Wednesday

विज्ञापन लेखन

                     विज्ञापन किसे कहते है?

                 
विज्ञापन – किसी वस्तु के गुणों की जानकारी या सरकारी-अर्धसरकारी संस्था द्वारा अपनी बात को अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए जिस माध्यम की सहायता ली जाती है, उसे विज्ञापन कहते हैं।

ज्ञापन’ शब्द में ‘वि’ उपसर्ग लगाने से ‘विज्ञापन’ बना है। इसका अर्थ है-जानकारी देना। वर्तमान समय में उत्पादकों द्वारा अपनी वस्तुओं को बेचने के लिए विज्ञापनों का जमकर प्रयोग किया जाता है। इन विज्ञापनों की भाषा आकर्षक और अतिशयोक्तिपूर्ण होती है जो कि लोगों पर जादू-सा असर करती है। किशोर और बच्चे उन्हीं वस्तुओं का प्रयोग करना चाहते हैं जिनका वे विज्ञापन देखते हैं। अब तो विज्ञापन हमारे खान-पान और रहन-सहन को बुरी तरह प्रभावित करता है।

उद्देश्य – विज्ञापन का उद्देश्य है-जानकारी पहुँचाना। इससे लोगों का ज्ञान बढ़ता है। उनके सामने चुनाव के विकल्प, गुण, मूल्य परखने की सुविधा सरलता से उपलब्ध हो जाती है। इससे विक्रेता भी लाभ कमाते हैं। विज्ञापन की सहायता से कम से कम खर्च में अधिकाधिक लोगों तक अपनी बात पहुँचाई जाती है। यही कारण है कि आज समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ, दूरदर्शन के विभिन्न कार्यक्रम पोस्टर, बनैर यहाँ तक कि दीवारें भी रंगी नज़र आती हैं।

विज्ञापन लेखन में ध्यान देने योग्य बातें –

विज्ञापन की भाषा आकर्षक और तुकबंदी युक्त होनी चाहिए।

1.शब्द ऐसे होने चाहिए जो कम से कम होने पर अधिकाधिक अर्थ की अभिव्यक्ति करें।

2.विज्ञापित वस्तु का चित्र साफ़ और स्पष्ट होना चाहिए।

3.विज्ञापन में छूट, स्टॉक सीमित, जल्दी करें जैसे शब्द अवश्य होने चाहिए।

4.विज्ञापन बड़े शब्दों में लिखा जाना चाहिए ताकि दूर से पढ़ा जा सके।

4.विज्ञापन में चित्र रंगीन होने चाहिए।

                        


                         विज्ञापन का महत्व 

विज्ञापन हमेशा से ही बहुत महत्वपूर्ण रहे हैं, विज्ञापनों के द्वारा ही कंपनियां अपने प्रोडक्ट की जानकारी को लोगों तक पहुंचाने में सफल हो पाते हैं. अगर विज्ञापन नहीं होते तो शायद ही लोगों को मार्केट में आने वाले प्रोडक्ट की खबर होती. विज्ञापन के महत्व को हमने नीचे कुछ बिंदुओं द्वारा आपको समझाने की कोशिस की है –

1.नए प्रोडक्ट की जानकारी देना – विज्ञापन कंपनियों के नए प्रोडक्ट की जानकारी लोगों तक पहुंचाते हैं, तथा उस प्रोडक्ट से होने वाले लाभ और हानियों को भी विज्ञापन उजागर करते हैं।

2.ग्राहक की सुविधा – विज्ञापनों से ग्राहक को काफी सुविधा मिलती हैं, इससे ग्राहकों को पता रहता है कि मार्केट में क्या – क्या प्रोडक्ट आ रहे हैं और उनका इस्तेमाल किस काम के लिए किया जाता है।

3.विक्रेता को लाभ – विज्ञापन से ना केवल ग्राहकों को लाभ मिलता है बल्कि विक्रेताओं को भी बहुत अधिक लाभ होता है. विक्रेताओं की बिक्री में इजाफा तो होता ही है लेकिन इसके साथ उनको प्रोडक्ट के बारे में बार – बार ग्राहकों को नहीं समझाना पड़ता है।

4.देश की अर्थव्यवस्था में योगदान – देश की अर्थव्यवस्था में भी विज्ञापन काफी महत्वपूर्ण होते हैं. विज्ञापन प्रोडक्ट के बारे में लोगों को जागरूक करके बिक्री को बढ़ाते हैं जिससे देश की अर्थव्यवस्था विकास में सहयोग मिलता है।

5.बाजार का निर्माण – विज्ञापन बाजार का निर्माण करते हैं. विज्ञापन के द्वारा लोगों को किसी वस्तु की उपयोगिता के बारे में बताया जाता है जिससे लोग उसके प्रति आकर्षित होते है और उसे खरीदते हैं. इससे बाजार में उस वस्तु की मांग बढती है और बाजार का निर्माण होता है।

6.ग्राहकों के संदेहों को दूर करना – विज्ञापन प्रोडक्ट के संबंध में चल रही भ्रांतियों का निवारण करके ग्राहकों के संदेहों को दूर करते है।

7.समाज को शिक्षित करता है – कई सारे विज्ञापन समाज को शिक्षित करने के उद्देश्य से बनाये जाते हैं, इस प्रकार के विज्ञापन आमतौर पर सरकार या संस्थाओं के द्वारा बनाये जाते हैं. जैसे कन्या भ्रूण हत्या, धुम्रपान, बेटी पढाओ, शराब, स्वच्छता आदि के बारे में लोगों को शिक्षित करना।

                       


             विज्ञापन को लोगों तक पहुंचाने के माध्यम

विज्ञापनों को ऐसे माध्यमों से लोगों तक पहुंचाया जाता है जहाँ पर अधिक से अधिक लोग विज्ञापनों को देख सकें जैसे -

1.समाचार पत्र – समाचार पत्रों या अखबारों के द्वारा वस्तुओं और सेवाओं का प्रचार आसानी से किया जाता है, अधिकांश बिज़नस विज्ञापन के लिए समाचार पत्रों का बहुत अधिक इस्तेमाल करते हैं।

2.मैगजीन – मैगजीन को एकक निश्चित टाइम पर प्रकाशित किया जाता है, जैसे मंथली, वीकली. मैगजीन को पढने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक होती है इसलिए विज्ञापन के लिए मैगजीन एक अच्छा माध्यम माना जाता है।

3.रेडिओ – रेडिओ पहले के समय में विज्ञापन के लिए बहुत ही लोकप्रिय माध्यम था, लेकिन आज इन्टरनेट के बढ़ते उपयोग से रेडिओ सुनने वाले लोगों की संख्या में कमी जरुर हुई है, जिससे अब इस विज्ञापन का इस्तेमाल बहुत कम किया जाता है।

4.टेलीविज़न – टेलीविज़न के चलने वाले सीरियल, मूवी, लाइव स्पोर्ट्स, समाचार आदि के बीच में विज्ञापन प्रदर्शित होते हैं. टेलीविज़न के द्वारा कम समय में बड़ी रेंज में दर्शकों तक पहुंचा जा सकता है।

5.सर्च इंजन – सर्च इंजन जैसे गूगल, बिंग, याहू, YouTube आदि विज्ञापनों के द्वारा कंपनियां अपने लक्षित ऑडियंस तक पहुँच सकती है. यह विज्ञापन काफी प्रभावशाली होते हैं, जिनसे कम लागत में अच्छे रिजल्ट हासिल किये जा सकते हैं।

6.सोशल मीडिया – सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म जैसे फेसबुक, इन्स्टाग्राम, ट्विटर आदि के द्वारा बहुत कम बजट में अधिक लोगों तक पहुंचा जा सकता है. आजकल सोशल मीडिया विज्ञापनों का इस्तेमाल बहुत अधिक होता है।

7.डायरेक्ट मार्केटिंग – डायरेक्ट मार्केटिंग में कंपनियां ईमेल, WhatsApp, मैसेज, फोन कॉल आदि के माध्यम से अपने प्रोडक्ट और सर्विस की जानकारी लोगों तक पहुंचाती है।

8.सिनेमा घर – सिनेमा घरों में मूवी के पहले, बीच में और अंत में कई सारे विज्ञापन दिखाये जाते हैं।

9.बाजार – मार्केट में भीड़ होने के कारण कई कंपनियां बैनर के द्वारा अपने प्रोडक्ट और सर्विस को प्रमोट करती है. आपको मार्केट में कई सारी कंपनियों के बैनर देखने को मिल जायेंगें।

10.पोस्टर – इस प्रकार के विज्ञापन को प्रिंटिंग मशीन से प्रिंट करवाकर गली, मोहल्ले या चौराहों पर लगा दिया जाता है जिससे लोग रूककर पोस्टर में दिए गए सन्देश को पढ़ सकते हैं।

11.वाहन – आमतौर पर ट्रेन, हवाई जहाज या बसों के अन्दर बाहर कई सारे कंपनियों के विज्ञापन होते हैं. जिन्हें कि वाहन को आते – जाते हुए और उस वाहन में सवार हुए लोग देख सकते हैं।

12.लाउडस्पीकर – शहरों में कंपनियां रिक्शे, ऑटो, कार या तांगे में लाउडस्पीकर के द्वारा मौखिक रूप में अपने प्रोडक्ट के लिए विज्ञापन करती हैं।


Tuesday

सूचना लेखन

                       लेखन कौशल सूचना लेखन



मनुष्य जिज्ञासु प्राणी है। वह तरह-तरह की जानकारियों से अवगत होना चाहता है। वह सूचनाओं का आदान-प्रदान करता है। इसी तरह सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाएँ भी कुछ आवश्यक सूचनाएँ लोगों तक पहुँचाना चाहती हैं। जन साधारण की भलाई हेतु वे समय-समय पर ऐसा करती रहती हैं। इन सूचनाओं को जनता तक लिखित रूप में पहुँचाना सूचना-लेखन कहलाता है। सूचना-लेखन के माध्यम से जन साधारण से सीधे संवाद स्थापित किया जाता है। इसके माध्यम से कम खर्च और अल्प परिश्रम से अधिकाधिक लोगों तक सूचनाएँ पहुँचाई जाती हैं। छात्रों को भी तरह-तरह की सूचनाएँ विद्यालय के सूचनापट्ट पर लिखी मिलती हैं। सूचनाएँ प्रायः ऐसे स्थान पर लिखी जाती हैं, जहाँ लोगों द्वारा वे आसानी से देखी और पढ़ी जा सकें। इन्हें कॉलोनियों और रिहायशी इलाकों के मुख्य द्वार पर या प्रायः कॉलोनी के सूचनापट्टों पर लिखी मिल जाती हैं।

सूचना-लेखन में ध्यान देने योग्य बातें-

1.सूचना प्रायः तीन या चार वाक्यों में लिखी जानी चाहिए।

2.सूचना पूर्ण और आसानी से समझ में आने वाली होनी चाहिए।

3.सूचना सरल शब्दों में लिखी जानी चाहिए।

4.सूचना की भाषा प्रभावपूर्ण और मर्यादित शब्दों में लिखी जानी चाहिए।

5.सूचना की लिखावट पठनीय होनी चाहिए।

6.सूचना देने वाले का नाम या स्थान विशेष की जानकारी अवश्य होनी चाहिए।

7.सूचना देने वाले के हस्ताक्षर और दिनांक अवश्य लिखा जाना चाहिए।

सूचना-लेखन की विधि

सूचना लेखन में सबसे ऊपर विद्यालय या संस्था का नाम लिखा जाता है। इससे ज्ञात होता है कि सूचना किस कार्यालय द्वारा दी जा रही है; जैसे-

विद्या भारती सेकेंड्री स्कूल, ज्योति नगर, दिल्ली

खेल परिषद

अगली पंक्ति में मोटे अक्षरों में लिखना चाहिए

सूचना

इसके बाद शीर्षक और उसके नीचे अगले एक अनुच्छेद में इस तरह लिखनी चाहिए –

हमारे विद्यालय की खेल परिषद दवारा आगामी सोमवार को प्रात: 9 बजे एक टायल कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है जिसके माध्यम से विभिन्न खेलों-क्रिकेट, टेबल-टेनिस, लंबी दौड़, फुटबॉल, वॉलीबाल, कबड्डी आदि की टीम बनाने हेतु संभावित खिलाड़ियों का चयन किया जाएगा। जो छात्र-छात्राएँ इसमें अपनी खेल प्रतिभा दिखाना चाहते हैं वे अधोहस्ताक्षरी के पास तीन दिनों के भीतर अपना नामांकन अवश्य करा दें।

करतार सिंह

(खेल शिक्षक)

सचिव, खेल परिषद्


इस तरह हमने देखा कि –

सूचना की भाषा की अपनी अलग विशेषता होती है।

इसे अन्य पुरुष में लिखा जाता है, जैसे सभी छात्रों को सूचित किया जाता है कि।

सूचना लेखन में कम शब्दों के माध्यम से गागर में सागर भरने का प्रयास किया जाता है।

शीर्षक बीच में दो-तीन शब्दों का होता है; जैसे

रक्तदान शिविर का आयोजन

कवि सम्मेलन का आयोजन

दिल्ली दर्शन का कार्यक्रम

अंत में बाएँ कोने में सूचना लेखक का नाम, पद आदि का उल्लेख होता है।


                  

सूचना लेखन के उदाहरण

आइए सूचना-लेखन के कुछ नमूने देखें

1. छात्र-परिषद की बैठक के लिए सूचना-पत्र

सूचना

दिल्ली पब्लिक स्कूल

बुलंदशहर

विद्यालय में अनुशासन एवं सफ़ाई की समस्याओं पर छात्र-परिषद की बैठक आज मध्यावकाश में प्रधानाचार्या के कार्यालय में होगी।

छात्र-परिषद के सभी सदस्यों की उपस्थिति अनिवार्य है।

प्रधानाचार्य।

25 जुलाई, 2023


2.आगामी माह में होने वाले वार्षिकोत्सव से संबंधित तैयारी के लिए विद्यार्थी परिषद की बैठक (Meeting) के लिए सूचना-पत्र

सचना

विद्यार्थी परिषद

सरदार बल्लभभाई पटेल विद्यालय, दिल्ली

1 नवंबर, 20xx

प्रिय मित्रो,

आगामी 25 नवंबर, 20Xx को ‘वार्षिकोत्सव’ का आयोजन किया जा रहा है। इसी से संबंधित व्यवस्था को लेकर कुछ आवश्यक मुद्दों पर चर्चा करने के लिए छात्र-परिषद की बैठक दिनांक 2 नवंबर, 20XX को ‘सभागार’ में मध्यावकाश के समय होनी निश्चित हुई है।

छात्र परिषद के सभी सदस्यों की उपस्थिति अनिवार्य है।

राहुल शर्मा

सचिव

विद्यार्थी परिषद

Monday

समीक्षा

                       कहानी की समीक्षा के तत्व 

 

                      समीक्षा का क्या अर्थ है?

समीक्षा का अर्थ है-परीक्षण,गुण,दोष,विवेचन,समालोचना,विश्लेषण करना,छानबीन या जांच पड़ताल की क्रिया समालोचना आदि।

समीक्षा किसे कहते हैं?

किसी भी लेखन को पढ़कर उसके बारे में बताना समीक्षा कहलाता है।

समीक्षा की परिभाषा

किसी भी लेखन को पढ़ कर उसके बारें में बताना समीक्षा कहलाता है। समीक्षक द्वारा की गई टिप्पणी पाठकों को पुस्तक पढ़ने या ना पढ़ने के लिए प्रेरित करती है। किसी किताब, लेख, कहानी पर आपकी प्रतिक्रिया होती है जो अच्छी या बुरी हो सकती है। समीक्षा से पाठकों को लेखन के विभिन्न पहलुओं की जानकारी मिलती है। समीक्षा मतलब समालोचना, किसी भी लेखन की समीक्षा व्यवहारिक आलोचना का एक सशक्त रूप होती है। लेकिन लगता है कि आज यह काम कुछ व्यवहारिक बन है, आजकल रचना और लेखों की समीक्षा निजी संबंधों को निभाने के तौर पर की जाती है, मतलब लेखक को खुश करने का ज़रिया। समीक्षा की स्थिति आज दायित्वहीनता की परकाष्ठा तक पहुंच चुकी है। समीक्षाएं आज विशुद्ध लेन-देन का जरिया बन चुकी है।

कहानी की समीक्षा करते समय हम उसके कथानक पत्र भाषा शैली उद्देश्य संवाद आदि तथ्यों पर प्रकाश डालते हैं किसी भी कहानी की समीक्षा करते समय आवश्यक नहीं है कि हम उसके सकारात्मक तथ्यों का ही प्रगठन करें बल्कि हम किसी भी ऐसी बात के विषय में जो हमें पसंद नहीं आए लिख सकते हैं।

                   

                हिंदी कहानी के मूलत 6 तत्व होते हैं।

1.विषय वस्तु अथवा कथानक 

2. चरित्र चित्रण

3. संवाद

4. भाषा शैली 

5. वातावरण 

6. उद्देश्य

इन तत्वों के आधार पर हिंदी कहानी की समीक्षा की जा सकती है।

1. विषय वस्तु अथवा कथानक-प्रत्येक कहानी में कोई ना कोई घटनाक्रम आवश्यक होता है कहानी में वर्णित घटनाओं के समूह को कथा न कहते हैं कथानक किसी भी कहानी की आत्मा है इसलिए कथा ना की योजना इस प्रकार होनी चाहिए कि सभी घटनाएं और प्रसंग परस्पर संबंध हो उनमें बिखराव या परस्पर विरोध नहीं होना चाहिए।

मौलिकता रोचक ता जिज्ञासा कोतवाल की सृष्टि अच्छे कथानक के गुण है। साधारण से साधारण कथानक को भी कहानीकार कल्पना एवं मर्मस्पर्शीय अनुभूतियों के सहारे एक विचित्र और आकर्षण प्रदान कर सकता है।

2. चरित्र चित्रण-प्रत्येक कहानी में कुछ पात्र होते हैं जो कथानक के संजीव संचालक होते हैं इनमें एक और कथानक का आरंभ विकास और अंत होता है तो दूसरी ओर हम कहानी से इनमें आत्मीयता प्राप्त करते हैं। कहानी में मुख्य रूप से दो पात्र होते हैं पहले वर्ग्गत अर्थात जो अपनी वर्ग की विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करता है दूसरा व्यक्तित्व वे पात्र जिनकी निजी विशेषताएं होती है।

3. संवाद-कहानी का आवश्यक अंग है कहानी में पात्रों के बीच वार्तालाप को संवाद कहते हैं यह संवाद कहानी को सजीव और प्रभावशाली बनाते हैं कहानी में संवाद कथानक को गति प्रदान करते हैं पत्रों का चरित्र चित्रण करते हैं कहानी के स्वाभाविकता प्रदान करते हैं इसका उद्देश्य स्पष्ट करते हैं संवाद का सबसे बड़ा गुण है जिज्ञासा और कुतूहल उत्पन्न करना। इन सब कार्यों का संपादन तभी हो सकता है जब कहानी के संवाद पत्र स्थिति एवं घटना के अनुकूल हो चित्रों को उभारने वाले सरल एवं स्पष्ट हो।

4. भाषा शैली-कहानी की भाषा ऐसी होनी चाहिए कि उसमें मूल संवेदना को व्यक्त करने की पूरी क्षमता हो कहानीकार का दायित्व और उसकी रचना शक्ति का सच्चा परिचय उसकी भाषा से ही मिलता है भाषा की सृष्टि से सफल कहानी वही मानी जाती है जिसकी भाषा सरल स्पष्ट प्रभाव में और विषय एवं पात्र अनुकूल हो वह ओज माधुर्य गुणों से युक्त हो।

जहां तक शैली का संबंध है उसमें सजीवता रोचकता संवेदात्मकता तथा प्रभावात्मकता आदि का होना आवश्यक है शैली का संबंध कहानी के पूर्ण तत्वों से रहता है कहानीकार इन शैलियों में कहानी लिख सकता है वर्णन प्रधान शैली आत्मकथात्मक शैली पत्रक शैली नाथ की असीली भावात्मक शैली आदि कहानी के लिए सरस संवादात्मक शैली अधिक उपयुक्त होती है।

5. वातावरण-वातावरण का अर्थ है उन सभी परिस्थितियों का चित्रण करना जिम कहानी के पात्र सांस ले रहे हैं सफल कहानी में देशकाल प्रकृति परिवेश आदि का प्रभाव सृष्टि के लिए अनिवार्य तत्व के रूप में स्वीकार किया जाता है वातावरण की सृष्टि से कहानी हृदय पर मार्मिक प्रभाव की अभिव्यंजना करती है कहानीकार पूरे संदर्भ में सामाजिक परिवेश को देखा है उसका यथार्थ वर्णन करता है वातावरण के माध्यम से वह कहानी में एकांतिक प्रभाव लाने की स्थिति उत्पन्न करता है सही वातावरण किसी भी कहानी को विश्वसनीय बनता है।

6. उद्देश्य-कहानी की रचना का उद्देश्य मनोरंजन माना जाता है किंतु मनोरंजन ही कहानी का एकमात्र उद्देश्य नहीं होता कहानी में जीवन के किसी एक पक्ष के प्रति दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जाता है।आज की कहानी मानव जीवन के किसी मनोवैज्ञानिक सत्य को उजागर करती है कहानी द्वारा जीवन सत्य की व्याख्या एवं मानवीय आदर्शों की स्थापना भी की जाती है आकर में लघु होने के उपरांत भी कहानी महान विचारों का वहन करती है।

उदाहरण-भारतेंदु युग की कहानियों का मुख्य स्वर सामाजिक सुधारवादी एवं धार्मिक दृष्टिकोण से प्रेरित था प्रेमचंद की कहानी मध्यम वर्ग के सामाजिक जीवन का यथार्थ चित्रण है।

अतः स्पष्ट है की कहानी का उद्देश्य कहानीकार के दृष्टिकोण एवं विषय वस्तु के अनुकूल होता है।

Sunday

अलंकार

                          अलंकार किसे कहते हैं?                 


अलंकार की परिभाषा-जिस प्रकार शरीर की शोभा बढ़ाने के लिए आभूषण धारण किए जाते हैं उसी प्रकार काव्य की शोभा वृद्धि के लिए प्रयुक्त तत्व ही अलंकार कहे जाते हैं।

आचार्य दंडी ने भी कहा है-"काव्य शोभाकारान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते।"अर्थात काव्य की शोभा बढ़ाने वाले शब्द ही अलंकार हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल भी अलंकारों को काव्य में प्रस्तुत भाव को उत्कर्ष देने वाला मानते हैं।

अलंकार के भेद-

अलंकार द्वारा काव्य में चमत्कार का प्रदर्शन शब्द पर अथवा अर्थ पर आधारित होता है अतः अलंकारों के दो प्रमुख भेद हैं।

1. शब्दालंकार

2. अर्थालंकार 

1. जहां चमत्कार कविता में प्रयुक्त शब्द पर आधारित होता है।वहां शब्द अलंकार होता है।यदि प्रयुक्त शब्दों को हटाकर उनका कोई पर्यायवाची रख दिया जाए तो चमत्कार समाप्त हो जाता है।इस प्रकार शब्द विशेष पर आधारित होने के कारण यह शब्दालंकार कहे जाते हैं।

जैसे-

"कनक -कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।"

        या खा बौराए जग, वा पाए बौराए।"

इस पंक्ति में कनक शब्द का दो बार भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयोग करके चमत्कार उत्पन्न किया गया है।पहला कनक धतूरे के लिए तथा दूसरा स्वर्ण के लिए प्रयुक्त हुआ है।यदि यहां कनक-कनक की जगह धतूरा और स्वर्ण रख दिया जाए तो चमत्कार समाप्त हो जाएगा अतः चमत्कार शब्द कनक पर आधारित होने के कारण यह शब्दालंकार कहे जाते हैं।

2. अर्थालंकार अर्थालंकार

जहां कविता का चमत्कार या शोभा उसके अर्थ पर आधारित होता है वहां अर्थालंकार होता। वहां यदि प्रयुक्त शब्दों के स्थान पर उनके पर्यायवाची भी रख दिए जाए तो भी चमत्कार यथावत रहता है।

जैसे-

"झर रही मुख-चंद्र से, मुस्कान की है चांदनी।"इस पंक्ति को यदि इस प्रकार कहें-छिटक रही आनन मयंक से स्मिति की विधूलेखा।"तो भी चमत्कार या स्वभाव वैसे ही रहती है अतः यहां अर्थालंकार है।

           

1.अर्थालंकार 

1.अनुप्रास अलंकार

अनुप्रास अलंकार की परिभाषा

जब किसी काव्य को सुंदर बनाने के लिए किसी वर्ण की बार-बार आवृति हो तो वह अनुप्रास अलंकार कहलाता है। किसी विशेष वर्ण की आवृति से वाक्य सुनने में सुंदर लगता है।

इस अलंकार में किसी वर्ण या व्यंजन की एक बार या अनेक वणों या व्यंजनों की अनेक धार आवृत्ति होती है।

जैसे: मुदित महापति मंदिर आये। 

जैसा की आप ऊपर दिए गए उदाहरण में देख सकते हैं की ‘म’ वर्ण की आवृति हो रही है। यह आवृति वाक्य का सौंदर्य बढ़ा रही है। 

"रघुपति राघव राजा राम।"

ऊपर दिए गए उदाहरण में जैसा की आप देख सकते है हर शब्द में ‘र’ वर्ण की बार बार आवृति हुई है जिससे इस वाक्य की शोभा बढ़ती है। 

2.यमक अलंकार

यमक अलंकार की परिभाषा

जिस प्रकार अनुप्रास अलंकार में किसी एक वर्ण की आवृति होती है उसी प्रकार यमक अलंकार में किसी काव्य का सौन्दर्य बढ़ाने के लिए एक शब्द की बार-बार आवृति होती है।

प्रयोग किए गए शब्द का अर्थ हर बार अलग होता है। शब्द की दो बार आवृति होना वाक्य का यमक अलंकार के अंतर्गत आने के लिए आवश्यक है। जैसे :

यमक अलंकार के उदाहरण :

कनक कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाय। या खाए बौरात नर या पा बौराय।।

इस पद्य में ‘कनक’ शब्द का प्रयोग दो बार हुआ है। प्रथम कनक का अर्थ ‘सोना’ और दुसरे कनक का अर्थ ‘धतूरा’ है। अतः ‘कनक’ शब्द का दो बार प्रयोग और भिन्नार्थ के कारण उक्त पंक्तियों में यमक अलंकार की छटा दिखती है।

3.श्लेष अलंकार

श्लेष अलंकार की परिभाषा

श्लेष का अर्थ होता है चिपका हुआ या मिला हुआ। जब एक ही शब्द से हमें विभिन्न अर्थ मिलते हों तो उस समय श्लेष अलंकार होता है।

यानी जब किसी शब्द का प्रयोग एक बार ही किया जाता है लेकिन उससे अर्थ कई निकलते हैं तो वह श्लेष अलंकार कहलाता है। जैसे: श्लेष अलंकार के उदाहरण...

1.रहिमन पानी राखिये,बिन पानी सब सून।

पानी गये न ऊबरै, मोती मानुष चून।।

इस दोहे में रहीम ने पानी को तीन अर्थों में प्रयोग किया है :

पानी का पहला अर्थ मनुष्य के संदर्भ में है जब इसका मतलब विनम्रता से है। रहीम कह रहे हैं कि मनुष्य में हमेशा विनम्रता (पानी) होना चाहिए।

2.पानी का दूसरा अर्थ आभा, तेज या चमक से है. रहीम कहते हैं कि चमक के बिना मोती का कोई मूल्य नहीं ।

3.पानी का तीसरा अर्थ जल से है जिसे आटे (चून) से जोड़कर दर्शाया गया है। रहीम का कहना है कि जिस तरह आटे का अस्तित्व पानी के बिना नम्र नहीं हो सकता और मोती का मूल्य उसकी आभा के बिना नहीं हो सकता है, उसी तरह मनुष्य को भी अपने व्यवहार में हमेशा पानी (विनम्रता) रखना चाहिए जिसके बिना उसका मूल्यह्रास होता है। अतः यह उदाहरण श्लेष केअंतर्गत आएगा।

               

2.अर्थालंकार 
 1.उपमा अलंकार                                                   
  उपमा अलंकार की परिभाषा

जब किन्ही दो वस्तुओं के गुण, आकृति, स्वभाव आदि में समानता दिखाई जाए या दो भिन्न वस्तुओं कि तुलना कि जाए, तब वहां उपमा अलंकर होता है।

उपमा अलंकार में एक वस्तु या प्राणी कि तुलना दूसरी प्रसिद्ध वस्तु के साथ कि जाती है। जैसे :

उपमा अलंकार के उदाहरण

हरि पद कोमल कमल। 

ऊपर दिए गए उदाहरण में हरि के पैरों कि तुलना कमल के फूल से की गयी है। यहाँ पर हरि के चरणों को कमल के फूल के सामान कोमल बताया गया है। यहाँ उपमान एवं उपमेय में कोई साधारण धर्म होने की वजह से तुलना की जा रही है अतः यह उदाहरण उपमा अलंकार के अंतर्गत आएगा।

उपमा अलंकार के अंग

उपमा अलंकार के चार अंग होते हैं :

उपमेय

उपमान

साधारण धर्म, और

वाचक शब्द

उदाहरण : सागर-सा गंभीर हृदय हो, गिरी-सा ऊंचा हो जिसका मन 

उपमेय : जिस वस्तु या व्यक्ति के बारे में बात की जा रही है या जो वर्णन का विषय है वो उपमेय कहलाता है। ऊपर दिए गए उदाहरण में हृदय एवं मन उपमेय हैं।

उपमान : वाक्य या काव्य में उपमेय की जिस प्रसिद्ध वस्तु से तुलना कि जा रही हो वह उपमान कहलाता है। ऊपर दिए गए उदाहरण में सागर एवं गिरी उपमान हैं।

साधारण धर्म : साधारण धर्म उपमान ओर उपमेय में समानता का धर्म होता है। अर्थात जो गुण उपमान ओर उपमेय दोनों में हो जिससे उन दोनों कि तुलना कि जा रही है वही साधारण धर्म कहलाता है। ऊपर दिए गए उदाहरण में गंभीर एवं ऊँचा साधारण धर्म है।

वाचक शब्द : वाचक शब्द वह शब्द होता है जिसके द्वारा उपमान और उपमेय में समानता दिखाई जाती है। जैसे : सा।ऊपर दिए गए उदाहरण में ‘सा'वाचक शब्द है। 

 2.रूपक अलंकार की परिभाषा

जब गुण की अत्यंत समानता के कारण उपमेय को ही उपमान बता दिया जाए यानी उपमेय ओर उपमान में अभिन्नता दर्शायी जाए तब वह रूपक अलंकार कहलाता है।

रूपक अलंकार अर्थालंकारों में से एक है। रूपक अलंकार में उपमान और उपमेय में कोई अंतर नहीं दिखायी पड़ता है। जैसे: रूपक अलंकार के उदाहरण :

वन शारदी चन्द्रिका-चादर ओढ़े। 

दिए गए उदाहरण में जैसा कि आप देख सकते हैं चाँद की रोशनी को चादर के समान ना बताकर चादर ही बता दिया गया है। इस वाक्य में उपमेय – ‘चन्द्रिका’ है एवं उपमान – ‘चादर’ है। यहां आप देख सकते हैं की उपमान एवं उपमेय में अभिन्नता दर्शायी जा रही है। हम जानते हैं की जब अभिन्नता दर्शायी जाती ही तब वहां रूपक अलंकार होता है।

अतः यह उदाहरण रूपक अलंकार के अंतर्गत आएगा।

पायो जी मैंने राम रतन धन पायो। 

ऊपर दिए गए उदाहरण में राम रतन को ही धन बता दिया गया है। ‘राम रतन’ – उपमेय पर ‘धन’ – उपमान का आरोप है एवं दोनों में अभिन्नता है।यहां आप देख सकते हैं की उपमान एवं उपमेय में अभिन्नता दर्शायी जा रही है। हम जानते हैं की जब अभिन्नता दर्शायी जाती ही तब वहां रूपक अलंकार होता है।

3.उत्प्रेक्षा अलंकार की परिभाषा :

जब समानता होने के कारण उपमेय में उपमान के होने कि कल्पना की जाए या संभावना हो तब वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। यदि पंक्ति में -मनु, जनु, जनहु, जानो, मानहु मानो, निश्चय, ईव, ज्यों आदि आता है वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। जैसे : उत्प्रेक्षा अलंकार के उदाहरण :

ले चला साथ मैं तुझे कनक। ज्यों भिक्षुक लेकर स्वर्ण।।

ऊपर दिए गए उदाहरण में जैसा कि आप देख सकते हैं कनक का अर्थ धतुरा है। कवि कहता है कि वह धतूरे को ऐसे ले चला मानो कोई भिक्षु सोना ले जा रहा हो।

काव्यांश में ‘ज्यों’ शब्द का इस्तेमाल हो रहा है एवं कनक – उपमेय में स्वर्ण – उपमान के होने कि कल्पना हो रही है। अतएव यह उदाहरण उत्प्रेक्षा अलंकार के अंतर्गत आएगा।

सिर फट गया उसका वहीं। मानो अरुण रंग का घड़ा हो। 

दिए गए उदाहरण में सिर कि लाल रंग का घड़ा होने कि कल्पना की जा रही है। यहाँ सिर – उपमेय है एवं लाल रंग का घड़ा – उपमान है। उपमेय में उपमान के होने कि कल्पना कि जा रही है। अतएव यह उदाहरण उत्प्रेक्षा अलंकार के अंतर्गत आएगा।

4.मानवीकरण अलंकार की परिभाषा

जब प्राकृतिक वस्तुओं कैसे पेड़,पौधे बादल आदि में मानवीय भावनाओं का वर्णन हो यानी निर्जीव चीज़ों में सजीव होना दर्शाया जाए तब वहां मानवीकरण अलंकार आता है। जैसे: मानवीकरण अलंकार के उदाहरण : फूल हँसे कलियाँ मुसकाई।

जैसा कि ऊपर दिए गए उदाहरण में दिया गया है की फूल हंस रहे हैं एवं कलियाँ मुस्कुरा रही हैं। जैसा की हम जानते हैं की हंसने एवं मुस्कुराने की क्रियाएं केवल मनुष्य ही कर सकते हैं प्राकृतिक चीज़ें नहीं। ये असलियत में संभव नहीं है एवं हम यह भी जानते हैं की जब सजीव भावनाओं का वर्णन चीज़ों में किया जाता है तब यह मानवीकरण अलंकार होता है।

अतः यह उदाहरण मानवीकरण अलंकार के अंतर्गत आएगा।

मेघ आये बड़े बन-ठन के संवर के। 

ऊपर के उदाहरण में दिया गया है कि बादल बड़े सज कर आये लेकिन ये सब क्रियाएं तो मनुष्य कि होती हैं न कि बादलों की। अतएव यह उदाहरण मानवीकरण अलंकार के अंतर्गत आएगा।ये असलियत में संभव नहीं है एवं हम यह भी जानते हैं की जब सजीव भावनाओं का वर्णन चीज़ों में किया जाता है तब यह मानवीकरण अलंकार होता है।अतः यह उदाहरण मानवीकरण अलंकार के अंतर्गत आएगा।

5.अतिशयोक्ति अलंकार की परिभाषा

जब किसी वस्तु, व्यक्ति आदि का वर्णन बहुत बाधा चढ़ा कर किया जाए तब वहां अतिशयोक्ति अलंकार होता है। इस अलंकार में नामुमकिन तथ्य बोले जाते हैं। जैसे :

अतिशयोक्ति अलंकार के उदाहरण :

हनुमान की पूंछ में लगन न पाई आग, लंका सिगरी जल गई गए निशाचर भाग। 

ऊपर दिए गए उदाहरण में कहा गया है कि अभी हनुमान की पूंछ में आग लगने से पहले ही पूरी लंका जलकर राख हो गयी और सारे राक्षस भाग खड़े हुए।

यह बात बिलकुल असंभव है एवं लोक सीमा से बढ़ाकर वर्णन किया गया है। अतः यह उदाहरण अतिशयोक्ति अलंकार के अंतर्गत आएगा।

आगे नदियां पड़ी अपार घोडा कैसे उतरे पार। राणा ने सोचा इस पार तब तक चेतक था उस पार।।

ऊपर दी गयी पंक्तियों में बताया गया है कि महाराणा प्रताप के सोचने की क्रिया ख़त्म होने से पहले ही चेतक ने नदियाँ पार कर दी।

यह महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक की अतिशयोक्ति है एवं इस तथ्य को लोक सीमा से बहुत बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया गया है। अतः यह उदाहरण अतिशयोक्ति अलंकार के अंतर्गत आएगा।

धनुष उठाया ज्यों ही उसने, और चढ़ाया उस पर बाण |धरा–सिन्धु नभ काँपे सहसा, विकल हुए जीवों के प्राण।

ऊपर दिए गए वाक्यों में बताया गया है कि जैसे ही अर्जुन ने धनुष उठाया और उस पर बाण चढ़ाया तभी धरती, आसमान एवं नदियाँ कांपने लगी ओर सभी जीवों के प्राण निकलने को हो गए।


Tuesday

स्वंत्रता दिवस 2023

                          स्वतंत्रता दिवस 2023

                   

15 अगस्त सभी भारतीय नागरिकों के लिए वह विशेष दिन है जब भारत ब्रिटिश शासन के राज से मुक्त हुआ था। 15 अगस्त भारत देश का एक राष्ट्रीय पर्व है जिसे बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है।

भारत में स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई तब से शुरू हुई जब एक ब्रिटिश अधिकारी ने भारतीय क्रांतिकारी मंगल पांडे को गोली मारी, 1857 से 1947 तक यह लड़ाई चलती रही जिसके पश्चात कड़े संघर्षों के बाद से भारत को 15 अगस्त सन 1947 को गोरो के राज से आजादी मिली।

देश को आजादी दिलाने के लिए कई भारतीय क्रांतिकारी सेनानियों ने अपने बलिदान दिए है तब जाके यह आजादी भारत को मिली है।

भारत को आजादी दिलाने वाले स्वतंत्रता सेनानियों में प्रमुख रूप से :- महात्मा गांधी, मंगल पांडे, बाल गंगाधर तिलक, सुभाष चंद्र बोस, लोक मान्य तिलक, लाला लाजपत राय,चंद्रशेखर आजाद एवं खुदीराम बोस आदि शामिल थे।

आजादी की लड़ाई के लिए भारत में कई प्रकार के आंदोलन चलाये गए जिसमें से अंग्रेजो भारत छोड़ो प्रमुख था। कड़े संघर्षो और ब्रिटिश शासन से अत्याचारी सहने के बाद भारत को यह आजादी मिली है।

                  "दिन वो आज आया है

               तिरंगा खुलकर मुस्कराएगा है

              तोड़ कर पराधीनता की बेड़ियों को

              देखो ध्वज कैसे फहराया है।"

15 अगस्त के दिन हर साल भारत के प्रधानमंत्री ऐतिहासिक लाल किले पर तिरंगा फहराने के बाद देश को संबोधित करते हैं। स्कूलों व सरकारी दफ्तरों पर भी तिरंगा फहराया जाता है। राष्ट्रगान गया जाता है। हर जगह देशभक्ति के गीत सुनाई पड़ते हैं, और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है।

स्वतंत्रता दिवस पर राजधानी दिल्ली तथा सभी सरकारी भवनों को रंग बिरंगी लाइटों से सजाया जाता है स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति राष्ट्र के नाम संबोधन देते है।

देश को आजाद हुए कई दशक बीत चुके हैं और इस दौरान देश हर मोर्चे पर दुनिया भर में अपनी धाक जमा चूका है। साइंस टेक्नोलॉजी आर्थिक शिक्षा साहित्य खेल समेत तमाम मोर्चों पर भारत बहुत तरक्की कर चुका है। परमाणु क्षमता संपन्न देश भारत अंतरिक्ष के क्षेत्र में कई उपलब्धियां हासिल कर चुका है चंद्रयान-3 इसका बहुत बड़ा प्रमाण है विकास के हर क्षेत्र में भारत बहुत आगे बढ़ चुका है। आज दुनिया भारत की ओर देख रही है।15 अगस्त सभी भारतीयों के लिए सौभाग्य का दिन है।

            "सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान हमारा

             हम बुलबुले है इसके

             ये गुलसिता हमारा

            सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा।।"


Monday

प्रेमचन्द के कथा साहित्य की प्रासंगिकता

                प्रेमचन्द के कथा साहित्य की प्रासंगिकता
                            

भारतवर्ष पर दो व्यक्तित्व का गहरा प्रभाव रहा है, प्रथम गाँधी का दूसरा साहित्यकार प्रेमचंद का। ये दोनों दो अलग-अलग क्षेत्र् के सरताज होते हुए भी एक दूसरे से जुडे हुए रहे हैं। गाँधी को यह देश राष्ट्रपिता कहता है, तो प्रेमचन्द को ‘उपन्यास सम्राट’ कह कर सम्मानित करता है। गाँधी का महत्त्व इस देश की राजनीति पर जितना रहा है, उससे अधिक सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक परिवेश पर भी पडता है। इस अर्थ में प्रेमचन्द के कथा साहित्य पर गाँधीवाद का प्रभाव से इंकार नहीं किया जा सकता है। हिन्दी साहित्य पर प्रेमचन्द का वैसा ही प्रभाव रहा है जिस तरह से उस दौर में गाँधी का रहा है। प्रेमचन्द ने हिन्दी कथा साहित्य को निश्चित दिशा दी है। प्रेमचन्द आज भी उतने ही प्रासंगिक है जितने अपने दौर में रहे हैं, बल्कि किसान जीवन की उनकी पकड और समझ को देखते हुए उनकी प्रासंगिकता और अधिक बढ जाती है। किसान की दृष्टि से उनकी पकड और समझ को देखते हुए उनकी प्रासंगिकता और अधिक बढ जाती है। किसान की दृष्टि से अगर प्रेमचन्द के कथा साहित्य को यदि पुनः देखा जाए तो कई अर्थों में प्रेमचन्द गाँधी से भी आगे की सोच रखते हुए दिखाई देते हैं। किसान जीवन के यथार्थवादी चित्र्ण में प्रेमचन्द हिन्दी साहित्य में अनूठे और लाजवाब रचनाकार रहे हैं।
प्रेमचंद की आलोचनात्मक पडताल करने वाले नंद दुलारे वाजपेयी भी जब उनके कथा साहित्य के महत्त्व पर विचार करते हैं, तब वे उनकी तुलना तोल्सतोय से करते हुए नजर आते हैं तो आज के रचनाकार रमेश उपाध्याय, प्रेमचन्द को अपने लिए प्रेरक मानते हैं। असगर वजाहत हो या अखिलेश ‘कफन’ कहानी को महत्त्वपूर्ण बताते हैं तो ममता कालिया आज के संदर्भ में ‘सवा सेर गेहूँ’ को महत्त्वपूर्ण मानती हैं।’सारे विवादों, असहमतियों के बावजूद रचनाकार कुछ कारणों से कालातीत होता है, तभी तुलसीदास, कबीरदास और प्रेमचन्द आज भी हमें प्रासंगिक लगते हैं। गहरी अंतर्दृष्टि के जरिए वे सामाजिक व्यवस्था को चित्र्ति करने में सिद्धहस्त रहे हैं। प्रेमचन्द हमें आज और अधिक प्रासंगिक किसान जीवन के संदर्भ में भी लगते हैं। प्रेमचन्द का जितना विरोध आज हो रहा है उससे अधिक अपने जीवन काल में भी हुआ था। उन्हें गाँधीवादी, आदर्शवादी और माक्र्सवादी कहा जाता रहा है, जबकि वे सही अर्थों में देखा जाए तो किसान जीवन के चितेरे होने के कारण आज भी हमें उतने ही नवीन लगते हैं, जितने कल थे। 
प्रेमचन्द का कथा साहित्य जितना समकालीन परिस्थितियों पर खरा उतरता है,उतना ही बहुत हद तक आज भी दिखाई देता है। भले ही देश आजाद है पर महिलाओं, दलितों और किसानों की स्थितियों में बहुत कुछ वैसा ही अन्याय और शोषण दिखाई देता है। उनकी रचनाओं में गरीब श्रमिक, किसान और स्त्री जीवन का सशक्त चित्र्ण उनकी दर्जनों कहानियों और उपन्यासों में हुआ है, ‘सद्गति’, ‘कफन’, ‘पूस की रात’ और ‘गोदान’ में मिलता है। ‘रंगभूमि’, ‘प्रेमाश्रम’ और ‘गोदान’ के किसान आज भी गाँवों में देखे जा सकते हैं जो वैसे ही ऋणग्रस्त और शोषण का शिकार जिस तरह होरी रहा है। जो गाय जैसी महत्त्वाकांक्षा को साथ लिये हुए इस दुनिया से कूच कर जाते हैं। ‘सेवासदन’ की सुमन की तरह कोठे पर बैठने का सिलसिला आज भी बंद नहीं हुआ है। ‘गबन’ उपन्यास का रमानाथ हैसियत से अधिक दिखने की लालसा में सरकारी धन का घपला करता है। प्रेमचन्द के कथा साहित्य में भारतीय समाज के सभी वर्गों, भारतीय जीवन के सभी पक्षों और भारतीय मनुष्य के सभी रूपों का चित्र्ण किया है। उतना दूसरे किसी भारतीय लेखक में शायद ही मिले। उनका रचनात्मक संदर्भ यूरोपीय उपन्यासों से भी भिन्न रहा है। 
प्रेमचन्द जिस दौर में रचनारत थे, उस समय विश्व स्तर पर लू-शुन और मैक्सिम गोर्की भी लेखनी चला रहे थे। इनके अलावा सम्पन्न देशों में साहित्य की स्थिति को कॉडवेल के शब्दों में, ‘मरणासन्न संस्कृति ही कही जा सकती है।’ उस समय प्रेमचन्द गुलामी से लडती जनता को अभिव्यक्त कर रहे थे तो चीन के लू-शुन भी। ये दोनों अपनी मुक्ति, राष्ट्रीय मुक्ति और संघर्षरत जनता के लेखक रहे हैं। लेकिन लू-शुन केवल कहानियाँ ही लिखते हैं, प्रेमचन्द कहानियों के अलावा उपन्यास भी लिखते हैं। तब जब दुनिया में उपन्यास मर रहा था ऐसे दौर में प्रेमचन्द ने कथा साहित्य के इस रूप को अपनी ऊँचाई तक पहुँचाकर ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि हासिल की हैं। बंगाल के शरतचन्द्र और रवीन्द्रनाथ के ‘गोरा’, ‘श्रीकांत’ की तुलना प्रेमचन्द के ‘प्रेमाश्रम’ और ‘गोदान’ से करने पर वे अनूठे रचनाकार नजर आते हैं। प्रेमचन्द देश की विशाल जनता, खेतिहर देश के श्रमिक और किसानों की महागाथा लिखने वाले भारतीय साहित्यकार रहे हैं। प्रेमचन्द के कई प्रेरक रहे हैं। उन पर तोल्सताय का प्रभाव किसान जीवन पर लिखने से रहा है। आश्चर्य है कि तोल्सताय का लेखन जहाँ रूकता है, वहाँ से प्रेमचन्द शुरुआत करते हुए लगते हैं। लेकिन दोनों में बहुत बडा अंतर भी दिखाई देता है, तोल्सताय अंतर्विरोधग्रस्त लगते हैं, प्रेमचन्द नहीं। वे अंतिम समय में चर्च के पादरी अधिक लगने लगते हैं। प्रेमचन्द भले ही आर्य समाज से शुरुआत करते हैं पर लगातार क्रांति की दिशा में अग्रसर होते हैं। गोर्की भी अंतिम समय में ईश्वर की तलाश में भटकते नजर आते हैं। ‘प्रेमचन्द कभी भी ईश्वर से इतने परेशान नहीं थे, जितने गोर्की रहे होंगे।’
प्रेमचन्द के कथा साहित्य की प्रासंगिकता को कई तरह से देखा जा सकता है। इस अर्थ में प्रेमचन्द हमारे लिए चुनौती है कि हम उन्हें कितना कम जानते हैं। रमेश उपाध्याय लिखते हैं कि जब भी मैं उनको पढता हूँ, वे आज भी उतने ही नये लगते हैं। कमलकिशोर गोयनका उनको चुनौती देते हैं जो मानकर चलते हैं कि प्रेमचन्द पर बहुत काम हो चुका है। वे आज भी इस लेखक पर कई तरह से काम करने की जरूरत महसूस करते हैं। अभी भी प्रेमचन्द की रचनाओं की समग्र कालक्रमानुसार सूची नहीं बन सकी है। इस कमी के कारण गलत तथ्य, गलत निष्कर्ष दिये जाते हैं। नन्द दुलारे वाजपेयी, डॉ. मदान और रामविलास शर्मा तक के यहाँ भी गलत तिथियाँ देखी गई है।प्रेमचन्द पर गाँधीवादी प्रभाव को लेकर असमंजस, अंतविर्रोध और अस्पष्टता का कोहरा आज भी पूरी तरह से छंट नहीं सका है। प्रेमचन्द पर गाँधीवाद का प्रभाव आज तक चर्चा में है। 
देश की राजनीति पर एक मात्र् गाँधी का वर्चस्व था। गाँधी ने आजादी की लडाई को सुचिंतित दिशा प्रदान की थी। राजनीति में राष्ट्रीय चरित्र् निर्माण का जैसा काम गाँधी ने किया वैसा साहित्य में प्रेमचन्द ने किया है। डॉ. बच्चन सिंह व प्रो. केसरी कुमार प्रेमचन्द को गाँधीवाद के प्रतिनिधि लेखक मानते हैं। वे हिन्दी साहित्य को प्रेमचन्द का केवल इसलिए ऋणी नहीं मानते कि स्वदेशी आंदोलन व अछूतोद्धार को गाँव-गाँव पहुँचाया, क्योंकि ये सारे काम करने वाले गाँधी रहे हैं। क्या प्रेमचन्द गाँधी के भक्त थे ? ऐसे ढेरों सवाल आज भी मुंह बाये खडे मिलते हैं। शिवरानी देवी ने ‘प्रेमचंद घर में’ पुस्तक में जो लिखा है, उनमें से एक घटना उल्लेखनीय है। प्रेमचन्द गाँधी जी से वर्धा से मिलकर लौटते हैं। बात ही बात में गाँधी जी की प्रशंसा सुनकर शिवरानी ने साफ शब्दों में कह बैठती है, ‘‘तुम गाँधी के चेला होकर लौटे हो !’’ प्रेमचन्द ने बताया जो बात वे कह रहे हैं, वह मैं ‘प्रेमाश्रम’ में किसानों के बारे में पहले से ही लिखता चला आ रहा हूँ और गाँधी भी तो यही कह रहे हैं।4 इस उद्धरण से विचारकों ने मान लिया कि प्रेमचन्द गाँधीवादी थे। प्रगतिशील उन्हें माक्र्सवादी साबित करने में लग रहे हैं। दरअसल हिन्दी साहित्य में गाँधीवादी, प्रेमचन्द के बजाए जैनेन्द्र कहे जा सकते हैं। 
प्रेमचन्द पर गाँधीवाद का प्रभाव वैसे ही था जिस तरह तोल्सताय का रहा है। प्रेमचन्द की कई बातों पर गाँधी से असहमतियाँ रही है। जिन किसानों की अहम् भूमिका गाँधी के आंदोलन में रही है, वे प्रेमचन्द की रचनाओं में भी प्रमुख रूप से दिखाई देते हैं। किसान एक ऐसी कडी रही है जिससे ये दोनों अलग-अलग क्षेत्र् के व्यक्तित्व समान रूप से जुडे हुए दिखाई देते हैं। गाँधी के यहाँ किसान कठपुतली की तरह है तो प्रेमचन्द के यहाँ आजाद है। अगर किसान जमींदार के खिलाफ, मजदूर पूँजीपति के खिलाफ खडे होते तो गाँधी उन्हें तुरन्त रोक देते हैं। गाँधी के यहाँ किसान की जो स्थिति रही है वही प्रेमचन्द के यहाँ नहीं थी। इससे यह साबित होता है कि प्रेमचन्द न गाँधीवादी थे और न ही उनके अंधभक्त थे। प्रेमचन्द के उपन्यास और कहानियों में किसान-जमींदार की टकराहटें खूब सुनाई देती हैं। प्रेमचन्द गाँधीवाद के प्रचारक मात्र् नहीं थे और न ही गाँधी के सत्याग्रह की वकालत ही करने वाले थे। नामवर सिंह स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं, ‘प्रेमचन्द के साहित्य में केवल गाँधीवाद की गहरी छाप देखना गाँधी जी के समस्त विचारों की छाया देखना और यह कहना कि अंत में न सही तो आरम्भिक दिनों में वे गाँधीवादी थे ही, सरासर गलत है, ज्यादती है।’नामवर सिंह गाँधी के प्रभाव को सिरे से ही नकार रहे हैं तो दूसरी तरफ बच्चन सिंह की राय अधिक सच लगती है, ‘प्रेमचन्द गाँधीवाद से प्रभावित थे। उनका आरम्भिक उपन्यास, ‘प्रेमाश्रम’ गाँधीवाद के प्रभाव में ही लिखा गया था। हृदय परिवर्तन द्वारा रामराज्य स्थापना करना इनका ध्येय रहा था। उन पर गाँधी की कार्यप्रणाली, जीवन दर्शन और व्यक्तित्व के प्रति प्रेमचन्द की गहरी श्रद्धा रही है। यह प्रभाव प्रारम्भिक रचनाओें में अधिक दिखाई देता है जो गोदान तक आते-आते मुक्त होने लगते हैं।’ यह सही है कि प्रेमचन्द पर गाँधीवाद का प्रभाव रहा है पर आरम्भिक दौर में जैसा जितना प्रभाव होता है, वैसा बाद तक नहीं रह पाता है। 
स्वाधीनता संग्राम में किसानों की भूमिका को राजनीति में समझने वाले पहले गाँधी थे जो साहित्य में प्रेमचन्द कहे जा सकते हैं। जबकि किसान की भूमिका को राजनीति में साम्यवादी भी नहीं समझ सके थे। किसान के महत्त्व को दोनों ने अपनी- अपनी तरह से समझा था और आगे चलकर दोनों के रास्ते भी अलग हो जाते हैं, क्योंकि गाँधी किसान को जमींदारों के विरोध में जाने से रोकते हैं। पर प्रेमचन्द के कथा साहित्य में प्रमुख रूप से किसानों का संघर्ष जमींदारों, साहूकारों और पटवारियों से होता है। गाँधी के लिए आजादी के आंदोलन म जितनी आवश्यकता किसान की थी उतनी ही जमींदारों, पूँजीपतियों की भी होती है। वे आंदोलन में सबको साथ लेकर चलना चाहते थे। ऐसी किसी तरह की मजबूरी रचनाकार के नाते प्रेमचन्द की नहीं थी, जैसे राजनीति में गाँधी की रही है। गाँधी के स्वराज्य में रामराज्य की परिकल्पना निहित होती है, जबकि प्रेमचन्द का स्वराज अलग तरह का रहा है। प्रेमचन्द गाँधी की आध्यात्मिकता और रहस्यवादिता की धारणा से मुक्त रहे हैं। देश की सत्तर फीसदी आबादी किसान को वास्तविकता में समझने वाले पहले रचनाकार साबित होते हैं। किसान जीवन से जुडा आधुनिक महाकाव्य लिखते हैं। वे एक तरफ किसान आंदोलन से जुडा ‘प्रेमाश्रम’ (1922) लिखते हैं, जिसमें किसान जमींदार के खिलाफ तनकर खडे मिलते हैं तो दूसरी तरफ ‘रंगभूमि’ (1924) का सूरदास छोटी-सी जमीन का मालिक होते हुए भी पूँजीपति से सीधा संघर्ष करता है। ‘कर्मभूमि’ (1932) ‘प्रेमाश्रम’ की अगली कडी के रूप में हैं। इसमें किसान के अलावा छात्र्, मजदूर, हिन्दू, मुसलमान, गरीब-अमीर सभी लोग हैं। ‘गोदान’ (1936) में आते-आते भारतीय किसान की दयनीय व वास्तविक स्थिति से सीधा साक्षात्कार होता है। 
भारतीय उपन्यास साहित्य में किसान जीवन के यथार्थवादी चित्र्ण की परम्परा को फकीर मोहन सेनापति के बाद प्रेमचन्द ने विकसित किया है। ‘भारतीय उपन्यास और प्रेमचन्द’ पर मैनेजर पाण्डेय विचार करते हुए लिखते हैं, ‘प्रेमचन्द के कथा साहित्य में मध्यवर्ग भी है, लेकिन केन्द्रीय स्थिति किसान-जनता की ही है। यहाँ किसानों का जीवन संघर्ष ही केन्द्रीय विषय है। किसान जिस शोषण के शिकार थे, उस शोषण के पेचीदा तंत्र्, उसकी जटिल प्रक्रिया और उसकी भयानक परिणति का चित्र्ण प्रेमचन्द ने किया है।7 इनके कथा साहित्य के लगभग सभी नायक किसान ही रहे हैं। किसान जीवन के विभिन्न रूप, जीवन संघर्ष और मुक्ति संघर्ष में लगे किसान के विभिन्न रूप दिखाई देते हैं। इनके यहाँ किसान जीवन समग्रता म चित्र्ति होता है। कथा साहित्य में किसान को केन्द्र में रखकर उनकी वास्तविकता और आकांक्षाओं का कलात्मक चित्र्ण कर उपन्यास की विशिष्ट यथार्थवपादी परम्परा का निर्माण किया है। उनका किसानों से प्रेम और सहानुभूति साफ दिखाई देती है, जब किसान संघर्ष करते हुए हारने के बावजूद जीतते हैं और सामंतवाद हारता है। उनकी रचनाओं को किसान जीवन का ‘ट्रैजिक महाकाव्य’ कह सकते हैं। इस ट्रैजिक स्थिति का ‘रंगभूमि’ में कलात्मक स्तर प्रकट होता है तो ‘गोदान’ कला का चरमोत्कर्ष है। प्रेमचन्द के हाथों हिन्दी उपन्यास की ‘कर्मभूमि’ ही नहीं बदलती, बल्कि उसका ‘कायाकल्प’ भी होता है। ‘गोदान’ उपन्यास किसान जीवन का मर्मस्पर्शी, करुण और त्रसद दस्तावेज बन जाता है। प्रेमचन्द के कथा साहित्य में जीवनानुसार भाषा का प्रयोग हुआ है। हर वर्ग, जातियों की सांस्कृतिक जडें उसकी भाषा में निहित होती है। मालती-मेहता, रमानाथ और देवीदीन खटीक और होरी-धनिया की किसान संस्कृति की भाषा अलग दिखाई देती है। सही कहते हैं मैनेजर पाण्डेय कि ‘शेखर एक जीवनी के शिल्प और भाषा में ‘गोदान’ नहीं लिखा जा सकता है।’ होरी की भाषा में शेखर का द्वंद्व नहीं आ सकता है, ठीक वैसे ही किसानों आदिवासियों और दलित समुदाय की अभिव्यक्ति के लिए भारतीय जनजीवन की भाषा और बोली का रचनात्मक प्रयोग हुआ है। लोक से जुडी अनुभूति दलित से लेकर आदिवासी तक की परम्परा भारतीय कथा साहित्य में रही है। बंगला की महाश्वेता देवी से लेकर गोपीनाथ महंती तक यह परम्परा जाती है। किसान, आदिवासी और दलित जीवन भारतीय आमजन रहा है। 
किसी रचनाकार की प्रासंगिकता इस बात में भी है कि वे सार्वकालिक होते हैं जो रचनाकार की जीवंतता ही है। गाँधी का हरिजन व अछूतोद्धार और प्रेमचंद का दलित पात्रें पर कलम चलाना आज बहस में है। फिर भी वे दलित पर कलम चलाने से एक नयी बहस के घेरे में हैं। सही लिखते हैं गोयनका जी की प्रेमचन्द पर शोध होना आज भी जरूरी है प्रेमचंद पर काम बंद नहीं हुआ है। एक नये फ्रंट के रूप दलित संदर्भ में पुनः उनकी पडताल जारी है। डॉ. धर्मवीर ‘सामंत का मुंशी’, ‘प्रेमचन्द की नीली आँखें’ रत्न कुमार सांभरिया ‘मुंशी प्रेमचंद और दलित’ लिख रहे हैं तो जनसत्ता के मंच पर कल तक भी वे बीच बहस में होते हैं। तो दूसरी तरफ रूप नारायण सोनकर अगर ‘कफन’, ‘सद्गति’ और ‘दूध का दाम’ और ‘सुअरदान’ लिख रहे हैं तो यह चुनौती ही है कि कौन अधिक दलित चेतना सम्पन्न है ? दलितों पर जितना आज सोचा- विचारा जा रहा है, उस दौर में प्रेमचन्द पहले साहित्यकार रहे हैं जिन्होंने आज की चिंता उस दौर में व्यक्त की थी। दोनों की चिंताएँ एक होते हुए एक समान नहीं है। क्या कोई कल्पना कर सकता है कि जिस गाय की पूँछ को पकड कर इस भवसागर से पार पाया जा सकता है उस मिथ को दूसरे मिथ (सूअरदान) का सामना करना पड जायेगा ? प्रेमचन्द की दलित चेतना को चुनौती देता दलित साहित्य वर्तमान में कितने ही सवाल जड रहा है ? तभी डॉ. बच्चन सिंह ‘हिन्दी साहित्य का दूसरा साहित्य’ म दलित साहित्य की पडताल करते हुए सलाह देते हैं, ‘दलित साहित्यकारों को अपने हित में यह जिद्द छोडनी पडेगी कि दलित साहित्य दलित ही लिख सकते हैं।’इस संदर्भ में बहस जारी है। 
साहित्य में प्रेमचन्द का कद गाँधी जैसा ही था। इनके धुर विरोधी कहे जाने वाले नन्ददुलारे वाजपेयी को विश्व साहित्यकारों में तोल्सतोय के समकक्ष बताना पडता है तो नामवर सिंह लू-शुन, गोर्की से तुलना करते हुए उन्हें गोर्की और तोल्सतोय से कम अंतर्विरोधग्रस्त मानते हैं। मैनेजर पाण्डेय विचारों से गोर्की के नजदीक और यथार्थवादी चित्र्ण में बालजाक के। जिस रचनाकार ने जीते जी ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि पा ली थी, इस विषय पर उस समय भले ही विवाद हुआ हो पर आज उन्हें सर्वसम्मति से इस तमगे से नवाज दिया गया है, जैसे आजाद कृतज्ञ राष्ट्र गाँधी को राष्ट्रपिता की उपाधि देता है। साहित्य में यह उपाधि पाने वाले प्रेमचन्द अकेले हैं। एक यही रचनाकार है जो वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखे जा रहे हैं तो जिसे लेकर हिन्दी पट्टी में बहस बनी हुई है।

Sunday

महान लेखक प्रेमचंद

                       महान लेखक-प्रेमचंद

                    
मुंशी प्रेमचंद से उनके समकालीन पत्रकार बनारसीदास चतुर्वेदी ने 1930 में उनकी प्रिय रचनाओं के बारे में प्रश्न किया, ‘‘आपकी सर्वोत्तम पंद्रह रचनाएं कौन-सी हैं?

प्रेमचंद ने उत्तर दिया, ‘‘इस प्रश्न का जवाब देना कठिन है। 200 से ऊपर गल्पों में कहाँ से चुनूँ, लेकिन स्मृति से काम लेकर लिखता हूँ- बड़े घर की बेटी, रानी सारन्धा, नमक का दरोगा, सौत, आभूषण, प्रायश्चित, कामना, मंदिर और मस्जिद, घासवाली, महातीर्थ, सत्याग्रह, लांछन, सती, लैला, मंत्र।’’

इन कृतियों को कौन नहीं जानता होगा, कम-से-कम किसी एक रचना का नाम तो अवश्य सुना होगा। ऐसी और भी कई महान रचनाओं का जन्म मुंशी प्रेमचंद की लेखनी से हुआ और वे कृतियाँ दुनिया में अजर-अमर हो गई। उत्तर प्रदेश के वाराणसी से चार मील दूर लमही गाँव में जन्मे मुंशी प्रेमचंद, जिनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था, की आरंभिक शिक्षा उर्दू, फारसी में हुई थी। सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, गबन, गोदान आदि उपन्यासों से लेकर नमक का दरोगा, प्रेम पचीसी, सोज़े वतन, प्रेम तीर्थ, पाँच फूल, सप्त सुमन, बाल साहित्य जैसे कहानी संग्रहों की रचना कर इन्होंने हिंदी साहित्य को एक नई ऊँचाई पर पहुँचाया। इन्हें उपन्यास सम्राट भी माना जाता है। उनकी कहानियाँ अधिकांशत: ग्रामीण भारतीय परिवेश पर आधारित होती थी जिसके माध्यम से वह किसानों एवं निम्न आय वाले परिवारों की हालात का वर्णन किया करते थे। उनकी पहली कहानी संग्रह ‘सोज़े-वतन’, जिसका अर्थ ‘राष्ट्र का विलाप’ होता है, के प्रकाशन पर अंग्रेज सरकार ने रोक लगा दी थी।

प्रेमचंद एक दृढ़ राष्ट्रवादी थे, जिसकी झलक उनकी रचनाओं में बखूबी देखने को मिलती है। लेकिन प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में राष्ट्रवादी नेताओं की स्वार्थ लिप्सा एवं कमज़ोरियों को भी उजागर किया। उन्होंने रंगभूमि एवं कर्मभूमि उपन्यास के ज़रिये शिक्षित राष्ट्रवादी नेताओं को उनकी कमजोरियों का एहसास कराते हुए उन्हें सुधारने का प्रयास भी किया। इन शिक्षित एवं स्वार्थी प्रकृति के लोगों पर व्यंग्य करते हुए ‘आहुति’ में एक स्त्री कहती है- ‘‘अगर स्वराज्य आने पर भी संपत्ति का यही प्रभुत्व रहे और पढ़ा-लिखा समाज यूँ ही स्वार्थान्ध बना रहे, तो मैं कहूंगी, ऐसे स्वराज्य का न आना ही अच्छा। अंग्रेज़ी महाजनों की धनलोलुपता और शिक्षितों का स्वहित ही आज हमें पीसे डाल रहा है। उनकी बुराइयों को क्या प्रजा इसलिये सिर चढ़ाएगी कि वे विदेशी नहीं, स्वदेशी है?’’

प्रेमचंद ने श्रेष्ठ साहित्य के मानकों को रेखांकित करते हुए कहा था कि ‘‘हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, जो इसमें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।’’

प्रेमचंद ने उपर्युक्त आदर्शों एवं मापदंडों को प्रत्येक साहित्यकार हेतु ज़रूरी माना और स्वयं भी इन मानदंडों का अनुपालन किया तथा उन्हीं आदर्शों को ध्यान में रखते हुए अपने कालजयी कृतियों की रचना की। उनकी रचनाएँ जीवन की सच्चाइयों से इतनी भरी हुई थीं कि शायद ही कोई पहलू अछूता रहा हो। उन्होंने उपन्यासों एवं कहानियों के माध्यम से ग्रामीण जीवन के साथ-साथ शहरी जीवन की दुर्दशा का भी सजीव चित्रण किया है। ‘पूस की रात’ कहानी का पात्र ‘हल्कू’ अपनी पत्नी से कंबल खरीदने की इच्छा व्यक्त करता है और जैसे ही उसे साहूकार का कर्ज़ चुकाने की बात याद आती है, तो सारे ख्वाब धुआँ बनकर उड़ जाते हैं।

‘गोदान’ की बात करें तो प्रेमचंद जी ने इसमें सामंतवादी व्यवस्था में जकड़े हुए ग्रामीण जीवन का यथार्थ चित्रण किया है और यह दर्शाने की कोशिश की है कि समाज की कुछ विशेष प्रकार की समाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था से शोषण का जन्म होता है।

उन्होंने समाज में व्याप्त धार्मिक कुरीतियों एवं बाह्य आडंबरों पर भी प्रहार करते हुए उन्हें दूर करने का प्रयास किया। उनकी रचनाएँ सिर्फ मनोरंजन के लक्ष्य से नहीं लिखी गई थीं बल्कि वे अपनी कृतियों के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों पर भी चोट करते थे। ‘सद्गति’ एवं ‘सवा सेर गेहूँ’ कहानियों के माध्यम से उन्होंने बताया कि किस प्रकार लोग वर्तमान जीवन की चिंता छोड़कर परलोक के चक्कर में पुरोहिताई के चंगुल में फँस कर प्राण तक गवाँ देते हैं।

सेवासदन’ प्रेमचंद जी का पहला उपन्यास है जिसमें उन्होंने वेश्याओं की समस्या को प्रमुखता से उठाया है। वेश्यावृत्ति जैसी समस्या हेतु उन्होंने पुरुषों की अधम प्रवृत्ति को ही ज़िम्मेदार ठहराया है। प्रेमचंद जी कहते है कि ‘‘हमें उनसे घृणा करने का कोई अधिकार नहीं है। यह उनके साथ घोर अन्याय होगा। यह हमारी ही कुवासनाएँ, हमारे ही सामाजिक अत्याचार, हमारी ही कुप्रथाएँ हैं, जिन्होंने वेश्याओं का रूप धारण किया है।’’

प्रेमचंद जी ने अपने साहित्य के माध्यम से समाज को एक आदर्श रूप देने हेतु प्रेरणा करने की भी कोशिश की। उन्होंने भारतीय नारी के आदर्श स्वरूप का भी वर्णन किया है। इसकी झलक हमें गोदान की ‘धनिया’ और ‘बड़े घर की बेटी’ में देखने को मिलती है। गोदान की ‘धनिया’ जीवन भर दुख झेलती रही परंतु अपने मान-सम्मान से कभी समझौता नहीं किया। आवश्यकता पड़ने पर आदर्श पत्नी की तरह वह हमेशा ‘होरी’ के साथ खड़ी रही।

प्रेमचंद जी ने समाज में व्याप्त छूआ-छूत, भेदभाव एवं ऊँच-नीच जैसी कुरीतियों का भी गंभीरता से चित्रण किया। समाज में व्याप्त बिखराव से उन्हें बहुत कष्ट होता था। उन्होंने इसे कर्मभूमि, ठाकुर का कुआँ, ‘सदगति’ आदि कहानियों में बहुत बारीकी से उकेरा है। प्रेमचंद जी की कहानियों में कहीं भी सांप्रदायिकता का पुट नहीं रहा। उन्होंने मुसलमान एवं हिंदू पात्रों को उकेरने में कोई भी भेदभाव नहीं दिया एवं हर पात्र के साथ सहृदयता बरती। उनकी प्रमुखता आर्थिक-सामाजिक समस्याओं को चित्रित करने पर रहती थी, न कि जाति या धर्म पर। मुंशी प्रेमचंद ने हमेशा मनुष्य के अंदर छिपे देवत्व को उभारने की कोशिश की, जिसे बड़े घर की बेटी एवं पंच परमेश्वर कहानियों में आसानी से देखा जा सकता है।

प्रेमचंद की लेखनी में वर्णन की अद्भुत क्षमता विद्यमान है। उनकी भाषा द्वारा घटनाओं के दृश्य साकार हो उठते हैं। प्रेमचंद की प्रमुख कथा शैली वर्णनात्मक है एवं कहानियों में संवाद-शैली के अच्छे उदाहरण मिल जाते हैं। प्रेमचंद ने साहित्य के असली उद्देश्य से परिचय कराते हुए ‘साहित्य का उद्देश्य’ नामक कृति में लिखा, ‘‘हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी।’’ क्योंकि अभी तक सुंदरता की तलाश अमीरी और विलासिता के मसलों में की जाती रही थी। प्रेमचंद ने एक नए दृष्टिकोण से परिचय कराते हुए बताया कि साहित्य तो है ही जीवन की अभिव्यक्ति और साहित्य की सर्वोत्तम परिभाषा जीवन की आलोचना है। चूँकि जीवन में आडंबर, पाखंड, सहिष्णुता, संकीर्णता एवं कुटिलता सब कुछ है और इन सबकी धुंध के बीच वहीं किसी कोने में छिपी जीवन की सच्चाई का प्रकाश भी है। इसी प्रकाश को खोजना और उसे सामने लाना ही साहित्य का मुख्य उद्देश्य है।

पहले प्रेमचंद गांधीवादी सोच से प्रभावित थे, इसलिये अपने कथानक को एक आदर्शवादी अंत प्रदान करते थे परंतु जब उनका गांधीवाद से मोह-भंग हुआ तब गोदान, कफन और पूस की रात जैसी नग्न यथार्थवाद से लोगों का परिचय होता है जहाँ प्रेमचंद समस्या का कोई समाधान प्रदान नहीं करते। प्रेमचंद साहित्य को राजनीति का भी पथ-प्रदर्शक मानते हैं। उन्होंने साहित्यकार के महान उत्तरदायित्व को समझते हुए यथासंभव उसका निर्वहन किया। हम पाते हैं कि प्रेमचंद केवल साहित्यकार ही नहीं बल्कि सामाजिक समस्याओं के चिंतक भी थे। उनकी इस प्रवृत्ति की झलक उनके साहित्य में स्पष्ट है। आज प्रेमचंद जैसे सामाजिक चिंतकों की इस समाज को बेहद ज़रूरत है जो उनकी भाषिक और वैचारिक समझ द्वारा व्यक्त होती है।

                                                      Yaduvanshi 

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