Monday

चंपा काले काले अक्षर नहीं चीन्हती कविता का सारांश

                      त्रिलोचन का जीवन परिचय                  

प्रगतिशील काव्य-धारा के प्रमुख कवि त्रिलोचन का जन्म 20 अगस्त 1917 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर के चिरानी पट्टी में हुआ। उनका मूल नाम वासुदेव सिंह था। उपाधि से वह त्रिलोचन ‘शास्त्री’ कहलाए। काशी से अँग्रेज़ी और लाहौर से संस्कृत की शिक्षा के बाद वह पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हुए। उन्हें अरबी और फ़ारसी भाषाओं का भी ज्ञान था। प्रभाकर, वानर, हंस, आज, समाज आदि पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। 

केदारनाथ सिंह उनका कवि-परिचय इन शब्दों में कराते हुए कहते हैं कि ‘‘त्रिलोचन एक विषम धरातल वाले कवि हैं। साथ ही उनके रचनात्मक व्यक्तित्व में एक विचित्र विरोधाभास भी दिखाई पड़ता है। एक ओर यदि उनके यहाँ गाँव की धरती का-सा ऊबड़खाबड़पन दिखाई पड़ेगा तो दूसरी ओर कला की दृष्टि से एक अद्भुत क्लासिकी कसाव या अनुशासन भी। त्रिलोचन की सहज-सरल-सी प्रतीत होने वाली कविताओं को भी यदि ध्यान से देखा जाए तो उनकी तह में अनुभव की कई परते खुलती दिखाई पड़ेंगी। त्रिलोचन के यहाँ आत्मपरक कविताओं की संख्या बहुत अधिक है। अपने बारे में हिंदी के शायद ही किसी कवि ने इतने रंगों में और इतनी कविताएँ लिखी हों। पर त्रिलोचन की आत्मपरक कविताएँ किसी भी स्तर पर आत्मग्रस्त कविताएँ नहीं हैं और यह उनकी गहरी यथार्थ-दृष्टि और कलात्मक क्षमता का सबसे बड़ा प्रमाण है। भाषा के प्रति त्रिलोचन एक बेहद सजग कवि हैं। त्रिलोचन की कविता में बोली के अपरिचित शब्द जितनी सहजता से आते हैं, कई बार संस्कृत के कठिन और लगभग प्रवाहच्युत शब्द भी उतनी ही सहजता से कविता में प्रवेश करते हैं और चुपचाप अपनी जगह बना लेते हैं।’’ 

त्रिलोचन को हिंदी में सॉनेट (अँग्रेज़ी छंद) को स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है। सॉनेट के अतिरिक्त उन्होंने गीत, बरवै, ग़ज़ल, चतुष्पदियाँ और कुछ कुंडलियाँ भी लिखी हैं। मुक्त छंद की छोटी और लंबी कविताएँ भी उनके पास है। काव्य रूपों के अलावे उन्होंने कहानी और आलोचना में भी योगदान किया। ‘धरती’ (1945), ‘दिगंत’ (1957), ‘ताप के ताए हुए दिन’ (1980), ‘शब्द’ (1980), ‘उस जनपद का कवि हूँ’ (1981), ‘अरधान’ (1983), ‘गुलाब और बुलबुल’ (1985), ‘अनकहनी भी कुछ कहनी है’ (1985), ‘तुम्हें सौंपता हूँ’ (1985), ‘फूल नाम है एक’ (1985), ‘चैती’ (1987), ‘सबका अपना आकाश’ (1987), ‘अमोला’ (1990) उनके काव्य-संग्रह हैं। उन्होंने ‘मुक्तिबोध की कविताएँ’ का संपादन किया है। उनकी एक डायरी भी प्रकाशित है। 

वह मैथिलीशरण गुप्त राष्ट्रीय सम्मान से विभूषित हैं। ‘ताप के ताए हुए दिन’ संग्रह के लिए उन्हें 1981 के साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 
                                 

चंपा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती’ कविता धरती संग्रह में संकलित है। यह पलायन के लोक अनुभवों को मार्मिकता से अभिव्यक्त करती है। इसमें ‘अक्षरों’ के लिए ‘काले-काले’ विशेषण का प्रयोग किया गया है जो एक ओर शिक्षा-व्यवस्था के अंतर्विरोधों को उजागर करता है तो दूसरी ओर उस दारुण यथार्थ से भी हमारा परिचय कराता है जहाँ आर्थिक मजबूरियों के चलते घर टूटते हैं। काव्य नायिका चंपा अनजाने ही उस शोषक व्यवस्था के प्रतिपक्ष में खड़ी हो जाती है जहाँ भविष्य को लेकर उसके मन में अनजान खतरा है। वह कहती है ‘कलकत्ते पर बजर गिरे।” कलकत्ते पर वज्र गिरने की कामना, जीवन के खुरदरे यथार्थ के प्रति चंपा के संघर्ष और जीवन को प्रकट चंपा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती का सारांश करती है।
काव्य की नायिका चंपा अक्षरों को नहीं पहचानती। जब कवि पढ़ता है तो चुपचाप पास खड़ी होकर आश्चर्य से सुनती है। वह एक सुंदर नामक ग्वाले की लड़की है तथा गाएँ-भैसें चराने का काम करती है। वह अच्छी व चंचल है। कभी वह कवि की कलम चुरा लेती है तो कभी कागज। इससे कवि परेशान हो जाता है। चंपा कहती है कि दिन भर कागज लिखते रहते हो। क्या यह काम अच्छा है? कवि हँस देता है। एक दिन कवि ने चंपा से पढ़ने-लिखने के लिए कहा। उन्होंने इसे गाँधी बाबा की इच्छा बताया। चंपा ने कहा कि वह नहीं पढ़ेगी।गाँधी जी को बहुत अच्छे बताते हो, फिर वे पढ़ाई की बात कैसे कहेंगे? कवि ने कहा कि पढ़ना अच्छा है। शादी के बाद तुम ससुराल जाओगी। तुम्हारा पति कलकत्ता काम के लिए जाएगा। अगर तुम नहीं पढ़ी तो उसके पत्र कैसे पढ़ोगी या अपना संदेशा कैसे दोगी? इस पर चंपा ने कहा कि तुम पढ़े-लिखे झूठे हो। वह शादी नहीं करेगी। यदि शादी करेगी तो अपने पति को कभी कलकत्ता नहीं जाने देगी। कलकत्ता पर भारी विपत्ति आ जाए, ऐसी कामना वह करती है।



चंपा काल-काल काले-काले अच्छर नहीं चिन्हती
मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है
खड़ी खड़ी चुपचाप सुना करती है
उसे बड़ा अचरज होता हैं:
इन काले चीन्हों से कैसे ये सब स्वर
निकला करते हैं।

व्याख्या – कवि चंपा नामक लड़की, जो की अनपढ़ है, उसकी निरक्षरता के बारे में बताते हुए कहता है कि चंपा काले-काले अक्षरों को नहीं पहचानती। अर्थात उसे अक्षर ज्ञान नहीं है, उसे पढ़ना नहीं आता। जब कवि पढ़ने लगता है तो वह वहाँ आ जाती है। वह उसके द्वारा बोले गए अक्षरों को चुपचाप खड़ी-खड़ी सुना करती है। उसे इस बात की बड़ी हैरानी होती है कि इन काले अक्षरों से ये सभी ध्वनियाँ कैसे निकलती हैं? कहने का तात्पर्य यह है कि वह अक्षरों की ध्वनि व् अर्थ से हैरान होती है।

चंपा सुंदर की लड़की है
सुंदर ग्वाला है: गाएँ-भैंसे रखता है
चंपा चौपायों को लकर
चरवाही करने जाती है
चंपा अच्छी हैं
चंचल हैं
नटखट भी है
कभी-कभी ऊधम करती हैं
कभी-कभी वह कलम चुरा देती है
जैसे तैसे उसे ढूँढ़ कर जब लाता हूँ
पाता हूँ-अब कागज गायब
परेशान फिर हो जाता हूँ

व्याख्या – कवि चंपा के विषय में बताता है कि वह सुंदर नामक एक ग्वाले की लड़की है। वह गाएँ-भैंसें रखता है। चंपा उन सभी पशुओं को प्रतिदिन चराने के लिए लेकर जाती है। वह बहुत अच्छी है और थोड़ी चंचल भी है। वह शरारतें भी करती है। कभी वह कवि की कलम चुरा लेती है। कवि किसी तरह उस कलम को ढूँढ़कर लाता है तो उसे पता चलता है कि अब कागज गायब हो गया है। कवि चंपा की इन शरारतों से कभी-कभी परेशान भी हो जाता है।

चंपा कहती है:
तुम कागद ही गोदा करते हो दिन भर
क्या यह काम बहुत अच्छा है
यह सुनकर मैं हँस देता हूँ
फिर चंपा चुप हो जाती है
चंपा ने यह कहा कि
मैं तो नहीं पढूँगी
तुम तो कहते थे गाँधी बाबा अच्छे हैं
उस दिन चंपा आई, मैंने कहा कि
चंपा, तुम भी पढ़ लो
हारे गाढ़े काम सरेगा
गाँधी बाबा की इच्छा है
सब जन पढ़ना-लिखना सीखें
वे पढ़ने लिखने की कैसे बात कहेंगे
मैं तो नहीं पढूँगी

व्याख्या – कवि कहता है कि चंपा को काले अक्षरों से कोई संबंध नहीं है। वह कवि से पूछती है कि तुम दिन-भर कागज पर लिखते रहते हो। क्या यह काम तुम्हें बहुत अच्छा लगता है। उसकी नजर में लिखने के काम की कोई महत्ता नहीं है। उसकी बात सुनकर कवि हँसने लगता है और चंपा चुप हो जाती है। एक दिन चंपा आई तो कवि ने उससे कहा कि तुम्हें भी पढ़ना सीखना चाहिए। मुसीबत के समय तुम्हारे काम आएगा। वह महात्मा गाँधी की इच्छा को भी बताता है कि गाँधी जी की इच्छा थी कि सभी आदमी पढ़ना-लिखना सीखें। चंपा कवि की बात का उत्तर देती है कि वह नहीं पढ़ेगी। आगे कहती है कि तुम तो कहते थे कि गाँधी जी बहुत अच्छे हैं। फिर वे पढ़ाई की बात क्यों करते हैं? चंपा महात्मा गाँधी की अच्छाई या बुराई का मापदंड पढ़ने की सीख से लेती है। वह न 

पढ़ने का निश्चय दोहराती है।
मैंने कहा कि चंपा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा, तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम सग साथ रह चंपा जाएगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर हैं वह कलकत्ता
कैसे उसे सँदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी।
चंपा पढ़ लेना अच्छा है।

व्याख्या – कवि चंपा को पढ़ने की सलाह देता है तो वह स्पष्ट तौर पर मना कर देती है। फिर कवि चंपा को शिक्षा के लाभ गिनाता है। वह उसे कहता है कि तुम्हारे लिए पढ़ाई-लिखाई जरूरी है। एक दिन तुम्हारी शादी भी होगी और तुम अपने पति के साथ ससुराल जाओगी। वहाँ तुम्हारा पति कुछ दिन साथ रहकर नौकरी के लिए कलकत्ता चला जाएगा। कलकत्ता यहाँ से बहुत दूर है। ऐसे में तुम उसे अपने विषय में कैसे बताओगी? तुम उसके पत्रों को किस प्रकार पढ़ पाओगी? इसलिए तुम्हें पढ़ना चाहिए।
चंपा बोली; तुम कितने झूठे हो, देखा,
हाय राम, तुम पढ़-लिख कर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करूंगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को सँग साथ रखूँगी
कलकत्ता मैं कभी न जाने दूँगी
कलकत्ते पर बजर गिरे।
व्याख्या – कवि द्वारा चंपा को पढ़ने की सलाह पर वह उखड़ जाती है। वह कहती है कि तुम बहुत झूठ बोलते हो। तुम पढ़-लिखकर भी झूठ बोलते हो। जहाँ तक शादी की बात है, तो मैं शादी ही कभी नहीं करूंगी। और यदि कहीं शादी भी हो गई तो मैं अपने पति को अपने साथ रखेंगी। उसे कभी कलकत्ता नहीं जाने दूँगी। दूसरे शब्दों में, वह अपने पति का शोषण नहीं होने देगी। चंपा यहाँ तक कह देती है कि परिवारों को दूर करने वाले शहर कलकत्ते पर वज्र गिरे। वह अपने पति को कलकत्ता से दूर रखेगी।


                                

Sunday

घर की याद

                   घर की याद पाठ का सार और व्याख्या

                     

जीवन परिचय-भवानी प्रसाद मिश्र का जन्म 1913 ई. में मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में हुआ। इन्होंने जबलपुर से उच्च शिक्षा प्राप्त की। इनका हिंदी, अंग्रेजी व संस्कृत भाषाओं पर अधिकार था। इन्होंने शिक्षक के रूप में कार्य किया। फिर वे कल्पना पत्रिका, आकाशवाणी व गाँधी जी की कई संस्थाओं से जुड़े रहे। इनकी कविताओं में सतपुड़ा-अंचल, मालवा आदि क्षेत्रों का प्राकृतिक वैभव मिलता है। इन्हें साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान, दिल्ली प्रशासन का गालिब पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इनकी साहित्य व समाज सेवा के मद्देनजर भारत सरकार ने इन्हें पद्मश्री से अलंकृत किया। इनका देहावसान 1985 ई. में हुआ।


रचनाएँ-इनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं

सतपुड़ा के जंगल, सन्नाटा, गीतफ़रोश, चकित है दुख, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, अनाम तुम आते हो, इदं न मम् आदि। गीतफ़रोश इनका पहला काव्य संकलन है। गाँधी पंचशती की कविताओं में कवि ने गाँधी जी को श्रद्धांजलि अर्पित की है।

काव्यगत विशेषताएँ-सहज लेखन और सहज व्यक्तित्व का नाम है-भवानी प्रसाद मिश्र। ये कविता, साहित्य और राष्ट्रीय आंदोलन के प्रमुख कवियों में से एक हैं। गाँधीवाद में इनका अखंड विश्वास था। इन्होंने गाँधी वाडमय के हिंदी खंडों का संपादन कर कविता और गाँधी जी के बीच सेतु का काम किया। इनकी कविता हिंदी की सहज लय की कविता है। इस सहजता का संबंध गाँधी के चरखे की लय से भी जुड़ता है, इसलिए उन्हें कविता का गाँधी भी कहा गया है। इनकी कविताओं में बोलचाल के गद्यात्मक से लगते वाक्य-विन्यास को ही कविता में बदल देने की अद्भुत क्षमता है। इसी कारण इनकी कविता सहज और लोक के करीब है

कविता का सारांश

इस कविता में घर के मर्म का उद्घघाटन है। कवि को जेल-प्रवास के दौरान घर से विस्थापन की पीड़ा सालती है। कवि के स्मृति-संसार में उसके परिजन एक-एक कर शामिल होते चले जाते हैं। घर की अवधारणा की सार्थक और मार्मिक याद कविता की केंद्रीय संवेदना है। सावन के बादलों को देखकर कवि को घर की याद आती है। वह घर के सभी सदस्यों को याद करता है। उसे अपने भाइयों व बहनों की याद आती है। उसकी बहन भी मायके आई होगी। कवि को अपनी अनपढ़, पुत्र के दुख से व्याकुल, परंतु स्नेहमयी माँ की याद आती है। वह पत्र भी नहीं लिख सकती।

कवि को अपने पिता की याद आती है जो बुढ़ापे से दूर हैं। वे दौड़ सकते हैं, खिलखिलाते हैं। वो मौत या शेर से नहीं डरते। उनकी वाणी में जोश है। आज वे गीता का पाठ करके, दंड लगाकर जब नीचे परिवार के बीच आए होंगे, तो अपने पाँचवें बेटे को न पाकर रो पड़े होंगे। माँ ने उन्हें समझाया होगा। कवि सावन से निवेदन करता है कि तुम खूब बरसो, किंतु मेरे माता-पिता को मेरे लिए दुखी न होने देना। उन्हें मेरा संदेश देना कि मैं जेल में खुश हूँ। मुझे खाने-पीने की दिक्कत नहीं है। मैं स्वस्थ हूँ। उन्हें मेरी सच्चाई मत बताना कि मैं निराश, दुखी व असमंजस में हूँ। हे सावन! तुम मेरा संदेश उन्हें देकर धैर्य बँधाना। इस प्रकार कवि ने घर की अवधारणा का चित्र प्रस्तुत किया है

                             


आज पानी गिर रहा है, 

बहुत पानी गिर रहा है, 

रात भर गिरता रहा है, 

प्राण-मन धिरता रहा है, 

बहुत पानी गिर रहा हैं,

घर नजर में तिर रहा है, 

घर कि मुझसे दूर है जो,

घर खुशी का पूर हैं जो,

व्याख्या-:उपरोक्त पंक्तियों में कवि अपने घर से दूर जेल की एक कालकोठरी में बंद है। सावन के महीने में खूब बारिश हो रही है जिसे देखकर कवि को अपने घर , परिजनों व उनके साथ बिताए सुखद क्षणों की याद आ रही है।

कवि कहते हैं कि आज बरसात हो रही है। और बहुत पानी बरस रहा हैं अर्थात बहुत बारिश हो रही हैं और यह बारिश रात से ही हो रही हैं। और ऐसे मौसम में मेरे मन व प्राण, दोनों ही अपने घर की यादों से घिर गये हैं। अर्थात बारिश के इस पानी को देखकर कवि को अपने घर व् परिजनों की याद आ जाती है। और कवि कहते हैं कि उन्हें अपनी आंखों के सामने अपना वह घर दिखाई दे रहा हैं जो घर इस समय उनसे दूर है। जो खुशियों का भंडार है। कहने का तात्पर्य यह है कि कवि के घर में खुशियों भरा माहौल था जहाँ सभी लोग मिलजुल कर हंसी-खुशी रहते थे। कैद में होने के कारण कवि इस समय अपने घर से दूर हैं। मगर घर की सुखद स्मृतियां कवि को बेचैन कर रही हैं।

घर कि घर में चार भाई,

मायके में बहिन आई,

बहिन आई बाप के घर,

हाय रे परिताप के घर।

घर कि घर में सब जुड़े हैं,

सब कि इतने कब जुड़े हैं,

चार भाई चार बहिन,

भुजा भाई प्यार बहिने,

व्याख्या:-उपरोक्त पंक्तियों में कवि अपने भाई-बहनों व उनके आपसी संबंधों के बारे में वर्णन कर रहे हैं। कवि कहते हैं कि उनके घर में चार भाई व चार बहनें हैं और उन सभी के बीच अथाह प्रेम है। बहिनें शादीशुदा हैं। और कवि अंदाजा लगाते हैं कि आज वे अपने माता-पिता के घर अर्थात अपने मायके आयी होंगी। (यहाँ पर कवि अपनी बहनों के मायके आने का अंदाजा इसलिए लगा रहे हैं क्योंकि सावन के महीने में रक्षाबंधन का त्यौहार आता है और इस दिन विवाहित बहनें अपने भाई को राखी बांधने अपने मायके आती हैं।) कवि कहते हैं कि लेकिन मायके आकर जब कवि की बहनों को कवि के माता-पिता से कवि के बारे में पता चला होगा तो उन्हें अत्यधिक दुःख पहुंचा होगा। कवि कहते हैं कि मेरे जेल में होने की वजह से घर के सभी लोग दुखी होंगे और मेरा खुशियों से भरा वह घर अब “परिताप का घर अर्थात कष्टों का घर” बन गया होगा। संकट की इस घड़ी में सब एक दूसरे का सहारा बने हुए होंगे। मेरे चार भाई व चार बहनें, सभी में आपस में बहुत गहरा प्रेम संबंध हैं। मेरे चारों भाई भुजाओं के समान एक दूसरे को सहयोग करने वाले अत्यंत बलिष्ठ व कर्मशील हैं अर्थात जिस प्रकार इंसान की भुजाएं उसे हर काम करने में सहयोग करती हैं ठीक उसी प्रकार उनके भाई भी उनके सुख दुःख में उनको सहयोग करते हैं। जबकि मेरी बहनें प्रेम का प्रतीक हैं। यानि वो हम पर अपना अथाह स्नेह व ममता लुटाती रहती हैं।

और माँ‍ बिन-पढ़ी मेरी ,

दुःख में वह गढ़ी मेरी ,

माँ कि जिसकी गोद में सिर ,

रख लिया तो दुख नहीं फिर ,

माँ कि जिसकी स्नेह – धारा ,

का यहाँ तक भी पसारा ,

उसे लिखना नहीं आता ,

जो कि उसका पत्र पाता।

व्याख्याःउपरोक्त पंक्तियों में कवि अपनी माँ के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि मेरी मां अनपढ़ हैं और मेरे जेल में होने की वजह से वह इस वक्त बहुत दुखी होगी। फिर कवि को अपनी मां की ममता भी याद आने लगती है। वो कहते हैं कि अगर मैं अपनी माँ की गोद में सिर भी रख लूँ, तो भी मेरी सारी परेशानियाँ स्वत: ही समाप्त हो जाती हैं। और मेरी मां की स्नेह की धारा अर्थात कवि को उनकी माँ की ममता व प्रेम, जेल की कालकोठरी में भी महसूस हो रहा हैं। कवि कहते हैं कि उनकी मां को लिखना नहीं आता। इसीलिए कवि को उनका कोई भी पत्र हासिल नहीं हुआ।

पिताजी जिनको बुढ़ापा ,

एक क्षण भी नहीं व्यापा ,

जो अभी भी दौड़ जाएँ ,

जो अभी भी खिलखिलाएँ ,

मौत के आगे न हिचकें ,

शेर के आगे न बिचकें ,

बोल में बादल गरजता ,

काम में झंझा लरजता ,

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियों में कवि अपने पिता की शाररिक विशेषताओं के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि भले ही उनके पिता की उम्र हो गई हो मगर अभी भी उनके पिता पर बुढ़ापे का कोई असर नहीं दिखाई देता है। अभी भी वो किसी नौजवान की तरह दौड़ सकते हैं, खिलखिला कर हंस सकते हैं। उन्हें मौत से भय नहीं लगता है और अगर उनके सामने शेर भी आ जाय तो वो उसके सामने बिना डरे खड़े रह सकते है। अर्थात वें बहुत ही निर्भीक व साहसी व्यक्ति हैं। उनकी वाणी में बादलों की सी गर्जना है और वो इस उम्र में भी इतनी तेजी से काम करते हैं कि आंधी तूफान भी उनको देख शरमा जाय। अर्थात वें बहुत फुर्तीले (तेज) हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि कवि के पिता बहुत ही कर्मठ व ऊर्जावान व्यक्ति हैं जिनमें आज भी नवयुवकों के जैसा जोश व उत्साह भरा है।

आज गीता पाठ करके ,

दंड दो सौ साठ करके ,

खूब मुगदर हिला लेकर ,

मूठ उनकी मिला लेकर,

जब कि नीचे आए होंगे ,

नैन जल से छाए होंगे ,

हाय, पानी गिर रहा है ,

घर नज़र में तिर रहा है ,

चार भाई चार बहिनें,

भुजा भाई प्यार बहिनें ,

खेलते या खड़े होंगे ,

नज़र उनकी पड़े होंगे।

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियों में कवि अपने पिता की दिनचर्या के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि हर रोज की तरह आज भी उन्होंने गीता पाठ किया होगा और दो सौ साठ दंड किये होंगे। अर्थात व्यायाम किया होगा। और फिर मुगदर को पकड़कर खूब हिला-हिलाकर व्यायाम किया होगा।और अंत में व्यायाम समाप्त कर मुगदरों की मूठों अर्थात हत्थों को मिलकर एक जगह रखकर , जब वो घर के ऊपरी हिस्से से नीचे आए होंगे तो , घर में अपने लाडले पुत्र को ना पाकर दुख से उनकी आंखों में आंसू भर आये होंगे। अर्थात उनके पिता ने अपनी रोज की दिनचर्या , व्यायाम व पूजापाठ आदि निपटाने के बाद जब घर में अन्य बच्चों के साथ कवि को नहीं देखा होगा तो वो भाव विभोर होकर रोने लगे होंगे। कवि आगे कहते हैं कि अभी भी वर्षा हो रही हैं और बरसते हुए पानी को देखकर मुझे घर की याद आ रही है। उनके चारों भाई और चारों बहनें अभी घर पर होंगे और शायद इस वक्त वो या तो खेल रहे होंगे या यूं ही खड़े होंगे। और पिता जी की नजरें अपने पाँचवें पुत्र अर्थात कवि को खोज रही होंगी।

पिताजी जिनको बुढ़ापा ,

एक क्षण भी नहीं व्यापा ,

रो पड़े होंगे बराबर ,

पाँचवे का नाम लेकर ,

पाँचवाँ हूँ मैं अभागा ,

जिसे सोने पर सुहागा,

पिता जी कहते रहे है ,

प्यार में बहते रहे हैं ,

आज उनके स्वर्ण बेटे ,

लगे होंगे उन्हें हेटे ,

क्योंकि मैं उन पर सुहागा

बँधा बैठा हूँ अभागा ,

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियों में कवि अपने पिता के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि हालाँकि मेरे पिताजी अभी भी पूर्ण रूप से स्वस्थ हैं। बुढ़ापे का उन पर अभी कोई असर दिखाई नहीं देता हैं। मगर जब खेलते हुए मेरे भाई-बहिनों पर उनकी नजर पड़ी होगी । तो वो अपने पाँचवें बेटे यानी कवि को उनके बीच न पाकर दुखी हुए होंगे और उनका नाम लेकर रो पड़े होंगे। कवि कहते हैं कि मैं अपने माता-पिता का पांचवा पुत्र हूँ। वैसे तो मेरे पिताजी अपने सभी बेटों को प्रेम करते थे पर मुझे अपने अन्य बेटों की तुलना में श्रेष्ठ मानते थे। इसीलिए वो मुझे बहुत अधिक प्रेम करते थे। अर्थात अगर वो अपने चारों बेटों को सोने के समान मानते थे तो मुझे सुहागा अर्थात उन सब में भी सबसे बेहतर मानते थे। कवि कहते हैं कि मैं आज उनसे दूर इस जेल में कैद हूँ। इसीलिए आज उनके पिता को अपने स्वर्ण बेटे अर्थात अन्य चारों बेटे भी अच्छे नहीं लग रहे होंगे। क्योंकि उनका सबसे प्यारा बेटा यानि कवि आज उनकी आँखों के सामने नही है। कवि यहाँ पर अपने आप को भाग्यहीन बता रहे हैं क्योंकि वो जेल में हैं। जिस कारण उनके माता-पिता को कष्ट पहुंच रहा है।

और माँ ने कहा होगा ,

दुःख कितना बहा होगा ,

आँख में किसलिए पानी ,

वहाँ अच्छा है भवानी ,

वह तुम्हारा मन समझकर ,

और अपनापन समझकर ,

गया है सो ठीक ही है ,

यह तुम्हारी लीक ही है ,

पाँव जो पीछे हटाता ,

कोख को मेरी लजाता ,

इस तरह होओ न कच्चे ,

रो पड़ेंगे और बच्चे ,

पिताजी ने कहा होगा ,

हाय , कितना सहा होगा ,

कहाँ , मैं रोता कहाँ हूँ ,

धीर मैं खोता , कहाँ हूँ ,

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियों में कवि कहते हैं कि पिता जी को दुखी देखकर माँ अपने मन के दुःख को छिपा कर पिताजी को समझाते हुए कह रही होंगी कि क्यों दुखी हो रहे हो , क्यों आंसू बहा रहे हो। हमारा बेटा भवानी वहां अच्छे से होगा यानि सकुशल होगा। माँ पिताजी को समझाते हुए आगे कहती होंगी कि वह आपके मन की बात को समझकर और आपके बताये मार्ग पर ही तो चल रहा हैं। वह देशसेवा करते हुए ही तो जेल गया हैं। यह तुम्हारी ही परंपरा हैं जिसका उसने पालन किया है। इसीलिए उसने जो किया वो ठीक हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि देशभक्ति का रास्ता पिता ने अपने पुत्र को दिखाया। और बेटा आज उसी राह पर चल पड़ा हैं। आज देश हित ही उसके लिए सर्वोपरि है। माता को अपने पुत्र की देशभक्ति पर नाज है। कवि कहते हैं कि माँ पिताजी को समझाते हुए कह रही होंगी कि उनके बेटा ने देश हित को सर्वोपरि मानकर अपने कर्तव्य का पालन किया हैं। अगर वह ऐसा नही करता और देश सेवा से पीछे हट जाता तो आज मेरी कोख लज्जित होती। मुझे शर्मिंदगी का सामना करना पड़ता। लेकिन वह अपने देश की आजादी के खातिर जेल गया जिस पर मुझे गर्व है।

कवि आगे कहते हैं कि माँ पिताजी को समझाते हुए कह रही होंगी कि आप अपने मन को इतना कच्चा मत करो। अपने मन व भावनाओं पर काबू रखो। अपने आपको मजबूत करो नहीं तो घर के अन्य बच्चे भी आपको रोता देख रो पड़ेंगे। और फिर पिताजी ने अपने आप को संभालते हुए कहा होगा कि अरे नही , मैं कहां रोता हूँ और कहाँ मैं अपना धैर्य धीरज खोता हूँ अर्थात ना तो मैं रो रहा हूँ और ना ही परेशान हूँ।

हे सजीले हरे सावन ,

हे कि मेरे पुण्य पावन ,

तुम बरस लो वे न बरसें ,

पाँचवे को वे न तरसें ,

मैं मज़े में हूँ सही है ,

घर नहीं हूँ बस यही है ,

किन्तु यह बस बड़ा बस है ,

इसी बस से सब विरस है ,

किन्तु उनसे यह न कहना ,

उन्हें देते धीर रहना ,

उन्हें कहना लिख रहा हूँ ,

उन्हें कहना पढ़ रहा हूँ ,

काम करता हूँ कि कहना ,

नाम करता हूँ कि कहना ,

चाहते है लोग , कहना,

मत करो कुछ शोक कहना ,

और कहना मस्त हूँ मैं ,

कातने में व्यस्‍त हूँ मैं ,

वज़न सत्तर सेर मेरा ,

और भोजन ढेर मेरा ,

कूदता हूँ , खेलता हूँ ,

दुख डट कर ठेलता हूँ ,

और कहना मस्त हूँ मैं,

यों न कहना अस्त हूँ मैं ,

व्याख्या – उपरोक्त पंक्तियों में कवि ने सावन को संबोधित करते हुए कहा है कि हे ! सुंदर, आकर्षक व सबको खुशियां प्रदान करने वाले सावन, तुम्हें जितना बरसना हैं तुम बरस लो लेकिन मेरे पिताजी की आंखों को मत बरसने देना। और इस बात का भी ध्यान रखना कि वो अपने पाँचवे पुत्र को याद कर दुखी न हों।कवि सावन से कहते हैं कि तुम जाकर मेरा यह संदेश मेरे पिता को देना कि मैं यहां पर बहुत मजे में हूँ और बहुत खुश भी हूं। बस इतना ही है कि मैं घर पर नहीं हूं। यानि मुझे यहां पर किसी प्रकार का कोई कष्ट नही है। लेकिन इसके बाद कवि स्वयं से कहते हैं कि मैंने उन्हें कह तो दिया कि मैं घर पर नहीं हूँ। बस यही एक दुख है परंतु अपने माता-पिता व घर से दूर होकर जीना कितना कठिन है। यह केवल मैं ही जानता हूँ। अपनों से दूर होने के दुख ने मेरे जीवन के सारे सुखों को छीन कर उसे नीरस बना दिया है। कवि अपनी भावनाओं पर संयम रखते हुए कहते हैं कि हे ! सावन तुम उनसे यह सब मत कहना कि मैं दुखी हूँ, अकेला हूँ। तुम उन्हें धैर्य बंधाते रहना और कहना कि मैं यहाँ लिखता हूँ, पढ़ता हूँ, खूब काम करता हूँ और देश सेवा करके अपना नाम रोशन कर रहा हूँ। कवि आगे कहते कि मेरे माता पिता से कहना कि जेल के सभी लोग मुझे चाहते हैं। और मुझे यहाँ कोई कष्ट भी नही है। इसीलिए वो दुखी ना हो। कवि कहते हैं कि सावन तुम मेरे माता पिता से जाकर कहना कि मैं यहाँ पर मस्त हूँ और सूत कातने में व्यस्त हूँ। मैं यहां खूब खाता-पीता हूँ। इसीलिए मेरा मेरा वजन 70 सेर अर्थात 63 किलो हो गया है। मैं यहां पर खूब खेलता-कूदता हूँ। हर विपरीत परिस्थति का सामना आराम से करता हूँ और मस्त रहता हूँ। अर्थात मैं पूर्ण रूप से स्वस्थ हूँ। कवि सावन से कहते हैं कि उनको यह बिलकुल भी नही बताना कि मैं यहाँ पर दुखी हूँ, निराश हूँ , उदास हूँ नही तो वो दुखी हो जायेंगे।

हाय रे , ऐसा न कहना ,

है कि जो वैसा न कहना ,

कह न देना जागता हूँ ,

आदमी से भागता हूँ ,

कह न देना मौन हूँ मैं ,

ख़ुद न समझूँ कौन हूँ मैं ,

देखना कुछ बक न देना ,

उन्हें कोई शक न देना ,

हे सजीले हरे सावन ,

हे कि मेरे पुण्य पावन ,

तुम बरस लो वे न बरसे ,

पाँचवें को वे न तरसें ।

व्याख्या:उपरोक्त पंक्तियों में कवि सावन से कहते हैं कि मेरी मन स्थिति व मेरे दुखों के बारे में तुम मेरे माता-पिता को गलती से भी मत बताना। तुम उनको यह मत बताना कि मैं रात भर जागता हूँ यानि मैं रात को सो नहीं पाता। आदमियों को देखकर घबरा जाता हूँ। मैं मौन रहने लगा हूँ यानि अब मुझे किसी से बात करना अच्छा नहीं लगता है। और मुझे खुद नहीं पता कि मैं कौन हूँ। हे ! मेरे सजीले सावन, तुम मेरे पिताजी के आगे कुछ भी ऐसा उल्टा-सीधा मत बोल देना जिससे उनको शक हो जाए कि कहीं उनका बेटा किसी दुख या तकलीफ में तो नही हैं। और अंत में कवि ने सावन को संबोधित करते हुए कहा है कि हे ! सुंदर, आकर्षक व खुशियां प्रदान करने वाले सावन तुम्हें जितना बरसना हैं, तुम बरसो लेकिन अपने पाँचवे पुत्र को याद कर मेरे माता-पिता की आंखों को मत बरसने देना।

परीक्षा के एक दिन पूर्व दो मित्रों की बातचीत का संवाद लेखन कीजिए-

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