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हिंदी की बाल फिल्मों का इतिहास और चरित्र

 

हिंदी सिनेमा को शुरू हुए आज लगभग सौ वर्ष बीत चुके है। इस दौरान वह कई दौर से गुज़र चुका है। इसमें बच्चों के भी दुनिया शामिल है। अभी तक बाल फिल्मों को वह स्थान नहीं मिल सका जो उसे मिल जाना चाहिए था। लेकिन इसके बावजूद भी बच्चों को लेकर जो फिल्में बनी हैं। उन्हें स्वीकारा गया है। अन्य भारतीय के मुकाबले हिंदी में बाल सिनेमा का निर्माण अधिक हुआ है। राजकपूर से लेकर आमिर खान तक ने बच्चों को केंद्र में रखकर बाल सिनेमा का निर्माण किया है। ये सिनेमा सिर्फ मनोरंजन ही नहीं कराते बल्कि बच्चो से जुड़ी समस्याओ की ओर भी ध्यान आकर्षित कराते है। अस्सी के दशक में आयी फिल्म "मिस्टर इंडिया" थी जो अदृस्य मानव को लेकर बनी थी। इस फिल्म के केन्द्र में बच्चे ही थे। यह अपने समय में काफी पसंद की गई फिल्मों में से एक कही जा सकती है।

"तारे जमीन पर" इस फिल्म में दिखाया गया है कि हर बच्चा खास होता है उसमें कुछ ना कुछ स्पेशल होता है। यह कहानी डिस्लेक्सिया (dyslexic) से जूझ रहे बच्चे की है जो पढ़ाई में कमजोर है और हमेशा डांट खाता है लेकिन उसकी आर्ट बहुत अच्छी है। उसकी असली ताकत पहचानने में उसकी मदद उसके एक अध्यापक राम शंकर निकुम्भ या "निकुम्भ साहब" (आमिर खान) करते हैं जिसका रोल आमिर खान ने किया है।



 "स्टेनली का डिब्बा" ​स्टेनली एक ऐसा बच्चा है, जो किसी वजह से अपना टिफिन नहीं ला पाता। उधर पढ़ाने वालों में एक हिन्दी के टीचर वर्माजी (अमोल गुप्ते) भी हैं, जो अपना लंच बॉक्स नहीं लाते।वर्माजी बच्चों के खाने पर नीयत लगाए रहते हैं। बच्चे अपने टिफिन में से स्टेनली को तो खिलाना चाहते हैं, पर वर्मा सर को नहीं। वर्मा सर इसी बात को लेकर स्टेनली से चिढ़ते हैं। टिफिन के मामले में वर्मा सर स्टेनली को अपना दुश्मन समझते हैं। दूसरे टीचर वर्मा सर को बार-बार टिफिन लाने की हिदायत देते हैं। वर्मा सर उस पर तो ध्यान देते नहीं और लगभग उन्हीं शब्दों में वही हिदायत स्टेनली को पास कर देते हैं।



नील माधव पंडा की नेशनल अवॉर्ड विनिंग फिल्म 'आय एम कलाम' यह कहानी एक ऐसे बच्चे की हैएक गरीब राजस्थानी लड़के छोटू कहानी है जो पी जे अब्दुल कलाम का बहुत बड़ा प्रशंसक है और उनसे मिलना चाहता है. फिल्म का कथ्य गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रहे नन्हें छोटू के इर्द-गिर्द घूमता है, जो विपरीत परिस्थितियों में जोश और जज्बे को बनाए रखता है. छोटू की प्रेरणा पूर्व राष्ट्रपति पी जे अब्दुल कलाम हैं। कलाम के एक भाषण को सुनने के बाद जीवन के प्रति छोटू का नजरिया बदल जाता है. दिन भर बाल मजदूरी के बाद शाम को किताबों के साथ वक्त गुजार कर छोटू अपनी पढ़ाई पूरी करने की हर संभव कोशिश करता है. छोटू को यकीन है कि एक दिन वह पी जे अब्दुल कलाम जैसी बड़ी शख्सियत बनेगा।



"चिल्लर पार्टी "मासूम बच्चो के एक ऐसे समूह की कहानी है जो एक राजनेता के खिलाफ खड़े होकर एक आवारा कुत्ते की जिंदगी बचाकर सबका दिल जीत लेते है। फिल्म की कहानी चंदन नगर कॉलोनी की है | कॉलोनी में बच्चों की गैंग है, लेकिन कोई एक दूसरे को उनके वास्तविक नाम से नहीं बुलाते | सभी के अपने नाम हैं | जो उन्हें उनके स्वभाव के मुताबिक दिये गये हैं | पढ़ाई में तेज होने की वजह से तकोई इनसाइक्लोपीडिया बन जाता है तो मस्ती करनेवाला जंघिया, जो चुप रहता है वह साइलेंसर है | अच्छी बालिंग करनेवाला अकरम है, बड़े भाई का कपड़ा पहननेवाला सेकेंड हैड है। फिल्म में हर बच्चे ने अपना किरदार बखूबी निभाया है | खासतौर से जंघिया के किरदार ने बच्चों का भरपूर मनोरंजन किया है | कह सकते हैं कि बच्चों के विभिन्न रंगों का इंद्रधनुष है यह फिल्म | जहां एक ही फिल्म में लगभग सारे नजर जाते हैं | हिंदी सिनेमा में ऐसी फिल्मों की सख्त जरूरत है | चिल्लर पार्टी अंगूर का वह पेड़ है, जिसके कुछ खट्ठे हैं ,कुछ मीठे. लेकिन फिर भी लाजवाब हैं |


फिल्म "फरारी की सवारी "सपने टूटने और सपने साकार होने के बीच तीन पीढयों के सम्बन्ध और समझदारी  की कहानी है। यह पारिवारिक रिश्ते की डोर को बहुत ही प्रभावशाली तरीके से पेश करती है। एक पिता जिसके लिए उसका बेटा और उसके बेटे की इच्छाएं ही सबकुछ हैं एक छोटा लड़का जिसके लिए क्रिकेट सिर्फ एक खेल नहीं बल्कि उसकी जिंदगी का एक अहम हिस्सा है।इन दो किरदारों और उनके दिल की गहराई में बसने वाली भावनाओं का ताना बाना है। "फरारी की सवारी" ।"चेन कुली की मेन कुली"एक अनाथ बच्चें करण की कहानी है। 13 वर्षीय इस बालक की दो इच्छाएँ हैं। भारतीय ‍टीम में क्रिकेट खेलना और उसे कोई माता-पिता मिलें।इस फिल्म के अंदर जिस प्रकार से यह दिखाया गया है की किस प्रकार से  एक लड़का अपनी प्रतिभा और काबिलियत से ज्यादा एक बैट को अपना लक मान लेता है। उस बैट से खेलते-खेलते उसकी किस्मत पलटति है और वह भारतीय टीम में शामिल हो जाता है। जिस अनाथलाय में करण रहता है उसी के अंदर  राघव नाम का उसका एक  दुश्मन रहता है। वह एक मैच के दौरान करण का बैट तोड़ देता है। करण को लगता है कि अब वह वैसा कमाल नहीं दिखा पाएगा। तब टीम का कप्तान वरूण उसे समझाता है कि जादू उस बैट में नहीं वरन् तुम्हारे अंदर है। करण अपना आत्मविश्वास हासिल कर लेता है और भारतीय टीम पाँचवे मैच में जीत जाती है। इस तरह यह बच्चो के लिए और बच्चो के हिसाब से एक अच्छी फिल्म है।



"भूतनाथ" फिल्म को भी बच्चो के लिए और बच्चो को केंद्र में रखकर बनाया गया है। इसमें कॉमेडी  के साथ ही इमोशन्स का भी तड़का है। ये एक पारिवारिक फिल्म है जो कि बच्चों से लेकर बड़े बूढ़ो सभी  लोगों को भाएगी। इसमें समाज में मौजूद बुराईयों और परम्पराओं को बचाने का प्रयास किया गया है। बी.आर.चोपड़ा की यह फिल्म जिसका निर्देशन विवेक शर्मा ने किया है। इसमें बंकू और भूतनाथ के रिश्ते ने खोती जा रही संयुक्त परिवार कि  अवधारणा और परिवारों के बिखर रहे मूल्यों के प्रति सचेत किया है। हिंदी फिल्मों में बच्चों की मौजूदगी ने संवेदना के स्तर पर बहुत प्रभावित किया है।


"पाठशाला" फिल्म में समाज और बच्चो के भविष्य के साथ हो रहे खिलवाड़ को दिखाने को कोशिश की गई है। यह टाचर्स और बच्चो के माता पिता की आँखों को खोलने वाली फिल्म है। इसमें स्कूली बच्चो से सम्बंधित मुद्दों को प्राथमिकता दी गई है। इस तरह से इसको बाल फिल्म के रूप में प्रस्तुत किया गया है।बम बम  बोले "फिल्म  भी बाल फिल्म है। इसमें दो छोटे भाई बहन है। एक दिन गलती से भाई अपनी बहन के जूते गुम कर देता है। उनका परिवार गरीब है दूसरे जूते नहीं ले सकते इसलिए दोनों मिलकर कोई रास्ता ढूढ़ते है। एक ही जूते दोनों भाई बहन बारी-बारी से  पहन कर स्कूल जाते है। एक दिन स्कूल में एक प्रतियोगिता होती है। उसमे लड़का तीसरे नंबर पर आना चाहता है क्यूंकि तीसरे नंबर पर पुरस्कार जूता रखा गया है। लेकिन वह उस प्रतियोगिता में हिस्सा  उसमे वह पहला स्थान पाता है। जिस से वह खुश नहीं होता,बल्कि वह दुखी हो जाता है। क्योकि वह जो चाह रहा था उसे वह अब नहीं मिल सकता। यही इस फिल्म का मार्मिक प्रसंग है। जो सभी को भावुक कर देता है। यह फिल्म बच्चो की मानसिकता को छूती है। शायद इसी लिए इस फिल्म को बाल फिल्म का भी दर्जा दिया गया है।



अगर बात क्षेत्रीय बाल फिल्मों की करे तो मराठी की "श्वास" और सिन्धी की "हारून अरुण "का नाम बाल फिल्मों के रूप में लिया जा सकता है। श्वास फिल्म के अंदर  छोटा सा बच्चा हैं। जिसकी आँखों में कुछ तकलीफ हो गई है और उसे देखने में कुछ परेशानी होने लगी है। उसके दादा उसे डॉक्टर के पास ले जाते है,  डॉक्टर उस बच्चे शहर में दिखाने की सलाह देता है। संवेदना की स्तर पर यह फिल्म काफी मार्मिक है।

"हारून अरुण "यह फिल्म स्वंत्रता पृष्ठ भूमि आधारित है। देश विभाजन के समय हज़ारों बच्चे भी प्रभावित हुए थे। हारून और अरुण सीमा रेखा के पास रहते है। वे दोनों दोस्त हैं। अरुण की माँ हारून को अपना बेटा मानती है विभाजन की त्रासदी को इस फिल्म दिखाया गया है। यह हमारी सांस्कृतिक विशेषता है कि हम मानवता को सबसे पहले स्थान  देते है। बाल फिल्मों का समाज और बच्चो पर सकारात्मक असर पड़ता है। इनमे बच्चो के चरित्र के माध्यम से बच्चे देखते और सीखते है,इसलिए ऐसी फिल्मो का और निर्माण होना चाहिये।

बच्चों के लिए बाल फिल्म सोसाइटी का गठन भी किया गया है,यह  सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के तहत एक स्वायत्तशासी निकाय की तरह काम करती है।

 यह संस्था ऐसी फिल्मों को बढ़ावा देती है जों बच्चों का स्वस्थ और सर्वांगीण मनोरंजन प्रदान करकॆ उनका दृष्टिकोण व्यापक और दुनिया की चारों ओर सॆ प्रतिबिंबित करने में प्रोत्साहित कर सके। यह संस्था देश भर में फिल्म प्रदर्शन का भी आयोजन कराती  है, जहां सालाना लगभग चालीस लाख बच्चे इसका लाभ उठातॆ है। भारत में बच्चों कॆ फिल्मों के आंदोलन को मजबूत बनाने के लिए और दुनिया भर में भारतीय निर्मित बच्चों कॆ फिल्मों को बढ़ावा देने के लिए यह संस्था प्रतिबद्ध है।

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि लगभग एक दशक में काफी फिल्मों का निर्माण हुआ है।जो देश में बाल फिल्म के निर्माण को बल प्रदान  करने में सहायक है। विदेशो की तरह अगर हमारे यहाँ भी बाल फिल्मों को मुख्य धारा में जगह मिले तो निश्चित रूप से देश में बाल फिल्म का भविष्य उज्जवल होगा,  और उसे नई दिशा मिलेगी\

Thursday

मूक सिनेमा और बोलती फिल्में और भारतीय सांस्कृतिक अस्मिता:

 मूक सिनेमा और बोलती फिल्में और भारतीय सांस्कृतिक अस्मिता:

     

    देश की पहली सवाक (बोलती) फिल्म 'आलम आरा'  के पोस्टरों पर विज्ञापन की ये पंक्तियां लिखी हुईं थीं " वे सभी सजीव हैं, सांस ले रहें हैं, शत प्रतिशत बोल रहे हैं अठहत्तर मुर्दा इंसान जिंदा हो गए, उनको बोलते, बातें करते देखो।" 14 मार्च 1931 की वह ऐतिहासिक तारीख भारतीय सिनेमा में बड़े बदलाव का दिन था इस दिन पहली बार भारत के सिनेमा ने बोलना सीखा था पहली  बोलती फिल्म जिस साल प्रदर्शित हुई, उसी साल कई मूक फिल्में भी विभिन्न भाषाओं में बनी। मगर इसी समय बोलती फिल्मों का नया दौर शुरू हो गया था।

     पहली बोलती फिल्म आलम आरा बनाने वाले फिल्मकार थे अर्देशिर एम. ईरानी। अर्देशिर ने 1929 में हॉलीवुड की एक एक बोलती फिल्म 'शो बोट' देखी और उनके मन में बोलती फिल्म बनाने की इच्छा जगी एक इंटरव्यू में  अर्देशिर ने उस वक्त कहा था ' हमारे पास कोई संवाद लेखक नहीं था, गीतकार नहीं था, संगीतकार नही था।'

अर्देशिर ने फ़िल्म के गानों के लिए स्वयं की धुनें चुनी थी। फिल्म के संगीत में महज तीन वाध तबला, हारमोनियम और वायलिन का इस्तेमाल किया गया। इस फिल्म के पहले पार्श्व गायक बने डब्लू.एम .खान पहला गाना था। ' दे दे खुदा के नाम पर प्यारे, अगर देने की ताकत है।' आलम आरा का संगीत उस समय डिस्क फॉर्म में रिकॉर्ड नहीं किया जा सका, फिल्म की शूटिंग शुरू हुई तो साउंड के कारण ही इसकी शूटिंग रात में करनी पड़ती थी। मूक युग की अधिकतर फिल्मों को दिन के प्रकाश में शूट कर लिया जाता था, मगर आलम आरा की शूटिंग रात में होने के कारण इसमें कृत्रिम प्रकाश व्यवस्था करनी पड़ी।  यहीं से प्रकाश प्रणाली जो आगे फिल्म निर्माण का जरूरी हिस्सा बनी। अर्देशिर की कंपनी ने भारतीय सिनेमा के लिए डेढ़ सौ से अधिक मूक और लगभग सौ सवाक फिल्मे बनाई ।आलम आरा फिल्म 'अरेबियन नाइट्स 'जैसी फैंटेसी थी। फिल्म की नायिका जुबैदा थी ।नायक  विट्ठल थे। 1956 में 'आलम आरा'  के 25 वर्ष पूरे होने पर उन्हें सम्मानित किया गया और उन्हें 'भारतीय सवाक फिल्मों का पिता' कहा गया जब पहली बार सिनेमा ने बोलना सीख लिया सिनेमा में काम करने के लिए अब पढ़े-लिखे अभिनेता अभिनेत्रियों की आवश्यकता शुरू हो गई क्योंकि अब संवाद भी  बोलने भी पढ़ते थे अभिनय भी करना पड़ता था मुख फिल्मों के दौर में तो पहलवान जैसी शरीर वाले स्टंट करने वाले और उछल कूद करने वाले अभिनेताओं से काम चल जाए करता था अब उन्हें संवाद बोलना था और गायन की प्रतिभा की कद्र भी होने लगी थी। 


   


 मूक फिल्मों का दौर 1931 में  'आलमआरा' के आगमन से खत्म हुआ। कलकता में न्यू थियेटर्स, मुम्बई में बॉम्बे टाँकीज, पूना में प्रभात कीज, लाहौर में पंचोली स्टूडियो। इस व्यवस्था के अंतर्गत मासिक वेतन के तहत कलाकार तकनीशियन काम करते थे। धीरे - धीरे राजनीतिक नियंत्रण,सिनेमा और सिनेमाटोग्राफ अधिनियम की स्थापना से सिनेमा पूरी तरह स्थापित हो गया।1932 में 'इंद्रसभा' फ़िल्म बनी। इसी बीच फिल्म को लेकर तमाम प्रयोग भी हो रहे थे जैसे ' बिल्वमंगल'(1932) फिल्म अंशत रंगीन थी। प्रथम पूर्ण रंगीन फ़िल्म थी  ईरानी की 'किसान कन्या' जो 1937 में प्रदर्शित हुईं।1938 में ईरानी ने ही 'मदर इंडिया' बनायी।



  दादा साहब फाल्के की अंतिम फ़िल्म ' गगावतरण' भी इसी वर्ष प्रदर्शित हुईं।इस समय कलकत्ता की न्यू थियेटर्स कंपनी ने सर्वाधिक विविधतापूर्ण फिल्में बनायी। के. एल. सहगल और काननबाला की 'स्ट्रीट सिंगर'(1938) एक महत्त्वपूर्ण फिल्म थी।इस प्रकार उस वर्ष बहुत सी फिल्में आयी गई।1933 में भारतीय फिल्मों की रजत जयंती मनायी गयी। तब भारत फिल्म निर्माण में विश्व में चौथे नंबर पर आ गया था।

    क्षेत्रीय सिनेमा पर एक विंहगम दृष्टी डालें बिना भारतीय सिनेमा की कहानी अधूरी रह जाएगी। अगर 2009 में बनी भारतीय फिल्में के आंकड़े लिए जाएं तो हिंदी में बने 235 कथा- चित्रों के साथ साथ तेलुगु में 218, तमिल मे 190, कन्नड़ में 177, मराठी में 99,मलयालम में 94,बांग्ला में 84, भोजपुरी में 64, गुजराती में 62, उड़िया में17, पंजाबी में 15, अंग्रेज़ी में 9,असमिया में 5, राजस्थानी में 5, कोंकणी में 4, संथाली में 2, हरयाणवी में 1, कोड़वा में 1, मैथली में 1, नागपुरी में 1, राजबंसी में 1, संबलपुरी में 1, मिसिंग में,1 और नेपाली में भी 1 फिल्म का निर्माण किया गया। ये आंकड़े एक विविधतामुलक सिनेमाई राष्ट्रीयता के रूपक का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनके विन्यास पर पहली नज़र डालते ही साफ हो जाता हैं कि सिनेमाई परिदृश्य का इतिहास किसी भी दृष्टी से हिंदी के मुकाबले कम प्रभावशाली नही हैं। बांग्ला और दक्षिण भारतीय सिनेमा का विकास न केवल हिंदी के साथ क़दम से क़दम मिलाते हुए हुआ हैं, बल्कि उसके बिना हिंदी सिनेमा अपने मौजूदा मुकाम पर पहुंच ही नहीं सकते था। क्षेत्रीय सिनेमा हिंदी सिनेमा को फ़िल्म निर्माण के विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिभाओं की निरंतर आपूर्ति का स्त्रोत भी रहा हैं। दूसरे, व्यवसायिक सिनेमा के मामले में क्षेत्रीय फिल्में भले ही हिंदी से बाजी न मर पायी हो, पर कला सिनेमा के संदर्भ में बांग्ला, मलयालम और कन्नड़ सिनेमा ने ही हरावल दस्ते की भूमिका निभायी हैं। 

     कोलकाता के थियेटरों में 'बायस्कोप' को पहली बार 19वीं सदी के आखिरी दशक में पहुंचा। दादा साहेब फाल्के से भी पहले फिल्म निर्माण शुरू कर देने वाले हीरालाल सेन ने रॉयल बायस्कोप कंपनी स्थापित की जिसने मंचित नाटकों के दृश्यों को फिल्मा कर प्रदर्शित किया पहली बांग्ला फिल्म दर्शक में मदन थिएटर के बैनर तले बनी। हिंदी सिनेमा के स्वर्ण युग का नेतृत्व जैन विमल राय ने किया वह एक बांग्ला फिल्मकार ही थे। 

     मराठी चित्रपट के नाम से मशहूर यह सिनेमा हिंदी सिनेमा जितना ही पुराना है दादा साहेब फाल्के द्वारा निर्मित पूरी लंबाई का पहला भारतीय कथा चित्र राजा हरिश्चंद्र मुख फिल्म होने के बावजूद पूरी तरह से मराठी भाषी निर्माण दल की देन होने के कारण आज तक मराठी सिनेमा की श्रेणी में माना जाता है मराठी की पहली सामक फिल्म होने का श्रेय 'अयोध्येचा राजा' को है जो पहली हिंदी सवाक फिल्म आलम आरा के साल भर बाद ही बनी थी। मराठी सिनेमा तरह-तरह के दर्शक वर्ग को आकर्षित करने वाली फिल्में बनाता है इनमें दादा कोंडके द्वारा बनाई गई भविष्य की अत्यंत लोकप्रिय फिल्मों के लेकर स्वास्थ्य और हरिशचंद्राची फैक्ट्री जैसे जय उत्कृष्ट फिल्म भी है जिनमें क्रमश 2004 और 2009 में भारत की ऑस्कर बनने का मौका मिल चुका हैं।

         हिंदी सिनेमा की तरह तमिल सिनेमा ने भी दुनिया के कई देशों में अपनी स्थिति बना ली है श्रीलंका, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, मलेशिया, मॉरिशस ,दक्षिण अफ्रीका, पश्चिम यूरोप और उत्तरी अमेरिका के तमिल डायस्पोरा के कारण यह क्षेत्र भी तमिल फिल्मों के वितरण नेटवर्क के दायरे में आते हैं। दिलीप कुमार की पीढ़ी से लेकर हिंदी के लगभग सभी विख्यात अभिनेता 'मद्रास' की फिल्मों में काम कर चुके हैं। तमिल अभिनेता कमल हासन ने सबसे ज्यादा बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता है। रजनीकांत देश के सबसे महंगे फिल्म कलाकार हैं। 

       बांग्ला और मलयाली सिनेमा के बाद भारतीय कला सिनेमा की तीसरी  उपलब्धि कन्नड़ फिल्म संस्कृति की देन है। 'संस्कार' और 'चोमना दुड़ी' जैसी सराहनीय फिल्में बनाने वाले 'संदलवुड' के नाम से मशहूर इस उद्योग ने गिरीश कासरवल्ली ,जी . वी. अय्यर और गिरीश कर्नाड जैसे फिल्मकार दिए हैं।

         बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के दर्शकों के लिए बनाई जाने वाली भोजपुरी फिल्में भारत से बाहर वेस्टइंडीज ,मॉरीशस, फीजी और दक्षिण अमेरिका के भोजपुरी भाषियों के बीच भी लोकप्रिय है इन फिल्मों का इतिहास 1962 में प्रदर्शित अत्यंत लोकप्रिय कुंदन कुमार द्वारा निर्देशित गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो और 1963 में प्रदर्शित एसएन त्रिपाठी निर्देशित विदेशिया से शुरू हुआ था। नया उछाल 2001 में मोहन प्रसाद द्वारा निर्देशित 'सैयां हमार' की सफलता से आया।

परीक्षा के एक दिन पूर्व दो मित्रों की बातचीत का संवाद लेखन कीजिए-

संवाद लेखन किसे कहते हैं  संवाद लेखन -  वह लेखनी है जिसमें दो या अधिक व्यक्तियों के बीच होने वाली बातचीत को लिखित रूप में व्यक्त किया जाता ह...