उनका बेटा किसी दुख या तकलीफ में तो नही हैं। और अंत में कवि ने सावन को संबोधित करते हुए कहा है कि हे ! सुंदर, आकर्षक व खुशियां प्रदान करने वाले सावन तुम्हें जितना बरसना हैं, तुम बरसो लेकिन अपने पाँचवे पुत्र को याद कर मेरे माता-पिता की आंखों को मत बरसने देना।

Friday

लघुकथा लेखन

              लघुकथा या कहानी लेखन किसे कहते है?

कहानी-लेखन की परिभाषा –जीवन की किसी एक घटना के रोचक वर्णन को ‘कहानी’ कहते हैं।कहानी सुनने, पढ़ने और लिखने की एक लम्बी परम्परा हर देश में रही है; क्योंकि यह सबके लिए मनोरंजक होती है। बच्चों को कहानी सुनने का बहुत चाव होता है। दादी और नानी की कहानियाँ प्रसिद्ध हैं। इन कहानियों का उद्देश्य मुख्यतः मनोरंजन होता है किन्तु इनसे कुछ-न-कुछ शिक्षा भी मिलती है।कहानी लिखना एक कला है। हर कहानी-लेखक अपने ढंग से कहानी लिखकर उसमें विशेषता पैदा कर देता है। वह अपनी कल्पना और वर्णन-शक्ति से कहानी के कथानक, पात्र या वातावरण को प्रभावशाली बना देता है। लेखक की भाषा-शैली पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है कि कहानी कितनी अच्छी लिखी गई है।


                  

                   लघु कथा लेखन के प्रकार – 

आकार की दृष्टि से ये कहानियाँ दोनों तरह की हैं- कुछ कहानियाँ लम्बी हैं जबकि अन्य कुछ कहानियाँ छोटी। आधुनिक कहानी मूलतः छोटी होती है।

कहानी लिखते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान रखना चाहिए:

1.दी गई रूपरेखा अथवा संकेतों के आधार पर ही कहानी का विस्तार करना चाहिए।

2.कहानी में विभिन्न घटनाओं और प्रसंगों को संतुलित विस्तार देना चाहिए। किसी प्रसंग को न बहुत अधिक संक्षिप्त लिखना चाहिए, न अनावश्यक रूप से बहुत अधिक बढ़ाना चाहिए।

3.कहानी का आरम्भ आकर्षक होना चाहिए ताकि कहानी पढ़ने वाले का मन उसे पढ़ने में लगा रहे।

4.कहानी की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा प्रभावशाली होनी चाहिए। उसमें बहुत अधिक कठिन शब्द तथा लम्बे वाक्य नहीं होनी चाहिए।

5.कहानी को उपयुक्त एवं आकर्षक शीर्षक देना चाहिए। 

6.कहानी को प्रभावशाली और रोचक बनाने के लिए मुहावरों व् लोकोक्तियों का प्रयोग भी किया जा सकता है।

7.कहानी हमेशा भूतकाल में ही लिखी जानी चाहिए।

8. कहानी का अंत सहज ढंग से होना चाहिए।

9.अंत में कहानी से मिलने वाली सीख स्पष्ट व् संक्षिप्त होनी

 चाहिए।

                     

कहानी लेखन की प्रमुख विशेषताएँ –

1.आज कहानी का मुख्य विषय मनुष्य है,देव या दानव नहीं। पशुओं के लिए भी कहानी में अब कोई जगह नहीं रही। हाँ, बच्चों के लिए लिखी गयी कहानियों में देव, दानव, पशु-पक्षी,
मनुष्य सभी आते हैं। लेकिन श्रेष्ठ कहानी उसी को कहते है, जिसमें मनुष्य के जीवन की कोई समस्या या संवेदना व्यक्त की गई होती है।
2) पहले कहानी शिक्षा और मनोरंजन के लिए लिखी जाती थी, आज इन दोनों के स्थान पर कौतूहल जगाने में जो कहानी सक्षम हो, वही सफल समझी जाती है। फिर भी, मनोरंजन आज भी साधारण पाठकों की माँग है।
3) आज का मनुष्य यह जानने लगा है कि मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता है, वह किसी के हाथ का खिलौना नहीं। इसीलिए आज की कहानियों का आधार मनुष्य के जीवन का संघर्ष है।
आज की कहानी का लक्ष्य विभिन्न प्रकार के चरित्रों की सृष्टि करना है। यही कारण है कि आज कहानी में चरित्र-चित्रण का महत्त्व अधिक बढ़ा है।
(5) पहले जहाँ कहानी का लक्ष्य घटनाओं का जमघट लगाना होता था, वहाँ आज घटनाओं को महत्त्व न देकर मानव-मन के किसी एक भाव, विचार और अनुभूति को व्यक्त करना है। प्रेमचन्द ने इस सम्बन्ध में स्पष्ट लिखा है, ”कहानी का आधार अब घटना नहीं, अनुभूति है।”
(6) प्राचीन कहानी समष्टिवादी थी। सबके हितों को ध्यान में रखकर लिखी जाती थी। आज की कहानी व्यक्तिवादी है, जो व्यक्ति के ‘मनोवैज्ञानिक सत्य’ का उद्घाटन करती है।
पहले की उपेक्षा आज की कहानी भाषा की सरलता पर अधिक बल देती है; क्योंकि उसका उद्देश्य जीवन की गाँठों को खोलना है।
पुरानी कहानियों का अंत अधिकतर सुखद होता था, किन्तु आज की कहानियाँ मनुष्य की दुःखान्तक कथा को, उसकी जीवनगत समस्याओं और अन्तहीन संघर्षों को अधिक-से-अधिक प्रकाशित करती हैं।
लघु कथा लेखन की विधियाँ –
कहानी का अधिकाधिक प्रचार-प्रसार होने के कारण छात्रों से भी आशा की जाती है कि वे भी इस ओर ध्यान दें और कहानी लिखने का अभ्यास करें; क्योंकि इससे उनमें सर्जनात्मक शक्ति जगती है। इसके लिए उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे चार विधियों से कहानी लिखने का अभ्यास करें
(1) कहानी की सहायता या आधार पर कहानी लिखना
(2) रूपरेखा के सहारे कहानी लिखना
(3) अधूरी या अपूर्ण कहानी को पूर्ण करना
(4) चित्रों की सहायता से कहानी का अभ्यास करना।
कहानी की सहायता या आधार पर कहानी लिखना –
मूल कहानी को ध्यान से पढ़कर कहानी लिखने का अभ्यास किया जाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि कहानी को खूब ध्यान से पढ़ा जाए, उसकी प्रमुख बातों या चरित्रों या घटनाओं को अलग कागज पर संकेत-रूप में लिख लिया जाए और फिर अपनी भाषा में मूल कहानी को इस तरह लिखा जाए कि कोई भी महत्त्वपूर्ण बात या घटना या प्रसंग छूटने न पाए। इस प्रकार की कहानी लिखते समय छात्रों को निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए-(i) कहानी का आरम्भ आकर्षक ढंग से हो
(ii) संवाद छोटे-छोटे हों
(iii) कहानी का क्रमिक विकास हो(iv) उसका अन्त स्वाभाविक हो
(v) कहानी का शीर्षक मूल कहानी का शीर्षक हो
(vi) भाषा सरल और सुबोध हो।
इनके आधार पर छात्रों से कहानी लिखने का अभ्यास कराया जाना चाहिए।
(2) रूपरेखा (संकेतों) के सहारे कहानी लिखना –
रूपरेखा या दिए गये संकेतों के आधार पर कहानी लिखना कठिन भी है, सरल भी। कठिन इसलिए कि संकेत अधूरे होते हैं। इसके लिए कल्पना और मानसिक व्यायाम करने की आवश्यकता पड़ती है। सरल इसलिए कि कहानी के संकेत पहले से दिए रहते हैं। यहाँ केवल खानापुरी करनी होती है। लेकिन, इस प्रकार की कहानी लिखने के लिए कल्पना से अधिक काम लेना पड़ता है। ऐसी कहानी लिखने में वे ही छात्र अपनी क्षमता का परिचय दे सकते है, जिनमें सर्जनात्मक और कल्पनात्मक शक्ति अधिक होती है। इसके लिए छात्र को संवेदनशील और कल्पनाप्रवण होना चाहिए।
 एक उदाहरण इस प्रकार है-

संकेत
एक किसान के लड़के लड़ते, किसान मरने के निकट, सबको बुलाया, लकड़ियों को तोड़ने को दिया, किसी से न टूटा, एक-एक कर लकड़ियों तोड़ी, शिक्षा। उपर्युक्त संकेतों को पढ़ने और थोड़ी कल्पना से काम लेने पर पूरी कहानी इस प्रकार बन जाएगी-

एकता में बल –
एक था किसान। उसके चार लड़के थे। पर उन लड़कों में मेल नहीं था। वे आपस में बराबर लड़ते-झगड़ते रहते थे। एक दिन किसान बहुत बीमार पड़ा। जब वह मृत्यु के निकट पहुँच गया, तब उसने अपने चारों लड़कों को बुलाया और मिल-जुलकर रहने की शिक्षा दी।किन्तु लड़कों पर उसकी बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। तब किसान ने लकड़ियों का गट्ठर माँगवाया और लड़कों को तोड़ने को कहा। किसी से वह गट्ठर न टूटा। फिर, लकड़ियाँ गट्ठर से अलग की गयीं।किसान ने अपने सभी लड़कों को बारी-बारी से बुलाया और लकड़ियों को अलग-अलग तोड़ने को कहा। सबने आसानी से लकड़ियों को तोड़ दिया। अब लड़कों की आँखें खुलीं। तभी उन्होंने समझा कि आपस में मिल-जुलकर रहने में कितना बल है।

(3) अपूर्ण कहानी को पूर्ण करना
छात्रों में कल्पना-शक्ति जगाने के लिए ऐसी कहानी लिखने का भी अभ्यास कराया जाता है, जो अधूरी या अपूर्ण है। उसको पूरा करना है। इसके लिए आवश्यक है कि अपूर्ण कहानी को ध्यान से पढ़ाया जाए, उसके क्रमों को समझाया जाए और उनमें परस्पर सम्बन्ध बनाते हुए सर्जनात्मक कल्पना के सहारे अधूरी कहानी को पूरा करने का अभ्यास कराया जाए। एक उदाहरण इस प्रकार है-
कौए ने गाना सुनाने के लिए ज्योंही अपनी चोंच खोली, रोटी का टुकड़ा उसके मुँह से गिर गया। रोटी का टुकड़ा ले लोमड़ी हँस-हँसकर खाने लगी और कौआ अपनी मूर्खता पर पछताने लगा।
अब अगर दूसरी बार कौआ मांस का टुकड़ा ले आए, तो लोमड़ी क्या करेगी? इस अपूर्ण कहानी को पूरा करें। यहाँ छात्र को कल्पना-शक्ति के सहारे शेष कहानी को पूरा करने की कोशिश करनी चाहिए। शेष कहानी के अनेक रूप हो सकते है। यह छात्रों की कल्पना पर छोड़ा जा सकता है।






Thursday

हिंदी दिवस

                          हिंदी दिवस

 "ध्यान से सुनना,राज ये गहरा मैं धीरे से खोल रहा हूं ,

    कानों से नहीं दिल से सुना मैं हिंदी बोल रहा हूं।" 

                 
यह सर्वकालिक सत्य है कि कोई भी देश अपनी भाषा में ही अपने मूल स्वत्व को प्रकट कर सकता है। निज भाषा देश की उन्नति का मूल होता है। निज भाषा को नकारना अपनी संस्कृति को विस्मरण करना है। जिसे अपनी भाषा पर गौरव का बोध नहीं होता, वह निश्चित ही अपनी जड़ों से कट जाता है और जो जड़ों से कट गया उसका अंत हो जाता है। भारत का परिवेश निसंदेह हिंदी से भी जुड़ा है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि हिंदी भारत का प्राण है, हिंदी भारत का स्वाभिमान है, हिंदी भारत का गौरवगान है। 

                      


महात्मा गांधी ने भी हिंदी के बारे में कहा था कि-हृदय की कोई भाषा नहीं है हृदय हृदय से बातचीत करता है और हिंदी हृदय की भाषा है।

भारत के अस्तित्व का भान कराने वाले प्रमुख बिंदुओं में हिंदी का भी स्थान है। हिंदी भारत का अस्तित्व है। आज हम जाने अनजाने में जिस प्रकार से भाषा के साथ मजाक कर रहे हैं, वह अभी हमें समझ में नहीं आ रहा होगा, लेकिन भविष्य के लिए यह अत्यंत दुखदायी होने वाला है।वर्तमान में प्रायः देखा जा रहा है कि हिंदी की बोलचाल में अंग्रेजी और उर्दू शब्दों का समावेश बेखटके हो रहा है। इसे हम अपने स्वभाव का हिस्सा मान चुके हैं, लेकिन हम विचार करें कि क्या यह हिंदी के शब्दों की हत्या नहीं है। हम विचार करें कि जब भारत में अंग्रेजी नहीं थी, तब हमारा देश किस स्थिति में था। हम अत्यंत समृद्ध थे, इतने समृद्ध कि विश्व के कई देश भारत की इस समृद्धि से जलन रखते थे। इसी कारण विश्व के कई देशों ने भारत की इस समृद्धि को नष्ट करने का उस समय तक षड्यंत्र किया, जब तक वे सफल नहीं हो गए। लेकिन एक बात ध्यान में रखना होगा कि हम अंग्रेजी को केवल एक भाषा के तौर पर स्वीकार करें।

भारत के लिए अंग्रेजी केवल एक भाषा ही है। जब हम हिंदी को मातृभाषा का दर्जा देते हैं तो यह भाव हमारे स्वभाव में प्रकट होना चाहिये। हिंदी हमारा स्वत्व है। भारत का मूल है। इसलिए कहा जा सकता है कि हिंदी हृदय की भाषा है।भाषाओं के मामले में भारत को विश्व का सबसे बड़ा देश निरूपित किया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। भारत दक्षिण के राज्यों में अपनी एक भाषा है, जिसे हम विविधता के रूप में प्रचारित करते है। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि भाषा के मामले में हम अत्यंत समृद्ध हैं। लेकिन कभी कभी यह भी देखा जाता है कि राजनीतिक कारणों के प्रभाव में आकर दक्षिण भारत के कुछ लोग हिंदी का विरोध करते हैं। इस विरोध को जन सामान्य का कुछ भी लेना देना नहीं होता, लेकिन ऐसा प्रचारित करने का प्रयास किया जाता है जैसे पूरा समाज ही विरोध कर रहा हो। दक्षिण भारत के राज्यों में जो भाषा बोली जाती है, उसका हिंदी भाषियों ने सदैव सम्मान किया है। भाषा और बोली तौर पर भारत की एक विशेषता यह भी है कि चाहे वह दक्षिण भारत का राज्य हो या फिर उत्तर भारत का, हर प्रदेश का नागरिक अपने शब्दों के उच्चारण मात्र से यह प्रदर्शित कर देता है कि वह किस राज्य का है। प्रायः सुना भी होगा कि भाषा को सुनकर हम उसका राज्य या अंचल तक बता देते हैं। यह भारत की बेहतरीन खूबसूरती ही है।जहां तक राष्ट्रीयता का सवाल आता है तो हर देश की पहचान उसकी भाषा भी होती है। हिन्दी हमारी राष्ट्रीय पहचान है। दक्षिण के राज्यों के नागरिकों की प्रादेशिक पहचान के रूप में उनकी अपनी भाषा हो सकती है, लेकिन राष्ट्रीय पहचान की बात की जाए तो वह केवल हिंदी ही हो सकती है।

                 


हालांकि आज दक्षिण के राज्यों में हिंदी को जानने और बोलने की उत्सुकता बढ़ी है, जो उनके राष्ट्रीय होने को प्रमाणित करता है। आज पूरा भारत राष्ट्रीय भाव की तरफ कदम बढ़ा रहा है। हिन्दी के प्रति प्रेम प्रदर्शित हो रहा है।आज हमें इस बात पर भी मंथन करना चाहिए कि भारत में हिंदी दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है। भारत में अंग्रेजी दिवस और उर्दू दिवस क्यों नहीं मनाया जाता। इसके पीछे यूं तो कई कारण हैं, लेकिन वर्तमान का अध्ययन किया जाए तो यही परिलक्षित होता है कि आज हम स्वयं ही हिंदी के शब्दों की हत्या करने पर उतारू हो गए है। ध्यान रखना होगा कि आज जिस प्रकार से हिंदी के शब्दों की हत्या हो रही है, कल पूरी हिंदी भाषा की भी हत्या हो सकती है। हम विचार करें कि हिंदी भारत के स्वर्णिम अतीत का हिस्सा है। हमें हमारी संस्कृति का हिस्सा है। ऐसा हम अंग्रेजी के बारे में कदापि नहीं बोल सकते।आज हिंदी को पहले की भांति वैश्विक धरातल प्राप्त हो रहा है। विश्व के कई देशों में हिंदी के प्रति आकर्षण का आत्मीय भाव संचरित हुआ है। वे भारत के बारे में गहराई से अध्ययन करना चाह रहे हैं। विश्व के कई प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में हिंदी के पाठ्यक्रम संचालित किए जाने लगे हैं। इतना ही नहीं आज विश्व के कई देशों में हिंदी के संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं। अमेरिका में एक साप्ताहिक समाचार पत्र उल्लेखनीय ख्याति प्राप्त कर चुका है। हिंदी संचेतना नामक पत्रिका भी विदेश से प्रकाशित होने वाली प्रमुख पत्रिका के तौर पर स्थापित हो चुकी है। ऐसे और भी प्रकाशन हैं, जो वैश्विक स्तर पर हिंदी की समृद्धि का प्रकाश फैला रहे है। भारत के साथ ही सूरीनाम फिजी, त्रिनिदाद, गुआना, मॉरीशस, थाईलैंड व सिंगापुर इन 7 देशों में भी हिंदी वहां की राजभाषा या सह राजभाषा के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुकी है। इतना ही नहीं आबूधाबी में पिछले वर्ष हिंदी को तीसरी आधिकारिक भाषा की मान्यता मिल चुकी है। आज विश्व के लगभग 44 ऐसे देश हैं जहां हिंदी बोलने का प्रचलन बढ़ रहा है। सवाल यह है कि जब हिंदी की वैश्विक स्वीकार्यता बढ़ रही है, तब हम अंग्रेजी के पीछे क्यों भाग रहे हैं। हम अपने आपको भुलाने की दिशा में कदम क्यों बढ़ा रहे हैं।

                        


भारतेंदु ने हिंदी भाषा के बारे में कहा है कि-"निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटन न हिय के सूल'। मतलब मातृभाषा की उन्नति बिना किसी भी समाज की तरक्की संभव नहीं है तथा अपनी भाषा के ज्ञान के बिना मन की पीड़ा को दूर करना भी मुश्किल है।


 

Wednesday

समास

 समास दो शब्दों से मिलकर बना है, 'सम+आस' जिसका अर्थ होता है संक्षिप्त कथन अर्थात समास में शब्दों का संक्षिप्तीकरण किया जाता है।

                  


समास किसे कहते हैं?

दो या दो से अधिक शब्दों से मिलकर बने नवीन एवं सार्थक शब्द को समास कहते हैं।

समस्त पद किसे कहते हैं?

समास की प्रक्रिया से बने शब्दों को समस्त पद कहते हैं।

समास विग्रह किसे कहते हैं?

समास की प्रक्रिया से बने शब्दों को अलग करने की विधि को समास विग्रह कहते हैं।

उदाहरण:- राजपुत्र (समास) राजा का पुत्र(समास विग्रह)

समास की रचना में प्राय दो पद होते हैं पहले को पूर्व पद तथा दूसरे को उत्तर पद कहते हैं।

                        

समास के भेद

समास के निम्नलिखित 6 भेद होते हैं।

1. द्विगु समास

2. द्वंद समास

3. बहुव्रीहि समास 

4.अव्ययीभाव समास 

5.कर्मधारय समास

6. तत्पुरुष समास

                            

1.द्विगु समास :- वह समास जिसका पूर्व पद संख्यावाचक विशेषण होता है तथा समस्तपद समाहार या समूह का बोध कराए, उसे द्विगु समास कहते हैं।
 जैसे:
दोपहर : दो पहरों का समाहार
शताब्दी : सौ सालों का समूह
पंचतंत्र : पांच तंत्रों का समाहार
सप्ताह : सात दिनों का समूह

2.द्वंद्व समास :- जिस समस्त पद में दोनों पद प्रधान हों एवं दोनों पदों को मिलाते समय ‘और’, ‘अथवा’, या ‘एवं ‘ आदि योजक
लुप्त हो जाएँ, वह समास द्वंद्व समास कहलाता है। जैसे:

अन्न-जल : अन्न और जल

अपना-पराया : अपना और पराया

राजा-रंक : राजा और रंक

देश-विदेश : देश और विदेश आदि।

रुपया-पैसा : रुपया और पैसा

माता-पिता : माता और पिता

दूध-दही : दूध और दही

3.बहुव्रीहि समास :- जिस समास के समस्त पदों में से कोई भी पद प्रधान नहीं हो एवं दोनों पद मिलकर किसी तीसरे पद की और संकेत करते हैं वह समास बहुव्रीहि समास कहलाता है। जैसे:

गजानन : गज से आनन वाला

त्रिलोचन : तीन आँखों वाला

दशानन : दस हैं आनन जिसके

चतुर्भुज : चार हैं भुजाएं जिसकी 

मुरलीधर : मुरली धारण करने वाला आदि।

4.अव्ययीभाव समास :- वह समास जिसका पहला पद अव्यय हो एवं उसके संयोग से समस्तपद भी अव्यय बन जाए, उसे अव्ययीभाव समास कहते हैं। अव्ययीभाव समास में पूर्वपद प्रधान होता है।

अव्यय : जिन शब्दों पर लिंग, कारक, काल आदि शब्दों से भी कोई प्रभाव न हो जो अपरिवर्तित रहें वे शब्द अव्यय कहलाते हैं। 

अव्ययीभाव समास के पहले पद में अनु, आ, प्रति, यथा, भर, हर, आदि आते हैं। जैसे:

आजन्म: जन्म से लेकर

यथामति : मति के अनुसार

प्रतिदिन : दिन-दिन

यथाशक्ति : शक्ति के अनुसार आदि।

यथासमय : समय के अनुसार

यथारुचि : रूचि के अनुसार

प्रतिवर्ष : प्रत्येक वर्ष

प्रतिसप्ताह : प्रत्येक सप्ताह

5.कर्मधारय समास :- वह समास जिसका पहला पद विशेषण तथा दूसरा पद विशेष्य होता है, अथवा एक पद उपमान एवं दूसरा उपमेय होता है, उसे कर्मधारय समास कहते हैं।

कर्मधारय समास का विग्रह करने पर दोनों पदों के बीच में ‘है जो’ या ‘के सामान’ आते हैं। जैसे:

महादेव : महान है जो देव

दुरात्मा : बुरी है जो आत्मा

करकमल : कमल के सामान कर

नरसिंह : सिंह रूपी नर

देहलता = देह रूपी लता

नवयुवक = नव है जो युवक

कमलनयन = कमल के समान नयन

नीलकमल = नीला है जो कमल

6.तत्पुरुष समास :- जिस समास में उत्तरपद प्रधान होता है एवं पूर्वपद गौण होता है वह समास तत्पुरुष समास कहलाता है। जैसे:

धर्म का ग्रन्थ : धर्मग्रन्थ

राजा का कुमार : राजकुमार

तुलसीदासकृत : तुलसीदास द्वारा कृत

तत्पुरुष समास के प्रकार :-

1.कर्म तत्पुरुष – को’ के लोप से यह समास बनता है। जैसे: ग्रंथकार : ग्रन्थ को लिखने वाला

2.करण तत्पुरुष – ‘से’ और ‘के द्वारा’ के लोप से यह समास बनता है। जैसे: वाल्मिकिरचित : वाल्मीकि के द्वारा रचित

3.सम्प्रदान तत्पुरुष – ‘के लिए’ का लोप होने से यह समास बनता है। जैसे: सत्याग्रह : सत्य के लिए आग्रह

4.अपादान तत्पुरुष – ‘से’ का लोप होने से यह समास बनता है। जैसे: पथभ्रष्ट: पथ से भ्रष्ट

5.सम्बन्ध तत्पुरुष – ‘का’, ‘के’, ‘की’ आदि का लोप होने से यह समास बनता है। जैसे: राजसभा : राजा की सभा

6.अधिकरण तत्पुरुष – ‘में’ और ‘पर’ का लोप होने से यह समास बनता है। जैसे: जलसमाधि : जल में समाधि

उदाहरण : 

रथचालक : रथ को चलाने वाला।

जेबकतरा : जेब को कतरने वाला।

मनमाना : मन से माना हुआ

शराहत : शर से आहत

देशार्पण : देश के लिए अर्पण

गौशाला : गौओं के लिए शाला

सत्याग्रह : सत्य के लिए आग्रह

परीक्षा के एक दिन पूर्व दो मित्रों की बातचीत का संवाद लेखन कीजिए-

संवाद लेखन किसे कहते हैं  संवाद लेखन -  वह लेखनी है जिसमें दो या अधिक व्यक्तियों के बीच होने वाली बातचीत को लिखित रूप में व्यक्त किया जाता ह...